पंचकोश जिज्ञासा समाधान (26-12-2024)
आज की कक्षा (26-12-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
ईशावास्योपनिषद् में आया है कि जो केवल अविद्या की उपासना करते है वे घोर अंधकार में घिर जाते हैं और जो केवल विद्या की उपासना करते है, वे भी उसी प्रकार के अंधकार में फंस जाते है, का क्या अर्थ है
- दोनो को साथ लेकर चले
- अगला सुत्र है विद्याम् च अविद्याम च् -> जो विद्या व अविद्या को साथ में लेकर चलता है, वह भौतिक संसार का सुख व आत्मिक शान्ति दोनों एक साथ पाएगा
- अविद्या = पदार्थ विज्ञान = पंचतत्वो से बना संसार -> शरीर व संसार जड़ तत्वो से बना है
- विद्या = आत्म विद्या
- शरीर में दोनो है = आत्मा व उसका घर(शरीर)
- शरीर नहीं होगा तो हम कुछ बोल भी नहीं सकते, वाणी शरीर में है, शरीर में मन भी है, मन के बिना सोच नहीं सकते तथा चल भी नहीं सकते
- यदि केवल आत्मा का ही ध्यान कर रहे हैं तो भूख लगेगी तो क्या करेंगे तथा शरीर में रोग हो गया तो क्या करेंगे
- शरीर के लिए खान पान, APMB भी अनिवार्य है, इसलिए शरीर का भी ध्यान दे
- जीव में दोनो होंगे शरीर व आत्मा -> संसार का हर चीज शिव व शक्ति के मिश्रण से ही बना है तो केवल एक तरफ ना जाए
- दो पहिए वाला गाडी हो या दो बैलो वाला हल हो, उसमें Balance होना चाहिए
- कृष्ण ने कहा सम्तवम योग उच्यते
- केवल आत्मा आत्मा नहीं करना
- ऋषि केवल फलाहार कर लेते थे तथा Healthy भी अधिक रहते थे
- भौतिक साधन भी चाहिए, यही आत्मिक प्रगति का माध्यम बन जाता है
तैतरीयोपनिषद् में आया है कि हम शिक्षा की व्याख्या करते हैं। वर्ण, स्वर, मात्रा, बल, साम तथा सन्धि – ये सब शिक्षा की सार वस्तुएँ है, इस प्रकार इसे शिक्षा अध्याय कहा गया है, हम दोनो का यश साथ साथ बढे, हम दोनों का ब्रह्मतेज भी साथ साथ बढ़े, अब हम पाच अधिकरणों में संहिता की उपनिषद् की व्याख्या करते है, ये पाँच अधिकरण – अधिलोक, अधिज्यौतिष, अधिविद्य, अधिप्रज और अध्यात्म हैं, का क्या अर्थ है
- ऋषि यहा ज्ञान विज्ञान को पांच भाग में बाटकर पढ़ा रहे है
- तीन हम जानते थे आधिदैविक, आधिभौतिक, आधिदैहिक । इनके साथ 2 और बढ़ा दिए
अभी 5 अधिकरणों की व्याख्या इस प्रकार है
- अधिलोक = लोक के अधीन=Outer World
- अधिज्योतिष = ये संसार (पृथ्वी) अपने से प्रकाशित नहीं हो रहा है, ज्योति सुर्य से मिल रहा है, ज्योति जानकारी भी रखनी चाहिए, वेद में ज्योर्तिविज्ञान भी है, आकाश में चमकने वाले पिंड जो स्वयं में स्व:प्रकाशित है, इनकी जानकारी नहीं होगी तब ग्रह परेशान करेंगे, इसलिए इनकी जानकारी लेकर, Meditation से ग्रहों के प्रभावों को काटा जा सकता है
- अधिविद्य = (विद्य = विद्या), विज्ञानमय कोश, तत्वज्ञान (तत्वदृष्टि से बंधन मुक्ति)
- अधिप्रज = संसार की आत्मा, केवल अपने शरीर की आत्मा नही, सारा संसार पदार्थ जगत से बना है, जब अपने को संसार की आत्मा मानेंगे तभी दूसरो का कष्ट अपना कष्ट दिखेगा नहीं तो दूसरो के कष्ट में खुश होगें, दूसरा भी अपने ही शरीर का हिस्सा है
दूसरे को कष्ट हो रहा है और आप कह रहे हैं कि हम तो ठीक हैं तो यही आपका रोग है, क्योंकि हम दूसरो के कष्ट से पीड़ित नहीं हुए, इसलिए गुरुदेव मांसाहार के सेवन करने वालों को निष्ठुर कहते थे - अध्यात्म = मूल तत्व / ब्रह्म तत्व ही अध्यात्म है
परबह्मोपनिषद् में यज्ञोपवित को ब्रह्म के रूप में कैसे विवेचित किया जाए, यज्ञोपवित के विषय में बताया गया है कि 4 अंगुल का विष्टन लपेटन बनाकर के 6 बार करने से 96 तत्व लपेटे जाते है, यह 96 अंगुल का कैसे हो गया
- नकशिख तक पूरे शरीर को 96 अंगुल का माने
9 गुणों को जानकर, 9 के मान से, 3 को पुनः 3 गुणा करके सुर्य, इन्दु और अग्नि को कला के स्वरूप जानो
- कला के रूप में यज्ञोपवित को जानने की बात यहा आई है
- यज्ञोपवित = गायंत्री मंत्र = गायंत्री मंत्र का प्रतिरूप
- यज्ञोपवित गायंत्री मंत्र का स्वरूप था जब मूर्तिया नहीं बनाई जाती थी तो धागे की ही मूर्तिया बनाई गई, उस समय पढ़ाने का यही माध्यम था
- यज्ञोपवित का धागा में भी 3-3 का Pair होता है, हमें उपयोग करने से पूर्व यह देख लेना चाहिए कि धागा सहीं है या नहीं
- गायंत्री व ब्रह्म की एकता इससे जान सकते है
- गायत्री मंत्र का देवता ब्रहवाची है (तत् सवितु वरेण्यम)
- बाकी मंत्र देवताओं के मंत्र होते हैं, गायंत्री मंत्र परब्रह्म का मंत्र है, इसलिए इसे ब्रह्म गायंत्री भी कहते हैं
- जनेऊ हमेंशा ही एक ही variety का होता है, जो गायत्री मंत्र के आधार पर बनेगा, कुछ तथाकथित लोगो ने इसे अपनी स्वार्थ सिद्धी के लिए जाति के आधार पर अलग अलग कर दिया
महोपनिषद् में आया है कि सांसारिक प्रपंच के जानकर पुरुष सांसारिक व्यवहार का ना तो परित्याग करते हैं तथा ना ही उसकी कामना करते है, अपितु वे उनके प्रति अनासत्ती का व्यवहार करते हैं, ज्ञानियों ने संकल्प का अंकुरित होना ही अनन्त आत्म तत्व रूप चेतन का विषयासक्त होना माना है, वही संकल्प अल्प मान में स्थान प्राप्त कर धीरे धीरे सघन होता है तत्पश्चात मेघ की तरह सुदृढ होकर चित्ताकाश को ढककर जड़त्व भाव का संचार करते है, कृप्या इसे स्पष्ट करे
- संसार को प्रपंच कह दिया जाता है, पांच तत्वों से मिलकर यह संसार बना है, इन पांच तत्वों में से पांच फिर निकल जाते है
- पृथ्वी तत्व से 5 कर्मेंद्रियां निकली
- जल तत्व से 5 तत्मांत्राए निकली
- अग्नि तत्व से 5 ज्ञानेद्रियां बनी है/निकली है
- वायु तत्व से 5 प्राण बने
- आकाश तत्व से मन बुद्धि चित्त अंहकार अन्तःकरण बना
- ये पाचों कल्याणकारी है, इसी को पंचमुखी शिवजी/ पंचमुखी गायंत्री/ पंच कोश कहा गया
- जो इस प्रपंच के ज्ञाता हैं तथा जिनको तत्वदृष्टि भी मिल गई तथा इसके अनुरूप स्वभाव को भी अपने नियंत्रण में ले लिया तो अब वे संसार की इच्छा नहीं करेगे, क्योंकि वे जानते हैं की कामनाओं / संकल्प के आधार पर ही परमाणु इधर-उधर दौड़ते हैं
- जैसे आज यदि कुछ पकवान खाने की इच्छा है तो मन को समझाइए कि विवाह शादी में बिना इच्छा के भी मिल जाएगा
- किसी से भी अधिक अपेक्षा ना करें क्योंकि आगे चलकर अपेक्षा भी दुःख का कारण बनेगा
यह दुखः का कारण बनेगा - अभी के समय में हर घड़ी का लाभ अवश्य ले, सन्यांसी लोग इसी प्रकार का जीवन जीते है
- घर के बुर्जुग जब बूढ़े हो जाते है तो वे गृहणी पर कुछ थोपते नहीं है, जो घर में जो बने उसी में संतुष्ट हो जाते है
- आदर्श वृद्ध कुछ भी अपेक्षा नहीं रखते
- सभी की इच्छा में अपनी इच्छा को जोड देते थे इसलिए आज के समय में हमें अपनी इच्छा पर भी नियंत्रण भी होना चाहिए
- त्येन व्यक्तेन भुंजीता, ईश्वर ने जो हमारे लिए छोडा है, उसमें खुश रहे
प्रणव आदि अक्षर है तथा जब हम प्रणव का उच्चारण करते हैं, उपनिषदो में इसकी व्याख्या के लिए अकार उकार मकार का प्रयोग किया जाता है, क्या दीर्घ उच्चारण में भी क्या ॐकार का प्रयोग भी हम ॐ के तरीके से लेगे या अ उ म का प्रयोग भी किया जाएगा
- उच्चारण में अ उ म का उपयोग अलग अलग करके नहीं करना है, यह स्पष्ट समझना चाहिए
- हमें ॐ को तोडकर नहीं बोलना है
- सम्पूर्ण सृष्टि को पढ़ाने के लिए तीन भागों में बांट दिया है
- ॐ एक ऐसा Sound
- गीता में श्री कृष्ण ने कहा कि उच्चारण किए हुए अक्षरों में मै एक ही अक्षर हूँ, एक ही मात्रा उसमें लगनी चाहिए, परन्तु इसमें तीन गुण है
- अवति = रक्षण / सृजन
- पोषण
3 . संहार
- इन तीनो गुणों (सृजन पोषण संहार) को बताने के लिए शब्द होते है तथा शब्दों की Limit बहुत कम होती है
- ॐ (प्रणव) को धनुष कहा
- आत्मा उसका तीर है
- ब्रह्म लक्ष्य है, उसी का भेदन करना है
- अन्त में धनुष भी हाथ में रह जाता है इसका अर्थ यह है कि यदि हमें ब्रह्म का भी साक्षात्कार करना है तो हमें ॐ को भी समाप्त करना होगा
- ॐ एक ऐसा शब्द निकला
- ॐ कृतो स्मरा, कृतघन स्मरा, ॐ खं ब्रह्म,
- इस ब्रह्माण्ड में ॐ ध्वनि गुंज रही है
- नाद में ॐ ध्वनि जब आवाश में से गुजरा तो उसमें से Refraction of Sound होता है, यही ॐ ध्वनि स्वरो में बदल जाएगा -> अ आ इ ई . . ., यह ध्वनि हमें सुनाई पड़ेगा
- यही ॐ ध्वनि जब वायु तत्व से गुजरेगा तो स्वर नहीं सुनाई पड़ेगा, तब हमें कं खं गं घं . . .
- ब्रह्माण्ड के सारे लोक इसी दिव्य वाणी से उत्पन्न हुए हैं, हम Limited न हो तथा केवल ध्वनियों तक न फसें रहे
- ईश्वर अशब्दम् अस्पर्शम् अरुपम् है
- उच्चारण के लिए दयानन्द के भाष्य में ओ3म् लिखा -> इसका अर्थ यह है कि ओ को तीन गुणा हिस्से तक उच्चारण करे तथा एक चौथाई समय तक म् का उच्चारण करे तथा फिर Break कर डाले -> यह उच्चारण करने का सबसे सही तरीका है
मनोमय कोश की साधना में माला से जप नहीं हो पाता है परन्तु मंत्र लेखन में रूची से नए आयाम भी मिले, जप में सोहम् जाप अधिक रूचिकर लगा तथा उससे Meditation में आसानी हुई, क्या जप को सोहम् में परिणत किया जा सकता है
- किसी भी परिस्थिति या साधना में मुख्य लक्ष्य आत्मभाव होना चाहिए
- गायंत्री मंत्र को महावाक्य कहा जाता है तथा सोहम् भी महावाक्य है, इसी प्रकार ब्रह्मास्मि, शिवोहम, तत्वमसि, ये सभी भी महावाक्य है, इस भाव में (आत्मभाव में) रहने की प्रक्रिया को जप कहेंगे
क्या प्रज्ञा युग में दुष्ट दुर्जन कुसंस्कारी लोगों की वृतियां बदल जाएगी, प्राकृतिक echo system एक जानवर दूसरे का भोजन है कैसे चलेगा कृपया प्रकाश डाला जाय
- जीवो जीवस्य भोजनम् -> यह भी कही कही सुनने में आता है,परन्तु इसका अर्थ अलग होगा
- हर जीव का भोजन वह है जो उसकी जीवनी शक्ति को बढ़ाए, इसलिए आदमी का भोजन मांस नहीं है, आदमी शाकाहारी हैं
- मासाहारी जीवो की पहचान अलग है, उनकी आंते छोटी होती है ताकि लंबे Duration तक उसमें Meat ना रहे, नहीं तो उसमें सडने लगेगा
- मनुष्य की आंते 28 फीट तक लंबी है तो उसे पचाने में समस्या होगी तथा Kidney भी Damage होगी
- मांसाहारी जीवो के कुछ दात जबडे से बाहर निकला रहता है तथा वे जीभ से चाट चाटकर पानी पीते हैं, उनकी त्वचा पर पसीने की ग्रंथियां भी नहीं होती, ये सभी गुण शाकाहारी जीवो में नहीं है
- पौधो में भी जीव है, ईश्वर जीव है तथा जीव ही शिव है तथा ईश्वर हर जगह है
- प्रकृति में Eclogical Balance के लिए ईश्वर ने व्यवस्था की है जैसे प्रकृति में यदि चूहा अधिक हो गया तो ईश्वर ने उसके लिए सांप बना दिया, साप चूहे के बिल में कैसे भी जा कर उसे खा सकता है
- Ecological उदण्डता को दण्ड तभी दिया जाता है जब वह सीमा का उल्लंघन करता है
- शिव जी के परिवार में चूहा साप और मोर सभी एक साथ रहते है
- जो नही सुधरने के स्वभाव वाले है, वे प्रकृति के द्वारा नष्ट कर दिए जाएंगे
- जब युग बदलता है तब आसुरी वृत्तियां Dominant नहीं रहेगी तब आसुरी वृत्तियां भी ईश्वर के काम में लग जाती है, समुद्र मंथन में लग जाती है, समुद्र मंथन के समय राक्षसों का राक्षसपन तो रहेगा ही परन्तु वह सकारात्मक दिशा में कार्य करेगा
- हर शक्तियों की बराबर जरूरत पडती है, असुर और देवता दोनो ही ब्रह्मा जी के बेटे हैं
- असुर व देवता में जिसका प्रभाव अधिक रहता है तो उसी के अनुरूप वह युग आता है या युग का नामकरण या युग का रूप उसके अनुकूल बदल जाता है
नाद योग में मुर्धा पर ध्यान करना किसको कहते हैं
- मुर्धा = ब्रह्मरंध्र को कहा जाता है
- नवजात बच्चे के सिर के उपरी भाग पर (मूर्धा पर) कंपन अधिक रहता है तथा इसलिए कुछ समय तक मुंडन नहीं करते है
- जहा Frontal और Parietal Lobe दोनों मिलते है, इसी भाग को हम मूर्धनी कहते है
- Criniel Region में हम ध्यान करे या Mid Brain को मूर्धा कहा जाता है
कृप्या द्वादश मात्राओं को स्पष्ट करने की कृपा करें
- हमें समय अधिक देना है तथा किसी भी तरह की मात्रा को धीरे धीरे बढ़ाना पड़ता है
- मात्रा = Duration of Time, को बढ़ाना है
- प्राणायाम के प्रत्येक चरण (पूरक – अंतःकुंभक – रेचक – बाह्य कुंभक) का Duration बढ़ाना होगा तभी प्राणायाम पर अपना नियंत्रण होगा
- इसके अलावा हृदय में द्वादश ब्रह्म है, जब हम ध्यान करें तो यह भाव करें कि ईश्वर एकांगी नहीं है तथा उसका दिव्य तेज चारों ओर विद्यमान हैं तथा प्रकृति में सभी दिशाओं में घुला हुआ है
- द्वादश भाव भी होते है -> शत्रु भाव, मित्र भाव, धन का भाव , क्रोध का भाव, Depression, अवसाद . . . इत्यादि
- हमारा जप ध्यान एकांगी नहीं होना चाहिए तथा इन सबको संतृप्त करने वाला हो तथा इन सबके प्रहारो से अपने को मुक्त करने वाला हो
- जप में केवल Counting नहीं करनी चाहिए
- अपनी भावनाओं को विश्व व्यापी, ब्रह्माण्ड व्यापी बनाना चाहिए 🙏
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