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Adhyatm Upanishad – 2

Adhyatm Upanishad – 2

PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 04 Jul 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

SUBJECTअध्यात्म उपनिषद् – 2

Broadcasting: आ॰ अंकुर जी

भावार्थ वाचन – आ॰ किरण चावला जी (USA)

श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

उपनिषद् में ‘उप’ व ‘नि’ उपसर्ग हैं। ‘सद्’ धातु गति के अर्थ में प्रयुक्त होती है। गति शब्द का उपयोग ज्ञान, गमन व प्राप्ति इन तीन अर्थों में होता है। यहां प्राप्ति का अर्थ अधिक उपयुक्त है।
उप – सामीप्येन, नि – नितरां, प्रामनुवन्ति परं ब्रह्मा यया विद्या सा उपनिषद अर्थात् जिस विद्या के द्वारा परब्रह्म का सामीप्य एवं तादात्म्य प्राप्त किया जाता है, वह उपनिषद् है।

पुराणों के रचयिता व्यास जी कहते हैं – सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनंदनः। पार्थो वत्सः सुधीभोंक्ता दुग्धं गीतामृतं महत॥ अर्थात् समस्त उपनिषद गाय के समान हैं, भगवान श्रीकृष्ण दुहने वाले हैं, पार्थ बछड़ा है, गीता रूपी ज्ञानामृत ही दूध है। सद्बुद्धि वाले जिज्ञासु (ज्ञान पिपासु) उसके भोक्ता हैं।

अनन्ता वै वेदाः।” वेद का एक अर्थ ज्ञान भी है। ज्ञान ईश्वर का है। ईश्वर अनन्त हैं अतः ज्ञान भी अनन्त हैं।

आत्मनियंत्रण ‘साधना’ है।

समाधि की अवस्था में वृत्तियाँ केवल आत्मगोचर होती हैं, इसके कारण प्रतीत नहीं होतीं; किन्तु समाधि में से उठे हुए साधक की उन उन्नत वृत्तियों का स्मरण द्वारा अनुमान लगाया जाता है ॥३६॥
अद्वैत‘ की अवस्था में भी ‘बोधत्व’ रहता है।

इस अनादि जगत् में करोड़ों कर्म एकत्र हो जाते हैं, किन्तु समाधि के द्वारा उनका विलय हो जाता है और शुद्ध धर्म की वृद्धि होती है ॥३७॥
भगवद्गीता में ~ यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।4/37।। अर्थ: हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती हैं, वैसे ही ज्ञानाग्नि समस्त कर्मों को भस्म कर देता है।

उत्तम कोटि के योगवेत्ता इस समाधि को ‘धर्ममेघ’ कहते हैं, क्योंकि वह मेघ के समान ही धर्मामृत रूप सहस्रों धाराओं की वर्षा करती है ॥३८॥

इस समाधि के द्वारा वासना का जाल पूर्ण रूपेण लय को प्राप्त हो जाता है एवं जब पुण्य-पाप नामवाला कर्म समूह समूल रूप से विनष्ट हो जाता है, तब (तत्त्वमसि आदि) वाक्यों के माध्यम से पहले परोक्ष -ज्ञान प्रतिभासित होता है और बाद में  हस्तामलकवत् अपरोक्ष बोध को प्रकट करता है ॥३९-४०॥
आँख न मूँदूँ कान न रूँधूँ काया कष्ट न धारूँ, खुले नैन मैं हँस-हँस देखूँ सुंदर रूप निहारूँ।।

भोगने योग्य पदार्थ की उपस्थिति में भी वासना उदित न हो, तब वैराग्य की स्थिति जान लेनी चाहिए और जब अहं-भाव के उदय का अभाव हो जाए अर्थात् जब वैसी परिस्थिति बन जाने पर भी अहं न आये, तब ज्ञान की परम स्थिति जाननी चाहिए ॥४१॥
गुरूदेव कहते हैं कर्म से वैराग्य लेना भारी भूल है। वैराग्य, आसक्ति (वासना, तृष्णा व अहंता) से ली जाती है।

लीन वृत्तियाँ पुनः उदित न हों, तो वह उपरति की स्थिति समझनी चाहिए । इस स्थिति वाला यति ‘स्थितप्रज्ञ’ कहलाता है, जो सदा आनन्दानुभूति करता रहता है ॥४२॥

जिसका आत्मतत्त्व एकमात्र ब्रह्म में ही विलीन हुआ हो, वह निर्विकार और निष्क्रिय हो जाता है । ब्रह्म और आत्मा के एकत्व के अनुसंधान में लीन हुई वृत्ति जब विकल्प रहित और मात्र चैतन्य रूप बन जाती है, तब उसे प्रज्ञा कहते हैं । वह जिसमें सर्वदा विद्यमान रहती है, वह ‘जीवन्मुक्त’ कहलाता है ॥४३-४४॥
निष्क्रियता का अर्थ अकर्मण्यता से नहीं प्रत्युत् अनासक्त/निष्काम से है। संशय-रहित बुद्धि शुद्ध/परिष्कृत ‘प्रज्ञा’ होती है।

शरीर और इन्द्रियों में जिसका अहं-भाव न हो तथा इनके अतिरिक्त अन्य पदार्थों पर भी जिसका ममत्व न हो, वह जीवन्मुक्त कहलाता है ॥४५॥

जो जीव और ब्रह्म में तथा ब्रह्म और सृष्टि में भेद बुद्धि नहीं रखता, वह जीवन्मुक्त कहलाता है ॥४६॥

सज्जनों द्वारा पूजे जाने पर और दुर्जनों द्वारा ताड़ित किये जाने पर भी जिसमें समभाव बना रहे, वह जीवन्मुक्त कहलाता है ॥४७॥

जिसके द्वारा ब्रह्म तत्त्व जान लिया गया है, संसार के प्रति उसकी दृष्टि पूर्ववत् नहीं रहती । इसलिए यदि वह संसार को पूर्व के समान ही देखता है, तो यह जानना चाहिए कि वह अभी तक ब्रह्म भाव को समझा नहीं है और बहिर्मुख है ॥४८॥

जब तक सुख आदि का अनुभव होता है, तब तक इसे प्रारब्ध भोग मानना चाहिए, क्योंकि कोई भी फल पूर्व में क्रिया करने के कारण ही उदित होता है । बिना क्रिया के कोई फल नहीं मिलता ॥४९॥

जिस प्रकार जाग्रत् हो जाने पर स्वप्न रूप कर्म विनष्ट हो जाता है, उसी प्रकार ‘मैं ब्रह्म हूँ’ ऐसा ज्ञान हो जाने पर करोड़ों कल्पों से अर्जित कर्म विलीन हो जाते हैं ॥५०॥

योगी आकाश के सदृश अपने को असङ्ग और उदासीन जानकर भावी कर्मों में किञ्चित् भी लिप्त नहीं होता ॥५१॥

जिस प्रकार सुरा-कुम्भ में स्थित आकाश, सुरा की गन्ध से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार शरीर रूपी उपाधि के साथ संयुक्त रहने पर भी आत्मा उसके गुण-धर्मों से प्रभावित नहीं होता ॥५२॥

उदासीन शब्द को अखंडानंद/ समभाव के अर्थ में लें। गीताकार कहते हैं – योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।। 2.48।।

जिस प्रकार छोड़ा हुआ बाण निर्धारित लक्ष्य को बेधता ही है, उसी प्रकार ज्ञानोदय होने से पूर्व किये गये कर्म का फल अवश्य मिलता है अर्थात् ज्ञान उत्पन्न हो जाने से पूर्व जो कृत्य किये गये थे, उनका फल ज्ञान उत्पन्न हो जाने से विनष्ट नहीं होता ॥५३॥

बाघ समझकर छोड़ा गया बाण यह जान लेने पर कि ‘यह बाघ नहीं गाय है’, रुकता नहीं और वेगपूर्वक लक्ष्य वेध करता ही है, उसी प्रकार ज्ञान हो जाने पर भी पूर्वकृत कर्म का फल मिलता ही है ॥५४॥
गहणाकर्मणोगति।

मैं अजर और अमर हूँ’, इस प्रकार अपने आत्मरूप को जो स्वीकार कर लेता है, वह आत्मरूप में ही स्थित रहता है, फिर उसे प्रारब्ध कर्म की कल्पना ही कैसे हो सकती है ॥५५॥

प्रारब्ध कर्म उसी समय सिद्ध होता है, जब देह में आत्मभाव होता है; परन्तु देह में आत्मभाव रखना इष्ट नहीं है । अस्तु, देह के ऊपर आत्म बुद्धि का परित्याग करके प्रारब्ध कर्म का परित्याग करना चाहिए ॥५६॥

देह के प्रति भ्रान्ति ही प्राणी के प्रारब्ध की परिकल्पना है और आरोपित अथवा भ्रान्त धारणा से जो कल्पित हो, वह सत्य कैसे हो सकता है? जो सत्य नहीं है, उसका जन्म कहाँ से हो और जिसका जन्म नहीं है, उसका विनाश कैसे हो? अस्तु, जो असत् है, उसका प्रारब्ध कर्म कैसे बने ? ॥५७-५८॥

यदि अज्ञान का पूर्ण विलय ज्ञान में हो जाये, तो फिर देह का अस्तित्व ही कैसे रह सकता है, ऐसी शंका जड़  बुद्धि वाले ही करते हैं । बहिर्मुखी दृष्टि वाले को समझाने के लिए श्रुति प्रारब्ध की बात कहती है। ज्ञानियों के लिए या देहादि की सत्यता प्रकट करने के लिए प्रारब्ध का उल्लेख नहीं किया गया है॥५९-६०॥

वस्तुतः परिपूर्ण, आदि-अन्तरहित, अप्रमेय, विकाररहित, सद्घन, चिद्घन, नित्य, आनन्दघन, अव्यय, प्रत्यग्, एकरस, पूर्ण, अनन्त, सब ओर मुख वाला, त्याग और ग्रहण न करने वाला, किसी आधार के ऊपर न रहने वाला और किसी का आश्रय भी न लेने वाला, निर्गुण, क्रियारहित, सूक्ष्म स्वरूप, निर्विकल्प, दोष-दुर्गुण रहित, अनिरूप्य, मन और वाणी द्वारा अगोचर, सत्समृद्ध, स्वतः सिद्ध, शुद्ध, बुद्ध, अनीदृश – वह एक ही अद्वैत रूप ब्रह्म है, उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। इस प्रकार अपनी अनुभूति से स्वयं ही अपनी आत्मा को अखण्डित जानकर सिद्ध हो और निर्विकल्प आत्मा से अपने को सुख पूर्ण स्थिति में प्रतिष्ठित कर॥६१-६४॥
Mediation में एक एक शब्द के अर्थ पर मनन चिंतन निदिध्यासन किया जा सकता है।

(शिष्य कहने लगा) जिस जगत् को अभी मैंने देखा था, वह कहाँ चला गया ? किसके द्वारा वह हटा लिया गया? वह कहाँ लीन हो गया? बहुत आश्चर्य का विषय है कि अभी तो वह मुझे दिखाई पड़ रहा था, क्या वह अब नहीं है?॥६५॥

अखण्ड आनन्द रूप पीयूष से पूरित ब्रह्म रूप सागर में अब मेरे लिए क्या त्याग करने योग्य है? क्या ग्रहण करने योग्य है? अन्य कुछ है भी क्या? यह कैसी विलक्षणता है?॥६६॥

यहाँ मैं न कुछ देखता हूँ, न सुनता हूँ और न ही कुछ जानता हूँ; क्योंकि मैं सदा आनन्दरूप से अपने आत्मतत्त्व में ही स्थित हूँ और स्वयं ही अपने लक्षण वाला हूँ॥६७॥

मैं सङ्ग रहित हूँ,अङ्ग रहित हूँ, चिह्न रहित और स्वयं हरि हूँ। मैं प्रशान्त हूँ, अनन्त हूँ, परिपूर्ण और चिरन्तन अर्थात् प्राचीन से प्राचीन हूँ॥६८॥

मैं अकर्ता हूँ, अभोक्ता हूँ, अविकारी और अव्यय हूँ। मैं शुद्ध बोधस्वरूप और केवल सदाशिव हूँ॥६९॥

65वें से 69वें मंत्र में आत्मबोध होने के उपरांत स्थिति का वर्णन है।

यह विद्या (सदाशिव) गुरु ने अपान्तरतम नामक (देवपुत्र) ब्राह्मण को दी थी । अपान्तरतम ने ब्रह्मा को दी थी । ब्रह्मा ने घोर आङ्गिरस को दी। घोर आङ्गिरस ने रैक्व को दी। रैक्व ने राम (परशुराम) को दी। राम ने समस्त प्राणियों के लिए प्रदान की। यह निर्वाण (प्राप्त करने) का अनुशासन है, वेद का अनुशासन है और वेद का आदेश है। इस प्रकार यह उपनिषद् पूर्ण हुई॥७०॥

जिज्ञासा समाधान

Meditation की गहनता में जाकर हम अवचेतन मन में ‘वासना, तृष्णा एवं अहंता’ के बारीक उलझे रेशों को रूपांतरण विधा द्वारा गलाना/ सुलझाना होता है। इसे ही ‘पुरूषार्थ’ (आत्मसाधना = उपासना + साधना + अराधना @ तप व योग) कहते हैं। ‘आत्मबोध’ होने के उपरांत साधक पुरूषार्थ शुन्य हो जाते हैं @ अद्वैत।

आत्मा (शाश्वत सत्य) के पांच आवरण – पंचकोश अनावरण अर्थात् ज्यों-ज्यों व्यष्टिगत चेतना परिष्कृत होती जाती है हम समष्टिगत चेतना के करीब अर्थात् तादात्म्य स्थापित होने लगती है फलतः विलय विसर्जन @ ब्रह्म सायुज्य से शाश्वत सत्य का बोधत्व होता है। Journey का भी आनंद है @ चरैवेति चरैवेति मूल मंत्र है अपना।

विषयों से निवृत्ति @ उपरति की स्थिति हेतु मनोमयकोश के साधन – तन्मात्रा साधना की भूमिका महती है।

लोभ (पदार्थ जगत से आसक्ति), मोह (संबंधों से आसक्ति) व अहंकार (मान्यताओं से आसक्ति)’ की अनुकूलता में भी जो राग-मुक्त/ अनासक्त/ निष्काम हों, वो ‘वैरागी’ कहे जाते हैं।

सौजन्य युक्त पराक्रम वरणीय हैं।

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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