
Adhyatm Upanishad – 1
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 27 June 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: अध्यात्म उपनिषद् – 1
Broadcasting: आ॰ अंकुर जी
भावार्थ वाचन – आ॰ किरण चावला जी (USA)
श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी
हम ईश्वर को सर्वव्यापी व न्यायकारी मानकर उसके अनुशासन को अपने जीवन में उतारेंगे। हरि व्यापक सर्वत्र समाना। सियाराम मय सब जग जानी। इसकी अनुभूति/ बोधत्व आनन्दमय कोश के अनावरण से संभव बन पड़ती है। अध्यात्म उपनिषद् – आत्मबोधत्व @ अद्वैत तक ले जाती है।
‘ध्यान‘ आत्मसाधना का एक महत्वपूर्ण अंग (साधन) है। अतः अष्टांग योग में इसे उच्चस्तरीय (सातवीं) कक्षा में रखा गया है।
‘ध्यान‘ की तैयारी में गुरूदेव के शब्दों पर ध्यान दें – १. स्थिर शरीर, २. शांत चित्त, ३. कमर सीधी, ४. दोनों हाथ गोदी में (बायां नीचे) दाहिने उपर ५. आंखें बंद … वासना, तृष्णा व अहंता शांत …. भाव समाधि।
5 प्राण – प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान।
5 तत्व – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व आकाश।
5 देव – भवानी, गणेश, ब्रह्मा, विष्णु व महेश।
5 कोश – अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश व आनंदमय कोश।
ध्यान धारणा द्वारा हम पंचकोश अनावरण/ परिष्कृत कर इस बात का बोधत्व कर सकते हैं कि कुछ भी भिन्न नहीं है प्रत्युत् प्रसवन – प्रतिप्रसवन की क्रिया मात्र है। संसार की हर परिवर्तनशील सत्ता में एक अपरिवर्तनशील चैतन्य सत्ता विद्यमान है @ अद्वैत का बोधत्व हमारा लक्ष्य है।
ईशावास्य उपनिषद – ईशा वास्यम् इदं सर्वम् यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम् ।।१।।
तत् एजति तत् न एजति तत् दूरे तत् उ अन्तिके। तत् अन्तः अस्य सर्वस्य तत् उ सर्वस्य अस्य बाह्यतः।।५।। अर्थात् वह आत्मतत्त्व चलता है और नहीं भी चलता । वह दूर है और समीप भी है । वह सबके अंतर्गत है और वही सबके बाहर भी है॥
यः तु सर्वाणि भूतानि आत्मनि एव अनुपश्यति। सर्वभूतेषु च आत्मानं ततो न विजुगुप्सते।।६।। अर्थात् जो मनुष्य समस्त भूतों को आत्मा में ही देखता है और समस्त भूतों में भी आत्मा को ही देखता है, वह फिर किसी से भी घृणा कैसे कर सकता है॥
“सोऽहम वृत्ति” – सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा॥ आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥ भावार्थ: ‘सोऽहमस्मि’ (वह ब्रह्म मैं हूँ) यह जो अखंड (तैलधारावत कभी न टूटने वाली) वृत्ति है, वही (उस ज्ञानदीपक की) परम प्रचंड दीपशिखा (लौ) है। (इस प्रकार) जब आत्मानुभव के सुख का सुंदर प्रकाश फैलता है, तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रम का नाश हो जाता है॥
‘आत्मविस्मृति‘ का अवसर ना देकर सदैव आत्मा में आत्मा का चिन्तन करना चाहिए:
१. अन्नमय कोश की आत्मा – प्राणमय कोश।
२. प्राणमय कोश की आत्मा – मनोमय कोश।
३. मनोमय कोश की आत्मा – विज्ञानमय कोश।
४. विज्ञानमय कोश की आत्मा – आनंदमय कोश।
५. आनंदमय कोश की आत्मा – आत्मा।
६. आत्मा की आत्मा – परमात्मा।
क्रियानाश (निष्काम/ अनासक्त/ वैराग्य भाव) से चिन्ता विनिष्ट होती है और चिन्तानाश से वासना का क्षय होता है। वासना का विनिष्ट हो जाना मोक्ष है और इसे ही जीवन-मुक्ति कहते हैं।
ब्रह्म निष्ठा में कभी प्रमाद ना करें। क्योंकि प्रमाद ही मृत्यु है।
विकल्प (भेद) का मूल कारण ‘चित्त’ है। अतः शांत चित्त – योगश्चित्त वृत्ति निरोधः @ अद्वैत।
वैराग्य का फल ‘बोध’ है। ‘ज्ञान’ का फल ‘उपरति’ (विषयों से निवृत्ति) है। विषयों से निवृत्ति परम तृप्ति है। @ तन्मात्रा साधना।
चित्त के समाधिस्थ होने पर ध्याता, ध्यान विलीन हो जाते हैं अर्थात् केवल ‘ध्येय’ रह जाते हैं @ एकं ब्रह्म द्वितीयो नास्ति। @ अद्वैत।
जिज्ञासा समाधान
ईशावास्य उपनिषद के प्रथम मंत्र में वैराग्य की व्यवहारिक परिभाषा को हम समझ सकते हैं। ईशा वास्यम् इदं सर्वम् यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद् धनम्।। भावार्थ: इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जो भी ये जगत हैं, सब ईशा (ईश्वर) द्वारा ही व्याप्त है । उसके द्वारा त्यागरूप जो भी तुम्हारे लिए प्रदान किया गया है उसे अनासक्त रूप से भोगो। किसी के भी धन की इच्छा मत करो॥
‘जीवात्मा‘ की आत्मविस्मृति (भुलक्कड़ी) होने के कारण उसके ‘आत्मज्ञान’ की बात कही जाती है @ मनुष्य एक भटका हुआ देवता। बोधत्व के बाद जीव, शिव बन जाते हैं। संकीर्णता, राग है तो विस्तृत, वैराग्य है (योगस्थः कुरू कर्मणि)।
स्वयं को संत बना लेना ही केवल बड़ी बात नहीं प्रत्युत् आत्मविस्मृति वाले व्यक्तित्व को साथ लेकर चलने से बात बनती है। ऋषि, मुनि, मनीषी, संत, महात्मा, समाज सुधारक आदि अजीवन ‘सेवा’ में संलग्न रहें।
करत करत अभ्यास ते, जड़मति होत सुजान। रसरी आवत जावत ते शील पर पड़त निशान। श्रद्धा संग अभ्यास (श्रम) रंग लाते हैं। निष्ठा – से एकाग्रता बढ़ती है। श्रद्धा, प्रज्ञा, निष्ठा व श्रमशीलता – सफलता प्राप्त करने हेतु अनिवार्य अंग हैं। स्वाध्याय (अध्ययन + मनन – चिंतन + निदिध्यासन) से ‘ज्ञानयोग’ सहज होता है।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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