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पंचकोश जिज्ञासा समाधान (20-12-2024)

पंचकोश जिज्ञासा समाधान (20-12-2024)

आज की कक्षा (20-12-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-

अमृतनादोपनिषद् में आया है कि साढे 30 अंगुल लम्बा प्राण श्वास के रूप में जिसमें प्रतिष्ठ्त है, वही इस प्राण वायु का वास्तविक आशय है, यही कारण है कि इस प्राण के रूप में भी जाना जाता है, जो बाह्य प्राण है उसे इंद्रियों के द्वारा देखा जाता है, यहा साढे 30 अंगुल लंबा प्राण को कैसे समझेंगे

  • श्वास जब खींचते है तो कहा तक जाएगा -> फेफडे तक जाता है, अनाहात चक्र तक जाएगा
  • अनाहात से लेकर तथा जहा से सास छोड़ेंगे, वहा तक का Pathway Up Down साढे 30 अंगुल ही होता है, यह Pathway वायु से प्राणिक उर्जा लेने का है
  • जल से प्राणिक उर्जा लेगे वो वह पेट तक जाएगा, जल का वास कृकल में है
  • समान प्राण में अग्नि का वास है
  • आकाश कण्ठ कूपे -> आकाश वाला प्राण विचारो से खीचा जाएगा
  • एक बार लिए तो छोड़े कितना
  • छोडते वाला Vital capacity है
  • खीचे अधिक छोडे कम तो Vital capacity कम है
  • इसलिए खीचे कम तथा छोडे अधिक, अपने को पूरा खाली करने का कोशिश करे
  • पूरा खाली करेंगे तो फिर भरेंगे भी अधिक
  • हम Breath Out को कम महत्व देते है, अक्सर कम छोडते है
  • पूरा श्वास बाहर छोड़कर, बाह्य कुम्भक में जाए तब नाभी चिपक जाता है, तब अधिक Toxine जलेगा तथा अधिक Breath In कर सकते हैं तो फेफड़ा भी स्वस्थ रहेगा
  • Vital Capacity बाहय कुम्भक में बढ़ती है, धीरे धीरे यह क्षमता बढ़ानी चाहिए
  • यह क्षमता बढ़ाने के लिए जितना समय हमें श्वास खींचने में लगे उतना ही समय श्वास को छोड़ने में भी लगाये तब Vital Capacity बढ़ जाएगा
  • प्राणाकर्षण भी यह अधिक लाभ देगा
  • जितना समय लंबा खीचे तथा लंबा छोडे तो दमा रोग भी ठीक होगा
  • दमे का रोगी कुम्भक न लगाए नहीं तो खासी अधिक आएंगी, पहले गहरा श्वास लेकर व गहरा श्वास छोड़कर फेफडे को Healthy बनाएं तब कुम्भक में रोकने की क्षमता बढ़ेगी

इस प्रकार जो पकवान भोजनार्थ स्थल पर थमाए उससे यज्ञ करना चाहिए, वो प्रथम आहुति ॐ प्राणाय स्वाहां से समर्पित की जाती है उसे प्राण तृप्त होता है, फिर व्यानाय स्वाहाः, अपानाय स्वाहाः, समानाय स्वाहाः फिर उदानाय स्वाहां, जब खाना आए तो यदि ये सब सोचे तो भाव क्या रखे

  • भाव समष्टि / ईश्वर का रखना है
  • अपना प्राण व बाहर का प्राण एक मिलाए तभी अपना विस्तार होगा
  • क्षुद्रता को महानता से जोड़ना है, अपना उदान और ईश्वर का उदान मिले तभी तो देवता बनेगे
  • अपना प्राण व देवताओं का प्राण एक करे
  • यह प्राण को घोलने की प्रक्रिया है
  • जब अग्नि में आहुति दे रहे हैं तो अपना प्राण ईश्वर के प्राण से जुडे तो अपना ताकत बढ़ेगा
  • क्षुद्रता महानता से जुडती जाएंगी
  • महानता से जुडने से आदमी पवित्र होता है
  • छोटी सी लता पेड़ को पकड़ ले तो पेड़ से भी उपर हो जाती है, यह अदभूत है
  • जैसे हनुमान जी ने राम जी को कर कर पकडा तो हनुमान जी के मन्दिर राम जी से अधिक है
  • यही यहां कहा जा रहा है कि अपने को विराट बनाओ
  • पांचो प्राण शरीर के भीतर आने पर पांच अलग अलग प्राण नाम पड गया, बाहर तो एक ही प्राण है
  • काम के आधार पर नाम बदल जाता है, विचार तंत्र मै काम कर रहा हे तो व्यान कह दिया गया
  • जो प्राण गलाई – ढलाई कर रहा है व भोजन को पचा रहा है उसे समान प्राण कह दिया गया

परबह्ममोपनिषद् में शौनक जी पिपलाद ऋषि से पूछ रहे है कि क्या संसार में उत्पन्न होने वाले सभी पदार्थ पहले दिव्य बह्म हुए अर्थात

भगवान हिरणयगर्भ के हद्वयाभास में प्रतिष्ठित होते है, ये व्यापक महिमामयी भगवान अपने अन्दर से उन पदार्थो को यथा विभाग किस प्रकार सृजित करते है, दुनिया के जितने भी पदार्थ हैं क्या वे सभी हिरण्यगर्भ से उत्पन्न होते हैं

  • सब कुछ उत्पन्न तो बह्म से ही होगा
  • उनका ( बह्म का ) ही will powes हर जगह काम करेगा, दूसरो में उत्पन्न करने की क्षमता नहीं है, बीच मे सब अवस्था परिवर्तन है, उनका संकल्प हुआ कि एक से अनेक बने तो उनका ही Will Power हर जगह काम करेगा
  • जैसे केनोपनिषद् में भी यह प्रश्न आया है कि किनके द्वारा यह हवाएं चल रही है
  • हिरण्यगर्भ को भले लगे कि हम कर रहे है परन्तु उसमें घुला ईश्वरत्व वह कर रहा है तो हमारे मन मैं भी यह Deviation नहीं होना चाहिए कि हम कर रहे हैं या कोई अन्य कर रहा है या सुर्य कर रहा है
  • सुर्य भी तुम्हारे लिए तप रहा है
  • हिरण्यगर्भ या सुर्य के पीछे भी उसी बह्म की शक्ति कार्य कर रही है

यह सत इंद्रियों व प्राण अपान आदि 10 प्राणों को अपने अपने विषय ग्रहण करने की शक्ति प्रदान करता है, इद्रियों का विषय तन्मात्राएं है तो यहा प्राणो का विषय क्या है

  • प्राण का विषय उसका बल संवर्धन करना है
  • इनमें भी अपने Subject होते है जैसे व्यान का Subject संचरण वयवस्था करना है
  • प्रत्येक प्राणो के अपने Subject / विषय होते है, कार्य ही उनके विषय होते है
  • जैसे प्रांण से यदि खींचा जाए तो नाग का यह काम है कि उसे प्राण को शरीर के प्रत्येक Body Cell में लेकर जाए
  • जिसका जो विषय है जैसे कान का सुनना, आंख का देखना, पैर का चलना -> जिस काम में Use हो रहा है तो यह उसका Subject हो जाएगा
  • पैर से चलते की सुविधा, हाथ से ग्रहण की सुविधा तथा आँख से देखने की सुविधा मिलेगी
  • सारे विश्व को प्राण ही नियंत्रित करता है
  • बल नहीं रहेगा तो हम एक गिलास पानी तक नहीं उठा सकते, इसलिए प्राण ही श्रेष्ठ है
  • सबकी जीवनी शक्ति / महात्माओं का आत्मज्ञान / माताओं का ममत्व / छात्रों की विनयशीलता / क्रातिकारियों का मन्यु -> ये सभी प्राण ही प्राण है
  • सुर्य की तेजस्विता / चद्रमा की शीतलता / पानी की तरलता / पृथ्वी की धारणशीलता, इसे ही प्राण कहते हैं

सत और असत के बीच शुद्ध पद को जानकर उसका अवलम्बन ग्रहण कर बाह्य आन्तरिक दृश्यो को ना तो ग्रहण करे और ना ही त्यागे, में  सत और असत के बीच शुद्ध पद का क्या अर्थ है

  • इसका अर्थ है = आत्मा को जानकर, जो सत में भी रहता हो तथा असत में भी रहता हो, एकांगी नहीं हो तो केवल आत्मा ही सर्वव्यापी है, ईश्वर भी सर्वव्यापी है
  • ईश्वर के सिवा कहीं और चिंतन जा रहा है कि यहां ईश्वर नहीं कोई और है यह हमारा मार्ग से भटकाव कहलाएगा, इसमें रमण करने की बात यहा की जा रही है
  • द्वैत भाव न आने दे, द्वैत भाव का आना ब्राह्मण का ब्रह्मांत्व मरना
  • सत और असत के बीच शुद्ध पद ॐ है, उस परमात्मा का नाम ॐ है या उसके अनेक नाम है
  • परमात्मा को एक दिव्य तेज के रूप में माने, गांयत्री मंत्र में इसी को तत् कहा गया, वही दिव्य तेज तीनो लोको में संव्याप्त है, उसी दिव्य तेज को धारण करे, उसके सिवा कुछ और कल्पना में आया कि यह अलग है तो समझो कि गिर गए
  • यह अच्युत स्थिति है, इसलिए ईश्वर शान्तिमय है, आनन्दमय है
  • यदि कोई मरा भी है तो अपने आनन्द के लिए मरा है, हम लोग उस पर Dependant रहते हैं इसलिए छाती पीटते है व रोते है, पगुं बन चुके होते है

आगे आता है कि इच्छा व अनिच्छा को समान मानने वाले ज्ञानी पुरुष कर्म करते हुए भी किसी भी प्रकार लिप्त नहीं होते, जैसे कीचड़ में कमल पत्र

  • हम इच्छा अनिच्छा क्यों करे, यदि कोई परिस्थिति हमारे सामने आ ही गई है तो इसे कर्म फल माने
  • वह स्थिति / चीज / पदार्थ हमारे पास नहीं आया तो समझे कि उसकी जरूरत नहीं थी
  • खाने बैठ है, किसी ने परोस दिया बाद में लगा इसकी जरूरत नहीं थी, उसे Accept कर लीजिए तथा अपना नाक मुंह न सिकोड़े
  • यदि खाना नहीं खाना है तो हाथ जोड़ने पर परोसने वाला व्यक्ति समझकर आगे बढ़ जाता है, परंतु हमें अपने मन में किसी भी प्रकार की एलर्जी या डर नहीं रखता है

आगे आता है कि, आपके हृदय में इंद्रिय जन्य विषय हलचल पैदा नहीं करते, तो आप ज्ञातव्य पदार्थ का ज्ञान प्राप्त कर संसार रूपी समुद्र से पार हो गए, यहां ज्ञातव्य पदार्थ का क्या अर्थ है

  • खाद्य पदार्थ सामने है तो भी जीभ से लार नही निकला, लालसा नहीं जगी, भोगने की सभी वस्तुए संसार में हो तथा हमारे पास रहते हुए भी नहीं भोग रहे हो तो समझे कि आपने मन को जीत लिया तथा वही योगी कहलाएगा
  • ज्ञातव्य पदार्थ = कुछ पाने का जूनून होना
  • ज्ञातव्य – जूनून तो हो परन्तु वह जुनून Dutyfullness के रूप मै हो ना कि अपनी इद्रियों की तृप्ति के लिए हो, यही भोग बुद्धि है
  • भोग बुद्धि रोग पैदा करेगी
  • उसी काम, उसी क्रिया को यदि योग बुद्धि से करेंगे तो वो मोक्ष दे देगा, केवल बौद्विक धरातल का अंतर भर है
  • पूरा महोपनिषद् इस बौद्विक धरातल को साफ कर रहा है, असली साधना महोपनिषद् है, मन की साधना है, यह सभी योगवशिष्ठ से निकला है
  • योगवशिष्ठ में यही बात वशिष्ठ जी, राम जी को पढ़ा रहे है
  • महोपनिषद् में रिभु ,  निदाद्य को पढ़ा रहे है

यदि कोई भी मरता है तो अपने आनन्द के लिए मरता है तो एक अवस्था ऐसी भी आ रही है कि जैसे किसी का Accident हो जाता है या आतंकवादी किसी निर्दोष को मार देता है तो उस अवस्था में जो व्यक्ति मरना नहीं चाहता तो वह व्यक्ति अपनी मृत्यु में आनन्द की अनुभूति कैसे करेगा

  • जब किसी को मारा गया तो यह समझे कि कही न कही उस की बुद्धि काम कर रही होगी तो उसकी बुद्धि को किसने प्रेरित किया, जब यहा एक ईश्वर की सत्ता के सिवा अन्य किसी की सत्ता है ही नहीं तो दूसरा कौन है यहा, तो उस मारने वाले को प्रेरणा मिली तथा मरने वाले की मृत्यु करीब होगी
  • वह मारने वाला केवल उसी को मारेगा जिसे मरना ही मरना है
  • मारने वाले को भी सजा मिलेगी परन्तु साथ साथ अन्य जो ये दृश्य देख रहे है, उनके भीतर करुणा जगेगी तो हमारे भीतर करुणा जगाने के लिए भी ईश्वर किसी को माध्यम बनाता है ताकि हम चुप न रह सके तथा उस दृष्कृत्य करने वाले को दण्ड दे दे
  • दोनो काम यहा हो गए -> एक को मरना ही था तथा दूसरा प्रेरणा देने का माध्यम बन गया
  • जिसे नहीं मरना है तो जाको राखे साईया मार सके न कोए तो उसे मारने वाला नहीं मार पाएगा
  • एक से ही ढेर सारी क्रिया हो रही है, इसी करने के तरीके(Technique) को राहु कहते हैं
  • ईश्वर कभी रोग दुख: बनकर हमें ज्ञान देने आते है, कभी दुश्मन बनकर ज्ञान देने आते है, कभी मित्र बनकर ज्ञान देते है
  • हम केवल अपनी तुच्छ बुद्धि से समझते हैं की घटा हो गया, परंतु वास्तव में वे ढेर सारा फायदा परोसने आए थे, हम उस समय पहचान नहीं पाए
  • जीवन की सारे घटनाए हमारे लिए मित्रवत ही होती है / Ecofriendly होती है
  • इसी को समझने के लिए अपनी अज्ञान ग्रथियों को साफ करना होता है तब जाकर आनन्दमय कोश जगेगा

यदि कोई व्यक्ति मरना नहीं चाहता परन्तु मारने वाले को यह काम मिला है कि उसे तो उस व्यक्ति को मारना ही है तो जो व्यक्ति मर रहा है वह पीड़ा में आनन्द की अनुभूति कैसे कर रहा है

  • मारने वाले को अपना आनन्द व मरने वाले को अपना आनन्द है
  • सदन कसाई, संतो में Top पर था, के उदाहरण से इसे समझ सकते है . . .
  • नारद ने जब यह जाना कि सदन कसाई जिन बकरो को काट रहा था वे सब पिछले जन्म में कसाई थे, कसाईगिरी का दण्ड कसाईगिरी से ही मिलेगा
  • यहा केवल क्रिया की प्रतिक्रियाए ही संसार में हो रही है
  • बुद्ध को अंगुलिमाल नहीं मार पाया बल्कि वह स्वयं ही मर गया तथा बुद्ध ने पुराने अंगुलिमाल के स्थान पर उसे बौध भिक्षुक अंगुलिमाल बना दिया तथा बाकी सभी डरकर भाग गए
  • इसलिए आत्मा में बहुत ताकत होती है, इसलिए आत्मा ही जानने योग्य है

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  • गुरुदेव ने इसके लिए जीवेम शरद: शतम् में 2 औषधियों का नाम दिया है
  1. अशोक
  2. गोक्षरू
  • कोई भी Urogenital system में गड़बड़ी के लिए ये दो औषधियां तथा उनके उपयोग की विधी बताई गई है
  • इसके साथ व्रजोली व शक्तिचालीनी का अभ्यास करते रहे
  • भोजन पर संयम रखे, पानी संभल कर पीजिए, Old Age में शरीर का अधिक रखना होता है
  • महामुद्रा को यदि सही तकनीक से तथा मन लगाकर भी करते हैं तो महामुद्रा से सारे रोग भागते है

वांग्मय 22 में आया है कि वस्तुतः इस प्रकार के पूर्वाभास परक स्वपन अचेतन की स्थिति में होते है, क्योंकि पूर्ण सचेतन स्थिति में मस्तिष्क के दोनो गोलार्ध एक दूसरे के सम्नवय से काम करते है एवं एक की स्वतंत्रता पर दूसरे का अंकुश लगा रहता है, अत: कोई सार्थक दृश्य प्रस्तुत करने का उन्हें मौका नहीं मिलता है किन्तु जब व्यक्ति, स्वपन की अचेतन अवस्था में होता है, तो दोनों के क्रिया कलाप स्वतंत्र होते है, फलतः यदा कदा मन को भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं की झलक झांकी मिल जाती है, अपनी भावनाओं को परिष्कृत एवं चिंतन चरित्र को उदार बनाकर अचेतन मन का परिष्कार किया जा सके तो संभावित भविष्य की झलक झांकी प्राप्त कर सकना हर किसी के लिए संभव है, यहा पर दोनो गोलार्ध जो सचेतन अवस्था में एक दूसरे के साथ मिलकर काम करते है लेकिन स्वपन की अवस्था में वे स्वतंत्र हो जाते है, का क्या अर्थ है

  • हम कोई भी काम करते है तो उसमे बुद्वि भी लग रहा है, बल भी लग रहा है (ज्ञान व क्रिया दोनो हो रही है) -> इसी को कहा जाता है कि दोनो गोलार्ध काम कर रहे है
  • चेतन वाला पक्ष आध्यात्मिक पक्ष होता है ( मस्तिष्क का दाया भाग)
  • वैजानिक पक्ष को क्रिया वाला पक्ष कहा गया (मस्तिष्क का बाया भाग)
  • Corpus callosum की पट्टी दोनो को जोड़ रहीं है
  • श्वास में यदि बाया चल रहा है तो यह दाये मस्तिष्क को प्रभावित करता है
  • सभी प्राणिक उर्जा से खेल रहे है तथा प्राण जड व चेतन का मिश्रण है
  • दोनो गोलार्धो का मिश्रण यह बन रहा है, इसलिए जब दोनो को शान्त करते की बात आती है तो Frontal Lobe को शान्त किया जाता है, Frontal Lobe जागृत अवस्था में काम करता है
  • Frontal को हमने स्थिर किया तो Limbic System काम करता है, यह Sub Concious का काम करता है, इसमें Hippocampus, Hypothalamus, Thalamus, Amygdala, इनमें सब जानकारिया Save रहती है, इनके एक एक Neuron में जन्मों जन्मों की file सब सुरक्षित है, इस तरह अवचेतन काम करना शुरू कर देता है तथा फिर यहा सफाई का कम्र शुरू होता है,
  • अब हमें देखना है कि इसमें वासना तृष्णा अहंता की कितनी मात्रा है तथा ध्यान में जाकर हमें इन प्रवृत्तियों को शांत करना होता है / जानबूझकर मन को शान्त करना पडता है जैसा गुरुदेव ने अपने ध्यान के ऑडियो में बताया है वासना शांत तृष्णा शांत अहंता शांत

स्वपन की अवस्था में दोनो गोलार्ध स्वतंत्र रूप से कैसे कार्य करते हैं

  • स्वपन की अवस्था में जागृत मन से जुडा भाग सोया है, Occipital Lobe व Sensory cortex के पीछे वाला भाग सुपरचेतन वाला भाग है, यह Dark Area भी कहलाता है
  • जब हम सो रहे होते है तो यदि समष्टि जगत में कोई घटना घटनी हो तो वह सूक्ष्म जगत में पहले से ही घट चुका होता है तो जो घटना घटने वाली है उसकी फिल्म वह पहले से ही देख लेगा
  • उस को देखने के लिए मन का शांत होना बहुत जरूरी है, अपने संस्कारो को भी शान्त करना पड़ता है, इसी को सुष्मना (Neutral) में रहना कहते हैं

शंख एक जीव का कंकाल है तो इसे पूजा में क्यों प्रयोग किया जाता है कृपया प्रकाश डाला जाय

  • जीव का कंकाल है तो हम उसे जीव क्यों माने शिव क्यों नहीं माने
  • सत्संकल्प पाठ मैं हम बोलते हैं कि हम ईश्वर को सर्वव्यापी मानेंगे तो फिर जीव में ईश्वर को क्यों नहीं मान रहे
  • शिवजी मृग का छाल क्यों पहनते थे -> यह पढ़ाने के लिए एक प्रतीक है, कि हमें मृग की तरह छलाग लगानी है तथा वायु की गति से चलना है
  • मृग वायु प्रधान होता है वायु को प्राण कहते है
  • प्रत्येक जीव के भीतर शिव हैं
  • असुरत्व -> वैज्ञानिक शक्ति को कहा जाता है
  • विष्णु भगवान के कान मे दो राक्षस सो रहा था -> इसका अर्थ यह है कि यदि हमारी शक्तियों में कहीं पर भी जड़त्व आता है तो उसमें से कुछ unwanted निकल पड़ता है जिसे बाद में Control करना होता है
  • शंख को उपयोग किए क्योंकि उसमें प्राणिक Energy होता है
  • शंख ध्वनि में ॐ से मिलता जुलता घुमावदार आवाज निकलता है, यह आवाज एक जगह से छोडेगे तो यह वहा से निकलकर चारों दिशाओं में जाकर घूमकर फिर से Turn ले लेता है, जैसे स्वास्तिक बनाते है
  • अन्य आवाजो व ॐ की आवाज में अन्तर पड़ता है, अन्य आवाज ईधर उधर चारो तरफ सीधा भागता है
  • परन्तु ॐ ध्वनि की विशेषता यह है कि यह आवाज केन्द्र से निकला तो घड़ी की तरह Clockwise घुम जाता है, इसलिए यह सारे संसार को Clockwise घूमा रहा है
  • शंख इसी प्रकार का (ॐ) ध्वनि निकालता है, इसलिए शंख का उपयोग कर लिया जाता है
  • शंख में यदि कोई कुसंस्कार है तो उसमें श्रेष्ठ संस्कार डाल दिया जाता है तथा शुद्ध कर दिया जाता है
  • हमें उस भाव से नही सोचना है कि शंख जीव का कंकाल है बल्कि उसका उपयोग देखा जाए तथा उसे संस्कारित करके प्रयोग में लाया जाए
  • यदि वह शंख ईश्वर के काम में लग गया / किसी अच्छे काम आ गया तो भी समझो कि वह शुद्ध हो गया

क्या शंख के उपयोग से हमारी Vital Capacity भी बढ़ती है, क्या शंख के उपयोग का यह भी एक वैज्ञानिक कारण माना जा सकता है

  • लंबा शंख हर कोई नहीं बजा सकता
  • इसका प्रयोग पहले सीखना चाहिए तथा फिर लंबा बजाएगे तो सांस को रोककर फिर लंबा धीरे धीरे छोड़ रहा है, इस प्रकार तो फेफडे का कोई रोग ही नहीं होगा

आत्मबोधत्व में मानसिक अवस्था कैसी होती है ? आत्मबोधत्व अवस्था में क्या मनोमय कोश ही आत्मभाव में परिणत हो जाता है ?

  • मन आत्मा मे विलिन होगा तथा आत्मा ही बौधत्व करती है, दूसरे अन्य किसी में बौधत्व करने की क्षमता नहीं है
  • अब उसे मन की उच्च अवस्था कहे या कुछ अन्य कहें, हमने उस स्थिति को पाया था
  • वहां पर एक अथाह आनन्द और अथाह शांति की अनुभूति होती है, गुरुदेव ने इसका दर्शन कराया था, इसमें अपना शरीर ही नहीं था, तथा उस बौधत्व में करोड़ों सुर्य की चमक व करोडों चंद्रमा की शीतलता, उर्जा के रूप में एक साथ मिल जाती है
  • अपनी भी सत्ता उससे अलग नहीं है, फिर भी बौधत्व है, यह एक अथाह आनन्द व शांति की अवस्था है तथा इस अनुभव के बाद तो जैसे संसार को या हर चीज को देखने की दृष्टि ही बदल जाएगी तथा द्वैत भाव की स्थिति ही कभी नहीं आएगी
  • यह साधना का अभ्यास करते करते आ जाएगा, विज्ञानमय तथा आनंदमय कोश के पार जाएंगे तो यह आत्मसाक्षात्कार की स्थिति आ जाएगी, इसके लिए बस 19 क्रिया योगों को हम मन लगाकर करें      🙏

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