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पंचकोश जिज्ञासा समाधान (29-10-2024)

पंचकोश जिज्ञासा समाधान (29-10-2024)

आज की कक्षा (29-10-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-

स ह वै उपनिषद् में 5 प्रकार के महायज्ञ है, देव यज्ञ, पितृ यज्ञ, भूत यज्ञ, मनुष्य यज्ञ व बह्म यज्ञ, इसमें बह्म यज्ञ मँ ऋक, यजु व साम की ऋचा का स्वाध्याय किया जाए तो बह्म यज्ञ कहलाता है का क्या अर्थ है

  • ये पंच यज्ञ श्राद्ध तर्पण करते समय आते है
  • अपने पितरो की शांति के लिए तथा अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए 5 प्रकार के यज्ञो का संकल्प ले रहे है
  • बह्य यज्ञ = बह्म गायंत्री मंत्र का जप -> से उत्पन्न बह्मतेज को अपने शरीर के भीतर जप के माध्यम से धारण किया जाए, जब हम जप करते है तो कोई भी ध्वनि अंतरिक्ष में जाकर कोहराम मचाता है तथा चूंकि यह बह्म गांयत्री है इसलिए यह बह्म का मंथन करता है
  • यह गायंत्री मंत्र अदभूत है, जब इस गायंत्री मंत्र से बह्म पूजा होगी तो इसका सबसे पहले लाभ हमें ही मिलेगा, दूसरो के लिए जो हल्दी पीसता है उसका हाथ स्वयं लाल हो जाता है
  • पितरो की तृप्ति के लिए करते है परन्तु उससे उत्पन्न उर्जा से स्वंय को अधिक लाभ मिल रहा है, अपना ही लाभ / कायाकल्प करेगा, इसी बह्म उर्जा से ही पितर योनि से देव योनि मिलेगा
  • प्रेत योनि में उनके आभामंडल में काली किरणे रहती है, कुछ की उजली किरणे भी रहती है
  • काली किरणे ही तम की तरफ खींच कर ले जाती है यदि यह अधिक खराब रहा तो पशु योनि में भी लेकर जा सकता है
  • यदि काली किरणो को किसी तरीके से निकाल दिया जाए तो वे किरणे White हो जाएगी तथा वह उपर उठने लगेगा, काली किरणो को झाडकर निकालने का काम गायंत्री मंत्र करता है
  • देव यज्ञ में = अपने दोष दुर्गुणो बुराईयो को हटाए व अच्छे गुणों को धारण करे
  • इसलिए परमार्थ को परमोधर्मः कह दिया
  • भूत यज्ञ में = अन्य योनि जैसे पशु चींटियां पक्षी में भी अपने पितर जा सकते है तथा इन शरीरो में ऐसे चक्र उपचक्र इनके शरीर में होते है कि ये प्रकृति के प्रवाह में बहते है, प्रकृति के प्रवाह को मोडकर उधर्व दिशा में चलने की क्षमता इनमें नहीं होती, ये योनिया दूसरो पर Dependent होती है कि वे चाहते है कि अन्य ज्ञानी जन उन्हे उपर उठाए, कुछ लोग पक्षी को दाना या मछली को दाना खिलाते हैं
  • पितर यज्ञ = अपने पितरो की पृतिक सम्पत्ति जो छोड गए तो उनके अहसानो को भूले मत तथा कुछ ऐसा करे कि उनकी अत्मा तृप्त हो, उनसे अच्छा कुछ कार्य करे, उनके धन का एक अंश उनके नाम से हमेशा समाज कल्याण में लगाते रहे, अपने नाम पर दान करना खराब माना जाता है तो अपने पितरो के नाम पर करे, केवल दादा के नाम पर दान करते है तो उनसे उपर वाले दादा का भी सहयोग रहा है तो यह दूर की समझदारी नहीं होगी या अपने ऋषियो के गौत्र पर दान करने से भी पितृ ऋण चुकता है
  • संसाधन लगाना (पिण्ड दान) + समय दान (तर्पण) ही पितृ यज्ञ में देना होता है
  • मनुष्य यज्ञ = वर्तमान समाज में जो जीवित पितर लोग जी रहे है उनके लिए अपना भी Duty बनता है, तो अपने आस पास सफाई रखे, Road बनाए, गलिया बनाए . . .
  • इसी प्रकार यही सभी वास्तविक यज्ञ है

जाबालदर्शनोपनिषद् में नाड़ियों के संबंध में आया है कि 72000 नाड़ियों में से 14 नाड़ियां मुख्य बताई गई, कुछ अन्तर प्रतीत हो रहा है, यहा बताया गया है कि शंखिनी का स्थान गांधारी और सरस्वती के बीच में है, अलमबुसा नाभी कंद में से होती हुई गुदा तक व्याप्त है, अलंबुसा मुख तक गई है तो यह नाभी कंद के मध्य भाग से होती हुई गुदा तक व्याप्त है, का क्या अर्थ है

  • कोई नाड़ी का स्थान किसी ऋषि ने अन्य दिया तो हमें उसे महत्व देना चाहिए जो हमारी संस्कृति के उद्धारक व तपस्वियो में श्रेष्ठ तपोनिष्ठ हमारे गुरुदेव ने जो स्थान बताया उसे लेना चाहिए
  • गायंत्री महाविज्ञान में गुरुदेव ने इसे योग चूडामणीपनिषद् से लिया है, योगचूडामणी -> सभी प्रकार की योग प्रणालियों में जो सर्वश्रेष्ठ हो तथा उसमें 10 को ही प्रमुख दिया है
  • कान शंख की आकृति का होता है इसलिए उसके पास की नाडी को शंखिनी कहा, गुरुदेव ने अर्थो के अनुरूप नाम दिया
  • रावण को कही ग्रथो में श्रेष्ठ दिखाया गया होगा तभी रावण की पूजा की जा रही है, पूजा करनेसे पहले यह साबित करना होता है कि वह श्रेष्ठ है यहां राम और रावण से कोई मतलब नहीं है अपितु यहां गुणो की / श्रेष्ठता की पूजा हो रही है

अमृतोनादोपनिषद् में आया है कि पृथ्वी तत्व धारणा के समय में ऊँकार रूप प्रणव की पांच मात्राओं का वरण अर्थात वरूण की धारणा के समय में चार मात्राओं का, अग्नि तत्व की धारणा के समय में तीन मात्राओं का तथा वायु तत्व की धारणा के समय में दो मात्राओं का स्वरूप ध्यान करना चाहिए, का क्या अर्थ है

  • पृथ्वी तत्व में 5 मात्रा का अर्थ इस पृथ्वी में पांचो तत्व मिले है, पृथ्वी Dominant है
  • ॐ से सारी सृष्टि बनी , 5 मात्रा = No of Elements/Ingradiants 5 है
  • ॐकार का अर्थ तत्व से है
  • केवल पढ़ लेने से बात नही बनेगी परन्तु Practical करने पर नही भूलेगा
  • 1 दिन में जो भी पूछा जाए तो दिन भर उस पर मनन चिंतन करने से वह पा जाएगा
  • स्वाध्याय व उस पर मनन चिंतन दोनों अनिवार्य है
  • जहा भी फैलाव सिकडाव होता है, उसे श्वसन कहते हैं, Heart Region में श्वसन के दो भाग है -> फेफडा भी है और हृदय भी
  • Heart Pulsation को भी Breathing कहा जाएगा

प्रेत योनि में कौन जाता है तथा प्रेत योनि से मुक्ति कैसे मिलती है

  • समाज में कहते है जिसकी अकाल मृत्यु होती है वह प्रेत योनि में जाता है, ऐसी मान्यता है
  • जिसकी अकाल मृत्यु नहीं हुई परन्तु फिर भी तर्पण में प्रेत योनि से मुक्ति की प्रार्थना की जा रही है तो इसका अर्थ है कि प्रेत योनि का लंबे समय तक बीमार रहकर शरीर छूटने से या अकाल मृत्यु से कोई लेना देना नहीं है
  • वह निर्भर करता है कि आत्मा के Valance Electrons, clear है या नहीं
  • अपने व्यक्तित्व में घुली हुई कालीमांए, जो हमें संसार की तरफ हमें बहा कर ले जाती हैं, उसमें तमोगुणी आता है जैसे वासना तृष्णा व अहंता
  • वासना तृष्णा अहंता ( लोभ मोह अहंकार )
    जिसकी तृष्णा (हाह) नही मिटी वह प्रेत योनि में जाता है, उम्र से जिसका कुछ नही लेना-देना
  • उम्र के अनुसार प्रेत योनि नहीं मिलती अपितु जब शरीर छोडा तो स्वयं का तेज कितना था उस पर निर्भर करता है
  • प्रेत योनि से मुक्ति के लिए गांयत्री महामंत्र का जप करे
  • गाय का पूछ (गायंत्री मंत्र) पकडना है यह वैतरणी से पार लगा देगा, यहा जीवन को वैतरणी कहा है
  • गायंत्री मंत्र का जप हमें बह्मवर्चस तक प्रदान करेगा तथा यही बह्मवर्चस हमें बह्मलोक तक ले जाएगा
  • इसलिए गांयत्री मंत्र से दीक्षा अनिवार्य है

महामानवों का जीवन और व्यवहार अंत:करण की स्थिति और प्रेरणा पर निर्भर करता है कृप्या प्रकाश डाला जाय

  • यह वाक्य प्रज्ञोपनिषद् के दूसरे खण्ड महामानव खण्ड में है
  • महामानव का जीवन व व्यवहार, अतःकरण की स्थिति और प्रेरणा पर निर्भर करता है
  • पांच कोशो में हमारे विज्ञानमय में ही अतःकरण आता है
  • इस शरीर रूपी Computer में अन्नमय कोश Cabinate व उसमें विघमान motherboard है, प्राणमय कोश इस Computer का बैटरी है, मनोमय कोश Software है परन्तु असली personality, चलाने वाला तो अंतःकरण है
  • Computer बढ़िया होने से बात नही बनती बल्कि उस Computer को चलाने वाली जीवात्मा कैसी है, यह महत्वपूर्ण है, यदि वह जीवात्मा ठीक नहीं है तो इसी Computer के Misuse से Cyber Crime शुरू करेगा
  • मनुष्य का शरीर पा लेना काफी नहीं है
  • वो मनुष्य भाग्यशाली है जो अपने अंतःकरण या व्यक्तित्व को परिमार्जित कर लेते है
  • Personality = चरित्र चिंतन व्यवहार पर ही उसकी Personality निर्भर है
  • महामानव लोग इसी को सवारने पर ध्यान देते है
  • गुरुदेव का एक प्रवचन है, जिसमें उन्होंने बताया है कि साधनाएं सफल क्यों नही होती या अधिक समय (विलम्भ) क्यो लेती है
    इसके तीन आधार गुरुदेव ने बताएं
  1. कामनाएं / दृष्टिकोण उत्कृष्ट न होना -> यदि आत्म जागरण उद्देश्य न लेकर यदि कामनाएं ही उद्देश्य हो तो यह घटिया उद्देश्य है
  • यदि कामनाए पूरी हो गई तो भी क्या मिलेगा तथा दूसरा इसमें ढेर सारा Compitition है तथा जिसमें compitition नहीं है, उस क्षेत्र में कोई जा ही नही रहा, वहा आत्मसाधना में पूरा क्षेत्र ही खाली है
  • लोककल्याण की कामना जल्दी पूरी होती है
  1. प्रखर चरित्र (पात्रता का न होना) -> यदि दृष्टिकोण उच्च है परन्तु धारण करने की पात्रता नही है, जैसे यदि हमें घी चाहिए परन्तु घी धारण करने वाला पात्र सही नहीं, उसमें गौबर लेकर घूम रहे है तो ईश्वर उसमें दे नही सकता, उसे पहले Clean (दोष दुर्गुणो को हटाना) करना पड़ेगा तथा इसके लिए पुरुषार्थ करना होगा
  2. शालीन व्यवहार (Application) -> पहले भगवान थोड़ा-थोड़ा देकर देखते हैं कि ईश्वर से प्राप्त सिद्वि का हमने कहा उपयोग किया, यदि उसका Misuse किया तो आगे नही देता या छीन लेता है
  • मन बुद्धि चित्त अहंकार ही अंतःकरण है
  • अहंकार का एक अर्थ अपने स्वः स्वरूप / स्वः बौधत्व को जानना भी है, इसके सदा -ve अर्थ न ले, जहा शरीर भाव में रहेंगे तो यह अंहकार घाटा करेगा

आपने बताया था कि गायंत्री पराविद्या है, दस महाविद्या और गायंत्री पराविद्या में क्या अन्तर है

  • 10 महाविद्या 10 प्राणों को कहते हैं
  • इनका जागरण नियंत्रण करना ही है
  • पराविद्या -> इसको उदगम करने वाली / नियंत्रित करने वाली शक्ति आत्मा है, आत्मविद्या ही पराविद्या है, आत्मा जितना चाहे प्राणों को उत्पन्न कर सकता है, प्राणों को नियंत्रण कर इस्तेमाल कर सकता है, आत्मतत्व को जानना, आत्मा की शाश्वतता को जानना, आत्मा के स्वरूप को जानना व परिमार्जित करना, इसमें प्राण विद्या सहयोगी हो सकता है

वांग्मय न० 15 में विपरीतकरणी मुद्रा आया है, सुर्य नाड़ी व चन्द्र नाड़ी का क्या अर्थ है, मस्तक मे रहने वाले सहस्रदलकमल में जो अमृत झड़ता है वह सुर्य नाड़ी के मुख मे जाता है तो इसी से अतं में मृत्यु होती हैं

  • उपर सहस्तार चक्र में चद्रमा का वास है, यहा चंद्रमा का अर्थ सोम है, इस स्थूल चंद्रमा को न समझें, यहा चंद्रमा का अर्थ उसके गुण शीतलता, शांति व आनन्द को हमें अपने भीतर बढ़ाना है, यह सहस्तार चक्र में है
  • नीचे सुर्य है जो कि Solar Plexus (नाभी कदं) है, यही प्राण का उदगम स्थान है, यही मूलाधार चक्र वाला Area है, यहा सुर्य है, उर्जा का केंद्र
  • यदि यहां से सोम का टपक टपक कर नीचे बहाव हो रहा है तो मृत्यु आएगा
  • विपरितकरणी में प्राण का यह प्रवाह विपरित सहस्तार से मूलाधार की तरफ होता है
  • शीर्षासन को विपरितकरणी कहते है, हमारा नाभी उपर की तरफ पैर हो गया, अब काम उर्जा सहस्तार की तरफ स्वतः जाएगी, सुर्य अपने को विलीन करने के लिए शांति की तरफ चल दिया
  • बिंदु (चद्रमा) व रज (रवि) [बिंदु रिंदु रजो रवि]
  • दोनो को मिलाना बहुत कठिन है (कुण्डलिनी से सहस्तार का मिलन कठिन है),विपरितकरणी से इस मिलन में सुविधा होती है
  • इस प्रक्रिया में साधक का व्यक्तित्व धीरे धीरे Cool होता जाएगा और वह व्यक्ति अथाह शांति व आनन्द को पाएगा
  • वीर्य का स्वभाव स्वतः मस्तिष्क से नीचे की ओर होता है उसको विपरित दिशा में मोड़कर के मूलाधार से सहस्तार में ले जाना ही विपरितकरणी है     🙏

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