पंचकोश जिज्ञासा समाधान (23-12-2024)
आज की कक्षा (23-12-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
ईशावास्योपनिषद् में आया है कि यहा कर्म करते हुए 100 वर्ष तक जीने की कामना करे, कर्म मनुष्य को लिप्त नहीं करते, यह तुम्हारे लिए है, इसके अतिरिक्त परम कल्याण का कोई और अन्य मार्ग नहीं है, यहा कर्म कैसे लिप्त नहीं करते
- कर्म मनुष्य को लिप्त नहीं करते, काम करे परन्तु उसमें लिप्त न हो, कोयले का Business करे तथा काला न हो, संसार में कमल की भांति र्निलिप्त रहना, यही आध्यात्म है, यह तब होगा जब त्यागपूर्वक भोगेंगे
- जैसा इससे पहले वाला मंत्र में भी आया है कि ‘तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा’ -> त्यागपूर्वक भोगने की बात यहा की जा रही है
- दूसरो को लगेगा कि हम संसार का सुख भोग रहे है परन्तु हम ईश्वर को भोग रहे है क्योंकि हमारी आंखे उसके विचार भाव को नहीं देख पा रही थी
- यदि हम ईश्वर के भाव से काम करते हैं तो लिप्त नहीं होंगे, क्रियाएं हो जाएंगे परंतु उसका Reaction आप पर नहीं आएगा, तो करते हुए भी अकर्ता कहलाएगा, कर्म में अकर्म को देखो -> इसी को श्रीमदभगवदगीता में कहा गया है
- क्रिया की प्रतिक्रिया तो होगी परन्तु जहां छोड़ा गया है वहा पर होगी, छोडने वाले पर नहीं होगी
- फायरिंग करने वाला राइफल को कंधा से दूर रखे तो कंधा तोड देगा परन्तु राइफल को यदि निपकाकर रखेंगे तो केवल झटका लगेगा, कंधा टूटेगा नहीं, इसी प्रकार का Trick संसार में जीने के लिए उपयोग में ला सकते है, जीना तो जरूरी है तथा जीने के लिए कर्म भी करना ही होगा
- लिप्त नहीं होने का अर्थ कि हम ईश्वरीय भाव / आत्मभाव मे रहकर काम करे तो आत्मा में ये सब प्रतिक्रियाएं नहीं होती, आत्मा इन सब से परे है
- श्री कृष्ण ने यही कहा कि तू कर्म भी कर और मुझे स्मरण भी कर आत्मस्थित / सोहम भाव में रहकर काम करे
- आग बुझाने से पहले Fire Proof Jacket या बिजली का काम करने से पूर्व Insulated Glove पहन ले तो कोई नुकसान नही होगा
- हमारा आभामंडल भी एक तरह का सुरक्षा कवच / Insulator होता है तो Alpha state में रहकर हम काम करे
- स्वार्थ बुद्धि नहीं परमार्थ बुद्धि से कार्य करे
- इस प्रकार जब हम कर्म को ईश्वर का काम समझकर करते है तो भीतर ही भीतर बडी प्रसन्नता😀 होती है, मानो कोई भीतर से Thankyou कह रहा हो
- इसके विपरीत यदि उसी काम को अपना काम मानकर करेंगे तो हमें Tension होगा, भारीपन लगेगा व थके हारे घर में आएगें
- रसगुल्ला के रूप में बह्म को खा रहा है तो उसे डायबिटिज या अन्य कोई समस्या नहीं होगी
- परन्तु उस स्थिति में आते के लिए साधना करनी पड़तीं है
- मीरा / प्रहलाद की तरह अपनी प्राणशक्ति में इतना बिजली भरना पड़ता है कि हमारे सोचने मात्र से ही परिवर्तन हो जाए
- इतनी दृढ़ निष्ठा व अटूट श्रद्धा से कोई भी काम किया जाए तो वह चमत्कारी होता है
परबह्मोपनिषद् में पिपलाद ऋषि त्रिपाद ब्रह्म की प्राप्ति के उपाय बताते हैं, जीव के प्राणाधार रूप में विश्वादि तुरीयान्त भेद से प्राण के चार भेद होते है, उन्हे प्राप्त करने वाली नाड़ियां भी 4 प्रकार की होती है, ये चार रमा, अरमा, इच्छा और पुनर्भवा नामक है, इनमें रमा और अरमा नाड़ियों का अवलंबन लेकर वह प्राण आकाशगामी श्येन(बाज) की तरह जाग्रत, स्वप्न आदि के व्यवहार से थकित होकर सुषुप्तावस्था में चला जाता है, यहा त्रिपाद बह्म क्या है तथा प्राण के 4 भेद कौन कौन से है
- पुरुसुत्त वाला त्रिपाद शब्द यहा आया है – इसका अर्थ है कि यह त्रिपाद (ब्रह्म) सृष्टि में लिप्त नहीं है
- एक शान्त व आनन्ददायक अवस्था को त्रिपाद ब्रह्म कहेंगे, त्रिपाद बह्म चिदाकाश में रहेगा, वहा पर कोई हलचल ही नहीं होती, कोई तरंग वहा नही होती
- चार प्राण, चार अवस्थाओ के लिए कहा गया है -> जागृत स्वपन सुषुप्ति तुरीया
- जहा तुरीया जोड़ दिया तो वहा प्राण की जागृत / Kinetic मानी जाएगी
आगे आया है कि जिस प्रकार श्येन आकाश में उड़ते उड़ते थककर अपने घोंसले में विश्राम हेतु चला जाता है उसी प्रकार जीव भी जाग्रत स्वप्नादि प्रपंचों से थककर दोनों नाड़ियों का आश्रय लेकर सुषुप्ति में विश्रांति प्राप्त करता है, वह जीव कभी-कभी सुषुप्तवस्था में अन्यत्र भी भ्रमण करता है, यहा श्येन पक्षी सुषुप्ति अवस्था में कही नही जाता, का क्या अर्थ है
- बाज को श्येन पक्षी कहते हैं, वह भी थकता है
- जीव भी संसार में ईधर उधर दौड़ता रहता है, जब थक जाता है तब शरीर व मन Rest को खोजता है, यह प्रकृति की व्यवस्था है
- नीद आने पर हम सारे संसार को भूल कर सो जाते है, प्रकृति का ऐसी व्यवस्था है ताकि हमारा शरीर मत मरे, यह Battery Charge करता है, यहा Autosystem है
- इसलिए पूर्ण आराम देना भी अनिवार्य है, नहीं देगे तो शरीर को नुकसान होगा तथा योग के माध्यम से योग निद्रा से कम समय में बैटरी चार्ज की जा सकती है
छान्दोग्योपनिषद् में चित्त संकल्प से अधिक श्रेष्ठ है, जब व्यक्ति चिन्तन से युक्त होता है तभी संकल्प करता है, तदन्तर इच्छा करते हुए वाणी एवं नाम को प्रेरित करता है, नाम मंत्रा रूप एवं मंत्र कर्मारूप होकर तदाकार हो जाता है, का क्या अर्थ है
- मंत्र = मंत्रणा = विचार तरंगे
- वेद मंत्र ध्वनि तरंगे है
- विचार उठकर जब घनीभूत होता है तो ही क्रिया में बदलता है, विचार ही ठोस रुप ले कर पदार्थ में बदलता है, इसलिए यह भी कहा जाता है कि विचार ही क्रिया रूप होकर पदार्थ में बदलता है
- नाम का यहां यह उद्देश्य होता है कि हमारे भीतर चित्त से (चित्ताकाश से) ही संकल्प उठते हैं, चित्त बडा इसलिए भी कहा गया कि इतना Space बाहर नहीं दिखता परन्तु भीतर ही सारे स्वपन व कार्य होते रहते है, सारे जीवो के विचार वहा उठते रहते है, हमारे चित्त के भीतर तो केवल एक जीव के संकल्प उठे
- यहा चित्त = समष्टि चित्त = ईश्वरीय चित्त है
- सोने पर भी हमारे भीतर के सारे Systems काम कर रहे होते है
- केनोपनिषद् में आता है कि यह संसार किस प्रकार अपना रूप बदलता है -> इस समष्टि चित्त में अनेक जीवों के संकल्प उठते रहते हैं, क्रियाए होती है, संसार में बदलाव होते है
- इस प्रकार संसार में क्रियाओं से जब कोई भी चीज जब उत्पन्न हो गया तो वह नाम कहलाएगा, नामकरण संस्कार की तभी जरूरत होगी जब कुछ उत्पन्न हो जाता है, तब उसके गुण के आधार पर नाम रखेंगे
महोपनिषद् में सत और असत के बीच शुद्ध पथ को जानकर उसका अवलम्बन ग्रहण करके बाह्यान्तरिक दृश्यों को ना तो ग्रहण करे और ना ही त्यागे, क्या इसका हम यह अर्थ भी समझ सकते है कि ईश्वर को प्राप्त कर/जानकर उसका अवलम्बन ग्रहण करके बाह्यान्तरिक दृश्यों को ना तो ग्रहण करे और ना ही त्यागे, दूसरी चीजो पर हम ध्यान ही न दे, केवल ईश्वर में ही चेतना बनाए रखे, क्या यह समझ सकते हैं
- न ग्रहण करे तथा न त्यागे -> यहा इसी को समझना है
- द्वैत भाव में न रहे, क्रियाए सब चलती रहे, जीवन व्यापार ना रुके
- द्वैत भाव आ गया तो रोग शुरू हो गया, अन्तरदद्ध ही रोग का मुख्य कारण है
- सबकी उपयोगिता केवल अलग अलग है, अन्न भी ब्रह्म है, मन भी ब्रह्म है, प्राण भी ब्रह्म है, सब बह्म है भेद दृष्टि न रखे
- सबमें ईश्वर है, ईश्वर को सर्वव्यापी माने और सबका सदुपयोग करें, दुरूपयोग न करे
क्या अगले श्लोक का भी यही अर्थ है -> यदि आपके हृदय में इद्रिय जन्य विषय हलचल पैदा नही करते तो आप ज्ञातव्य पदार्थ का ज्ञान प्राप्त कर संसार रूपी समुद्र से पार हो गए
- इसका अर्थ है कि आपको आत्मा का साक्षात्कार हो चुका है
- अब यह मत समझिए कि आत्मा कुछ अलग है, इसी जनक जी शुकदेव जी के पास मोहर लगवाने (सत्यापन करवाने) गए थे
आसत्ति रहित कर्म करने के लिए साधना करनी पड़ेगी, यदि हम साधना में जुड़ने की कोशिश करते है तो सांसारिक या पारिवारिक ऐसी अकास्मिक परिस्थितियां आ जाती है तो यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि हम साधना करे या अपना पारिवारिक दायित्व निभाए, क्या करे
- अनासक्त कर्म करने के लिए साधना करनी होगी, साधना के बीच घर में कुछ आपत स्थिति आ गई तो क्या करे -> यहा साधना शब्द confusing है, कि हम साधना को क्या मान रहे है, कोई भी काम आ गया हो तो उसे अनासत्ती पूर्वक करे
- साधना = किसी भी काम को अनासत्त भाव से करे तो ही साधना कहलाएगी केवल माला घुमाना साधना नहीं है
- साधना = अनासक्त कर्म का अभ्यास ही साधना है, कर्म को छोडना नहीं
शान्ति पाठ में आया है कि गुरु व शिष्य के प्रति ईष्या द्वेष ना करे, क्या ऐसा भी होता है कि गुरु व शिष्य में भी ईर्ष्या भाव जागृत हो सकता है
- ईष्या भाव होगा तो ज्ञान के आदान-प्रदान का Sequence टूट जाएगा / ज्ञान का आदान प्रदान रुक जाएगा
- श्रद्धा नहीं होगी तो जो बोल रहा है, उसकी बात पर भी विश्वास नहीं होगा, वह घृणा भी करने लगेगा, तब समझे कि आपका गुरु मर चुका है, तब आपका उससे संबंध टूट जाएगा तथा आप चाह कर भी उनसे ज्ञान नहीं ले सकते
- इसलिए श्री कृष्ण ने कहा -> श्रद्धावान लभते ज्ञानम् (श्रद्धावान ही ज्ञान ले पता है), तब वह मूर्खो से भी ज्ञान ले लेगा
- अमेरिका के राष्ट्रपति से पूछा गया कि आपके गुरु कौन थे -> उन्होंने बताया कि जो भी Failure लोग थे, वे सभी हमारे गुरु थे तथा वो गलतिया हमने नहीं दोहराई, जो उन्होंने की थी
- कोई शराबी हमारे सामने शराब पीकर मर गया तो समझे कि ईश्वर हमें बचाने के लिए शराबी के रूप में हमारे सामने पाठ कर रहा था कि यदि तुम भी ऐसा करोगे तो तुम्हारी भी यही दुर्गति होगी परन्तु सामान्य व्यक्ति ऐसी स्थिति में उससे घृणा करके उसे दो-चार गाली देकर निकल जाते हैं
- यह सब भाव आनन्दमय कोश की साधना में नाद – बिंदु – कला में आता है
- तब यही वाला ज्ञान प्रकट हो जाता है
- गुरु के प्रति जब ईर्ष्या भाव हो गया तब फिर गुरु प्रकाशक कहा रहा, फिर वह आपके लिए घिनौना हो गया
- जिस दिन श्रद्धा टूटी तो समझे कि उस दिन Life का सबसे बड़ा Accident हो गया
- इसलिए पहले गुरु को हजार तरीके से जांच लीजिए, एक बार जांच कर संतुष्टि पा लिए तो 100% पूर्ण समर्पण / समग्र समर्पण कर दे
- जब तक समर्पण नहीं हो पा रहा तब तक अपने गुरु को 2 जन्म – 10 जन्म – 1000 जन्म तक जांचते रहिए
- गुरु ब्रह्मा = जिसमें सृजन की शक्ति है
- गुरु विष्णु = जो पूरे विश्व को पोषण दे
. गुरु महेश = गलती करने पर सुधारे भी - जिस व्यक्ति में ये सभी गुण है तथा जो ब्रह्म के साथ भी तादत्मय स्थापित करे, वही व्यक्ति गुरु कहलाने का अधिकारी है
अपने बताया कि दिन भर जो हम करते है वह हम स्वपन में देखते हैं, मैंने साधना कम्र में पाया कि प्राय मुझे स्वप्न में नाग का दर्शन होता है तथा मैं सोचता भी नहीं, कभी कभी वह नाग मेरी कल्पना से भी बड़ा हो जाता है, तो जो मेरी दिनचर्या का हिस्सा नहीं है तथा जिस विषय में मै सोचता भी नहीं तो यह अवचेतन मस्तिष्क का कौन सा भाग है जो मुझे बार-बार उसे तरफ ले जाता है
- स्वपन में यह आवश्यक नहीं जो दिन भर सोचे है वही देखेगें
- हमारे चित्त में अरबो खरबो जन्मों के कर्माश्य / पाप पुण्य उसमे भरे पड़े है
- अनन्त जन्मों के DNA / संस्कार / Properties आप अपने साथ साथ लेकर चल रहे है, वह Infinite है, उसमें से कभी भी कोई भी प्रकट हो जाएगा
- इसी को खत्म करने / जलाने के लिए ही साधना करनी पड़ती है
- सपने में भीतर का कबाड कुछ खाली होता है, हम ऐसा कुछ देख लिए जो पहले सोचा नहीं तो उस कबाड में से अवचेतन मन को कुछ जगह खाली करना होगा तो वही आप सपने के माध्यम से निकल कर जाते हुए देखें
- ऐसे में घबराना नहीं चाहिए बल्कि यह समझे कि कबाड में से कुछ Space खाली हुआ, इसी के लिए हमारा अवचेतन मन कुछ जगह बनाता रहता है
- गुरुदेव का एक पुस्तक ” सपने सच्चे भी झूठे भी ” का अध्यन करे, उसमे यह सब बताया है कि सपने क्यों और कैसे आते हैं तथा उसका विज्ञान क्या है
कुंभ मेला क्या है, कब कब लगता है, उस कुंभ के मेले में नहाने से क्या लाभ होता है
- कुंभ शब्द समुद्र मंथन से जब अमृत का घड़ा निकला था, वहा से आया है
- पहले ऋषि लोग इस प्रकार जा जाकर इस अमृत विद्या की जानकारी देते थे कि हे असुरो/देवताओं सब मिलकर समाज में कम करो, मंथन करो
- प्रत्येक 12 वर्ष के बाद एक युग बदल जाता, समाज की परिस्थितियों बदल जाती हैं परंपराएं बदल जाती हैं, वेशभूषा बदल जाती है, इसीलिए क्या पुराना छोड़ जाए तथा क्या नया अपनाया जाए इस पर विचार मंथन करके निर्णय लेना होता है
- क्या नया जोड़ा जाए ताकि हमारी संस्कृति भी नष्ट ना हो और विकास भी चलता रहे
- इसी प्रकार के समुद्र मंथन के लिए जनमानस को नदियो/जलाशय परईक्कठा किया जाता था
- भारत को 4 भागो में बाटा गया -> प्रयागराज, नासिक, उज्जैन, हरिद्वार
- प्रत्येक 3 – 3 साल बाद एक स्थान पर करते रहेंगे तो प्रत्येक 12 वर्ष में एक स्थान हो जाएगा
- वहां पर अपने देश विदेश से सभी लोग आते हैं तथा मंथन करे कि क्या बदलाव लेकर आना है तथा क्या नया देना है, आज यह केवल मेला बनकर रह गया है
- फिर भी उसमें कुछ ऐसी दिव्य आत्माए व ऐसे सन्त आते है तथा उस पर प्रकाश डालते है, उसी को पीना है -> कुंभ का घड़ा शब्द का वही प्रयोग आया है
- जहा छलक गया तो Fruitful हुआ / करुणा छलक गई / लाभ मिल गया
- यहा बलिया में भृगु ऋषि का स्थल है जो पंचकोश साधना के professor थे
क्या अभी भी वहा दिव्य आत्माएं मिल सकती है
- मिल सकती है, अपने पर निर्भर करता है कि कौन कितनी गहराई तक खोदता है वहा से पा लेंगे
अमृतम देही का मतलब क्या होता है
- देही = का अर्थ देना है
- त्रिपादस्यम अमृतम देहि -> वह हमे अमृतत्व प्रदान करे, शब्दों के हेर फेर से अर्थ बदलेग
सच्चे धार्मिक व्यक्ति अपना भगवान स्वयं बनाते है, का आशय क्या अपना आदर्श स्वयं बनाना है कृप्या प्रकाश डाला जाय
- हर व्यक्ति का जन्म जनमान्तरो के अपने संस्कार लेकर आने के कारण अपना Ionosphere रहता है, जिसे वह Traveller Cheque की भांति उपयोग करता है
- यहा रहकर बहुत से Factor, यह सब मिला कर आभामंडल का एक खोल बना लेते है तो दिखता नहीं है, इसी के आधार पर वह जीव ईश्वर के बारे में मान्यता बनाएगा
- गधा यदि ईश्वर का फोटो बनाएगा तो वह गधे का ही बनाएगा वह समझेगा कि ईश्वर हमसे थोड़ा उत्कृष्ट व बढिया गधा होगा
- हम आदमी है तो आदमी की आकृति में अपने भगवान / ईश्वर को बनाते हैं
- हर जीव अपनी ही आकृति के अनुरूप ईश्वर की फोटो बनाएगा
- कभी-कभी आदमी कल्पना के आधार पर भी Hypothetical Image बना लेता है
- उसमें प्रगाढ़ता हो तो लाभ मिल जाएगा
- भक्त ने भगवान की रचना की परंतु किस उदेश्य के लिए आपने अपने भगवान को रचा है
- अपने ही Bioplasma निकलते हैं
- आदर्शों का समुच्चय ही ईश्वर है
- यदि हम अपने को आदर्शमय बना लेंगे तो सर्वोपरि बन जाएंगे तथा व्यक्ति अधिक उचाई तक जाएगा 🙏
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