पंचकोश जिज्ञासा समाधान (30-10-2024)
आज की कक्षा (30-10-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
सिदान्तशिखोपनिषद् में आया है कि शिव जी के पांच मुख में से सद्योजात से बाह्मण, वामदेव से क्षत्रिय, अघोर से वैश्य, तत्पुरुष से शुद्र और ईश से उनके गण उत्पन्न हुए, का क्या अर्थ है
- पंचबह्योपनिषद् में इसका क्रम ठीक उलटा दिया है
- वहाअन्नमय कोश को सघोजात कहा है -> शरुवात यहा से किया है
- अन्त में ईशान को सहस्तार चक्र में / आनन्दमय कोश में रखा है
- यही क्रम बदल जाएगा जब उपर से नीचे आएंगे
- यदि प्रसवन की प्रक्रिया शुरू होगी तो पहले ईश्वर से सृष्टि की उत्पत्ति शुरू होगी
- बाह्मण = शिव = बह्म को सद्योजात में रखा है
- फिर शक्ति आया जिसे क्षत्रिय कहा गया
- शिव व शक्ति के मिलन से फिर जीवन में धन, समृद्धि, सामर्थ्य का विकास होने लगा, इसी को वैश्य कहा गया, नाम अपने ढंग से रख लिया जाता है
- सद्योजात = प्रसंवन (प्रकृति का प्रकटीकरण)
- पंचबह्मोपनिषद् में सबसे पहले ईशान बताया गया, ईश्वर (सत्त तत्व) से उत्पन्न हुआ
- अन्त में नन्दीगण ले लिया गया, ये सब अन्नमय में ले लिया गया
- इसलिए हमें confuse नहीं होना चाहिए कि यहा जो दिया है वह पंचबह्मोपनिषद् से भिन्न है
- यहां प्रसंवन प्रतिप्रसंवन का क्रम आया है
जाबालदर्शनोपनिषद् में आया है कि सुष्मना नाड़ी के देवता शिव, ईडा नाड़ी के देवता विष्णु व पिंगला नाड़ी के देवता बह्मा जी, सरस्वती नाड़ी के देवता विराट, पुषा नाड़ी के देवता आदित्य है, भगवान भास्कर यशस्विनी नाडी के देवता हैं, विषोदरा नाड़ी के देवता भगवान अग्निदेव है, हे वेद वेत्ताओं में श्रेष्ठ महर्षि चंद्रमा देवता सदा ही ईडा नाड़ी में व सुर्य देवता हमेशा पिंगला नाडी में है, यहां चंद्रमा ईडा नाडी में तथा पिंगला नाड़ी में सुर्य देवता है तथा इन्हीं में ही विष्णु व बह्मा जी भी है, का क्या अर्थ है
- कही कही बाई ओर की नाडी को गंगा ठंडा धारा भी कहा जाता है
- कही कही दाई तरफ गर्म को जमुना धारा कहते है
- ईडा + पिंगला = सरस्वती, दोनो का मिलन है
- बाया तरफ का नाड़ी विष्णु को लिए तो विष्णु का शांताकारम वाला गुण लिया जाएगा
- दाया वाला बह्मा जी को लिया गया है, यह गर्म है, प्रसंवन को लेकर यहा लिया गया है
- शिव जी योगी है तो दोनो को मिलाकर चलते है -> ह और ठ दोनों को मिलाकर चलते हैं
ह = सुर्य नाड़ी
ठ = चंद्र नाडी
ह और ठ को मिलाने से सुष्मना की उत्पत्ति होगी, यहा हठ का अर्थ हिंदी के जिद से नही है, जहा भी नाडी शोधन कर रहे है तो यही हठ योग है, Neutral Mind वाले योगी को हठ योगी कहेंगे - जो दोनो को साथ लेकर चल रहे है जैसे शिवजी राक्षसों के भी देवता है और देवताओं के भी देवता महादेव है, शिव को यहा सुष्मना के समकक्ष रखा है, दोनो को मिलाकर चलते है इसलिए महायोगी है
40 दिन का जो अनुष्ठान है क्या उसे मंत्र लेखन द्वारा पूरा कर सकते हैं
- पूरा कर सकते है, मंत्र लेखन अधिक शक्तिशाली है
- किसी भी मंत्र से हवन करने के लिए जब आहुति दी जाती है तो जो मंत्र बोला गया उससे उस मंत्र में प्राण आता है, मंत्र को प्राणवान बनाना है तो मंत्र जप करे, जप करेंगे तो मंत्र सिद्ध होगा और मंत्र लेखन करेंगे तो आत्मा में सीधा प्रकाश चला जाएगा
- अच्छा व्यापारी तीनो तरह का लाभ लेता है
- अनुष्ठान काल में नित्य हवन किया जाना चाहिए, यदि 40 दिन का अनुष्ठान कर रहे है
- कोशिश ये करे कि जितना जप कर रहे है तो उसका एक शतांश आहुति अवश्य पड जाए
एक माला पर एक आहुति प्रतिदिन दे अन्यथा आखिरी दिन पूरा करना मुश्किल पड जाएंगा - यदि शरीर का देहान्त भी हो जाए तो भी उतना Package बना
- 40 दिन में अनुष्ठान करेंगे तो प्रतिदिन 30 माला करना होता है तथा बीच में पांच रविवार आ रहा है तो एक हजार माला प्रत्येक रविवार अधिक करे तो इस प्रकार 40 दिन में सवा लाख माला का जप पूर्ण हो जाएगा
- नवरात्रियों में हम प्रतिदिन शतांश आहुति अवश्य देते थे
- जप व लेखन को मिला कर भी किया जा सकता है
- गायत्री हृदयम को यदि हृदयंगम कर ले तो 60 लाख गायत्री मंत्र के जपने जितना प्रकाश हमारे शरीर में आ जाता है
- स्वाध्याय करेंगे तो सबसे अधिक लाभ मिलता है, स्वाध्याय के बिना भाव शून्य पूजा होगी तथा मंत्रो के अर्थो की गहराई में नही जा सकता
- जप को सबसे नीचले स्तर (अधम स्तर ) की साधना बताया है
अपान और कुर्म प्राण ke द्वारा को चिमटा बनाकर रुद्र ग्रंथि को पकड़कर रेचक प्राणायाम द्वारा दबाते है जिससे क्लीं बीज जाग्रत होती है ये कैसे होता है
- रुद्र ग्रंथि में दो चक्र काम आ रहे है = मूलाधार व स्वादिष्ठान, एक आपान का प्रतिनिधित्व करेगा व एक कुर्म का प्रतिनिधित्व करेगा
- यदि हम ग्रथि/चक्रों की बनावट काय विज्ञान की दृष्टि से देखे तो स्वादिष्ठान चक्र Sacral Region मॅ है, मूलाधार चक्र cocyx Region है, उसके बीच में योनि है, उसी योनि में कुण्डलिनी है, यहा स्त्री पुरुष से कोई लेना-देना नहीं, पुरुषो के लिए भी योनि इसी स्थान पर है, यह स्थान Sacral Lumbor गुच्छक के बीच में आता है, उन्ही दोनो को चिमटे की तरह दबाना (Spark करना) है
- स्वादिष्ठान + Point है तो नीचे मूलाधार – Point है, इसे चिमटे की तरह शक्तिचालीनी मुद्रा से दबाया जाएगा
- प्राण (स्वः) का केंद्र / वास स्वादिष्ठान में होता है (यहा अग्नि तत्व है) तथा यहा अपान का केंद्र मूलाधार में होता है
- यहा शक्तिचालीनी से प्राण व अपान को मिलाना है, शक्तिचालीनी से Chocking करके जब प्राण व अपान को मिलाएंगे तो दोनो spark करके विद्युत शक्ति उत्पन्न होगी तथा कुण्डलिनी को जगाने में बहुत कारगर है
- इन यौगिक क्रियाओं को कमजोर मस्तिष्क वाले साधक नहीं समझ पाते हैं, योनि लिंग की भाषा से वे अक्सर भटक जाते है
- योग के विद्यार्थी, इस योग की भाषा को समझेंगे, योनि का अर्थ मूलाधार तथा प्राण तत्व मूलाधार व स्वादिष्ठान के बीच में है, उसको हमें compress करना है तब विद्युत शक्ति उत्पन्न होगी तथा उस Area से संबंधित Uro Genital Organ तथा Rectal Area, दोनो में वही जड़ है तथा यह करने जीवन भर शरीर के इस हिस्से में कभी रोग नही होगा
कुण्डलिनी मूलाधार में है या मूलाधार व स्वादिष्ठान के बीच में है, कृप्या स्पष्ट करे
- कुण्डलिनी कदं में है
- कंद मूल निवासिनी – कुण्डलिनी है, कदं का मूल वही पर है क्योंकि यह हिस्सा रीढ की हडड़ी के बाहर हो जाता है, वह Nerve का गुच्छा स्वादिष्ठान से बाहर निकल गया तथा कुण्डलिनी मेरुदण्ड वाले भाग में निचले वाले Area में है तो दोनो के मध्य मानना ही पड़ेगा
- Cocyx में सभी तार नहीं जाता, वहा पर अधिकतर Nerve, Sacral वाले हिस्से से ही आता है
- वहा के Nerve Fiber सभी के सभी Sacral से निकला हुआ है तथा एक cocyx से Nerve निकला है
- S3 S4 S5 -> ये सब Nerve गुच्छक प्रजनन तंत्र वाले Area में जा रहे है, उस गुच्छे को वहा कंद कहेंगे
- कुण्डलिनी का वास Pubic Bones + सीवन के पास वाले Area में है, इसलिए केवल मूलाधार वाले Area में न माने, वहा अन्य Nerve, स्वादिष्ठान से भी आ रहे है
- नाभि कदं का जब हम ध्यान करें तो सभी 3 चक्रों (मूलाधार + स्वादिष्ठान + मणीपुर) का एक ही कंद में मानकर करें जैसे वही पर छिलका है, गुदा है, बीज है तो पूरा फल कंद के रूप में वही पर मान सकते है
- अलग अलग Angle से देखकर समझना चाहिए
गया तर्पण कब करना चाहिए मृत्यु के कितने दिन बाद करना चाहिए
- मृत्यु के कितने दिन बाद करे -> यह अपने अपने क्षेत्र की मान्यता होती है, वहा पंडित जी ने क्या बताया है, कही कही पूरे वर्ष में कभी भी कर सकते है
- गया ही नही हम अन्य तीर्थ क्षेत्रो (हरिद्वार शांतिकुंज या प्रयागराज) में भी जा सकते है या घर में भी गया के भाव से करेंगे तो भी गया श्राद्ध कहलाएगा, या हर साल पितृ पक्ष में श्राद्ध करते रहेंगे
- तर्पण गया में करने के बाद भी पिंड नही छूटता, फिर हमें शुभ अवसर पर पितरो को बुलाना भी होता है तो फिर वे नही आएंगे
- पितृ मोक्ष एक पर्व त्यौहार है तथा उस समय हमें तर्पण करना है तथा उनके संसाधनो को संसार में लगाना है
जब हम मूलाधार पर ध्यान करते है तो पृथ्वी का गुण हमें धारण करना है तथा गुणातीत होने की बात जब अति है तो हमे जो आसत्ति है, केवल उसे छोड़ना है तथा Positivity को लेकर आगे बढ़ते रहना है, क्या यह सही है
- Positvity को इतना बढाना है कि Negativity में भी Positive दिखाई दे, हर जगह बह्म केवल दिखने लगे
- अन्यथा ईश्वर कभी नही मिलेगा
श्राद तर्पण तो शरीर को लेकर है परन्तु आत्मा तो मरती नही तो सार्वभौम तर्पण व सार्वभौम श्राद्ध क्या है
- यह एक प्रक्रिया कि हम हर समय ईश्वर भाव में रहे या कल्याण के भाव में रहे
- धरती का प्रकटीकरण ईश्वर ने कल्याण के लिए ही किया है तो हम ईश्वर के केवल निराकार वाले स्वरूप में न भटकते रहे
- साकार में ब्रह्म को सिद्ध करना है और धरती को स्वर्ग बनाना है मुख्य उद्देश्य हैं -> सत्यम शिवम् सुन्दरम
- चारवाक सिद्धान्त भी फलता फूलता है
वो कहता है कि मरे हुए की क्यों पूजा कर रहे है तो हम यह मानते है कि यहा कोई मरता ही नही तो हम ऐसी अवस्था में उसकी मूर्ति या फोटो या आकृति बनाकर, उससे Tuning बनाकर लाभ लेना है - हमारा उद्देश्य हमें अधिक से अधिक लाभ लेकर शांत अवस्था में आना है
यहा हम सावभौम श्राद्ध तर्पण का Common Rule क्या ले जो दोनो तरफ़ हमारा Balance बना रहे
- जिनकी श्रद्धा है श्राद्ध तर्पण में, उनकी श्रदा को तोड़े नही तथा उनके साथ हम भी लाभ ले ते परन्तु उन्हें ये आभास न हो कि ये हमसे अलग है
क्या विवेकवान दूरदर्शी भी होता है अगर नहीं तो कैसे विवेकवान दूरदर्शी बने कृप्या प्रकाश डाला जाय
- विवेक, दूरदर्शी को कहा जाता है
- कही कही विवेक, बुद्धि को भी कहा जाता है
- अभी गणेश पूजा के पर्व में गणेश जी की पूजा धन कमाने के लिए करते हैं तो लक्ष्मी के साथ गणेश रखा गया है तो इसका अर्थ कि धन कमाने में भी हम नीति अनीति का ध्यान रखे, केवल लाभ नहीं, शुभ लाभ होना चाहिए
- गणेश विवेक के देवता हैं तो पहले गणेश के पूजन को अर्थ कि हम धन तो कमाए परन्तु अनीतिपूर्वक न कमाएं, संसार के क्षेत्र में भी दूर तक देखना आएगा
- भोजन में क्या खा रहे है, गलत भोजन स्वाद तो देगा परन्तु शरीर के अंगो को खराब करेगा तो उस समय हमने दूर की बात नही सोची, इसलिए बाद में नुकसान उठाना होगा
- दूरदर्शी विवेकशीलता चाहिए कि आगे आने वाले समय में इसके क्या परिणाम होंगे
- गुरुदेव ने कहा कि हमारे विचार इतने पैने कि उन्हे कोई नहीं काट सकता व अगले 1000 वर्ष तक बासी नही होगे तथा 1000 वर्ष के बाद यही विचार बांसी होगा तब फिर एक युगपुरुष दूसरे अवतार के रूप में आएगा
- दूर का अर्थ केवल संसार तक न फंसे रहे अपितु जिससे इस संसार की उत्पत्ति हुई उसे भी दूर तक समझे व देखे, केवल शरीर हित तक ही ना देखे अपितु अपनी आत्मा के हित को भी देखे तो यही दूरदर्शिता रितम्बरा प्रज्ञा कहलाएगी तथा फिर व्यक्ति और अधिक दूरदर्शी हो जाएगा
- बच्चो को आत्मा की जानकारी देना भी दूरदर्शिता है
मूलाधार चक्र का ध्यान cocyxgeal Region में करे या रीढ़ की हड्डी से सटे बाहर सीवन में करना चाहिए
- यदि हम केवल मूलाधार चक्र का ध्यान कर रहे है तो हमें cocyxgeal Region में ध्यान करना है क्योंकि यहा केवल मूलाधार चक्र है
- परन्तु ध्यान रहे कि वह Region (क्षेत्र) केवल Cocyx के तार से नही बना है उसमें Sacral के तार भी मिले हैं, वहां हमें दोनो को गुच्छक (कंद) के रूप में देखना है तो दोनो के बीच में ध्यान करे, क्योंकि मूलाधार केवल एक Point नहीं है अपितु उसका पूरा Boundary इस एक क्षेत्र तक फैला है, इसका चित्र अखंड ज्योति जनवरी 1987 में से भी देखा जा सकता है, उसमे मूलाधार के गुच्छक का चित्र दिया है
- हमें ध्यान स्वादिष्ठान – मूलाधार पर (Sacral Cocyx Plexus Region) पर कंद के रूप में ध्यान करे 🙏
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