पंचकोश जिज्ञासा समाधान (19-12-2024)
आज की कक्षा (19-12-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
अमृतनादोपनिषद् में आया है कि पदमासन स्वातिकासन और भद्रासन में से किसी एक आसन में आसीन होकर
उत्तराभिमुख होकर के बैठना चाहिए, यहा भद्रासन व उत्तराभिमुख का क्या अर्थ है
- उत्तराभिमुख के दो अर्थ है
- पूर्व दिशा व उत्तर दिशा दोनो आध्यात्मिक है
- पश्चिम मे समृद्धि लक्ष्मी से संयुक्त है
- दक्षिण में यम व पितर लोक है
- जैसे यज्ञ में आचार्य जी को पूजा के लिए उत्तराभिमुख करके बैठाते है तथा यजमान को पूर्वाभिमुख करके बैठाते है
- यदि यह धारणा है तो उत्तर या पूर्व दिशा में मुख करके बैठ सकते है
- आध्यात्मिक अर्थ में उत्तराभिमुख का अर्थ है कि Upradation की Mentality से बैठें
- एक जगह वेद में आता है कि अपनी चेतना को जागृत कर के उत्तर/सहस्तार की तरफ चले
- मुख चाहे कही भी है अपने को माने कि हम अपनी चेतना के उधर्वगमन के लिए या विकास के लिए साधना कर रहे है, उत्तराभिमुख में हमारा Task / लक्ष्य हमारे सामने होना चाहिए
- पूर्वाभिमुख का अर्थ है कि आपके सामने आपका इष्ट सामने है वह सामने हम पर Radiation फैक रहा है व हम लाभ ले रहे है
- कैसे भी रहे यदि धरती से उपर उठेंगे तो आकाश में दिशा का कोई औचित्य नहीं है
- भद्रासन (पालथी मारकर) में एडी को भीतर करके उस पर उपर बैठ सकते है, पालथी शब्द को भद्रासन कह दिया, ये सभी आसन Meditational है
- भद्रासन को अलग-अलग ऋषियो ने इसे अलग अलग तरीको से बताया गया है
पंचबह्मोपनिषद् में बह्म के पांच स्वरूप का वर्णन आया है तथा सबसे पहले क्या उत्पन्न हुआ, पहले सद्योजात, फिर अघोर फिर वामदेव फिर तत्पुरुष तथा फिर ईशान उत्पन्न हुआ, ये पांच बह्म के स्वरूप है, फिर पूछते हैं कि इनके कितने वर्ण है, कितने भेद है,इनकी कितनी शक्तिया है फिर उत्तर मिला कि ये बहुत ही गोपनीय है तथा यह सबसे नहीं कहना चाहिए . . . इस लोक में अति गोपनीन बातों में भी जो अति गूढ है उसे सुनो वह है सद्योजात नामक बह्म, सभी तरह की अतिश्रेयो को देने वाली मही पूषा रमा प्रथमा त्रिविध तकर आदि स्वर ऋग्वेद ग्राहपत्य विविध मंत्र, सात स्वर सा रे गा मा पा धा नि, पीला वर्ण और क्रिया नामक शक्ति आदि इनके अनेक स्वरूप है, यहां सघोजात का वर्णन बताया है तथा इसका पीला वर्ण बताया है जबकि अद्योर का कोई वर्ण नहीं बताया, फिर वामदेव का श्वेत वर्ण बताया है, इन सबका क्या अर्थ है
- ये सब दार्शनिक है
- ये पांचो बह्म पांचो कोश है
- गुरुदेव ने आज के युग के अनुरूप आध्यात्मिक वैज्ञानिक शब्दों का उपयोग किया, वेद व उपनिषद् का भी भाष्य गुरुदेव ने किया
- सद्योजात = अन्नमय है
- प्राणमय = अघोर ( घोर = पाप, अघोर = पापरहित / पाप का नाश करने वाला), शिवजी अघोरी है
- निष्पाप है तो उसको वर्ण नहीं दिए
- प्रकृति का रंग पीला है, बह्म का रंग सफेद है
- सफेद + पीला = सावला -> भगवान सावले रूप में अवतार लेकर आते है
- वामदेव = मनोमय कोश
- तत्पुरुष = विज्ञानमय कोश
- ईशान = आनन्दमय कोश
- ये सभी चेतना के क्रमशः अशुद्ध से शुद्धतम स्वरूप है, अशुद्ध का अर्थ खराब नहीं अपितु इसमें जड़त्व अधिक है
- गाढ़ा मतलब शक्ति अधिक है
- कभी कभी काम कर के थक गए तो उसमें जड़त्व की जरूरत पड़ती है, गहरी नीद में जाने पर बैटरी चार्ज हो जाती है तो उसकी भी उपयोगिता उतनी ही है, इसमें हमें खराब अच्छा नहीं मानना चाहिए
- जड़त्व = Inertia = Centripital Force
- Centrifugal Force की भी जरूरत है
अघोर में 50 वर्ण है, का क्या अर्थ है
- जितने भी Alphabet है, सब उसमे आते है
- स्वर में ये सभी आते है -> कवर्ग चवर्ग तवर्ग अवर्ग य र ल व + . . .
- अक्षमालिकोपनिषद् में इन सभी 50 का वर्णन दिया है
- ये सभी तरंगे है तथा इन्ही तरंगो से संसार चलता है, यही ध्वनि विज्ञान भी है
ऋषि, अश्वपति के पास जा रहे है, राजा अश्वपति ही उन ऋषियों को ज्ञान दे रहा है, कि अगर आप नही आते तो आपका मस्तक गिर जाता, का क्या अर्थ है
- अश्वपति = सुर्य का साक्षात्कार करने वाले
- ऋषि = वैज्ञानिक -> पदार्थ जगत के लिए भी है
- एक ऋषि प्रत्येक विद्या का जानकार नहीं हो सकता, चिकित्सक प्राण की रक्षा कर रहा है परन्तु जब मकान बनाना होगा तो इंजीनियर के पास ही जाना पड़ेगा
- अपने अपने Field में
- वेद मे इतने मंत्र है, उनका ऋषि अलग है उनका देवता अलग है
- ज्ञान इतना विशाल है कि एक ही ऋषि समग्रता की जानकारी नहीं रख सकता
- अश्वपति = सविता = सुर्य = समग्र को जानने वाला = सातो घोडों का पति
- अश्वपति की पुत्री = सावित्री जिसका सत्यवान से विवाह हुआ
- सावित्री ही गायंत्री है, गायंत्री सत्यनिष्ठो को वरण करती है, इसी को कथा कहानी के माध्यम से परोसा जाता है
हे तत्वज्ञानी निदाद्य सांसारिक ज्ञान में जिस जिस का आभाव होता जाए, उसकी इच्छा ना करे और जो जो सहजता से उपलब्ध हो उसे स्वीकारे, अप्राप्त की इच्छा न करना और प्राप्त का उपभोग सामग्री का उपयोग करना, यही पाड़िग्य है, सत व असत के बीच शुद्ध पथ को जानकर उसका अवलंबन ग्रहण कर बाह्यान्तरिक दृश्यों को न तो ग्रहण करे और न ही त्यागें, सत व असत्त के बीच शुद्ध पथ को जानकर, का क्या अर्थ है
- सत = चेतन
- असत = पदार्थ
- ईश्वर दोनो में है तथा दोनो से निर्लिप्त है तो ईश्वर को ना तो सत्त कह सकते हैं और ना ही असत्त कहा जा सकता है
- इसलिए दूसरा विकल्प भी ले ले तथा सत्त को जाने, ना तो सत्त में रहे और ना ही असत्त में रहे
- ना हर्ष में उछलते चले और ना शोक में माथा पीटे, यह व्यावहारिक स्थिति होगी
- अभाव की अवस्था में, नया विकल्प हमेशा तैयार रखे, जो छूट गया तो उसे छोड़ दे
- इच्छा व अनिच्छा को सामान्य मानने वाले ज्ञानी पुरुष कर्म करते हुए भी इसमें लिप्त नहीं होते जैसे कीचड में कमल लिप्त नहीं होता
- इच्छा का होना यही है कि हम द्वैत भाव में पड़े हुए हैं, तभी इच्छा जगी
- साधना नहीं की इसलिए दुःख भी होता है
-इच्छा व अनिच्छा दोनों को स्वीकार करें, ईश्वर की इच्छा यहा चलेगी - रूप रस गंध शब्द स्पर्श, हमें / हमारी मस्ती को विचलित नहीं करते या परेशान नहीं करते तो आप विज्ञानमय कोश/संसार के पार हो गए
वांग्मय 22 में व्यक्ति समाज और परिवेश की पारस्परिक संबद्धता की उपेक्षा किए जाने के कारण किये जा रहे शांति प्रयास अस्थाई एवं कमजोर सिद्ध होते जा रहे है, जन मानस को परिवर्तित करने के लिए आवश्यक अवचेतन के उद्दीपको को बहिष्कृत करना जरूरी है, जिसके लिए व्यक्ति नहीं, समाज व उसके संचालक उत्तरदाई हैं, साथ ही पर्यावरण को भी समृद्ध करना होगा, जिसकी मानव समाज एक एकाई है, का क्या अर्थ है
- जितने भी हमारे संस्कार हैं, सब अवचेतन मन में दबे पड़े रहते है, जिसे चित्त भी कहा जाना है, वहा ये सभी संस्कार File में बंद रहते है परन्तु ये संस्कार विपरित परिस्थितयों में निकल पड़ते है, क्योंकि बाहर की परिस्थितया गुरुत्वाकर्षण का कार्य करती है तथा भीतर वाला दबा संस्कार खिंचाव में निकल पड़ता है
- इसी को प्रज्ञोपनिषद् में याज्ञवल्क जी कश्यप जी को बताया है तथा यहा पर भी यह बात “जन मानस को परिवर्तित करने के लिए आवश्यक अवचेतन के उद्दीपको को बहिष्कृत करना जरूरी है” इन शब्दों के रूप में आई है
- यदि हमने हृदय के आवेगो को अस्वीकार कर दिया तो समझे कि साधना में प्रगति कर ली
आगे आता है कि इन सबधों के अभिन्नता को समझने तथा मानव मन की जटिलता को समाज अतिचेतन के रुके प्रवाह को प्रवाहित करने से दिशा बदल सकती है क्योंकि जिस प्रकार अचेतन सामूहिक है उसी प्रकार क्राति-चेतन भी तो यहा क्रांति चेतन क्या चीज है ?
- क्रातिचेतन = यदि हम अपने अवचेतन मन को थोडा मजबूत कर ले तो प्रभावित नहीं होगे तब सुपरचेतन की किरणें प्रभावित न होकर व्यवहार में आने लगेगी, तब वे किरणें जागृत मन में आने लगेगी
- ईश्वरीय चेतन (सुपरचेतन) को व्यक्ति सुनेगा, दूसरो को सुनाएगा तथा उसी संदेश को प्रसारित करेगा, इसके बीच में कोई अवरोध / Resistance नहीं रहेगा
- क्रांतिदर्शी = आत्मदर्शी
मेरी इच्छा व ईश्वर की इच्छा ये दो इच्छाएं है, इसमें क्या भेद है, मै और ईश्वर जब यह सब मन का ही खेल है तथा वास्तव में सोहम् व बह्मास्मि का भाव सत्य है तो यहा दो बाते क्यों आ रही है तथा अद्वैत से द्वैत कैसे खडा हो गया कि मै और ईश्वर अलग कैसे हुए
- आत्मभाव के बारे में पढ़ना तथा इसका अनुभव लेना, दो अलग-अलग अवस्थाएं है
- सोहम् या अहम् बहाास्मि की स्थिति यदि हम पा लिए तो पूजा पाठ या किसी विशेष अभ्यास की आवश्यकता नहीं, यह स्थिति यदि नहीं आई तो हम जीव भाव में ही है
- जहा Prayer कर रहे है तो हम द्वैत भाव में है
- ईश्वर यदि ज्वाला है तो आत्मा उसकी चिंगारी है, जहां अपने भीतर उस ईश्वर का दर्शन करने लगे तो मैं तत्व समाप्त हो जाएगा
- हमारी केवल एक ही इच्छा होगी सर्वे भवन्तु सुखीना की तथा अपनी सारी संपत्ति भी ईश्वर की संपत्ति दिखाई पड़ेगी, वहा के लिए यह वाक्य नहीं है
- जब तक आत्मसाक्षात्कार नहीं हुआ तब तक मै (जीव), बह्म के साथ Prayer कर रहा है तथा एकत्व का प्रयास कर रहा है, जब जीव शिव बन गया तो वहां मै खत्म हो जाता है तथा अहम भाव में बदल जाता है
- मैं खत्म होने का अर्थ है कि जीव भाव समाप्त हो जाएगा, Ego फिर भी बना रहेगा, Ego बौधत्व हो जाता है ( अहम् बह्मास्मि ) -> यहा भी अहम् शब्द है, यह अहम् शुद्ध स्वरूप है
क्या चित्त की वृतियों के निरोध का आशय आत्मिक वृतियों का प्रभावित होना है कृप्या प्रकाश डाला जाय
- चित्त की वृति बाह्य चिन्तन को कहा जाता है, यदि किन्ही का मन / चिन्तन बर्हिमुखी हो तथा बाह्य जगत में ही बार बार दौड़ता रहे, आत्मा की तरफ ध्यान नहीं जा रहा
- चित् की वृतियों को यदि बाहर रोकेंगे तो रोकने के बाद क्या करे -> इस प्रकार चित्त वृति के रोकने को ही गुरुदेव ने योग नहीं कहा है, बल्कि निरोधित चित्त को आत्मा के साथ लगाना योग है
- आत्मा के चिंतन में लगाने पर ही वह योग कहलाएगा
- यदि हमारी वृतिया बाहर ही बनी रही तो वह बाहर रहकर ही सुख दुख का अनुभव लेना शुरू करेगा
- छूटने व बिछड़ने का क्रम केवल पदार्थ जगत में ही होता है आत्मा में नहीं होता है
प्रज्ञोपनिषद् में आया है कि मानवीय अन्तराल में विद्यमान ईश्वरीय सत्ता को समझा जाए एवं उभारा जाए तो क्या यह पंचकोश के संबंध में ही लिखा है
- यहा आत्मजागरण से मतलब है
- जैसे मानस कथा में केवल ईश्वर की चर्चा की जा रही है
- केवल ईश्वर के गुणों को बखान करना ही आध्यात्म नहीं है, यहा आध्यात्म के लिए आया है कि ईश्वर की सत्ता को अपने भीतर ढूंढा जाए, उभारा जाए और वैसा बना जाए, यह आध्यात्म है
इसमें प्रज्ञा अभियान का क्या महत्व है
- प्रज्ञा अभियान की भूमिका है कि यदि कोई दिग्भ्रांत हो गए हो (रास्ता भटक गए हो) तो उनसे बिना कुछ लिए उन्हें रास्ता बता दे
- प्रज्ञा की कमी है तो यदि हम मदद करे तो फीस लेकर (मजदूर बनकर) न करे बल्कि लोकसेवी बनकर करे
- यहा प्रज्ञा का अधियान है, लोक सेवियो का अधियान है इसमें हमें अपना स्कूल कालेज अलग से नहीं खोलना
- लोकसेवी का अर्थ परिवार्जक ही है, Current तभी बहेगा जब उसमें Free Electron होगे व उर्जा होगी
- इसलिए प्रज्ञा उपनिषद का शुरुआत परिवार निर्माण से ही हुआ है तथा अंतिम कक्षा विश्व परिवार है, केवल अपने ही घर को परिवार मानेंगे तो वासुदैव कुटुम्बकम का भाव कब होगा
क्या आत्मसाक्षात्कार के लिए प्रार्थना ही सबसे आसान व निश्चित माध्यम है
- प्रार्थना surest तब होता है जब दृष्टिकोण उत्कृष्ट हो
- यदि हमारी प्रार्थना में आत्मिक विकास की बात हो, सार्वभौमता भी हो तथा उत्कृष्टता भी हो तब उसी Prayer को ईश्वर सुनते है
- सर्वे भवन्तु सुखीना जैसी शुभकामनाएं पूरी होती है, इसलिए गायंत्री मंत्र को श्रेष्ठ कहा गया है क्योंकि इसमें आया है कि हम सबकी बुद्धि सन्मार्ग में लगें, केवल अपना ही नहीं
- वह वाली Prayer अधिक प्रभावित होती है तथा चारित्रिक प्रखरता भी ईश्वर देखते हैं
- यदि ईश्वर ने कुछ दिया तो उस व्यक्ति ने क्या किया, अंधे ने आंख मांगा, ईश्वर ने आंख दिया तो अब उस आंख से दिन भर केवल फिल्म देख रहा है, इससे अच्छा था कि ईश्वर आंख ना देते, इस प्रकार हमारी चारित्रिक प्रखरता भी महत्वपूर्ण है
- हमारी प्राथनाए / उपासनाएं सफल क्यों नहीं होती -> यदि दृष्टिकोण उत्कृष्ट हो, चरित्र के धनी हो तथा व्यवहार भी कुशल हो तो इनकी प्रार्थनाएं सफल होती है
- यदि हमने अपनी चारित्रिक प्रखरता को वेदों के अनुसार ढाल लिया है तो ऐसे प्रार्थनाएं अवहेलित नही होती 🙏
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