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Mahopnishad – 2

Mahopnishad – 2

महोपनिषद्-2

(Navratri Sadhana Satra) PANCHKOSH SADHNA _ Online Global Class _ 27 Sep 2022 (5:00 am to 06:30 am) _  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌ ।

SUBJECT: महोपनिषद्-2

Broadcasting: आ॰ अमन जी/ आ॰ अंकुर जी/ आ॰ नितिन जी

टीकावाचन: आ॰ मीना शर्मा जी (शिक्षिका, नई दिल्ली)

शिक्षक बैंच: आ॰ श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (प्रज्ञाकुंज, सासाराम, बिहार) 

(महोपनिषद्) द्वितीय अध्याय में:-
(प्रज्ञावान् मनिषी) श्री शुकदेव जी के स्वयं उद्भुत पारमार्थिक ज्ञान – तत्त्वज्ञान होते हुए भी (गुरू ज्ञान के अभाव में) आत्म-विश्रान्ति 
(आत्मज्ञानी श्री कृष्ण द्वैपायन) पिता श्री व्यासजी के शिक्षण के प्रति पुत्र शुकदेव जी की उपेक्षा
शुकदेव जी का (ज्ञान प्राप्ति हेतु) मिथिला-राज जनक जी के पास जाना
विदेहराज जनक जी द्वारा शुकदेव जी की परीक्षा
शुकदेव – जनक संवाद
बन्धन – मोक्ष का विवेक
जीवन मुक्त स्थिति
विदेहमुक्त स्थिति
शुकदेव जी के भ्रम (संदेह) का निवारण
शुकदेव जी को विश्रांति/ परमशांति (श्रमविहीन + संशय रहित + कामना रहित + आत्मस्थित + शांत + निर्बीज समाधि) की प्राप्ति
…… आदि विषयों का विवेचन है ।

सद्गृहस्थ – परम सन्यासी । सभी देवी देवता सपत्नीक। साधू पुत्र जनयः ।

तीव्र अभीप्सा, आत्मज्ञान (लक्ष्य प्राप्ति) हेतु अनिवार्य ।

पाठ‘ का अर्थ अध्ययन तक के सीमित अर्थ में ना लिया जाए प्रत्युत् शिक्षण/प्रेरणा को चिंतन, चरित्र व व्यवहार में अवतरण रूप में लेवें । हमारे आदर्श व्यक्तित्व/ शक्तिधारा का प्रतिबिंब हमारे व्यक्तित्व (गुण + कर्म + स्वभाव) में प्रतिबिंबित होना चाहिए ।

आत्मज्ञान के प्रति शुकदेव जी की तीव्र जिज्ञासा (अभीप्सा) को देखें की उन्होंने मेरू पर्वतीय क्षेत्र से मिथिलांचल की पैदल यात्रा की । लक्ष्य प्राप्ति हेतु स्वयं की गलाई‌ + ढलाई (तपोयोग) करना होता है ।

जनक जी के द्वारा शुकदेव जी को 21 दिनों तक इंतजार करवाने के उपरांत भी शुकदेव जी उद्विग्न उद्वेलित नही हुए । उन्होंने शब्द रूप रस गंध व स्पर्श के आकर्षण/ आसक्ति से रहित होने की परीक्षा भी उत्तीर्ण की ।
पात्रता जांच उपरांत राजा जनक जी शुकदेव जी को आत्मज्ञान देने हेतु प्रस्तुत हुए ।

यह दृश्य जगत है ही नहीं, ऐसा पूर्ण बोध जब हो जाता है, तब दृश्य विषय से मन‌ की शुद्धि हो जाती है । तब यह ज्ञान पूर्ण हो जाता है और तभी उसे निर्वाण रूपी परमशांति मिल जाती है ।

विदेहमुक्त व्यक्तित्व, जनक कहे जाते थे । व्यास, वशिष्ठ ये सभी पदवी थीं । पात्रतानुसार यह पदवी दी जाती थीं ।

जीवन मुक्त व्यक्तित्व:-
1. शुद्ध वासनाओं से युक्त
2. अनर्थ शून्य जीवन वाले
3. ज्ञेय तत्त्व के ज्ञाता
4. अनासक्त/ निष्काम
5. उद्विग्नता रहित अच्युत
6. साक्षी भाव वाले स्थितप्रज्ञ
7.  अहंता रहित
8. सम्यक रूप से त्यागी
9. अंतर्मुखी, कामना रहित
10. आत्मलीन आत्मस्थित
11. निर्लिप्त
12. अनासक्त कर्म, निः स्वार्थ प्रेम
13. खट्टे, चरपरे, कड़वे, नमकीन, स्वादयुक्त एवं आस्वाद भोजन में एक समान भोजन ग्रहण करने वाला
14. हर हाल मस्त
15. परिष्कृत बुद्धि संपन्न
16. ईर्ष्या द्वेष रहित
17. आत्मा में ही परमात्मतत्त्व की अनुभूति करने वाले
18. सत् असत् से परे
…………… होते हैं ।

जिज्ञासा समाधान

संकल्प की needs आचरण में अवतरण तक होती है । वह ‘साधन’ मात्र है । उसे ‘साध्य’ मानने की भूल मान्यता/ ग्रन्थि विकसित करती है अतः लक्ष्य/उद्देश्य को केंद्रबिंदु रखा जाए @ अद्वैत । साधन की महत्ता उसकी उपयोगिता पर आधारित है । जितनी आवश्यकता/ अनिवार्यता हो उतना use कर लेवें । दुरूपयोग (misuse/ overuse) से बचा जाए ।

आत्मस्थित – मैं आत्मा हूं (शरीर/ पंचकोश मेरा वाहन मात्र है ।)
आत्मविस्मृति – मैं‌ शरीर (पंचकोश) हूँ ।

एकं ब्रह्म द्वितीयो नास्ति । वासुदेव सर्वं इति । ब्रह्माण्ड को ईश्वरीय पसारे के रूप में देखें समझें @ अद्वैत ।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः ।।

सार-संक्षेपक: विष्णु आनन्द

 

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