Pragyopnishad – VI-II- Rishi Prakaran
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 10 Jan 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
Please refer to the video uploaded on youtube.
sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: प्रज्ञोपनिषद् -VI-II – ऋषि प्रकरण
Broadcasting: आ॰ अंकुर जी
टीका वाचन: आ॰ किरण चावला जी (USA)
श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी
भारतीय संस्कृति @ देवसंस्कृति ऐसी प्रथम संस्कृति रहीं जो विश्वव्यापी बनीं। इस संस्कृति के उद्गम, उद्भव, विकास व शोध केंद्र ‘हिमालय’ व ‘शोधार्थी’ ऋषि गण रहें। प्रज्ञोपनिषद् षष्ठम् मण्डल द्वितीय अध्याय – ऋषि प्रकरण में कुल 112 श्लोक हैं।
‘उत्तराखण्ड‘ की गरिमा – देवताओं के निवास एवं ऋषियों के तप साधन से बन पड़ी हैं। ‘आत्मिकी’ व ‘भौतिकी’ की जो ‘विभूतियां’ इस क्षेत्र में खोजी गईं वे ‘मानवता के संवर्द्धन’ में अप्रतिम भूमिका निभातीं रही हैं।
यक्ष युधिष्ठिर संवाद – पण्डित/ विद्वान कुल विद्या के आधार पर नहीं वरन् जिन्होंने ‘चिंतन, चरित्र व व्यवहार’ में आदर्शों का समावेश किया वे होते हैं। वे सद्ज्ञान के भण्डागार बन अपने आचरण से मनुष्य के अंतः करण को ‘पवित्र’ बनाते।
महर्षि द्वैपायन व्यास जी द्वारा 18 पुराणों की रचना में ‘गणेश’ जी का अनवरत सहयोग मिला। ‘देवता’ अनुदान/ सहयोग देने से पहले साधक की – ‘पात्रता’ (सत्पात्र) उसके ‘उद्देश्य’ (सत्प्रयोजन) का सदैव ध्यान रखते हैं। ऐसी ही परख हर विचारशील क्षेत्र में होती हैं।
व्यास परंपरा को पुनर्जीवित करते हुए प्रज्ञावतार युग ऋषि परमपूज्य गुरुदेव श्रीराम का प्रज्ञा पुत्र – पुत्री से यही आशा है की व्यास परंपरा मृतप्राय ना हों अर्थात् इसे अक्षुण्ण बनाए रखना है।
‘परमार्थ‘ की त्रिविध परीक्षा में उत्तीर्ण ‘सत्पात्र’ ही पुरूष्कृत होते हैं। स्वार्थी, आलसी व हेय स्तर के लोग भिक्षुक या तस्करों के भांति लिप्सा पूर्ति के लिए देवताओं के ‘अनुकम्पा’ मात्र मनुहार उपहार के बदले सस्ते मोल के बदले मांगते हैं तो उन्हें ‘निराशा’ ही हाथ लगती हैं।
‘तत्त्वज्ञान‘ का विषय गुढ़ है। विज्ञ जन ही समझने व समझाने का कार्य कर सकते हैं। सर्वसाधारण को कथा (story) शैली रूचिकर लगती है। अतः महर्षि द्वैपायन व्यास जी ने सर्वसाधारण लोकहित हेतु लेखनी उठाई। शिवपुत्र गणेश जी ने व्यास जी के उद्देश्य के महानता को देखकर बिना आवाह्न व निमंत्रण की प्रतीक्षा किए व्यास जी के मदद हेतु प्रस्तुत हुए। व्यास जी बोलते गये व गणेश जी लिखते गये। व्यास जी के लोकहित की साधना ने उन्हें ‘जगद्गुरु’ पद से सुशोभित किया एवं ‘व्यास-पूर्णिमा’ ही ‘गुरू-पूर्णिमा’ बन गईं।
प्रज्ञावतार युग ऋषि श्रीराम ने प्रचंड तप-योग बल से देवता तुल्य ऋषियों के सहयोग से सभी वेद, उपनिषद्, आर्ष आदि ग्रंथों के भाष्य लिखें। उद्देश्य – मनुष्य के ‘चिंतन, चरित्र व व्यवहार’ में आदर्शों का समावेश हो।
नये धर्मग्रंथों के प्रतिपादन का उद्देश्य क्या है? – कुछ पुराने प्रतिपादन परिस्थिति बदल जाने पर अनुपयोगी हो जाते हैं। तब उनके स्थान पर नये सुधार परिवर्तनों की आवश्यकता पड़ती है। नये धर्मग्रंथों के प्रतिपादन का यही उद्देश्य रहा है। गुरुदेव के सत्संकल्पों में “हम परंपरा की जगह विवेक को महत्व देंगे”।
शास्त्रकारों की ‘लेखन साधना’ भी योगाभ्यास व तप साधना का ही एक प्रकार है। ‘गंभीर विचार निर्धारण’ भी वैज्ञानिक अन्वेषणों की तरह एकान्त के उपयुक्त वातावरण में मन व बुद्धि की एकाग्रता से संपन्न होने वाला कार्य है। उच्च स्तरीय साहित्य सृजन में सृजेता की ‘जीवनचर्या, विचार पद्धति व परिस्थिति’ सात्विकता पूर्ण होनी चाहिए।
‘देवसंस्कृति‘ के निर्धारकों ने ऊंचे उद्देश्यों की पूर्ति हेतु ‘सत् साहित्य सृजन’ को ही आत्मकल्याणाय व लोकल्याणाय का समन्वित पुण्य कर्म माना और तन्मयता पूर्वक आजीवन निरत रहें। यही परमार्थ प्रयास उनकी ईश्वर भक्ति रहीं। “भगवान की सच्ची पूजा सत्कर्मों से की जाती है। उन्हें मनुहार, उपहार की ना ही इच्छा रहती है, ना आवश्यकता।”
परिव्राजक मनीषी – 1. आत्मशोधन व 2. तपोबल संवर्धन
निमित्त हिमालय में निवास करते और मनःस्थिति परिपक्व होने पर धर्मप्रचार की पदयात्रा @ तीर्थयात्रा पर निकल पड़ते।
घर बैठे ही देवमानवों से सद्ज्ञान, सत्परामर्श @ उज्जवल भविष्य मार्गदर्शन मिलना एक वरदान के जैसा है। तीर्थों में समय समय पर पर्व आयोजनों का उद्देश्य विचार विनिमय और चुनौतियों का समाधान हुआ करता जिससे समाज में संतुलन व्यवस्था बनी रहती।
भ्रमणशील ऋषकुलों – गुरूकुलों का अधिक प्रचलन था। दिव्य ऋषियों के साथ छात्र मण्डली चलती। ‘विद्यार्थी’ विद्याध्ययन करते, गौ चराते एवं पर्यटन के समय अनेकानेक समस्याओं के ‘स्वरूप, कारण व निवारण’ समझते हुए सद्ज्ञान अर्जित करते। हिमालयवासी ऋषिगण कुछ समय ‘आत्मबल’ संपादन की व्यक्तिगत साधनाएं संपन्न करने के उपरांत प्रवास में रहते और अपनी सादगीपूर्ण जीवन शैली व उत्कृष्ट विचारों से प्रेरणा का प्रसार कर जनसामान्य को पवित्र बनाते।
मनुष्य का सच्चा वैभव ‘सद्ज्ञान’ है। ‘पुरूषार्थ’ के सही स्वरूप को धारण करने हेतु विवेक सद्ज्ञान अनिवार्य है। ‘ज्ञान’ दान करने वाले को सबसे बड़ा दानी माना गया है। अतः तत्त्वदर्शी अपरिग्रही संत संचित विवेकशीलता के कारण कुबेर से भी अधिक धनवान और अनुदान देने वाले माने जाते हैं।
लोक व्यवहार की शिक्षा सामान्य शिक्षक भी दे सकते हैं किंतु जिस ज्ञान से ‘गुण, कर्म व स्वभाव’ परिष्कृत, मानवीय गरिमा के अनुरूप महानता का उद्भव हो – ऐसी अंतः प्रेरणा स्वयं सिद्ध ऋषि व तपस्वी ही दे सकते हैं।
पुरातन काल का ‘सतयुग’ कुछ नहीं केवल मुनि मनीषियों द्वारा उत्पन्न किये और फैलाये गये सद्ज्ञान का ही प्रतिफल था। यह उत्पादन जिस क्षेत्र में होता रहे उसे देवात्मा कहा जाना हर दृष्टि से सार्थक है।
सद्ज्ञान के शरीरधारी देवता ऋषियों ने अनुकूल वातावरण में अनेकानेक पुण्यदाई तीर्थों की स्थापना की। जहां आरण्यक स्तर की गतिविधियां संचालित होतीं और आधा जीवन सांसारिक जीवन में लगाने के उपरांत देव संस्कृति के सच्चे अनुयायी जीवन का उत्तरार्द्ध परमार्थ प्रयोजनों में लगाते।
आरण्यक – प्रकृति के करीब, तपोनिष्ठ ऋषि का संग व शिक्षण हेतु विद्यार्थी निवास व शिक्षक निवास साथ में होते।
साधारण जन आरण्यकों में पापों का प्रायश्चित करने और उज्जवल भविष्य गतिविधियां मार्गदर्शन हेतु आते। उत्कृष्ट चिंतन मनन और ज्ञान की साधना से उनकी सारी कुंठायें दूर हो जाती। अवकाश के समय लोग यहां जीवन साधना के सुत्र सीखते और चिंतन, चरित्र, व्यवहार में आदर्श का समावेश करते।
ऋषियों को सजीव तीर्थ (live pilgrimage) कहा जाता। उन्हें सत् की ‘अराधना व सिद्धि’ से तीर्थ की आत्मा कहा जाता। वे जहां रहते वो स्थान तीर्थ हो जाता। तीर्थों का अवगाहन करने से मनुष्यों के जीवन में आशाजनक सुधार परिवर्तन होते। ऋषियों की व्यक्तिगत योग-साधना व तपश्चर्या इस निमित्त रही की वे सद्ज्ञान का भण्डागार बनें और इस वैभव संपदा से लोककल्याण करें।
हिमालय के गौरवशाली इतिहास का कारण – ऋषि समुदाय का बाहुल्य व उनका उच्चस्तरीय व्यक्तित्व एवं पराक्रम।
‘कलियुग‘ में मानव शरीर पृथ्वी तत्त्व प्रधान है अतः व्रत उपवास के समय जल का सेवन अनिवार्य नियमों में एक है।
प्रश्नोत्तरी सेशन
Highest common factor is called God. प्रेम/ आत्मीयता वे आदर्श हैं जो चराचर जगत में common हैं। आदर्शों के परिशोधन से यह तात्पर्य है कि हम सीमित से असीम बनें @ ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पण्डितः’ @ ‘वसुधैव कुटुंबकम्’।
‘परमार्थ‘ की त्रिविध परीक्षा में हम तप व योग से अर्जित सम्पदा को ‘धन दान, सेवा दान व ज्ञान दान’ से लोकहित में प्रयोग में ला सकते हैं।
जिन साधनों/ तथ्यों से चिंतन – उत्कृष्ट, चरित्र – प्रखर व व्यवहार – शालीन हों। इन त्रिविध आयामों में परिशोधन, पोषण व विकास हो तो वह अपनाया जाए अन्यथा त्याज्य @ तत्सवितुर्वरेण्यं।
‘आत्मिकी‘ व ‘भौतिकी’ दोनों को साथ साथ लेकर चलने वाले विचार प्रवाह संतुलित होते हैं – अंतरंग परिष्कृत व बहिरंग सुव्यवस्थित।
अभेद दर्शनं ज्ञानं @ सा विद्या या विमुक्तये @ ज्ञानेन मुक्ति – ज्ञान है। हमें नित्य उपनिषद् स्वाध्याय करना चाहिए।
गणेश जी ने व्यास जी के भाष्य को सुत्र बद्ध किया। व्यास जी बोलते गये व गणेश जी लिखते गये।
सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा॥ आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥1॥
भावार्थ: ‘सोऽहमस्मि’ यह जो अखंड वृत्ति है, वही परम प्रचंड दीपशिखा है। जब आत्मानुभव के सुख का सुंदर प्रकाश फैलता है, तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रम का नाश हो जाता है,॥1॥
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
No Comments