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पंचकोश जिज्ञासा समाधान (21-11-2024)

पंचकोश जिज्ञासा समाधान (21-11-2024)

कक्षा (21-11-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-

छान्दग्योपनिषद् में कौशितिकी ऋषि अपने पुत्र से कहते है कि मैंने विशेषतः इस आदित्य का, ॐ कार का गान किया था, इसी से तु मेरा एक पुत्र है, अब तुम यदि सूर्य से विकेंद्रित होती हुई सुर्य की रश्मियों का ध्यान करते हो तो निश्चय ही तुम्हें बहुत से पुत्रों की प्राप्ति होगी, यह आधिदैविक प्रार्थना का वर्णन है। अब आध्यात्मिक प्रार्थना का वर्णन है जो मुख्य प्राण है, उसी के रूप में उदगीथ की प्रार्थना करनी चाहिए क्योंकि यह गमन करते हुए सदा ॐकार स्वर का ही उच्चारण करता रहता है, तुम मुख्य प्राण के गुण भेद से विशिष्ठ प्राणों का चिंतन करे तो निश्चय ही तुम्हारे बहुत से पुत्र होगें, का क्या अर्थ है

  • ईश्वर ने संकल्प लिया एक से अनेक हो तो सबसे पहले अंतरिक्ष में सुर्य ही उत्पन्न हुएं
  • उत्पन्न करना, पालन करना व संहार करना, इस कार्य में लगे हुए घटको को प्रजापति कहेंगें
  • विष्णु को यहा व्यक्ति न समझे, विष्णु को मूर्त रूप में आरंभिक / प्राथमिक कक्षा के बच्चो को पढ़या जाता है, वास्तव में सुर्य ही बह्मा है सुर्य ही विष्णु है सुर्य ही महेश है
  • सुर्य से निकलने वाली किरणों (Divine Rays) ही देवता है जैसे सुर्य से निकलने वाली लाल किरणे रुद्र है, आदित्य गण (Visible Rays), मरूत गण (UV Rays) -> ये सब Nomenclature हुआ
  • ईश्वर जब एक से अनेक बने तो उस के अंश मनुष्यों में भी यह गुण है कि वह भी संतान उत्पन्न कर सकता है
  • यहा ऋषि ने यह कामना कि उन्हे सुर्य के समान तेजस्वी पुत्र मिले परन्तु संसार में फंसे नहीं, जैसे संसार में सूर्य आत्मा के रूप में है
  • संसार में सुर्य आत्मरूप में उद्धार करने के लिए है
  • ॐ से यदि जुड गए तो संसार में रहते हुए भी वह र्निलिप्त रहेगा, यहा यह कहना है
  • तुम भी ॐ की साधना करो तथा निर्लिप्त रहो
  • आधिदैविक का अर्थ सूक्ष्म रूप से मदद करना जैसे कठपुतली के Background में काम करने वाले को देवता (आधिदैविक देवता) कहेंगे, बिजली कौ देवता कहेंगे
  • बिजली नहीं दिखेगा व देवता भी नहीं दिखते
  • जैसे उर्जा व पदार्थ में से ऊर्जा नही दिखती
  • प्राण – > आधिदैविक
  • आत्मा -> आध्यात्मिक
  • पंचतत्व जड़ होते है पंचतत्वों को चलाने के लिए बिजली चाहिए
  • देवताओं से ही सारा संसार चल रहा है इसी प्रकार हमारे शरीर के भीतर स्थित कुंडलिनी शक्ति से ही हमारा शरीर चल रहा है

अंतरिक्ष व आकाश में क्या अन्तर है

  • अतरिक्ष = देवलोक व पृथ्वीलोक के बीच का स्थान
  • आत्मा व शरीर के बीच में भी कुछ है
  • आकाश में चिदाकाश भी आ जाएगा

तुरीयातीतोपनिषद् में अवधूत पथ पर चलने वाले पथिक के लिए बताया गया है, कुछ शब्द जैसे शरीर की तीनो वासनाओं लोभ मोह अंहकार में निंदा अनिंदा, दम मत्सर, दम्भ और दर्प का क्या अर्थ है

  • दर्प – घमण्ड (भौतिकी का), जैसे मै धनी हूं
  • दम्भ = ज्ञान का घमण्ड जो visible नहीं है, जो ये कहे कि मै तुम्हे जान गया कि तुम कौन हो, जो स्वयं को नहीं जाने तो दूसरे को कैसे जान सकते हो
  • तुम्हारे भीतर भी ईश्वर है यह जानना ही असली जानना है तथा जब ईश्वर को सबमें देखने लगा तो सारा गुमान व दर्प समाप्त हो जाएगा
  • अमर्थ = ईष्या
  • असूया = चुंगली निंदा करना
  • अनुसुया = प्रशंसा करने वाला

आगे आता है कि सर्वोत्कृष्ट अद्वैत की कल्पना करके उसका मानना होता है कि मेरे अतिरिक्त कुछ और नहीं है, वह देव रहस्य धन को अपने अन्दर समेटकर दुखः में प्रसन्न होता है तो यहा देव रहस्य क्या है

  • देव रहस्य को समझना = मन ही अपना प्रत्यक्ष देवता है
  • वह समझ गए कि सुख दुख का कारण मन है
  • ईश्वर कुछ भी गलत नही करता वह विपरित परिस्थितियों में हमें बहादुर बना रहा होता है
  • इसे ही छुरस्य धारा कहते हैं, ईश्वर ऐसे ही नहीं मिलता

सुन्दरीतापिन्युपनिषद् में आया है कि मन को तब तक रोके रखना चाहिए जब तक मन की गति क्षीण नहीं हो जाती, यही ज्ञान और यही ज्ञान है, शेष सब तो ग्रथ विस्तार मात्र है, का क्या अर्थ है

  • मन अपना नौकर है, मन का तब तक ख्याल रखे जब तक वह मालिक का कहना मानना शुरू न कर दे तथा विश्वासी न बन जाए
  • मन विषयों की तरफ भाग रहा था तो उसे ज्ञान से समझाया कि अभी तक तुने विषयो में क्या पाया, केवल तबाही ही किया, जिसमे तुम सुख खोज रहे थे उसमें दुखः मिला तो समझाने बुझाने से मन बुद्धिमान बन जाता है
  • क्षीण होना = कम हो गया = कुसंस्कार खत्म होना = मन शुद्ध हो गया = मन का आवरण गलना / खत्म होना

गायंत्री महविज्ञान भाग 1 में आया है कि ईडा पिंगला के बीच में सुष्मना नाडी स्थित है, सुष्मना नाड़ी के बीच में वज्रा चित्रा व बह्मनाडी है, मेरुदण्ड के निचले भाग मूल को ले तो सुष्मना के भीतर रहने वाली तीनों नाड़ी में सबसे सूक्ष्म नाड़ी मेरुदण्ड के अंतिम भाग में एक काले वर्ण के षटकोण वाले परमार्थ से लिपटकर बंध जाती है . . .

इस प्रकार उस षटकोण कृष्ण वर्ण परमार्थ से नाड़ी को बांधकर इस शरीर से प्राणो के छप्पड को जकड देने की व्यवस्था की गई है, का क्या अर्थ है

  • मूलाधार की बनावट में ऋषियों नै ध्यान में ऐसा पाया कि वहा उर्जा का भंवर है
  • मूलाधार = Cocyx Region
  • षटकोण यहा पर जो Nerve Coil के रूप में मूलाधार से निकलकर Sacral Region की तरफ गए, उस Coil में षटकोण की आकृति के चक्रवात मिले, उसे यहा बताया गया है
  • अंतरिक्ष में खाली कही भी नहीं, उर्जा हर जगह भरा हुआ है, मूलाधार में उर्जा का भवर है
  • Coil के बीच में लिपटा हुआ खाली स्थान जैसा जो दिख रहा है वही षटकोण है तथा काला इसलिए कह दिया क्योंकि वह सब कुछ भीतर में Absorb कर रहा है, वास्तव में न कही काला है व ना ही गोरा तथा वास्तव में वस्तु कही है नहीं, सारा संसार ही तरंगो से बना है तो वहा (षटकोण) में भी तरंगो को खींचने वाला या छोड़ने वाला ही मूल होगा, वह अंतरिक्ष से भी खींचता है
  • बाहर के आकाशीय पिण्ड भी पृथ्वी की भाति Solid व आकाशवत है, जहा भी Solid कुछ होगा तो वहां पर कुछ फ्री इलेक्टोन होंगे जो आपकी संकल्प शक्ति से चलायमान होंगे और बाहर भी Free Electron टहलते रहते है, जैसे दुध के गर्म करने पर दुध की कुछ मात्रा आकाश में चली जाती है
  • जब हम मूलाधार चक्र को जगाएंगे तो ध्यान में उस मूलाधार चक्र के चुम्बतत्व से वो आकाश में विद्यमान पंच महाभूत (जैसे दुध या अन्य भोजन के परमाणु) शरीर के भीतर खीचे चले आएंगे तथा शरीर में आकर अपना प्रभाव दिखाएंगे
  • जैसे तैलंग स्वामी बिना खाए पिए भी उनका वजन हर साल एक पौण्ड बढ़ जाते थे इसका अर्थ कि वे चक्रों को जगाकर उनसे काम ले लेते थे, खीचने की प्रक्रिया चक्रो में आ रही है तो इसलिए कहा गया कि उनका गुण इस प्रकार का है
  • यहा सब शून्य है, संसार का दिखाई पडना माया / आँखो का दोष है, वास्तव में ठोस कुछ भी नहीं, वैज्ञानिको ने भी भीतर Electron का Dance देखा तो पता चलता है कि वस्तु वास्तव में ठोस नहीं
  • वस्तु के भीतर इतनी खाली जगह है तभी तो वहां पर इलेक्ट्रॉन गोल-गोल घूम रहे हैं, वास्तव में यह सब वस्तुए भी तरंग रूप है, ठोस नहीं अपितु उर्जा का ही रूप है, उर्जा ठोस नहीं होता
  • यही कहा गया कि मूलाधार में वहा षटकोण की तरह का कुछ Construction है तथा यह सब स्थूल Nerve उसी पर लिपटी हुई है तथा वहा के बीच का भाग काले कृष्ण वर्ण का बताया गया है
  • चार पंखुड़ियां इसलिए कहा कि वहा पर Magnetic Field रूप में चक्रवात चार जगहों पर बन रहा है, क्योंकि वह Magnetic Field कही लिप्त नहीं होता इसलिए कमल कह दिया गया

सासाराम के विशेष सत्र में यहा से जाने के बाद भी क्या यह आनन्द मिलता रहेगा

  • कही पर गुरु के संरक्षण में रहते है तो गुरु के माध्यम से प्राण प्रत्यावर्तण करता है
  • छात्र व गुरु दोनो प्रतिदिन पढते है तथा गुरू भी अपने से ऊपर वाले प्राणों को लेता रहता है, तो इस तरह दोनों गतिशील रहते हैं
  • दिन रात स्वाध्याय चलने से चेतना के स्तर का विकास होता है
  • जिस बुद्धि से जो साधना पहले करते थे तथा अब विकसित बुद्धि से अगली कक्षा में अब हमें अधिक गहराई मिलती है, यह एक Universal सिद्धान्त है, यदि गतिशीलता बनी रहेगी तो प्रगति और भी बनी रहेगी
  • निर्भर करता है कि घर जाकर भी निरन्तरता बनी रही या नहीं, घर जाकर यदि निरंतरता नहीं बनी रही तो यूनिवर्स से जो ज्ञान का जो आदान-प्रदान होता रहता है, वह टूट जाता है
  • गुरु भी प्रकाश के रूप में घुला रहता है, यदि अपनी निरन्तरता बनी रही तो फिर उसके लिए कोई भी तत्व बाधक नहीं है तथा वह शिष्य से आदान प्रदान करता रहेगा
  • क्योंकि तत्वज्ञान हर जगह Frequency के रूप में घुला रहता है, यदि बौधत्व हो गया तो पूरे जीवन भर वह नहीं घटेगा
  • फिर हम स्वयं गुरु की भूमिका निभाने लगेतो, बेैटरी चार्जर बन जाए तो फिर Discharge नहीं होगा, तब गुरु प्रसन्न होता है कि एक शिष्य पास हो गया या स्नातक हो गया
  • विज्ञानमय कोश को पार कर जाने को स्नातक कहेंगे तथा विज्ञानमय कोश पार करने वालो की Battery Discharge नहीं होगी,मनोमय तक पार करने वालों की बैटरी Discharge होगी
  • क्योंकि वह अपने मन के अधीन होकर, मन के चंगुल से मुक्त नहीं हो पाएगा

शांतिकुंज की पंचकोश वाली कक्षा में समझा व पंचकोशों के क्रिया योग शुरू किए तथा देखा कि हमारे भीतर बहुत विकार है, ये विकार शांत कैसे हो सकते हैं

  • यदि System से चलेंगे तो विकार शांत होते जाएगे
  • Syllabus को पढ़ना पड़ेगा व Practical करने पड़ेगे तथा Practical जांच के लिए सासाराम बुलाया जाता है ताकि प्रत्येक कोशो के practical सीख सके
  • शनिवार व रविवार की कक्षा जूनियर व सीनियर के लिए होती है
  • प्रत्येक साधक के जूनून पर निर्भर करता है, जूनून अधिक है तो रातों-रात भी ईश्वर को पा लेंगे, यदि जूनून नहीं है तो ईश्वर को पाने में अनन्त जन्म भी कम पड़ेगें

आदि शक्ति गायंत्री साधना के दो मार्ग हैं एक दक्षिण तो दूसरा वाम, दक्षिण में पचंकोश अनावरण व वाम में षटचक्रो का जागरण है, षटचक्रों में प्रयुक्त होने वाली प्राण क्रिया को कुण्डलिनी जागरण कहते है, इस शक्ति का उन्नयन सरल भी है तथा कठिन भी, सरल उनके लिए है जो संकल्पित है तथा कठिन उनके लिए है जो कोतुहल भर रस लेना चाहते है, दोनों मार्ग अपने-अपने स्थान पर महत्वपूर्ण है, इनमें ना कोई छोटा है और ना ही कोई बड़ा, प्रत्यक्ष जीवन में कुण्डलिनी और परोक्ष जगत में समाधि प्रक्रिया को आधार बनाना पड़ता है दोनो का सम्नवित प्रतिफल ही समग्र विकास की आवश्यकता को पूर्ण करता है, का क्या अर्थ है

  • कुण्डलिनी को विश्व व्यापार जननी कहा गया है, संसार को चलाने के लिए इंसान को ज्ञान की, बल की, प्राण की आवश्यकता है
  • जो सर्घषात्मक struggle है, इसमें अग्नि की जरूरत पड़ती है, यहा गतिशीलता हैं
  • प्राण के दो रूप है – > गतिमान प्राण (K.E.) तथा शांत प्राण (P.E.)
  • गतिमान रूप (K.E.)को कुण्डलिनी कह दिया
  • एक शांत अवस्था (P.E.) में चित को नियंत्रित करना है
  • प्राण के गतिमान रूप कुण्डलिनी को नियंत्रण करना बहुत कठिन होता है जैसे तेज गति की गाड़ी को नियंत्रित करना अधिक होता है तथा यदि Awarness नहीं बढ़ा तो दुर्घटना की संभावना तेज गति की गाडी में अधिक होती है
  • शांत अवस्था में गति को कम करना है, चित्त वृतियो का निरोध करने की बात यहा आती है
  • आत्मा में स्थिर होना है तो अपने मन की सभी दिशाओ की गति को समेटना होता है, तब आत्मा का सुख व परमानन्द मिलेगा, इसे समाधि कहा गया, सम के साथ अपनी बौधिक चेतना को जोडना, सम का एकअर्थ ईश्वर भी है, सम का एक अर्थ एक समान है
  • कुण्डलिनी व समाधि दोनो को साथ लेकर चलना है क्योंकि यदि हम स्थिर प्रज्ञ होकर संसार में जाएंगे तो लिप्त नही होगे
  • स्पिरप्रज्ञ होने को समाधि कहते है
  • सहज समाधि में जाकर संसार के लिए काम करना है लेकिन जब यह सत्य जानेंगे कि संसार है ही नहीं तो लगेगा कि संसार में जाने का कोई लाभ ही नहीं
  • यदि हम सारा जीवन कर्म कर भी रहें तो कर्म करते हुए भी यहा संसार में कुछ नहीं किए, यही जानकारी ऋषियों को मिल जाती है इसीलिए वह आत्मा अनुसंधान में कूद पड़ते हैं, वे जान लेते हैं कि यहां आत्मा के सिवा कुछ है ही नहीं तथा सामान्य व्यक्ति को यह बात बाद में समझ में आती है कि हम जीवन भर पदार्थ से ही खेलते रह गए और पदार्थ से खेल कर अपने जीवन को बर्बाद कर लिया

घर में धर्म श्रद्धा बनाए रखने के लिए महा प्रज्ञा गायंत्री की प्रतिष्ठा अथवा छवि की स्थापना करनी चाहिए, छवि का आशय क्या प्रकाश पुंज है कृपया प्रकाश डाला जाय

  • छवि का अर्थ दिखना होता है, देवी देवता की मूर्ति भले ही घर में मत रखिए, बड़ो की सेवा शुरू कर दीजिए, छोटो को प्यार देना बढ़ा दे, सहकार और प्यार का जीवन ही गायंत्री की छवियत है
  • व्यवाहरिक जीवन को छवि कहते है
  • मूर्ति पूजा का अर्थ है कि पूजा घर, हर घर में रहना चाहिए
  • जो नहीं दिख रहा है तथा जो दिख रहा है उसमें भी ईश्वर हैं
  • घर में मूर्ति की फोटो रखिए
  • स्थाई मूर्ति घर में नहीं रखी जाती क्योंकि प्राण प्रतिष्ठा के बाद मूर्ति वहा रखी जाती है जहा ताला बंद ना हो इसलिए मूर्ति गांव में मंदिर में रखी जाती है
  • इसलिए घर फोटो रखी जाती है तथा घर में शिवजी को स्थापित नही करते

जीव भाव की उत्पत्ति कैसे और क्यूं होती हैं ?

  • भुल्लकडी से होती है जहा स्वयं को आत्मा न मानकर शरीर मान लिए तो इसी को वह सत्य मान लेता है
  • अज्ञानता के चलते भुल्लकडी होता है
  • जब ज्ञान मिल जाता है तो भुल्लकडी खत्म हो जाती है तथा उसी समय से U Turn मार लेता है व समझ जाता है कि मै बाघ हूं, भेड नहीं
  • भुल्लकडी आत्म विस्मृति से आती है इसलिए सोहम् भाव में रहने की बात की जाती है
  • भौतिक आनन्द भी भुल्लकडी लाएगा
  • आत्मानन्द भुल्लकडी नहीं लाएगा
  • आनन्द से आत्मविस्मृति होने से भुल्लकडी आती है

क्या षटकोण स्वादिष्ठान चक्र से संबंधित है तथा क्या षटकोण को स्वादिष्ठान चक्र की 6 पंखुड़ियां माना जा सकता है

  • षटकोण में मूलाधार व स्वादिष्ठान को मिलाकर रुद्र ग्रंथि बनता है
  • मूलाधार व स्वादिष्ठान के बीच वाले भाग को योनि कहते है
  • प्राण का प्रवाह 5 में ही है, स्वादिष्ठान सदैव मूलाधार से जुड़ा रहता है
  • चक्रवात बनना ही मुख्य है, उसी के आधार पर षटकोण आया      🙏

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