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पंचकोश जिज्ञासा समाधान (19-11-2024)

पंचकोश जिज्ञासा समाधान (19-11-2024)

आज की कक्षा (19-11-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-

चेचक को देवी माता के रूप में क्यों पूजा जाता है, माता तो बच्चों को कष्ट नही देती है, कृपया प्रकाश डाला जाय

  • जब बच्चे गन्दगी फैलाते है तथा मानते नहीं है तो माता चाटा भी मारती है
  • जब हम प्रकृति के नियमों के विरुद्ध चलते है या तो माँ के विरुद्ध चलते है क्योंकि प्रकृति माँ के समान है
  • छोटे बच्चे की गलतियां माफ की जा सकती हैं
  • जो मनुष्य प्रकृति के अनुसार ( खान पान रहन सहन, प्राकृतिक चिंतन, अपने जीवन में चलते है तो यहा अपनी ही क्रिया की प्रतिक्रिया होती है, प्रकृति स्वसंचालित है
  • अपनी गलतियो को प्रकृति / माँ पर नहीं थोप सकते, देव संस्कृति के 2 निर्माता = यज्ञ पिता व गायंत्री माता
  • चेचक या अन्य कोई भी रोग या दुख, प्राण की कमी से होता है
  • चेचक यदि घर में किसी को हुआ भी है। तो भी घर में सबको नहीं होता
  • मनुष्यों को चाहिए कि अपनी गलतियो को, माँ पर न थोपे
  • भीतर के विराट विकारों को बाहर निकालते है
  • नीम की पत्तियो या नीम की छाल का काढा पीए तो भी यह रोग, हैजा या चेचक नहीं होगा
  • काली मां के पास नीम का पेड उगा रहता है
  • कुपुत्रो को सुधारती है व सुपुत्रों को दुलारती है
  • दुर्गा जी भुजाओं से अधिक हथियार रखती है

भोजन के बाद अतः कुंभक या बाह्य कुंभक कर सकते हैं या नहीं

  • Mental करिए
  • अतः कुभक में प्राण को भीतर लिया गया तथा संधारण किया गया, प्राण के संधारण को कुभंक कहते है, पेट मे भरकर दबाकर करेंगे तो  गलत हो जाएगा, खाने के बाद क्रिया पक्ष को Mental कर दिया जाता है सोहम भाव / ईश्वरीय भाव के द्वारा प्राण को धारण किया जाता है
  • इस प्रकार धारण करने की शक्ति कुभंक है, वह तो 24 घंटे कभी भी कर सकते है
  • ईश्वर का मनन चिंतन करना, उसके गुणो में रमण करना, यही असली कुंभक (सूक्ष्म व कारण शरीर का कुंभक) है, हम केवल सास लेकर रोकने को ही कुंभक समझते है, यही हमारी भूल है

गायंत्री की पचंकोशीय साधना में 5.6 में आया है कि कोशितिकीबाह्मणोपनिषद् 2 और 1 में आया है कि यह प्राण ही बह्म है, यह सम्राट है, वाणी उसकी रानी है, कान उसके द्वारपाल है, नेत्र उसके अंगरक्षक, मन दूत, इंद्रियां दासी, देवताओं द्वारा यह उपहार उस प्राण बह्म को भेट किए गए है, प्राण शक्ति का वही बह्मतेज आंखों मे, वाणी में, चिंतन में व क्रिया में चमकता है, प्राणों का क्षरण आंख से अधिक होता है तथा आँखो का अधिक महत्व होता है तो फिर कान को द्वारपाल क्यों बताया गया

  • कान का कार्य – अधिकृत व्यक्ति को जाने देगा अनाधिकृत को रोक देगा, इसलिए द्वारपाल है
  • चुगली निंदा में यदि कान आनन्द ले रहा है तो उसे रोके, उससे विकार(घृणा) उत्पन होगी
  • कान भी ध्वनियों को खाता (सुनता) है
  • उस आवाज के भीतर बह्म को खाया या नहीं
  • नाद बह्म की साधना इसलिए ही किया जाता है, सुबह के समय स्वाध्याय भी इसलिए किया जाता है
  • सभी (कान भी आंखें भी जीभ भी . . .) = मजबूत द्वारपाल है
  • कान से कल्याणकारी सुनने वाले देवता बन जाते है व अकल्याणकारी सुनने वाले विकारी हो जाते है

आध्यात्म विज्ञान में सूक्ष्म शरीर के साथ सघन घनिष्टता के साथ जुड़े हुए सप्त शक्ति चक्रो का निरूपण किया गया है, उन्हे सप्त दीप,  सप्त सागर, सप्त नाम, सप्त पर्वत, सप्त ऋषि, सप्त लोक, सप्त वहयति, सप्त सत्ता, सप्त साधना के रूप में विवेचना करते हुए समस्त आत्म विद्या का क्लेवर खड़ा किया गया है, वेदो में वर्णित सप्त ऋषि वशिष्ठ विश्वामित्र कश्यप भारद्वाज अतरि जमदग्नि गौतम तथा पुराणों में भी इनके अलग अलग नाम है तथा सप्त ऋषि का कार्य बह्माण्ड मे संतुलन बनाए रखना व मानव जाति को सही राह दिखाना है . . .क्या शरीर में सप्त लोको के रूप में व्याप्त जो चेतना है क्या उससे सप्त ऋषि की संगति बैठाई जाए

  • उपनिषद् में एक सुत्र आया कि जब संसार नहीं था तो क्या था तब उत्तर मिला कि ऋषि थे, ऋषि का अर्थ यहा प्राण से है, ऋषि का अर्थ केवल आदमी नहीं तथा हम केवल एक ही अर्थ में फसें न रहे
  • आँखो में जमदगनि और विश्वामित्र के रूप में हस्तजिवा (विश्वामित्र) व गांधारी (जमदग्नि) प्राण है . . .
  • ये सब सृजन की शक्ति प्राण ही है, इन्ही प्राण शक्ति को बह्मा विष्णु  व महेश कहते है
  • प्राण हीं सृजन पोषण संहार करता है
  • पांचो कोशो के पुरोहित व प्रकाशक है
  • पंच कोशो के अनुरूप पांच ऋषि कहेंगे तथा उनके भीतर ही s प्रकार की अग्नियां भी है
  • अग्नि से ही सारी सृष्टि बनी है तथा यह सब प्राणों का ही खेल है
  • गायंत्री वा इदम सर्वम
  • प्राण को ही बह्म कह दिया
  • नीम खाने वाले, दूब की घास खाने वाले ऋषि भी थे, उनमें (किसी भी अन्न में) भी प्राण है
  • ऋषि यहा गुण बोधक है तथा समझने व समझाने में सरल बन सके

गीता का 1.25 में आया है कि हे प्रार्थ यहा पर एकत्र सारे गुरुओं को देखो, फिर अर्जुन ने देखा, हमारे सामने यह परिस्थिति नही आती तो हम इसमें क्या दृष्टि रखे तथा हम क्या देखे

  • जैसे जज साहब के अपने सामने अपराधी व निरापराधी के आधार पर देखेगें परन्तु अपने रिश्तेदार या किसी संबंधी की दृष्टि से नहीं देखेगें
  • अपनी गलतियों (कुसंस्कार / कौरव) को हम माफ करते है दूसरो की गलतियों पर हम टूट पडते है, यही विषादयुक्त अर्जुन है, श्री कृष्ण इसे नपुसंक कह दे तो कुछ गलत नहीं
  • आत्म सुधार ही संसार की सबसे बड़ी सेवा है, बहादुर व्यक्ति छोटा-मोटा काम नहीं करता परंतु संसार का सबसे बड़ा काम करता है
  • आत्मसुधार को ही छुरे की धार पर चलना कहा गया है
  • भौतिकवादी संकल्प लेना ही विष लेने के समान है, भीष्म पितामह को भी संकल्प आत्मिकी लेना चाहिए था ना कि गद्दी की रक्षा करने जैसा भौतिकवादी संकल्प
  • इसलिए कृष्ण ने भीष्म पितामह से कहा कि जो कष्ट तुम झेल रहे हो, यह भौतिकवादी संकल्प ही कष्ट बनकर तुम्हारे उपर आया है
  • उस समय भी धर्म अधर्म का खेल था, चाहे कोई अपना हो या पराया, जो प्रकृति के विरुद्ध चले उसे स्वयं से स्वयं को दण्ड देना चाहिए

पंचजन्य पुरोहित व गायंत्री वा इदम सर्वम है तो प्रलय काल में गायंत्री कहा चली जाती है तथा क्या उस समय जीव रहता है

  • प्रलयकाल में जीव नहीं रहता या ये कहे कि जीव रहता है पर दिखता नहीं है, आकाश रूप में है जैसे यज्ञ में नारियल की आहुति दी तो नारियल है परन्तु दिख नही रहा, भाप बनकर टहल रहा है, इसे अदृश्य कहते है, इसे ही मरना कहा जाता है
  • यहा किसी का नाश नही होता, जो दिख नहीं रहा तो इसका अर्थ यह नहीं कि वह है ही नहीं
    (Invisibility never means absence this may be present in another dimension)

गायंत्रीरहस्योपनिषद् में आया है कि प्रलयकाल में जीव रहता है तथा गायंत्री नष्ट हो जाती है

  • यहा पर जो गायंत्री शब्द है यह साकार से निराकार में बदल गया, गायंत्री का एक नाम अव्यक्त भी है पहले जो गायंत्री व्यक्त थी तो अब अव्यक्त में चली गई
  • गायंत्री के अन्य भी नाम जैसे प्रकृति व रितम्बरा प्रज्ञा भी है
  • गांयत्री एक शक्ति है तथा शक्ति का कभी नाश नहीं होता
  • शिव व शक्ति दोनो मिल गए तो अब नहीं दिख रहे, यहां किसी का नाश नहीं होता प्रकृति भी अविनाशी है और ब्रह्म भी अविनाशी है, एक परिवर्तनशील है और एक अपरिवर्तनशील है दोनों में इतने भर का केवल अंतर है

छान्दग्योपनिषद् में आया है कि ॐ कार सभी रसो में सर्वोतम रस है, यह परमात्मा का प्रतीक होने के कारण उपास्य है, यह पृथ्वी आदि रसों में आठवा है परन्तु ॐ की उत्पति तो सबसे पहले हुई तो यह आठवां क्यों आया

  • ॐ की उत्पत्ति पहले हुई, उपर चक्रो से देखे तथा पृथ्वी के विकास कम्र को देखे तो यहा सप्तधा प्रकृति है, इन्ही सातों को व्याहतिया कहते है भू भूवः स्वः महः जनः तपः सत्यम
  • ये सात उपन्न कहा से हुआ तो ये सातो आठवे से उत्पन्न हुए / ॐ से उत्पन्न हुए -> 7 बार Echo हुआ, यही 7 Dimension बन गया
  • ॐ उधर से चलेंगे तो पहला इधर से चलेंगे तो 8वा आएगा

यह प्राण और सुर्य दोनों में ही समान है यह प्राण उसमें है तथा वह सुर्य भी उसमें है, इस प्राण को स्वर कहते है, का क्या अर्थ है

  • स्वर का अर्थ है जो सारी सृष्टि में दौड रहा है
  • स्वर का एक अर्थ तरंग भी है
  • सुर्य भी स्वर है ॐ भी स्वर है, ॐ से ही सुर्य की उत्पन्नि हुई
  • हर चीज यहा स्वर है, सभी की / सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति Sound Energy से ही हुई है
  • सब जीव पशु पक्षी, सभी ॐ को ही बोलते है हमें कुछ ओर सुनाई देता है,यही हमें विज्ञानमय कोश में सिद्ध करना होता है तभी हम हर हाल मस्त रहेंगे
  • सारे अपने अपने अनुरूप ॐ ही बोल रहे है

व्याहति से क्या अभिप्राय है

  • व्याहति = विशेष Dimension
  • स्थूल सूक्ष्म कारण = तीन orbit हुआ, इन्ही को भवानी , तीन आयाम, तीन लोक तथा फल में भी छिलका गुदा व गुठली ही होती है
  • गाडी ड्राइवर पेंट्रोल
  • इसी को 3 Dimension या व्याहतिया कहेंगे
  • तीन Dimension को ही तीन व्याहति कहते है,
  • एक मंत्र आता है
    सदा भवानी दाहिनी, सन्मुख रहे गणेग
    पंचदेव मेरी रक्षा करे बह्मा विष्णु महेश
  • यह गायंत्री मंत्र को ही कहते है
  • गणपति / गणेश को ॐ कहा गया है
  • भू भुवः स्वः -> यही लक्ष्मी काली व सरस्वति है, यही तीन चरण के रूप मै ब्रह्या विष्णु व महेश है          🙏

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