
Introduction of Gayatri Panchkoshi Sadhna and its Benifits
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 16 Oct 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
SUBJECT: गायत्री पंचकोशी साधना का परिचय एवं उपलब्धियां
Broadcasting: आ॰ अमन जी/ आ॰ अंकुर जी/ आ॰ नितिन जी
आ॰ गोकुल मुन्द्रा जी (जयपुर, राजस्थान)
गत अनुभव शेयरिंग की 4 कक्षाओं में हर एक आयु वर्ग एवं profession के लोगों ने साझा किया । सबके अनुभवों से एक सार तत्त्व निकला की सभी प्रगति के मार्ग पर अग्रसर हैं ।
मानव जीवन के दो लक्ष्य:-
१. मनुष्य में देवत्व का संवर्धन (अंतरंग परिष्कृत) – गायत्री साधना ।
२. धरा पर स्वर्ग का अवतरण (बहिरंग सुव्यवस्थित) – सावित्री साधना ।
एक ही ईश्वर को सभी व्यक्तित्व स्व अनुभूतियों संग भिन्न-भिन्न प्रकार से परिभाषित करते हैं । “हरि अनंत हरि कथा अनंता । कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता ॥”
गायत्री महाविज्ञान के तृतीय खण्ड में गायत्री महामंत्र के practical पंचकोशी साधना की विधा वर्णित है । गायत्री मंजरी में पंचकोशी साधना का परिचय एवं उनकी उपलब्धियों को महादेव व पार्वती संवाद में बताया गया है ।
पंचकोश, आत्मा के 5 चेतनात्मक आवरण:-
१. अन्नमयकोश
२. प्राणमयकोश
३. मनोमयकोश
४. विज्ञानमयकोश
५. आनंदमयकोश
अन्नमयकोश के अनावरण (परिष्कृत/उज्जवल बनाने) के 4 साधन – ‘आसन, उपवास, तत्त्वशुद्धि व तपश्चर्या’ व उपलब्धियां – ‘निरोगता, दीर्घ जीवन व चिर यौवन’ ।
प्राणमयकोश के अनावरण (परिष्कृत/उज्जवल बनाने) के 3 साधन – ‘प्राणायाम, बंध व मुद्रा’ व उपलब्धियां – ‘ऐश्वर्य, पुरूषार्थ, ओज-तेज व यश’ ।
मनोमयकोश के अनावरण (परिष्कृत/उज्जवल बनाने) के 4 साधन – ‘जप, ध्यान, त्राटक व तन्मात्रा साधना’ व उपलब्धियां – ‘आकर्षक व्यक्तित्व, धैर्य मानसिक संतुलन, व एकाग्रता, बुद्धिमत्ता’ ।
विज्ञानमयकोश के अनावरण (परिष्कृत/उज्जवल बनाने) के 4 साधन – ‘सोऽहं साधना, आत्मानुभूति योग, स्वर संयम व ग्रंथि-भेदन’ व उपलब्धियां – ‘अतीन्द्रिय क्षमता, दिव्य दृष्टि, दैवीय गुण व सज्जनता – सहृदयता’ ।
आनंदमयकोश के अनावरण (परिष्कृत/उज्जवल बनाने) के 4 साधन – ‘नाद साधना, बिंदु साधना, कला साधना व तुरीय स्थिति’ व उपलब्धियां – ‘आत्मसाक्षात्कार, ईश्वर दर्शन व अखंड आनंद’ ।
गायत्री साधना (तप जप) से रिद्धियां सिद्धियां मिलती हैं; इनके आकर्षण में साधक को आसक्त नहीं होना होता प्रत्युत् चेतना की शिखर यात्रा ‘ब्रह्मानन्दं परम सुखदं’ (आत्म-परमात्म साक्षात्कार) तक जाना होता है । इसके तीन चरण (त्रिपदा गायत्री):-
१. उपासना (ज्ञानयोग) – approached
२. साधना (कर्मयोग) – digested
३. अराधना (भक्तियोग) – realised
ईश्वर – आदर्शों के समुच्चय के रूप में भी जाने जाते हैं । शक्ति एक – शक्ति धारायें अनेक । एक ही अव्यक्त शक्ति भिन्न-भिन्न स्थितियों में भिन्न-भिन्न स्वरूपों में व्यक्त होती हैं; उन शक्तियों को देवी – देवता (गुण/ आदर्शों) की संकल्पनाओं द्वारा समझने समझाने (शिक्षण) का मार्ग प्रशस्त किया जाता रहा है ।
आत्मीयता के प्रसार (आत्मवत्सर्वभूतेषु) के लिए प्रथम चरण ‘give respect – take respect’ को अपनाया जा सकता है । हम अपनी अनुभूतियों संग सामने वाले की अनुभूतियों को सम्मान दें । नहीं, हमारा ही अनुभव सर्वश्रेष्ठ है – यह अभिमानी बनाता है । इसे मान्यताओं के प्रति आसक्ति (अहंता) के रूप में समझा जा सकता है । विज्ञानमयकोश में ग्रंथि-भेदन साधना से इस अहंता (अभिमान) को गला कर आकाशवत् किया जा सकता है ।
चेतना परिष्कार की इस यात्रा में साधक को गुरू (अज्ञान रूपी अन्धकार को दूर करने वाले ज्ञान रूपी प्रकाश) की आवश्यकता होती है । वो गुरू – पुस्तक, व्यक्तित्व, परिस्थितियां ……. आत्म प्रकाश रूप में स्वयं को व्यक्त कर सकतीं हैं । गुरू दीक्षा का क्रम गुरू अनुशासन (ईशानुशासनं/ आत्मानुशासन) में अपनी साधना ज़ारी रखने हेतु है ।
साधक अपनी साधना (यात्रा) को जारी (नियमित) रखें । श्रद्धा-विश्वास, प्रज्ञा (विवेकशीलता, दूरदर्शिता) व निष्ठा (श्रमशीलता) – साधक के महती गुण हैं ।
ब्रह्माण्ड के संचालन में एक परम शक्ति से उत्पन्न विभिन्न शक्ति धाराओं को विभिन्न योनियों के रूप में समझा जा सकता है (एकोऽहमबहुस्याम्) ।
चरैवेति चरैवेति मूलमंत्र है अपना …।
जिज्ञासा समाधान (श्री लाल बिहारी सिंह ‘बाबूजी’)
आ॰ गोकुल भैया को सुपाच्य सुबोध शिक्षण शैली हेतु नमन है । यह अनुभूत ज्ञान है । “आपोदीप भवः।” गुरूदेव निःसंदेह प्रसन्न होंगे ।
पांच प्राण पांच शक्ति धाराएं – http://literature.awgp.org/book/panch_pran_panch_dev/v2.5
मूर्तियां – खुली पाठ्य पुस्तकें हैं । जब कागज़ कलम की खोज नहीं हुई थीं तब पाषाण पर प्रतीकात्मक लिपि – प्रतिलिपि उकेरी जाती रहीं so that जनसामान्य का शिक्षण-प्रशिक्षण चलता रहें । मंदिर देवालय – विद्यालय स्वरूप और ब्राह्मण – शिक्षक स्वरूप हुआ करते थे । मूर्तियों से आस्था विज्ञान (श्रद्धा – विश्वास) भी जुड़ा हुआ है । इसका भी एक विज्ञान है जो अंतःश्चेतना के परिष्कार में महती भूमिका निभाती है । पात्रता (व्यक्तित्व) के अनुसार लाभान्वित हुआ जा सकता है ।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ।।
Writer: Vishnu Anand
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