पंचकोश जिज्ञासा समाधान (30-12-2024)
आज की कक्षा (30-12-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
एकाक्षरोपनिषद् में आया है कि आप ही समस्त विश्व – वसुधा के कण कण में जीवनी शक्ति के रूप में विद्यमान है, आप कवियों (मन्त्रद्रष्टा ऋषियों) के आश्रयभूत है, समस्त लोको की रक्षा करने वाले है, आप ही हिरण्यरेता ( अग्नि ) रूप और यज्ञ रूप भी है, आप ही एक मात्र विराट एवं पूर्ण पुरुष हैं,यहा हिरण्यरेता का क्या अर्थ है
- रेत = काम उर्जा, संसार को चलाने के लिए ईश्वर ने किसी ना किसी उर्जा का विस्फोट किए तथा शुरुवात में वे स्वर्णिम किरणो के रूप में थी
- हिरण्य = स्वर्ण / स्वर्णमय किरणों को हिरण्य कहते हैं, इसमें सृजन की शक्ति होती है
- शरीर के भीतर वीर्य शक्ति को उधर्वगमन करके मस्तिष्क तक एकाक्षर (ॐ) पहुंचाता है
- ॐ को तीन अक्षर मत उच्चारण करे, केवल एक ही अक्षर बोलना है
- अ आ इ ई -> ये सभी स्वतंत्र स्वर है’ कोई स्वर किसी से निकला नहीं है
- ॐ लम्बा उच्चारण करने पर नाभी वाला हिस्सा भीतर जा रहा है, इसे उदगीथ भी कह दिया जाता है
- ईश्वर को स्मरण करेंगे या सद्ज्ञान सत्कर्म की बात सोचेगे तो काम उर्जा ज्ञान में बदलने लगेगा
- सुर्य जब उगता है तो अपने भीतर से सुनहरी किरणें निकालता है, जिससे सभी जीव, जीवनी शक्ति पाते हैं इसीलिए उसे हिरण्यवेता कहते हैं
आदित्य ही प्राण स्वरूप और रई ही चंद्र स्वरूप है, इस विराट विश्व में जो कुछ मूर्त और अमूर्त अर्थात स्थूल एवं सूक्ष्म है, वह सब रई ही है अर्थात वह मूर्ति ही रई है तो यहा रई का क्या अर्थ है
- रई = धारण करना
- सुर्य प्राण है, हमें रोशनी देते है तथा चंद्रमा का अपना रोशनी नहीं है तो जो सुर्य की उस रोशनी को धारण करे उसे रई (चंद्रमा) कहते है
- रई – मूलाधार, स्त्री, सावित्री, रात्री, शिष्य, हवनकुण्ड
- प्राण = सहस्तार, पुरुष, सविता, दिन, गुरु, हवन करने वाला
गीता में श्री भगवान बोले कि जो पुरुष कर्म फल का आश्रय ना लेकर करने योग्य कर्म करता है वह संन्यासी तथा योगी है और केवल अन्य का त्याग करने वाला संन्यासी नहीं है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाला योगी है, यहा पर कर्म फल का आश्रय ना लेकर का क्या अर्थ है
- Expection (आशा) अधिक न रखें
- अपना कर्म करे परन्तु फल की आशा न करे
- अपना काम है कि सभी को सम्मान दें परन्तु बदले में यह आशा न करें कि वह भी हमें सम्मान देगा
- हम बच्चो को पाल – पोस कर पढ़ाए लिखाएं, संस्कार दे, खूब प्यार दे लेकिन बदले में यह आशा न रखें कि बुढ़ापे में वह हमें उंगली पड़कर घूमाएगा, यदि बच्चों ने बड़े होकर ऐसा नहीं किया तो फिर दुख होगा
- अपना काम है की सारी शक्ति उस कार्य को कुशलता पूर्वक करने में झोंक दे तथा दूसरे ने यदि नहीं किया तो वह डिफाल्टर है
- मन लगाकर पढ़े परन्तु यदि वांछित फल नही मिला तो परेशान न हो, हमारी मेहनत का फल Examiner हमें देगा, हम अपने से स्वयं को नम्बर न दे
- अपनी क्षमता से सर्वक्षेष्ठ करे
- इसलिए पढ़े कि जानकारी बढ़ा रहे है केवल पास होने के लिए नहीं
- Dutyfullness में रहे -> कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन, मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि
- फल के लिए निराश मत होना, पहले से बेहतर करते रहो और आगे बढ़ते रहो, आगे हमें पहले से अच्छा मिलेगा ही मिलेगा
- कम मिला तो अपने को देखो कि हमने कहा पर गलती की तथा अपने में सुधार करो
परमहंसपरिवाज्रकोपनिषद् में ब्रह्मा जी आदिनारायण से पूंछ रहे है कि ब्रह्म प्रणव क्या है यह कैसा होता है तब आदिनारायण बताते है कि षोडश मात्रा वाला होता है,चार अवस्थाएं हैं -> जागृत – स्वपन – सुषुप्ति – तुरीया तथा फिर जागृत अवस्था के 4 भाग किया है तथा फिर स्वपन के भी 4 भाग किए है इसी प्रकार सभी के 4 भाग है, इसका क्या अर्थ है
- व्यष्टि = व्यक्ति
- समष्टि = ईश्वर
- ये 4 अवस्थाएं माण्डयकोपनिषद् में भी आया है, ये 4 अवस्थाएं ही प्रत्येक जीव की होती है, प्रत्येक जीव इन चार अवस्थाओं में से ही किसी एक अवस्था में रहता है
- जागते हुए भी व्यक्ति सपना देख सकता है तो यह जागृत स्वपन कहलाएंगा
- जागृत सषुप्ति -> जागे हुए है परन्तु सुषुप्ति अवस्था में है, संसार के प्रहारो को जागते हुए सह लेना जैसे देखते हुए नहीं देखना, चलते हुए नहीं चलना, बोलते हुए नहीं बोलना, खाते हुए नहीं खाना
- देखते हुए नही देखना का अर्थ है कि हम सामने वाले को तो देख रहे है परन्तु वास्तव मै उसकी आत्मा को देख रहे हैं तथा उनका शरीर गुण स्वभाव को न देखकर केवल उनकी आत्मा को ही देख रहे हैं -> इसे कह सकते हैं कि वह देखते हुए भी नहीं देख रहा तथा संसार को न देखकर यथार्थ को देख रहा है
- ये सब जागृत तुरीया अवस्था कहलाती है
- इसी तरीके से सबके चार-चार भाग कर दिए गए हैं
- विश्व = जागृत अवस्था
- तेजस = स्वपनावस्था
- प्राज्ञ = सुषुप्ति अवस्था
- तुरीया = इससे परे वाला स्थिति
सकंल्प मात्र से जो कुछ संभव है वह सभी बंधन स्वरूप है, का क्या अर्थ है
- यदि हम किसी भी चीज का संकल्प लेते हैं कि हम यह कार्य करेंगे तो संकल्प भी Time Periodic होता है
- कार्य पूरा होने पर संकल्प स्वतः ही समाप्त हो जाता है
- संकल्प लेना ही है तो सतसंकल्प लें जैसे युग निर्माण
- सतसंकल्प बंधन मुक्ति वाला संकल्प है, हम पदार्थ वादी संकल्प लेते है ये भौतिक जगत का ससारी संकल्प बंधन वाला है क्योंकि ये यहा सब Limited है तथा सब बदलने के स्वभाव वाल है, तो ऐसा संकल्प भी बंधन में डालेगा
- कामनाएं ही बंधन में डालती है तथा कामनाएं मोक्ष भी देगी जैसे ईश्वर से जुड़ी शुभ संकल्प वाली भावनाएं मोक्ष दिलाएंगी
- जहा बंधानकारी कहा गया है तो वहां वह भौतिक जगत / पदार्थ जगत से लेना देना है
कर्तापन भाव में आरूढ व्यक्ति ही मूढ़ हैं
- मैने किया, इसमें कर्तापन का भाव आया
- मै शब्द के साथ यदि मेरे हाथ ने किया तो यहा हाथ भी मेरा नहीं है, ईश्वर के हाथ से किए
- यहा अपना, आत्मा के सिवा कुछ है नहीं
- यदि मैने किया तो मेरे करने में प्रकृति का भी सहयोग रहा, यदि हमारी सांस नही चलती तो नहीं कर सकते, यहा सब कुछ ईश्वर का है और हम अपना कह / समझ रहे हैं
- केनोपनिषद् में भी यही बात आती है कि यह किसके द्धारा हो रहा है, मेरे द्वारा यह नहीं हो रहा क्योंकि आत्मा तो अकर्ता है तथा प्रकृति ही सब कर करा रही हैं
- यही भूल व्यक्ति करता है तथा यह भूल करने पर पछताना पड़ता है
वांग्मय 22 में आया है कि प्रेम क्या है विज्ञान के अर्थ में कहे तो सुविधा साधनो की दृष्टि से संसार को उन्नत बनाना, दर्शन की दृष्टि से विचार करे तो उत्कृष्टवादी चिन्तन देना, कर्म योग की भाषा में कर्म निष्ठा पैदा करना और
समाज शास्त्र के मत में सुव्यवस्था लाना, प्रीत का तीसरा स्वरूप कर्मनिष्ठा है, यह दो प्रकार की मानी गई है, एक वह जो व्यक्तिगत कार्यो के प्रति उपजती है, तब वह स्वार्थ लिप्सा मात्र बनकर रह जाती है, ऐसी लिप्सा जहां केवल अपने ही उन्नयन की चाह हो, दूसरी वह जिसमें अपने व पराएपन का लोप हो जाता है और सभी कार्य अपने निजी प्रतीत होने लगते है, भले ही वे पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, नैतिक या धार्मिक कुछ भी हो जहा स्तर भेद समाप्त होकर सभी का एकीकरण हो जाए वही कर्तव्यबोध का प्रथम उदय होता है, इस कर्तव्य बोध का विकास ही कर्म योग का प्रारम्भ है, जब कर्म योग में रूपांतरित होने लगे तब समझना चाहिए कि उस यर्थात की उपलब्धि हो गई जिसका बाह्य स्वरूप प्रेम है, यहा कर्तव्य बोध का प्रथम उदय का क्या अर्थ है
- कर्तव्य बोध का अर्थ यह है कि हम जाने कि हमारी Duty क्या है, हम क्यों जन्म लिए, हमारे जन्म लेने का कुछ उद्देश्य तो अवश्य होगा
- अपनी Dutyfullness
- व्यक्ति के जीवन में दो मुख्य काम होते है
- Godliness -> जिसने हमें उत्पन्न किया, हमे दिया तो उसके प्रति अपने को आभारी मानना, आभारयुक्त रहना, उसको जानना व उसके अनुशासन में रहना, क्योंकि उसने हमें किसी खास उद्देश्य के लिए उत्पन्न किया
- हम अपने भीतर की प्रतिभा को विकसित करें तथा अपने गुणो को बढ़ाएं तथा यह देखें कि हम अपनी प्रतिभा का कहा क्या उपयोग कर सकते हैं
- ईश्वर ने मनुष्यों को अपने सहयोगी के रूप में रचा है ना कि स्वतंत्र शासक के रूप में
- हमारी पहली Duty अपने को स्वस्थ रखना इसे अप्राकृतिक खान पान व रहन सहन से खराब ना करें, रोगी न बने
- आंखें हमें मिली है सबको पवित्र दृष्टि से देखने के लिए, कुदृष्टि से देखने के लिए नहीं, वाणी भी उसका सदुपयोग करने के लिए मिली है
- हमारे जन्म लेने के 3 मुख्य कारण है -> आत्म कल्याणाय, लोक कल्याणनाय, वातावरण परिष्काराय
- उसमें यदि अपनी कामना पूर्ति भी हो तो भी शुभकामनाएं हो -> सर्वे भवन्तु सुखिना
- हमारी तीन मुख्य जिम्मेदारियां है ->
स्वस्थ शरीर, स्वच्छ मन, सभ्य समाज - एक जिम्मेदारी यह भी है कि जिस परिवार में हम जन्म लिए है उसे भी थोडा upgrade करे, यह पितरो का ऋण होता है, समाज का ऋण चुकाने के लिए स्कूल कालेज का सहयोग करके उसका कर्ज भी चुकाएं तथा हम पेड पौधे भी लगाएं, यह हमारी Duty है, हमें करना ही करना है, इस तरह पितरो का ऋण चुकाते है
- अपना आत्मिक विकास करना देव ऋण चुकाना कहलाता है तथा यह करना ही करना है
- ऋषि ऋण चुकाने के लिए = जिस ज्ञान विज्ञान को ऋषियो ने हजारों वर्षों तक तप करके हमे दिया तो हमारी जिम्मेदारी बनती है उस ज्ञान विज्ञान को संरक्षित कर आगे बढ़ाए
- वह ज्ञान विज्ञान आज मर रहा है तो आज केवल गौत्र का नाम भर लेने से बात नहीं बनेगी
- उस ज्ञान विज्ञान को आज के वैज्ञानिक युग के परिपेक्ष में हम कैसे आगे बढ़ा सकते हैं
-> इस प्रकार Dutyfulness की बात कही है, इसे श्रेय कह दिया गया - यदि ऐसा हम कर रहे है तो हम ईश्वर से प्रेम कर रहे हैं, उसकी व्यवस्था से प्रेम कर रहे हैं
- यही प्रेम दिव्यता का रूप ले लेता है
- सारे जीव ये सब नहीं कर सकते तो मनुष्य की जिम्मेदारी है कि ये सभी विभिन्न योनियो के जीव भी हमारे छोटे भाई है तथा निचली कक्षा में है तो हम उन्हे उपर की कक्षा में ले चले, यह अपने आप में बहुत बड़ी Duty बनती है, इसी को श्रेय कहा गया
तैतरीयोपनिषद् में आया है कि सत्य आचरण सत्य वाणी के साथ-साथ शास्त्रों का अध्यन अध्यापन भी करे, तपश्चर्या, इंद्रियों के दम, मन के निग्रह के साथ साथ शास्त्रों का अध्यन अध्यापन भी करे, प्रजा उत्पत्ति प्रजनन प्रजावृद्धि कम्र के साथ साथ शास्त्रों का अध्यन अध्यापन भी करे, रथीतर के पुत्र सत्यवचा ऋषि कहते हैं सत्य ही इनमे श्रेष्ठ है, पुरुशिष्ठ के पुत्र तपोनित नामक ऋषि कहते है कि तप ही सर्वोतम है, मुदगल के पुत्र नाग मुनि कहते हैं कि शास्त्रो का अध्यन और अध्यापन ही सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि वही तप है, वही तप है
-> यही तप कैसे है तथा यदि यही तप है तो हम शास्त्रों के मकड जाल से अपने को कैसे मुक्त कर पाएगें तथा इंद्रियों का दम क्या है
- इंद्रियों का दमन
- शास्त्र वासना से
- शास्त्रों में जो लिखा गया होता है तो वे किन्ही खास परिस्थितियों तथा किनके लिए किसी ने कुछ लिख दिया तो वह वाक्य / शब्द सार्वभौम नहीं बनता हैं -> वह एक खास Area में, खास समय पर, खास लोगों के लिए ही काम आता है
- संसार में कितना भी अच्छा वाक्य बोल दे तो शब्द की एक सीमा है, इसलिए ईश्वर अशब्दम् (शब्दों से परे) अनन्त है
- जो कण कण में विद्यमान है, उसे हम शब्दों में बांध रहे है, शब्दों से वाक्य बने, तथा वाक्यों से शास्त्र बने जबकि सत्य को जब देखा ही नहीं जा सकता तो लिखें कैसे
- अहम् जगतवा सकलम शून्यम -> शास्त्रो को इसलिए बनाया गया जो संसार में दिख रहा है उसे हम कैसे Handle करे, वहा के लिए शास्त्र है
- हर जगह, हर स्थिति में शास्त्र न खोजे, अपनी विवेक बुद्धि का उपयोग करें
- हम शास्त्रों का उदेश्य समझकर आगे बढ़ जाए, अपनी बुद्धि से शास्त्रों को मथा जाता है
- इद्रियों का दमन = जो भी अपने भीतर से स्वभाववश बाते आए उसे दबाएं, समूह में उसे नहीं कह सकते
- शराब पीने का मन है तो भरी सभा में मत पीने लगे, मन की इस आवाज को दबाए
- मन के भीतर से जो खुराफात आते रहते है तथा इंद्रिया उन विषयों पर आर्कषित रहती है तो इंदियों का शमन करे
- शमन को सदुपयोग कहते है
महोपनिषद् में आया है कि भावना का आभाव होते ही संकल्प स्वमेव ही समाप्त हो जाता है, हे मुनिश्रेष्ठ संकल्प द्वारा संकल्प को तथा मन द्वारा मन को नष्ट कर डाले, आकाश की तरह जगत भी शून्य है, यह विप्र जिस तरह तांबे की कालिमा प्रधान का छिलका क्रिया विशेष से नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार पुरुष का विकार रूपी दोष व्रत से दूर हो जाते हैं, धान के छिलके के समान जीव पर मल विकार रूपी दोष प्रकृतिगत है तो भी उसका नष्ट होना निश्चित है, का क्या अर्थ है, भावना मन संकल्प ये सब हमारे जीवन के लिए आवश्यक है तो इनका नष्ट होना क्यो ऋषि ने कहा है
- नष्ट होने का अर्थ यहा सब समाप्त कर देना नहीं है
- संसार भावनाओं से बना है तथा यह संसार भावनाओं से ही काम करता है
- यहा ऋषि का आशय यह है कि -> किसी का भाव आया तथा इच्छा उठी फिर किसी भी कार्य को करने के लिए विचार उठता है
- जब हमारे मन में किसी काम को करने की इच्छा उठी है तो हम यह देख ले कि वह शुभेच्छा है या नहीं
- यदि शुभेच्छा है तो उस काम को करे और शुभेच्छा नहीं है तो पहले शुभेच्छा करें
- हमारा मन शेखचिल्ली की तरह तरह की इच्छाएं व विचार किया करता है, हमें उन विचारों में से अपने लायक चुनना होता है
- भावना = इच्छा -> यहा इच्छा यदि बदल गई तो संकल्प बदल जाते हैं
- महत्ववाकाशाओं को हम सीमित करे क्योंकि महत्वकांशाएं बहुत बढ़ी चढ़ी रहती है तथा सभी को पूरा नहीं किया जा सकता
- इन्ही महत्वकाशाओं को सुरसा का मुख भी कहा गया
- इच्छाओं को ही हम ऐसा करें कि न्यूनतम सुख सुविधाओ में निर्वाह करके परिस्थितियों के साथ तालमेल बिठाकर हम आगे बढ़े
- जिसकी (आत्मा की) इच्छा करनी थी वह तो की नहीं
- इसलिए शुभेच्छा के लिए कहा गया है कि इच्छा से इच्छा को काटों तथा हम अपनी श्रेष्ठता को देखे
- मन से मन को काटो -> जो मन विषयों की तरफ जा रहा था जिनमें से कुछ विषय जैसे खाना, पीना, धन कमाना आवश्यक तो है परन्तु उनमें सन्लिप्तता / चिपकाव आवश्यक नहीं है, मन से मन को तन्मात्रा साधना से काटो
- इसी प्रकार पांचों शरीर पर कालिमाओ जो आ गई है तो उसे हमें पाचों कोशो की साधना करके उसे हटाकर तथा आत्मा का दर्शन कर सकते है -> यही बात ऋषि यहा बताना चाह रहे है
क्या मनुष्य विशुद्धतः कर्म योनि का प्राणी है कृपया प्रकाश डाला जाय
- मनुष्य कर्म कर के अपना भाग्य बदल सकता है, बाकी योनियां अपने भाग्य नही बदल सकती, वे सभी प्रकृति के प्रवाह में चलते हैं
- सामान्यतः Brain से नीचे तक कुण्डलिनी का प्रवाह होता है, मनुष्य चाहे तो इसे Reverse Gear में लेकर जा सकता है, कुण्डलिनी को विपरितकरणी से उपर उठा सकता है तथा परमहंस बन सकता है
- कुछ विशेषताएं मनुष्य में है जिसके दम पर वह विश्व में सभी पर अपना शासन कर लेता है
- अन्यो में ये विशेषताएं नहीं है, इसलिए मनुष्यो को कर्म योनि का प्राणी कह सकते है
यज्ञ करते समय जल प्रसेचनम की क्रिया में दक्षिण दिशा क्यों छोड़ दी जाती है?
- दक्षिण दिशा छोडी नहीं जाती बल्कि दक्षिण से शुरू करके सभी दिशाओं में ले जाया जाता है, चतुरदिक्शु शब्द उसमें आया भी है
- हम ज्ञानवान बने तथा सारे संसार को ज्ञानी बनाए
अधिकांश आत्मिक प्रगति में लगे साधक आर्थिक विपन्नता झेलता है तथा अधिकांश आर्थिक संपन्न ब्याक्ति आत्मिक प्रगति में कोई रुचि ही नहीं लेता, कृप्या प्रकाश डाला जाए
- हर व्यक्ति की अपनी रूची है, प्रत्येक व्यक्ति की रूचि उसके मन के स्वभाव से आती है
- मन के सुख जहा मिलता रहता है तो उसी के अनुरूप उसे वह सब अच्छा लगने लगता है
- ठोकरे खाने के बाद फिर उसमे सुधार आता है
- यदि वह व्यक्ति संसारी सुख से उपर उठना नहीं चाहेगा तो शिषक भी कुछ नही कर सकता
- साधक की (उसकी) अपनी रुचि भी होनी चाहिए
- आत्मिक प्रगति में लगा साधक कोई भी आर्थिक विपन्नता नहीं झेलता है
- पूज्य गुरुदेव ने तो अपनी सारी सम्पदा दे दी फिर भी आर्थिक विपन्नता नहीं झेली
- हम आत्म साधना को कुछ और ही समझते है तथा केवल पूजा पाठ तथा कर्म काण्ड को ही सब कुछ समझते हैं, आत्मा साधना में लगे साधक का कभी घाटा नहीं होता है
- कुबेर के सम्पदा व इन्द्र का पराकम्र उसके पीछे डोलता है
- साधना में प्राण आ जाए तो कमाल हो जाए, हमारी साधना में प्राण नहीं है
- ईमानदार आदमी को आप एक अंश को करोड़ों में भी नहीं खरीद सकते
- जिनकी आध्यात्म में रुचि है वहा तक हम पहुंचते नहीं तथा जिनकी आध्यात्म के प्रति रुचि नहीं है उन्हें हम बलपूर्वक वह ज्ञान देना चाहते हैं, इसलिए हमें दिक्कत पडती है
- स्वस्थ व्यक्ति डॉक्टर के पास नहीं जाता केवल रोगी ही डॉक्टर के पास जाता है इसलिए इच्छा का होना बहुत जरूरी है
- किसी का यदि आध्यात्म के प्रति रुचि नहीं है तो पहले उसका Interest हम जगाएं तथा उसके अधिक से अधिक फायदे उसे बताएं
- यदि लोभी व्यक्ति को आध्यात्म सिखाना है तो पहले उसे बताए कि उसका धन कैसे बढ़ सकता है
- गुरु मंदबुद्धि वालों को भी दे देता है क्योंकि गुरु सबसे पहले फायदे की बात बताता है
-> फायदे की बात से Interest जगेगा
-> Interest से Concentration आएगा
-> Concentration से जब मन लगाकर परिश्रम करेगा तो परिश्रम से बात बन जाती है / सफलता मिलती जाती है - इसलिए पहले स्कुल / कालेज / गुरु कुल भेजा जाता था
- भौतिकता खराब नहीं यह लक्ष्मी रूप में एक आध्यात्मिक शक्ति है, धन हमारे लिए बाधक नहीं है, हम भी धन खूब कमाए परन्तु उस धन का सदुपयोग करे तो यह भी हमें मोक्ष दिला देगा 🙏
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