पंचकोश जिज्ञासा समाधान (31-10-2024)
आज की कक्षा (31-10-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
सिद्धान्तशिखोपनिषद् में आया है कि रुद्राक्ष धारण करने पर और त्रिपुण्ड धारण करने पर भगवान शिव के दर्शन से प्राप्त पूर्ण मनुष्य के द्वेष आदि दोष स्वतः समाप्त हो जाते है, का क्या अर्थ है
- धारण करने का अर्थ = व्यवहार में धारण करे
इसका सस्ता अर्थ न निकाले - शैवाचार में शिवजी के गुणों (आचार) को अपने जीवन में धारण करने की बात आई थी
- त्रिपुण्ड मस्तक में लगाते है तथा रुद्राक्ष गले में धारण कर रहे है -> यदि मस्तक शुभ व कल्याणकारी विचारों से भरा हुआ है तो भी ईश्वर को पा लेगा
- कल्याण की भावना को शिव कहते हैं
- सभी प्राणियो के देवता शिव है
- सन्मार्ग का अवलम्ब करना ही शिव की पूजा है तो अवलम्बन को धारण करे
चतुष कोण ग्रंथि के उपर भाग में यही ह्विं तत्व गांठ बनाता हुआ आगे चलता है और 108 दचके लगाकर वापस आता है इसका क्या अर्थ है
- यह बह्म ग्रथि के लिए भी कहा जाता है, Thalmus को ही चतुषकोण पीठ कहते है, वही से Brain के चारो Part है -> (Frontal + Occipital + Parietal + Temporal) Lobe, इन चारो को Brain Stem से होकर, Message भेजता है व Control करता है, उसको साधने की बात यहा की जा रही है तथा 108 मर्म बिदुओं की बात यहा की जा रही है -> 96 उपत्तिकाए + 9 चक्र + 3 ग्रंथिया (ऐसी परिकल्पना ऋषियों ने की है)
- जब हम मंत्र जप भी करते हैं तो भी वह सभी तंत्रिकाओं को झंकृत करता है तथा सभी दिशाओं में बाहर भी जाता है
108 = 12 राशिया x 9 ग्रह या
108 = 27 नक्षत्र x 4 चरण - 108 दचके = साधक का जप / ध्यान पूरे Universe को प्रभावित करता है
108 दचको के Calculation में 96 उपत्तिकाए + 9 चक्र + 3 ग्रंथियां ली है तो 3 ग्रंथिया, 9 चक्रो में आ जाती है तो अलग से लेने की क्या आवश्यकता है
- दो को मिला देने से तीसरा रसायन बनता है
- जैसे गंगा व यमुना को मिलाया तो गंगा का भी अस्तित्व में रहा और यमुना का अस्तित्व भी ना रहा, एक नया नाम सरस्वती आ गया
- मूलाधार – स्वादिष्ठान से बने रुद्र ग्रंथि के जागरण का बीज मंत्र लं – वं न होकर क्लीं हो गया, पहले दोनो चक्रों को खोलने के लिए लं वं बीज मंत्र अब न होकर एक नया बीज मंत्र ( नया चाबी ) क्लीं मिल गया जो रुंद्र ग्रंथि का भेदन करेगा
- माता व पिता से पुत्र उपन्न होता है तो उसका गुण कर्म स्वभाव दोनो से ही मिल नहीं रहा, तीसरे में एक स्वतंत्र आत्मा आ जाती है
- नीला रंग + पीला रंग = हरा रंग
- लाल रंग + नीला रंग = काला रंग
- दो अलग अलग धातुओं (metals) को मिलाकर मिश्र धातु (Alloy) बनती है
- परमात्मा (बह्म) + प्रकृति = जीव
- जड़ + चेतन से = जीव की उत्पत्ति होती है
- इसलिए ग्रथियां स्वतंत्र रखी गई
- पीतल भी दो अलग अलग धातुओं से मिलकर बनी है
- मिट्टी व आग को मिलाकर ईंट बनती है
- ईडा व पिंगला के मिलने से सुष्मना बनती है जिसमें रहकर व्यक्ति आध्यात्मिक चिंतन करता है जो न Negative होता है और न ही Positive होता है, इसलिए ग्रंथियों को ऋषियों ने स्वतंत्र रखा
जाबालदर्शनोपनिषद् में आया है कि ईडा नाड़ी में चंद्रमा देवता व पिंगला नाड़ी में सुर्य देवता निवास करते है, पिंगला नाडी से जो सवत्सात्वर जो प्राणमय सुर्य का संक्रमण होता है, उसे विद्वजन महर्षियों ने उत्तरायण की संज्ञा प्रदान की है, इसी भाति ईडा से पिंगला में जो प्राणमय सुर्य का संक्रमण होता है तो उसे दक्षिणायन कहते हैं तथा पिंगला से ईडा में संक्रमण होता हे तो उसे उत्तरायण कहते है, का क्या अर्थ है
- प्राण को दाएं नाक (पिंगला) से खींचकर रोक कर शक्तिचालीनी करने के बाद तथा फिर बांए नाक (ईडा) से छोडा तो यह सुर्यभेदन हो गया -> इससे Heat बढ़ती है तथा इसमें कुण्डलिनी शक्ति उपर उठती है, इसलिए यह उत्तरायण हो गया
- ईडा से पिंगला में संक्रमण में कफ की वृद्धि होती है, कफ बढने पर वह भारी होने के कारण शक्ति को नीचे की तरफ ले जाएंगा, इसलिए इसे दक्षिणायन कहा गया
- उत्तरायण (Heat), प्राण को बढाता है तथा दक्षिणायन (कफ), अपान को बढ़ा देता है
- प्राण की गति ऊपर की तरफ होती है तथा अपान की गति नीचे की तरफ होती है, इसी के अनुरूप इन्हे उत्तरायण व दक्षिणायन कह दिया ऋषियों की भी अपनी अलग भाषा रहती है
जब प्राण वायु सहस्तार चक्र में प्रवेश होता है तब उस समय श्रेष्ठ तत्वों का विचार करते समय महान ऋषियों ने अंतिम विषयो . . .जब प्राण ईडा नाडी के माध्यम से कुण्डलिनी के पास आ जाता है तब उस समय चंद्र ग्रहण काल कहते है, का क्या अर्थ है
- पूज्य गुरुदेव के नाडी शोधन प्रक्रिया में जब ईडा से खीचतें है तो नाभी कंद के पास जाए, वहा पर चंद्रमा का ध्यान करे / चंद्रमा को ग्रहण करे, यही चंद्र ग्रहण कहलाएगा
- उसके (चंद्रमा के) गुणों को ग्रहण करे
- जब पिंगला से श्वास ले तो सुर्य के गुणों को ग्रहण करे, यही सुर्य ग्रहण कहलाएगा
ईशावास्योपनिषद् में आया है कि वे लोग असुर नाम से जाने जाते हैं, वे गहन अंधकार से घिरे रहते है, वे आत्मा का हनन करने वाले लोग, प्रेत लोक में वैसे ही लोको में जाते हैं, तो आत्मा जब मरता ही नही तो आत्मा का हनन कैसे हो गया
- आत्मा का हनन न करने का अर्थ है कि सबको अपने में देखो सबमें अपने को देखो, ऐसा करेंगे तो आत्मा का तेज बढ़ता है, ऐसा नही कर रहे तो काट रहे है, हत्या कर रहे है
- मालिक (ईश्वर) Neutral Gear में रहता है, नौकर (मन, बुद्धि) नहीं
- यदि हम इंद्रियो से या मन व बुद्धि के भाव से जुडे रहेंगे तो नौकर हो गए
- दो पक्षी शरीर के भीतर रह रहे हैं एक जीवात्मा है और दूसरा परमात्मा है, परमात्मा केवल साक्षी भाव में रहता है
- आत्मा के भीतर भी वही परमात्मा है
- प्रेत के भीतर भी वही परमात्मा है तो प्रेत को कष्ट हो रहा है, परमात्मा को कष्ट नहीं होता
- आत्मा का हनन उसने किया जो आत्मा के बारे में कह तो बडी बातें रहा है परन्तु किसी के मरने पर वह रो रहा है या Tension में है तो वह आत्मा के गुणों को अपने में उतार नही पा रहा है, या स्वयं में आत्मा का गुण दिख नही रहा तो मत कहिए कि मै आत्मा हूँ
- ऐसा करने पर अपने को आत्मा नही मान रहे तो असुर कहलाएगे व असुर ही कष्ट भोगते है
- यही बात यहां बताई जा रही है
गीता के 6 वे अध्याय का 30 वा श्लोक में आया है कि जो पुरुष सम्पूर्ण भूतो में सबके आत्म स्वरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव में देखता है उसके लिए मै अदृश्य नहीं होता और मेरे लिए वह अदृश्य नहीं होता, भूतो का यहा क्या अर्थ है
- भूत = पंच भौतिक से बना कोई भी तत्व, उसे भूत कहेंगे, हम भी जीवित भूत है
- प्रेत = स्थूल शरीर के बिना
- ईश्वर को सर्वव्यापी मानेगे
- तो ईश्वर के सिवा कुछ नही है तथा यही केवल कहना ही नही है बल्कि Feel /अनुभव भी करना है
- यदि चोर आ गया भिन्न दिख रहा है तो आप सिपाही बनकर अपना Role अदा करे, वह ईश्वर रूप में अपना Role निभा रहा है, आप अपना निभाए, यह संसार खेलने के लिए ही बना है
प्रेत के कष्ट का स्वरूप क्या होता है
- पांचो शरीर उसके पास होते है
- अन्नमय कोश के छाया शरीर रूप में तथा अन्य 4 कोशों के साथ प्रेत टहलता रहता है
- अन्नमय कोश = Cabinate (स्थूल शरीर) + Motherboard (छाया शरीर)
- उसकी आभा काली होती है तथा उसकी तृष्णा / हाह मिटा नही तो इसलिए शरीर खोजता रहता है तथा अन्य के शरीर का इस्तेमाल अपनी इच्छा / तृष्णा पूरी करने के लिए किया करता है इसलिए उसे कष्ट होता है
जो साक्षी भाव में उन्हे हम परमात्मा मानेंगे तथा जो आत्मा की आत्मा परमात्मा होगी तथा स्थूल शरीर को छोडते समय जैसी कामना व भावना रहती है तो क्या उसी के अनुरूप प्रेत योनि या अगला शरीर मिलता है
- अपनी वासना तृष्णा अहंता को शांत नही किया गया तो प्रेत योनि मिलेगा ही मिलेगा
- भटकती आत्मा को प्रेत योनि कहेंगे
- मनुष्य भटका हुआ देवता है, आज का मनुष्य प्रेत बन गया है, उलटा चलता है
- प्रत्येक जीव यहा 5 कोश धारण किए हैं चाहे खटमल हो या बह्मा हो, पांच कोशो की साधना के अलावा दूसरा अन्य कोई साधना ही नहीं है
- जो इन पांचो कोषों को शुद्ध कर लेगा वह ईश्वर को देख लेगा और तब वह यह जान जाएगा कि मैं प्रेत नहीं हूं वास्तव में ब्रह्म हूं
वांग्मय 13 में पांच कोशो की वृत्तियों में विपर्य का क्या अर्थ है
- विकल्प = Option
- विपर्य = कुछ का कुछ देखना
- जैसे हमने किसी को (जैसे ईश्वर को या भूत को) देखा नही परन्तु किसी के विषय में कुछ का कुछ कल्पना बना लिया तथा उस आधार पर अपना मनन चिंतन चल पड़ता है
- चित्त की वृतिया परिकल्पनाओं को भी मूर्त रूप बनाकर काम करती रहती है परन्तु यर्थात में ऐसा कुछ भी नहीं है
- मनसा भूत (मन का भूत) भी एक प्रकार का विपर्य है
- विपर्य – मतिभम्र की स्थिति का एक नाम है
- उसी के आधार पर सब का जीवन गति चलने लगता है
- ईश्वर को यदि प्रमाण से Proove कर भी देंगे तो भी वह प्रमाणों से परे है
- कहा तक कौन सा Range काम करता है
- प्रत्यक्ष देखने पर भी वह आवश्यक नही कि सत्य है डाक्टर व चोर दोनो ही चाकू का इस्तेमाल करते है
- सत्य कुछ और ही होता है परन्तु ह में कुछ का कुछ दिख रहा है
- आंखो से देखकर यह नही कह सकते कि वही सत्य है
- व्यक्ति अवसर आँखो से देखकर तथा अंहकार भाव से Rigid होकर मूल सत्ता से गिर जाता है
- यह सब मनुष्य के जीवन को प्रभावित करते हैं तो हमें यथार्थ ज्ञान पाने के लिए उपनिषद् पढ़ना चाहिए
- यहा श्लोक में जो अन्त में Abbreviation होता है वह वास्तव में clue होता है ढूढने का, ताकि हम वहा जाकर गहराई से उस विषय को ढूढ़कर पढ सके
- वेदों का Refence काण्ड – सुक्त – मंत्र के रूप में आता है
ऋषि कह्ते है की आने वाले समय भाव प्रधान होगें क्या यह तर्क तथ्य tark tathy एवं सम्वेदना पर आधारित होगा कृप्या प्रकाश डाला जाय
- संत बनने के लिए वेशभूषा की जरूरत नही है, केवल चरित्र चिंतन व्यवहार को सही कर ले
- भाव संवेदना मुख्य है तथा सजल श्रद्धा प्रखर प्रज्ञा भी आवश्यक है
- गुरुदेव ने एक बार कहा कि हम तुमसे केवल दो हाथ आगे है ->एक हाथ संत (सजल श्रद्धा) का तथा दूसरा हाथ ब्राह्मण (प्रखर प्रज्ञा) का
- भाव संवेदना के धनी बनो व उत्कृष्ट चिंतन करो, किसी को टार्चर मत करो
- संसार में अपराध तभी बढ़ता है जब भाव संवेदना शून्य से नीचे जा रहा हो
- आज के समय में, बुद्ध का उत्तरार्ध में आत्मीयता के अलावा सुधार का अन्य कोई मार्ग नहीं, अन्य सभी तरीके फेल होगे 🙏
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