पंचकोश जिज्ञासा समाधान (24-10-2024)
आज की कक्षा (24-10-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
परिवार में किसी की मृत्यु के पश्चात कठोपनिषद् के साथ और कौन-2 से उपनिषद् का पाठ किया जा सकता है
- प्रज्ञोपनिषद् के चौथा मण्डल का पाचवा अध्याय मरणोत्तर प्रकरण पढ़ना जरूरी है
- गीता के दूसरे अध्याय (स्मृतियों में पहले न० पर आता है) का पाठ किया जा सकता है, यह उपनिषदों का सार भी है
वांग्मय 13 में 5 कोशो की स्थिति व प्रतिक्रिया में दिया है कि पृथ्वी, अंतरिक्ष, सुर्य, लोक, आवन्तर दिशाएं पाच लोको का समूह है, यहा आवन्तर दिशाएं क्या है
- चार दिशाए पूर्व – पश्चिम – उत्तर – दक्षिण के अलावा दो दिशाओ के बीच के कोने वाला जैसे अग्नि कोण, ईशान कोण, . . . उपर व नीचे कुल 10 दिशाएं हो जाती है
12 आदित्य का क्या अर्थ होता है
- ये दिशाएं नही अपितु द्वादश भाव होते है
- भावनाओं का केन्द्र अनाहात चक्र है
- जन्मकुण्डली में 12 राशिया है तथा सुर्य 12 राशियों से गुजरता है
- ये राशिया मनुष्य की मानवीय चेतना पर अलग अलग सूक्ष्म प्रभाव डालती है तब ये सभी द्वादश आदित्य हो जाते है
- इन राशियों से जुडे भाव -> मित्र भाव, शत्रु भाव, पत्नी भाव, धन भाव, आध्यात्म भाव . . .
- ये सभी भाव पंचांग मे भी आ जाएगा, ये सभी भावनात्मक सुर्य है
- प्रत्येक राशी में नक्षत्र के 4 चरण होते है
- 27 नक्षत्र में प्रत्येक में 4 चरण होता है (27 x 4 = 108)
- 12 राशिया तथा 9 ग्रह के अनुसार भी (12 x 9 = 108 दाना) माला में रखा जाता है
- किसी भी जगह, किसी भी नक्षत्र में जन्म लिया हो, 108 बार गायंत्री मंत्र का जप करने से उसके ग्रह दोष कटते हैं
- आकाश में जितने भी चमकने वाले ज्योर्तिपिण्ड है वे सब चुम्बक है, मनुष्य भी चुम्बक है तो उन नक्षत्रों का प्रभाव मनुष्यों पर पडता है
- सुर्य की या अन्य नक्षत्रों की किरणे कितना डिग्री पर आ रहा है, इसके अनुरूप भी प्रभाव बदलता है
अपान पर अधिकार पद्धति का जिसको ज्ञान नही होता है तथा अगर वह हठपूर्वक ब्रह्मचर्य रखता है तो उसका उसको नुकसान उठाना पडता है, आम जीवन में व्यवहारिता के तौर पर जो हठ योगी चक्र भेदन की कला नही जानते हैं तथा उन्हे अपान पर अधिकार करना हो तो वे शुरुवात कहा से करेंगे
- वहा विस्तार सिकोडे / अपनी आवश्यकताए कम करे व स्तर उचा करे
- मूलाधार कामनाओं का केन्द्र है, वहा काम उर्जा है तो कामनाएं जितनी भागती जाएगी तो उसी की पूर्ति में व्यक्ति का जीवन खप जाएगा
- एक कामना के साथ साथ दूसरी अन्य कामनाएं भी आती जाती है तथा इन्हीं की पूर्ति में पूरा जीवन बीत जाता है
- कुण्डलिनी जागरण में मुख्यतः काम उर्जा का रूपांतरण होता है तो काम उर्जा जहा नीचे (संसार) की तरफ जा रही हो तो उसे कहा जाएगा कि अपान नीचे की ओर भाग रहा है
- तन्मात्रा साधना (मनोमय) से शुरू किया जाए, पहले मन को आज्ञा चक्र में तपाने की बात की जाती है तब उसे चक्रो के पास ले जाए ताकि वह नीचे की ओर खीचें मत
- पहले उर्जा को शक्तिचालीनी / मूलबन्ध / अश्वनी मुद्रा / वज्रोली मुद्रा से उत्पन्न करके फिर मन ही उस उत्पन्न हुई उर्जा को ध्यान के माध्यम से उपर खीचेगा
- नियमित स्वाध्याय करने से सारी काम उर्ना इधर खर्च हो जाएगी तथा उधर सोचने का समय ही नही मिलेगा, खाली मन ही शैतान का घर होता है
- मन को कुछ काम नही दिया जाए तो वह आवारा कुत्तो की भाति भटकेगा तथा अपने स्वामी को विनाश पूर्ण मार्ग में फसा कर मार डालेगा
- स्वाध्याय + संत्संग + मनन + चिंतन में यदि सामान्य व्यक्ति भी लग जाएगा तो मन को भटकने का Chance कम मिलता है तथा काम उर्जा यहा विशेष गुणो में / ज्ञान में Transform हो जाएगी
- जो बच्चा जिम जाने लगता है या खेल में या अन्य किसी रचनात्मक कार्य में लग गया तो अपने वीर्य का क्षरण रोक देता तथा रचनात्मक कार्य में उसका उपयोग होने लगता है
- तब चक्रो मे जागरण में सुविधा होगी
4 उपनिषद् में कौन से उपनिषद् कुण्डलिनी जागरण में मदद करते है
- 3 उपनिषद -> योगकुण्डलिनी उपनिषद्, योगचूडामणी उपनिषद्, योगराजोपनिषद्
- सावित्री कुण्डलिनी एवं तंत्र भी पढ़े
- या जनवरी 1987 की अखंड ज्योति में कुण्डलिनी विशेषांक पढ़े
- उपनिषद् में कुण्डलिनी जागरण का विज्ञान नही बताया गया परन्तु गुरुदेव ने अपने भाष्य वांग्मय व अखंड ज्योति में इसका विज्ञान भी जोड़े तो वह विज्ञान जानने से कुशल मार्गदर्शन मिलता रहेगा
मन को आज्ञा चक्र में पकाने का क्या तात्पर्य है
- बीज मंत्र ॐ है तो ईश्वर की सर्वव्यापकता का हम वहा अनुभव करते है तथा ईश्वर के अनुशासन में हमें कार्य करना है
- पहले पदार्थ चेतना पर आत्मा का नियंत्रण करना है, यह हमेशा याद रखना है
- दूसरा हम (आत्मा को) ईश्वर के साथ जुड़कर कार्य करना है
- कुण्डलिनी क्यों जगाए यह उद्देश्य अच्छे से समझना है -> ईश्वर के काम के लिए
- स्वयं को जानना व ईश्वर के कार्य में अपना सहयोग करना -> यही दो मुख्य काम है, इस भाव से कार्य करने पर जीवन का उद्देश्य ही बदल जाएगा, इसे तपाना कहते है
- आध्यात्म व विज्ञान = हं और क्षं
- आज्ञा चक्र में जगाने की अलग ध्यान प्रक्रिया है -> तीन शरीर / पचंकोश / कुण्डलिनी जागरण / आज्ञा चक्र / अमृत वर्षा का ध्यान . .
- 7 प्रकार के ध्यान गुरूदेव ने मन को तपाने के लिए बताए है
- जैसे लोहे को आग में तपा लेने पर इच्छानुसार आकृति बनाई जी सकती है
- मन को ही तपाया जाता है क्योंकि मन की नोक पर प्राण दौडता है -> यह हमेशा याद रखे
- जब भी काम उर्जा जगेगी तो जहा भी सोचेगे, वही पर ही मन चला जाएगा -> संसार भाव / शरीर भाव / ईश्वरीय भाव, जहा भी सोचेगे उर्जा का प्रवाह वही होने लगता है, इसलिए मन को तपाया जाता है
साधना में भावुक होना सही है या नहीं
- आंसुओं का आना Lacrimal Gland के कारण अधिक दबाव पड़नें पर होता है
- वहा (Lacrimal Gland) पर दबाव भावनाओं व विचारो से पड़ेगा
- या त्राटक से भी आसू आता है, वह आंसू आंखो को Lubricate करने के लिए Reflex Action से आएगा
- सबसे अधिक भावनाओं में आसु आते है
- भावनाएं अच्छी चीज है परन्तु भावनाओं में बहना ठीक नही, भावनाओं से शक्ति ली जाती है तथा उस शक्ति को विशेष दिशा में उपयोग किया जाता है कि हम गुरुदेव के छोडे कार्य को पूरा हम ही करेगे फिर आंसू सूख जाएगा व शक्ति में बदल जाएगे
- भावनाओं पर प्रज्ञा का नियंत्रण रहेगा तो चमत्कार दिखाएगा तथा प्रज्ञा के द्वारा ही नियंत्रण किया जाता है तथा प्रज्ञा के द्वारा आदर्श भाव में बदल जाता है
- भावनाओं का केंद्र अनाहत चक्र है तथा यहीं से दरवाजा शुरू होता है
- व्यक्ति को भाव संवेदनशील होना चाहिए, यह अच्छी चीज है
अपान प्राण को हठवश नियंत्रण करना या उपनिषद् के अनुरूप नियंत्रण करना, क्या एक ही बात है
- समय व परिस्थिति के अनुरूप इसका उपयोग करना है, बहिरंग वृतियो में नही लेकर आना है
- पांचों तन्मात्राओं में किसी की भी ललक हो तो उस वस्तु को हटा देने को हठ कहेंगे
- ज्ञान से उस वस्तु को हटाने को हठ नही कहेंगे, वह ज्ञानयोग कहलाएगा
- दोनो की ही जरूरत पडती है
- वातावरण बदलने से भी पुरानी आदत व मन बदलने से भी लाभ मिलता है
- हठयोग की भूमिका -> राजयोग को सिद्ध करने के लिए होती है, दोनो एक दूसरे के पूरक है, केवल एक को लेकर चलने में या दबाने में मन में ललक बनी रहेगी
- यह ललक भी आत्मज्ञान के द्वारा तत्वदृष्टि / विवेकदृष्टि से समाप्त हो जाती है
- बहिरंग वृति व्यवहार में लाने से पूर्व उसे हठयोग से रोकना ही पड़ेगा तथा मन की उद्धण्डता को दबाना ही पड़ेगा तथा बाहर के शिष्टाचार का पालन करना ही पड़ेगा
स्वास्तिक के चित्र को आंख बंद करके भी भीतर दिखता है परन्तु Candle को इसी प्रकार देखना चाहती हूँ, मनोमय कोश की साधना के लिए तो आंख बंद करके कुछ नहीं दिखता है दोनो में क्या अन्तर है तथा स्वास्तिक या Candle में से कौन सा अधिक अच्छा है
- स्वास्तिक या Candle सें कोई लेना देना नहीं
- दोनो में सें जिससे अपने को अधिक आनन्द मिलता हो तथा मन को अधिक Refinement मिलता हो तथा ताजगी व शांति की अधिक अनुभूति होती हो, उसे ही माध्यम चुने
- परा विज्ञान की दृष्टि से सब शून्य है तो यह निर्णय स्वयं करना है
- बह्म को सुर्य ज्योति के रूप में कल्पना किया जाए तथा कोई आकृति नही रहेगी बल्कि गोल प्रकाश रूप में रहेगा
- गोल रूप व प्रकाश रूप रहे तो अधिक अच्छा रहेगा, सबकी आत्मा प्रकाश पुंज के रूप में रहती है, वह साकार होते हुए भी निराकार कहा जाता है
गीता में आया है कि साधना के पूर्ति काल में पुरुष अकेला रहता है, का क्या अर्थ है
- वहा आत्मा को पुरुष कहा गया है
- संसार के सभी वस्तुएं साधन है, पूरी अपरा प्रकृति ही साधन है, सभी आत्मा के लिए क्रीडा स्थल है
- सिर्फ एक ही चेतना है -> आत्मा / परमात्मा
- साधन = संसार के जो भी Asset है वे सभी आत्मा के उपकरण/साधन है
- ये साधन विकास के लिए या भोग व मोक्ष के लिए हो सकते हैं
उपनिषदों के शुरुआत में जो शांति पाठ आता है उसमें आता है कि हे परमात्मन मेरी वाणी मन में स्थित हो तथा मन वाणी में प्रतिष्ठित हो, इन दोनो का क्या अर्थ है तथा इसका Practical कैसे किया जाए
- जो बात बोली जा रही है, उसमें अपने मन की तेजस्विता भी घुली है
- कभी कभी एक ही मंत्र ध्यान न रहने से बार बार लिखा जाता है
- मनोयोग को यहा कहा जा रहा है
- वाणी = Practical = प्रत्येक क्रिया / गतिशीलता वाणी ही है
- बीच में मन है
- मन वाणी में स्थित हो -> वह मन हमारी परा वाणी से जुड़ा हुआ हो तथा दूसरी ओर स्थूल बैखरी वाणी है तथा बीच में मन पश्यन्ति वाणी के रूप में है
- मन की गति दोनो ओर है -> आत्मा (परा) की ओर भी तथा संसार (बैखरी) की ओर भी
- मन को परा के साथ जोड़कर बैखरी का हम प्रयोग करे
क्या बोलने से पहले, क्या सही है व क्या गलत है क्या यह मन से सोच कर पूरे नियंत्रण के साथ बोला जाए
- उसमें मनोयोग होना चाहिए
- काम भी करे तो मन के साथ करे अन्यथा अपना नुकसान कर सकते है
मन वाणी में प्रतिष्ठित हो, का क्या अर्थ है
- हमारा मन हमें कल्याण की दिशा में (परा वाणी/तन में मनः शिवसंकल्पमस्तु) लेकर चले
- जहा शिव है वहा वाणी हो, हम स्वयं को ईश्वर की वाणी से जोड़े / ईश्वरीय अनुशासन में चले व संसार का कल्याण भी करे तथा केवल अपने स्वार्थ की बात न हो
क्या वानप्रस्थ आश्रम के पालन के बिना ढलती आयु में सुख शांति सम्भव है कृप्या प्रकाश डाला जाय
- सुख शान्ति तो मिलेगा परन्तु कम मिलेगा
- जो समाज के लिए मरता है उसके लिए पूरा वतन रोता है
- वानप्रस्थ में यही करना होता है कि 3 महीना घर वालो के लिए तथा 9 महीना संसार / समाज का कार्य करे
- चेतना का विस्तार करना है तथा वसुदेव कुटुम्बकम की दिशा में भागना है, तो उसका सुख व्यापक हो जाएगा
- धीरे धीरे परम सुख में बदलेगा वह परम शांति वाला आनंद आएगा, इसलिए अपने दायरे को बढ़ाया जाए
- ढलती आयु में एक और काम भी करना होता है कि जीवन के उत्तरार्थ को परमार्थ में नियोजित करें, विषयो से वैराग्य ले व लोभ और मोह को छोडे
- जब तक वैराग्य नहीं लेगे तब तक घरवालो के प्रति मोह बनता रहेगा
- जहा पर मोह होगा वहा पर ढेर सारे कीटाणु उत्पन्न हो जाएंगे
- यह तरीका अच्छा है कि जब बच्चे बडे हो तो उन्हे जिम्मेदारी सोपकर समाजसेवा में निकल जाए
आपके निर्देशानुसार मैं यह समझ पा रहा हूँ कि Smart work (श्रम/labor + Dutifulness + Awareness) के साथ अपान पर अधिकार की शुरूआत की जा सकती है
- एक और बात इसक साथ जोडना होगा कि सामने वाले का कल्याण भी उसमें जुडा हो तथा उस कार्य को ईश्वर का काम मानकर करेंगे तथा हम केवल माध्यम भर है, सभी बच्चे ईश्वर के ही है तथा उनका देख रेख करने के लिए ईश्वर ने हमें नौकरी दिया है, यह मानेंगे तब अपान पर जल्दी नियंत्रण हो जाएगा तथा भटकाव की स्थिति नही आएगी 🙏
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