पंचकोश जिज्ञासा समाधान (24-12-2024)
आज की कक्षा (24-12-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
ईशावास्योपनिषद् में आया है कि वे (इस अनुशासन का उल्लंघन करने वाले) लोग असुर्य (केवल शरीर एवं इंद्रियों की शक्ति पर निर्भर – सदविवेक की उपेक्षा करने वाले) नाम से जाने जाते हैं, वे (जीवन भर) गहन अंधकार (अज्ञान) से घिरे रहते हैं, वे आत्मा (आत्म चेतना के निर्देशों) का हनन करने वाले लोग, प्रेत रूप में (शरीर छूटने पर) भी वैसे ही (अंधकार युक्त) लोकों में जाते हैं, का क्या अर्थ है
- जब आदमी शरीर छोड देता है तो केवल आत्मा नहीं निकलता उसके साथ एक भाप रूपी Bioplasma (अन्नमय कोश) के रूप में निकलता है, जो आँखो से दिखाई नहीं पड़ता
- यदि उस अन्नमय कोश को मरने से पहले शुद्ध नही किया जाएगा तो उसकी आभामंडल थोडी सी Dark होती है, ऐसा आभामंडल Kirlian Photography की मशीन में पाया गया, इस तरह के अन्नमय कोश को धारण की हुई मृतात्मा, को प्रेतात्मा कहेंगे
- प्राणमय वाला आभामंडल अन्नमय से थोडा अधिक चमक वाला होता है
- मनोमय वाला आभामंडल प्राणमय से थोडा अधिक चमक वाला होता है
- जिसने इन अन्नमय / प्राणमय / मनोमय कोशो की साधना नहीं की, उनका आभामंडल अपेक्षाकृत अधिक Dark होता है
- प्रेतात्मा का प्रेतत्व ज्ञान से झड़ता है, इसलिए दाहसंस्कार के पश्चात 9 दिन का ईशावस्योपनिषद् (यर्जुवेद का 40वां अध्याय) / कठोपनिषद् / गीता का दूसरा अध्याय / प्रज्ञोपनिषद् का चतुर्थ मण्डल अध्याय पांच (मृत्योतर प्रकरण) / गरूड पुराण उपसंहार का पाठ रखा जाता है, तब वह प्रेत के बाद पितर योनि में जाएगा
- मोह रखने के कारण मरने के बाद प्रेतयोनि जाता ही है, मोह वाला Dark आभा होगा, वह तम में आता है, वह Inertia है
- हमेशा याद रखे कि प्यार करते समय उसकी आत्मा को देखे या नहीं देखे, अन्यथा वह प्यार, मोह में बदल जाएगा
- यदि आत्मा से प्रेम किए तो वह प्यार को कई गुणा बढ़ा देगा तथा दिव्य प्रेम में भी बदलेगा
- यह एक प्रकार की मानसिक साधना है, यही साधक को ध्यान देना होता है
- काम करे तो Duty fullness के भाव से करे, कितना भी बढ़िया काम करें परंतु ईश्वर का काम मानकर नहीं करेंगे तो यह भी भावनाओं का प्रदुषण है तथा इसका आभा Dark होगा
- ईशावास्यम् इदम सर्वम -> यहा सब ईश्वर की सम्पत्ति है, यह केवल भम्र है कि हमने तुम्हारा काम किया
- किसी को प्रणाम किए तो भम्र न हो कि उस व्यक्ति को हम प्रणाम कर रहे है बल्कि उसके भीतर बैठे ईश्वर को हम प्रणाम कर रहे है
- यह बाता सीधा नहीं कह सकते बल्कि मन ही मन कहिए, एक साधक को हमेशा इसी भाव में रहना चाहिए जिन्हे मोक्ष चाहिए / आत्मा का साक्षात्कार करना है
छान्दग्योपनिषद् में सनत कुमार जी से नारद जी प्रश्न कर रहे है, बता रहे है कि किससे बढ़िया क्या है, फिर आता है कि ध्यान से विज्ञान की बात आती है, विज्ञान से श्रेष्ठ बल है, फिर अन्न है, फिर जल, वायु व आकाश, ध्यान से अधिक श्रेष्ठ विज्ञान है, विज्ञान से ही मनुष्य सब जानता है, फिर आता है कि जब व्यक्ति सत्य को विशेष रूप से जानने में सफल हो जाता है, तब वह सत्य भाषण करता है तब वह बिना जाने सत्य नही बोलता परन्तु विशेष रूप से जानने वाले का ही प्रतिपादन करता है, . . . विज्ञान की ही विशेष रूप से जानकारी प्राप्त करनी चाहिए, का क्या अर्थ है
- विज्ञान = पदार्थ जगत के पीछे कौन सी शक्ति काम कर रही है, यहा विज्ञान का अर्थ तत्वज्ञान से है, इसमें यह पदार्थ कैसे बना, इसकी जानकारी होनी चाहिए
- जो बाहर दिख रहा है उसकी जानकारी को ज्ञान कहेंगे
- जो प्रत्यक्ष हमें संसार दिख रहा है, इसकी जानकारी या इसका उपयोग कैसे करे यह ज्ञान में आएगा
- लेकिन यह कैसे बना है, यह विज्ञान हमें नहीं मालूम है, जैसे तार के भीतर दौडने वाली बिजली जो दिखाई नहीं देती वही विज्ञान है
- वह बिजली कहा से आई, उसके उपर क्या था, इस प्रकार यहा विज्ञान के उपर विज्ञान ही विज्ञान है
- जैसे बह्मज्ञान, तत्वज्ञान, आत्मज्ञान -> ये सभी विज्ञान में ही आएंगे
- श्रद्धा भी एक विज्ञान है, जिसके आधार पर मीरा ने विष को अमृत में बदल दिया, आंखों से देखा / भावनाए निकली तथा परिवर्तन हो गया
- श्रद्धा कभी मोह नहीं होता, श्रद्धा हमेशा आदर्श से जुड़ा रहता है तभी श्रद्धा कहलाएगा, श्रद्धा हमेशा ईश्वर से जुडा है, ईश्वरीय गुणों से जुड़ा है, सार्वभौमता से जुड़ा है तभी श्रद्धा कहलाएगा
परबह्मोपनिषद् में आया है कि यदि श्रुतिरूप आचार से हम जाने कि मै परम ज्योति स्वरूप, मै आत्मा रूप हूँ, प्रकाश स्वरूप हूँ, तो इस प्रकार हृदय चित्त उस ब्रह्म में तत्पर हो जाता है या परमात्मा को प्राप्त कर आत्मा को तृप्त करता रहता है अथवा अपने आत्म स्वरूप आनन्द स्वरूप में स्थित रहता है, ईश्वर से शुभ्र वर्ण उत्पन्न होता है, जिससे चित्त प्रसन्न होता है इस प्रकार त्रिपुटि विरल र्निविकल्प समाधि का अनुभव करके स्वपनावस्था स्थान में विश्राम करता है अर्थात त्रिकुटि विशिष्ठ
अखंडाकार, वृति से शीघ्र ही स्वपनावस्था को प्राप्त कर अहम् ब्रह्मास्मि, तत्वमसि का अनुभव करता है, यहा त्रिकुटि विरल र्निविकल्प समाधि क्या है
- त्रिकुटि = त्रैतवाद = ईश्वर जीव प्रकृति, शरीर में भी एक Point है माथे के बीच में
- भौहो के बीच का स्थान भृकुटि कहलाता है
- त्रिकुटि के सीध में भीतर जाएगे तो वह Pineal Gland के पास ईश्वर जीव प्रकृति तीनो का मिलन है, तीनो को मिलकर एकाकार जो करता है उसे बिन्दु साधना कहते है, ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय इसी एक बिन्दु पर मिलते है, दृष्टा-दृश्य-दर्शन जो पंतजलि ने कहा, वह एक बिन्दु पर मिलते हैं, तब जाकर लगेगा कि एक ही मूल की ये सब शांखाए है
- कृष्ण भगवान को खीरा चढ़ाया जाता है, उसमे तीन भाग इन्ही तीनो का दर्शन दिखाते है तो वहा खीरे से कृष्ण भगवान को मतलब नही बल्कि यह पाठ पढाना होता है
अदृश्य दर्शन - र्निविकल्प समाधि में र्निविकल्प का अर्थ = जब एक के सिवा दूसरा कोई विकल्प न हो, दो देखेंगे तभी विकल्प होगा
जब श्रुति रूप आचार से यह ज्ञान मिल जाता कि मै कौन हूँ तो अष्टांग योग करने की क्या आवश्यकता है
- श्रुति से जानकारी मिल गई परन्तु देखे नही फिर जानकारी की पुष्टि करने के लिए हमें Practical भी करना होगा
- Practical से ही बौधत्व होता है, बिना Practical के नहीं होगा
महोपनिषद् में आया है कि वासना रूपी जल से युक्त संसार जल में जो सद्ज्ञान रूपी नौका पर आरूढ़ है, वे ज्ञानी जन इससे पार हो गए, सांसारिक प्रपंच के जानकार पुरुष सासांरिक व्यवहार का ना तो परित्याग करते है तथा ना ही वे उसकी कामना करते है, अपितु वे उन के प्रति अनासत्ती का व्यवहार करते है, ज्ञानियों ने संकल्प का अंकुरित होना ही अनन्त आत्म स्वरूप आत्म चेतना का विषयासत्त होना माना है, वही संकल्प अल्प मात्रा में स्थान प्राप्त करके वे धीरे धीरे सघन होते है तत्पश्चात वे मेघ के समान सुदृढ होकर चित्ताकाश को ढककर जडत्व भाव का संचार करते है, यह सब पढ़ने पर लगता है कि हम गूढ अवस्था में नहीं पहुच पाते परन्तु उपर के शब्दो के भीतर जाल को समझने की कौशिश करते हैं, जो इसके भीतर छिपी हुई व्याख्या है वहा तक पहुंच नहीं पाते है,उसे अनावृत कैसे करे
- इसलिए हम नहीं पहुंच पाते कि ऋषियो ने जिन शब्दावलियो का प्रयोग किया है वह Outdated है तथा अभी की बोलचाल की भाषा में नहीं है, इसी बात को यदि आज की बोलचाल की भाषा में कहा जाता तो वहा तक पहुंच जाते
- हमारी Dictionary में अभी अभ्यास में नहीं है, उन शब्दावलियो के उच्चारण के साथ गहराई में आर पार के अर्थ को समझ जाना कि वह क्या बोल रहा है
- इसमें जो सुत्र है यह संसार वासना रूपी जल से लबालब भरा है
- यहा वासना का अर्थ रूप शब्द रूप रस गंध स्पर्श है, यहा सब पांच तत्वों की उड़ती हुई परमाणुओं का धूल भर है, ये सब तन्मात्राएं इन्ही पांच तत्वों की सूक्ष्म तरंगे है
- सारे संसार की बनावट यही है, इसमें आकर्षण है तथा इसी आकर्षण विकर्षण में पूरा जीवन आदमी का खप जाता है
- जो साधक प्रज्ञा रूपी नाव पर चढ़ गया तथा इस तत्व ज्ञान को समझ गया कि इसमें (पंचतत्वो में) यह सामर्थ्य नहीं है, इस प्रकार जब हम आत्मा को देखेंगे तो ये तत्व हमें प्रभावित नहीं करेंगे तथा सब रुई के पहाड़ की तरह उड़ कर फैका जाएगा
- जब तरंगे घनीभूत हो गई तो पदार्थ रूप मै बन गया है, पहले परमाणु अलग अलग तत्व रूप में था तो नहीं दिख रहा था परन्तु अब इक्कठा हो गया तो दिखने लगा
- जिस वस्तु को हम देख रहे हैं वह अकेले नहीं, अपितु अनेक परमाणुओं का इकट्ठा ढेला भर है
- यदि हमें कोई भी तत्व दिख रहा है जैसे मिट्टी दिख रहा है तो मिट्टी में पांचो तत्व है उसमे पृथ्वी जल अग्नि वायु और आकाश हैं तभी वह तत्व Visible होगा
- प्रकाश की एक किरण को नही देखा जा सकता, जब visible हो गया तो इसे कला कहेंगे, तरगों के Condensation से यह पदार्थ बना है
- विज्ञान विद्यार्थी के लिए यह समझता बिल्कुल आसान है तथा प्रथम कक्षा की भाति सरल है
- इस प्रकार यह उपनिषद विशुद्ध विज्ञान है
- इसमें उलझे मत व इसका आनन्द ले, आनन्द के लिए ही हम जन्म लिए है, हम चित्त स्वरूप है तो ज्ञान का विकास करते रहेंगे व ज्ञान से खेलेंगे, ईश्वर आनन्दमय है, शांतिमय है, संसार आनंद के लिए ही बनाया गया है
- हम आनन्द व शांति के लिए जी रहे है, हर क्षण जीवन का आनन्द ले
हम ये शब्द बोल नहीं पा रहे तो क्या करे
- शब्दो का उपयोग करना सीखे, इन्ही शब्दों की शब्दावलियों में आपस में बात करें तब आ जाएगा
- संकल्प के अनुरूप जो भी हमारे मन में विचार उठा, वही विचार संगठित होकर वस्तु बन गई है
- जो भी हम विचार करते हैं तो उन्हें विचारों के आधार पर गुट्टियां भी सूरज जाती हैं क्योंकि सारा संसार तो विचारों से ही चल रहा है
- जो उपनिषदो की भाषा में बातचीत करते रहते है उनके लिए कठिन शब्द (जैसे तैल धारावत) भी सरल है
- गुरुदेव ने अखंड ज्योति लिखा तो लोगों ने कहा कि गुरु जी आप बहुत कठिन भाषा लिखते हैं आप सरल भाषा का उपयोग क्यों नहीं करते
- गुरुदेव ने कहा कि हम तुमको ऊपर उठाना चाहते हैं और तुम हमारे ही स्तर को नीचे गिराना चाह रहे हो तो फिर तुम वेद कब पढोगे
- उन कठिन शब्दों का भी उपयोग करना सीखो
पहले के समय में गुरुकुल में संस्कृत अनिवार्य थी तथा इस प्रकार के शब्दों का भी उपयोग होता था तो क्या आज के समय में यदि स्कूलों में संस्कृत अनिवार्य कर दी जाए तथा इस प्रकार के शब्दों का भी उपयोग किया जाए तो वेद व उपनिषद् को पढ़ना समझना आसान हो जाएगा
- तब यह बिल्कुल आसान हो जाएगा
- संस्कृत पढेंगे तो Grammer में उलझ जाएंगे तो अभी के समय के अनुरूप केवल सन्धिविच्छेद पढ लीजिए, यही काफी है तथा शब्दकोशों को बढ़ाया जाए
- अभी के समय में हमारा शब्दकोष कुछ कम है इसीलिए अभी यह पकड़ में नहीं आ रहा
- अभी के भाष्य में जितने भर तक हमें संस्कृत के श्लोक अच्छे लगे, केवल उतना भर रखें, इस प्रकार यहा से प्रवेश करे
- गुरुदेव के प्रत्येक उपनिषद् के अन्त में शब्द कोश भी मिलते है तथा मूल में उन का उपयोग भी मिलता है तथा अनेक अन्य भाष्यकारो द्वारा रचित योग वशिष्ठ में केवल अर्थ भर मिलेते है तथा संस्कृत के श्लोक उसमें से गायब रहेंगे
- गुरुदेव ने प्रज्ञोपनिषद् भी लिखा तो उसमें श्लोक व टीका दोनों लिखें, उसमें व्याख्या उनकी नहीं है परंतु टीका जो लिखे हैं वह अपना लिखे हैं तो ऐसे में आप केवल टीका ही टीका पढ़कर आगे बढ़ जाइए
महाभारत युद्ध में जब अर्जुन को मोह हो गया था तो भगवान कृष्ण गीता जी का उपदेश दिए थे, तो अर्जुन का मोह टूटा था परंतु आज के समय में मोह का दायरा कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है तो आज के समय में कौन सा उपदेश देना चाहिए
- ऐसा ज्ञान जो मोह को खत्म करें तथा ऐसा ज्ञान Practically साथ में रहकर देना होता है
- भाषण केवल ना दे, इन दिनों भाषण युग चल रहा है, व्यवहार में उतरेगे तथा खुद भी करते रहेगे तो फिर बिना कहे ही वे समझ जाएंगे
- हमें पहले Role Model बनना पडता है -> शिक्षण वाणी से नहीं आचरण से दिया जाए तो आज वाला मोह गायब होगा, आजकल भाषण लोग अधिक देते है, संसार में प्रैक्टिकल लाइफ जीने वाले लोग बहुत कम रह गए हैं
- तत्व ज्ञान = मोह को हटाता है
- कमल = तत्वज्ञान / ब्रहमज्ञान / आत्मज्ञान / र्निलिप्त ज्ञान / शुद्ध ज्ञान -> इसी से मोहरूपी शरीर गलेगा
- मोह को पानी कह दिया, उपनिषद् ही मोह को खत्म करेगा, श्री कृष्ण ने अर्जुन को उपनिषदों के सूत्र बताएं
- सारे उपनिषद् कामधेनु गाय है तथा कृष्ण उनको दोहने वाले हैं
- इनके (अर्जुन के) माध्यम से अन्य ज्ञानियों को लाभ मिलेगा
- अर्जुन एक माध्यम भर है/भावना भर है तथा इनके माध्यम से पूरे विश्व को लाभ मिलेगा
संस्कृत भाषा सभी भाषाओं की माता है, पूर्णतया वैज्ञानिक भाषा है, इसमें जो लिखा जाता है वही बोला जाता है, बाकी भाषाओं में ऐसा नही है फिर आध्यात्म में जाना कि एक ही अर्थ के अनेक अर्थ हो सकते हैं, यदि वह Positive है तो उस अर्थ को लेकर आगे बढ़े, फिर व्यवहार जगत में यह पाया कि भाषा/वाणी संप्रेक्षण का माध्यम है, फिर आया कि आध्यात्म गुगें के गुड की मिठास है, आप सामने वाले के अनुरूप उसे परोस देते हैं तो शिक्षण पद्धति की यह कला हमें भी उसी तरह रखनी होगी ताकि सामने वाला उसे Easily पचा ले / Digest कर ले
- तभी आप सफल / कुशल शिक्षक कहलाएंगे, आज के समय में कुशल शिक्षक का आभाव है
- कुशल शिक्षक को देवऋषि नारद कहा जाता है, ऐसी सलाह जिसे रद्द न किया जा सके
- शब्दों का एक Limit होता है
- शब्दों के साथ कैसा भाव दिया जाए, कैसा Tone दिया जाए, कैसी विनम्रता दी जाए -> यही Method & Mode of Teaching होता है
- हम समझने में इसलिए सफल हो जाते हैं क्योंकि गुरुदेव ने आत्मसाक्षात्कार करा दिया
- जिस व्यक्ति को आत्म साक्षात्कार नहीं है वह शब्दों में उलझ कर रह जाएगा, सभी प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सकता
- जो हर जगह एक ही ईश्वरीय सत्ता को ना देखा हो, तो वह द्वैत भाव में या अन्य कहीं उलझ जाएगा इसलिए एक कुशल शिक्षक बनने के लिएआत्मसाधना बहुत ही जरूरी है
- जितनी गहराई बढ़ती जाएगी उतना ही भीतर से प्रकटीकरण आता जाएंगा
- बालको के पास बहुत बडा Dictionary नहीं होता है तो उन्हें उन्हीं की Dictionary में कैसे बताया जाएं, यह कठिन है
कबीरदास ने जो इतने लोगो को प्रभावित किया तो उनके पीछे भी क्या आत्म साक्षात्कार ही मुख्य कारण रहा
- उनके लिए भी तथा सभी के लिए जो भी इस प्रकार के महात्मा बने है, चाहे वे महर्षि अरिविदों हो या विवेकानंद रहे हो या कबीरदास रहे हो या संत नानक रहे हो, इन सभी ने आत्म साक्षात्कार किया तभी विश्व में समस्याओं का समाधान करने में सफल हुए
- आध्यात्म ही समाधान है
- जो आत्मा / परमात्मा का साक्षात्कार करेगा तो उसके पास समाधान ही समाधान है, प्रश्न ही नही है
क्या गांधारी के श्राप से सारे यदुवंशी मर गए थे तो फिर उनका वंश कैसे चल रहा है कृप्या प्रकाश डाला जाय
- इसलिए उनका वंश चल रहा है क्योंकि कृष्ण ने कहा है कि आत्माएं कभी मरती नहीं
- केवल शरीर रूपी कपड़ा / कुर्ता ही फाड़ा है तथा फिर वह भी दूसरे का कुर्ता फाडने के लिए फिर से जन्म लेगा
- यह तब तक चलता रहेगा जब तक दोनो को आत्मज्ञान न मिल जाए
- ईश्वर ही सभी को माध्यम बनाता है
- यदुवंशी फिर आपस में ही लडने लगे क्योंकि महत्वकांशाए इतनी अधिक बढ गई
- आत्मा तो सबका एक प्रकाश जैसा ही होता है, एक मरा तो दूसरी वृतियों में बदल जाता है
- क्षेत्र में सब नही मरते कुछ बचे रह जाते है जैसे कृष्ण बचे रह गए थे तथा अन्य भी बचे थे
- जो द्वारका के आस पास थे वे भी बच गए, यह महाभारत एक खास Area के व खास लोगो के लिए हुआ था
- हमेशा नस्ल खत्म नहीं होता है, मानवी बीज बचे रहते है फिर जाकर जब वह जन्म लेगा तो जहां से अध्याय समाप्त हुआ था वहीं से ही वह अध्याय शुरू हो जाता है 🙏
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