पंचकोश जिज्ञासा समाधान (18-12-2024)
आज की कक्षा (18-12-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
अमृतनादोपनिषद् में आया है कि श्वास को न तो अतःकरण में आकृष्ठ करे और ना ही बर्हिगमन करे तथा शरीर में कोई हलचल भी ना करें, इस तरह से प्राण वायु रोकने की प्रक्रिया को कुंभक प्राणायाम का लक्षण कहा गया है, इसका Practical कैसे करे
- श्वास का अर्थ यहा विचार भी है क्योंकि विचार भी प्राण है तथा यह भी दौडता है
- कुंभक श्वास से भी जुडा हुआ है तथा विचारो से भी जुडा है,
- यदि अब हमने श्वास खींचा, तो चिंतन प्रणाली को वहा लगाए, जिस उद्देश्य के लिए खींचा है
- चिंतन करे कि खीचा हुआ प्राण, शरीर में Storage कर रहा है -> आकर्षण – संधारण फिर विनियोग, इस Process में रहें, इधर उधर के चिंतन में न जाए, अंतःकरण में रहने का अर्थ है कि अपने आप को स्थिर करे, समत्व में रहे / सुष्मना में रहे, चित्त वृतियां बर्हिमुखी भी न हो
- अन्तर करण में अन्तर का अर्थ मन बुद्धि चित्त अहंकार से है
- आत्मा इन सब से भी परे है, अंतःकरण से भी परे है
- आत्मा अन्तःकरण में है परन्तु अन्तःकरण नहीं है, आत्मा मन में है पर मन नही है, बुद्धि में है, बुद्धि नहीं है, चित्त्त में है चित्त नहीं है, अहंकार में है, परंतु अहंकार नहीं है
- इसलिए ना भीतर रहे ना बाहर रहे / ना इन सबमें लिपटे ना बाहर चिपटे, ऐसी अवस्था में रहेंगे, तब जाकर कुम्भक सिद्ध होगा
- कुम्भक की उपनिषद् थोडा ओर आत्यान्तिक (गहराई से युक्त) परिभाषा देता है जिसे कोई काट न सके
- प्राणायाम केवल Breathing Exercise ही नहीं है, आत्मस्थिति में अपने आप को रखना, हम सोचे कि मै इनसे परे हूँ तथा इस प्रकार हमारा तेज बढ़ रहा है, ऐसा चिंतन भी करेंगे तो यह भी यह प्राणो का रोकना कहलाएंगा
- यदि हम अपने भीतर मन – बुद्धि – चित्त – अहंकार तथा बाहर पृथ्वी – जल -अग्नि – वायु और आकाश, इन से परे रखकर यदि हम अपने आप को, इनसे बाहर निकालकर अपने आप को रोके हुए है तो हम यह कह सकते है कि हम इनमें से किसी भी अवस्था में नहीं है
- तब किसी अन्य अवस्था में हम है, यह भी अपने को एक स्थिति में रोकने की अवस्था है, उस अवस्था को असली कुम्भक कहेंगे
- विचार को न अन्दर रखें न बाहर रखे का अर्थ कि विचार को आत्मा में रखे, जो स्थिर है वह आत्मा है, आत्मा के गुणो का मनन चिंतन करे
- यह अवस्था ना भीतर की है ना बाहर की, मैं ईश्वर अंश अविनाशी तत्व आत्मा हूं
- अब ना हम मन के बारे में सोच रहे हैं ना ही शरीर के बारे में, यह एक तरह से सोहम् प्राणायाम है, यहा कुम्भक का अर्थ है कि इस स्थिती को थोडा टिकाऊ बनाया जाए
- विचार से इसका लेना देना है
- प्राण व अपान की गति को रोक देना प्राणायाम कहलाएगा
- केवल कुम्भक की स्थिति में ना सास आ रही है ना जा रही है, इसका अर्थ की श्वास की गति इतनी धीमी हो की नाक के पास यदि रूई का फावा भी रखें तो भी वह ना हिले, कुम्भक से हमें उस अवस्था में जाने की कोशिश करनी है, तब केवल कुम्भक सिद्ध हो जाएगा
- केवल कुम्भक का एक अन्य रूप यह भी हो सकता है कि यदि हमें जीवित रहने के लिए श्वास लेना भी पड़ रहा है तो भी उस श्वास के आने जाने से, विचारो में उतार चढाव ना हो तो भी यह स्थिति कुम्भक कहलाएंगी
- शान्त व आनंदमय स्थिति को कुंभक कहते हैं
प्रज्ञोपनिषद् के तृतीय खण्ड में आया है कि पंचाग नरेश ने उन दोनो को चिरकाल तकअपने पास रहने की आज्ञा प्रदान की, उसने कहा हे गौतम जिस प्रकार आपने मुझसे कहा है, आप यह समझे कि प्राचीन काल में यह अग्नि विद्या बाह्मण के पास नही गई, इसी कारण से सभी लोको में इस विद्या पर क्षत्रियों का ही अनुशासन रहा, इस प्रकार कहकर उस राजा ने गौतम को अग्नि विद्या का उपदेश दिया, यहा पंचांग नरेश अग्निविद्या का उपदेश कैसे दे सकते है, यह अग्नि विद्या कौन सी विद्या थी जो बाह्मण के पास न रहकर केवल क्षत्रियों के पास लंबे समय तक रही
- जिनकी विद्या है, वे यह आदेश दे सकते हैं,
- यह अग्निविद्या गायंत्री मंत्र ही है, यह विश्वामित्र की विद्या है
- गायंत्री मंत्र से आध्यात्मिक लाभ के साथ साथ, ये सब सांसारिक लाभ भी मिलता है
- जो संसार में जी रहा है, उन सब सांसारिक लाभों की उसे जरूरत भी है
- संसार में रहते हुए संसार से लिप्त न हो, यह गायंत्री विद्या है, राजा जनक की विद्या है, यह पंडितो के पास नहीं है
- इसलिए कहा गया कि गायंत्री ब्राह्मणों की कामधेनु है, जो चरित्र के धनी है, चिंतन धनी है, व्यवहार कुशल व्यक्ति हैं,वे चाहे तो गायंत्री मंत्र से लाभ ले सकते है, ब्राह्मण हैं
- यहा बाह्मण का अर्थ वह नहीं जो हम समझते है वैसा नही
- शिवजी का प्राणों पर नियंत्रण है, तथा रुद्र को ही प्राण कहा जाता है, एकादश रुद्र शिवजी कहलाते है
- शिवजी को क्षत्रिय भी कहा जाता है
- 10 प्राण + 1 आत्मा = एकादश रुद्र है, प्राणो का नियंत्रण आत्मा करेगा
- 10 ज्ञानेंद्रियां + 1 मन = एकादश रुद्र
निर्वाणोपनिषद् में अपनी इंद्रियो का निगृह करना ही उनका ( परिवाज्रक संन्यासियों का) नियम होता है, भय – मोह – शोक एवं क्रोध का परित्याग करना ही उनका त्याग है, वे परब्रह्म के साथ एकत्व का रसास्वादन करते हैं, अनियमाकत्व ही उनकी निर्मल शक्ति है, वे स्वप्रकाशित बह्म तत्व में शिव शक्ति से सम्पुटित प्रपंच का छेदन करते हैं, इसमें अनियमाकत्व ही उनकी निर्मल शक्ति है, का क्या अर्थ है
- नियामक = Controller, यह कौन है
- बच्चों को यह कहना कि यह गलत है या यह सही है तो इस पर प्लुटो ने कहा कि बच्चों को बार बार ये कहेंगे तो तुम उसे अपने जैसा मुर्ख बना दोगे तथा वह बच्चा अधिक बढ़ेगा नहीं क्योंकि तुम उसे अपने जैसा क्लोन बना रहे हो
- संन्यासी आत्म स्थिति में रहता है वह सबके हृदय में रहेगा
स्वप्रकाशित बह्म तत्व में शिव शक्ति से सम्पुटित प्रपंच छेदन करती है,का क्या अर्थ है
- सारा संसार शिव शक्ति है,
शिव = ज्ञान
शक्ति = उर्जा - सारा संसार प्राण तत्व से बना है
- प्राण ही Refined होते होते परबह्म बन जाता है
- शिव = ज्ञानशक्ति = सदज्ञान
- शक्ति = सत्कर्म
- सद्ज्ञान व सत्कर्म को जोड दे तो आत्मिक विकास होगा
प्राण व अपान का निरोध / प्राण व अपान की गति को रोकना में यहा अपान का निरोध (रोकना) का क्या अर्थ है
- अपान = संसार की तरफ गति
- अपान = भौतिकवादी संलिप्तता = विषय के प्रति आसत्ती
- आत्मा शक्ति को प्राण कहेंगे
- आसत्ती भी खराब नहीं, देखना यह है कि चिपका भी तो क्षणभंगुर चीज से चिपका है या शाश्वत से चिपका है
- Waste को जो निकालता है वह अपान है
- जो बह्मबल को बढ़ाए वह प्राण है
- अपान की भी जरूरत है, अपान की जरूरत शरीर से रोगों को हटाने के लिए पड़ती है, यह गलाई का काम कर रहा है
- हमें प्राण व अपान दोनों की जरूरत पड़ती है, यह ढलाई का काम कर रहा है
- योग और तप -> इसलिए प्राण – अपान की क्रिया से ईश्वर संसार को चल रहा है
प्राण व अपान यदि हमारे शरीर के लिए आवश्यक हैं तो इन्हें रोकने की बात क्यों की जाती है
- रोकना इसलिए है क्योंकि आत्मा इन सबसे परे है, आत्मा हमेशा शांत व आनंदमय स्थिति है
- ईश्वर सर्वव्यापी है तो वह कहां दौडेगा, वह हर जगह पहले से ही रहता है इसलिए शांत रहता है, ईश्वर की भांति आत्मा की भी व्यापकता सब जगह है, इसलिए वह भी शांत है
- शान्तिमय व आनन्दमय इसी का वह धनी है, इसलिए वहां पर हलचल नहीं होती
योग वशिष्ठ में आया है कि इद्रियों द्वारा किए गए कर्मों का विनाश हो सकता है परंतु मन के निश्चय से किए गए कर्म को कोई भी व्यक्ति नष्ट नहीं कर सकता, व्यक्ति के मन में जो निश्चय बद्धमूल हो गया है, उसके अलावा अन्य कोई भी उसका निवारण नहीं कर सकता, जो पदार्थ बद्धमूल है तथा मन में चारो और से आरूढ है वैसा ही वह पुरुष होता है उसका और अन्य कोई रूप नहीं होता तो यहा पदार्थ बद्धमूल है, का क्या तात्पर्य है
- पदार्थजगत या संसार को अधिक महत्व देना, इसी का महत्व मन में बैठ जाना तथा इसी प्रकार का भाव व चिंतन जो मन में भीतर तक घुस गया है -> इसी को पदार्थ भाव कहते है
- ज्ञान जैसे-जैसे मिलता जाएगा तो यह पता लगेगा कि यहा पदार्थ की कोई सत्ता ही नहीं है
- अथाह शान्ति व आनन्द को पा लेने के लिए हम अपने जीवन में हर संभव प्रयास करते हैं परन्तु इसके बावजूद भी यदि वह नहीं मिला तो यह लगेगा कि कुछ और भी बाकी है जिसे हमें प्रयास करना चाहिए था
- उन लोगों में यह जल्दी नहीं हटा सकते जिनके भीतर संसार का यह आकर्षण गहराई तक घुस गया है
- नचिकेता ने भी मनन चिंतन किया था कि सारा सुख 1000 वर्ष भोगने के बाद तो इंद्रिया भी स्थिल हो जाएगी तब क्या होगा, यह जानकर यमराज जान गए कि यह आत्मा को पाने का सच्चा अधिकारी है
- कुछ लोगो को साधना के लिए बाहर जाकर भी घर की चिन्ता लगी रहती है, तो संन्यास से पूर्व मन में से पहले उन जड़ों को हटाना होता है
- जब संसार की निसारता को समझ जाए तथा सत्य को जानने की प्रबल इच्छा हो तभी वह शिष्य कहलाएगा
- मन को इतना साफ कर ले तब जा कर वह आत्मज्ञान का अधिकारी रहता है
- मन में यदि पदार्थ भाव आ भी गया तो उसे आने दे तथा उसके साथ काम भी करते रहें परंतु मन में आया विचार कही जड़ न बना ले तथा वह विचार कही ठोस रूप न ले ले
- यदि कोई विचार मन में जड़ बना ले तो उसे निकालना बहुत मुश्किल होता है
- इसलिए हमें योगो की तरह आनंद लेते रहना चाहिए और आगे बढ़ते रहना चाहिए
क्या पदार्थ का विज्ञान केवल मन तक ही सीमित है
- हा सारा संसार, मन तक ही है, क्योंकि मन में विचार रूपी तरंगें निकली तथा वहीं तरंगे जब इक्कठी हुई तो वही पदार्थ बन गया, मन के ऊपर पदार्थ है ही नहीं
- सारे ज्योर्तिविजान केवल मन तक को ही प्रभावित करते है
- आत्मा तक पहुचे हुए साधक के लिए यह सब शून्य है, मन को जीतना, संसार को जीतने के बराबर है
क्या विष और अमृत में कोई अन्तर नहीं, केवल मन तक ही इसका अन्तर है
- हा , यह केवल अज्ञानता के कारण ऐसा दिख रहा है, ज्ञान मिल जाता है तो यह भेद समाप्त हो जाता है
- वैज्ञानिक व्यक्ति एक बार में जान जाता है तथा एक ही बार में U Turn ले लेता है, उसे U Turn लेने में समय नहीं लगता
वांग्मय 22 (चेतन अवचेतन व सुपरचेतन मन) में श्री अरविंद बताते हैं कि शरीर मन व आत्मा के त्रिआयामी व्यक्तित्व में केंद्रीय आयाम आत्मा है, यह वास्वविक केन्द्र भी है किंतु आत्मा भी वास्तविक एवं परिछन्न है, यह परिछन्न आत्मा से वह कामनामय आत्मा, हमारी प्राणात्मक वासनाओं उद्वेगों सौन्दर्य की अनुभुतियो के पीछे है, का क्या अर्थ है
- आत्मा और जीवात्मा ये दो शब्द है तो जीवात्मा के लिए भी आत्मा शब्द का प्रयोग कहीं-कहीं हो जाता है
- वही शिव जब कामनाओं से युक्त हुआ तो जीव बन गया है
- आत्मा यदि मन बुद्धि इंद्रियों से चिपकता है तो कर्ता / भोक्ता बन जाता है, इसे परिछिन्न कहा जाता है, इसमें पानी साफ नहीं है तथा शैवाल भी कुछ तैरने लगा है
- परीक्षण शब्द का उपयोग वहां होता है जहां किसी में कुछ मिला हुआ हो / मिलावट हो
- इसी प्रकार जब विशुद्ध आत्मा मन इंद्रियों व बुद्धि से चिपक जाती है तो अपने को आत्मा मानेगा ही नहीं तथा अपने को मन या उसके जैसा मानने लगेगा, जिससे उस का चिपकाव हो गया हो, इसी चिपकाव की स्थिति में उसमें कर्तापन व भोक्तापन का भाव आने लगेगा
- विशुद्ध आत्मा ने जब कामनाओ की / सुख दुख की चादर को लपेट लिया तो इसी को यहा परिछिन्न कहा जाने लगा
अमृत या विष की चर्चा में सांप का जहर विष होता है परन्तु सर्जरी के समय यह बेहोशी की औषधि के रूप में उपयोग होता है तथा धतूरा रूपी विष भी औषधि है, क्या हम जब किसी पदार्थ का दुर्पयोग करते है तो ही वो विष बनता है, संसार तो अमृततत्व से ही भरा पडा है, विष वो तब बन रहा है जब हम आसत्त होकर काम कर रहे है या हमें उसकी जानकारी नहीं है, क्या केवल उस पदार्थ का उपयोग या दुर्पयोग ही उसे विष बना दे रहा है, कृप्या स्पष्ट करे
- यही बात पहले भी आई है कि वह परिछन्न हो गया, इसका अर्थ है कि विष के भीतर में अमृत तत्व के उपयोग की विधा को नहीं जाना
- अज्ञानता से वह परिछन्न हो गया, अब वह संसार का सुख नहीं ले पाएगा
- महर्षि कपिल ने इसलिए कहा कि ज्ञान के सिवा मुक्ति का अन्य कोई उपाय नहीं है, सभी तरह के प्रयास करने हैं, इसलिए श्री कृष्ण ने सबसे पहले सांख्य योग बताए
- श्रीमद भगवद्गीता का असली उपदेश दूसरे अध्याय से शुरू होता है पहला अध्याय में तो अर्जुन (रोगी) ने केवल अपने प्रश्न रखे हैं, उसके बाद श्री कृष्ण (डॉक्टर) ने अध्याय 2 में ज्ञान के माध्यम से उसके उपाय उपचार बताए हैं
- अर्जुन को बताया कि तुम जो सोच रहे हो उसके पीछे Actual Fact कुछ और है परन्तु तुम्हारे मन में गांठे जहा घुस गई है तो भी अब तुम मेरे बताए इस मार्ग पर चलो तथा मेरे बताए गए तरीके से व्यवहार करो
- मन में संसार की गांठे जहां आ जाती हैं तो समझे कि वह परिछिन्न मन हो गया
सदज्ञान व सत्कर्म को अपने शिव और शक्ति के साथ जोड़ा, तो फिर यह भी आता है की शक्ति के बिना शिव शव के समान है, क्या जब सद्ज्ञान की परिणीति सत्कर्म में नहीं हुई तो क्या वह भी शव के समान हो जाएगा
- वो तब की बात है जब एकोहं बहुस्यामं की स्थिति चल रही है
- जब संसार में रमण कर रहे है तब शिव शक्ति की यह बात आती है
- जब प्रकृति को उत्पन्न ही नहीं किया तो उस समय भी सोचकर देखा जाए, एकोहं द्वितियोनास्ति या सर्वम खल्लुइंदम बह्म -> यहा पर शक्ति गायब है
- हमें हर तरह का खेल खेलता चाहिए, तभी जीवन का आनन्द है, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र का आनन्द तभी ले सकता है जब सब चीजो की जानकारी हो
ज्ञान की आभा वाणी और चेहरे पर परिलक्षित होती है,वह रक्त में तब मिलता है, जब उसका Application होता है, का आशय क्या है
- जब कोई बोलता हे तो भावनाओं की अभिव्यक्ति करने के लिए विचारो को प्रकट करता है जैसा क्रोध भाव में चेहरा बदल जाता है, भाव मध्यमा वाणी है, बैखरी वाणी में भी यह प्राण बनकर निकलता है
- ज्ञान, प्राण बनकर उसकी बैखरी वाणी से आता है तथा मध्यमा वाणी से हाव भाव में आएगा
- रक्त में घुलने का अर्थ कि रोम रोम में वह ज्ञान घुल गया है, DNA में प्रवेश कर गया, सभी Body cell उसे स्वीकार कर ले, उसी ज्ञान में रच पच जाना, उस सद्ज्ञान व सतकर्म से ओत प्रोत हो जाना
- Negative Thought भीतर तक चला गया है तो असुरत्व की चरम सीमा तक जाएगा
- Positive Thought यदि मन के सारे Neuron स्वीकार कर लेंगे, तब उसमें अमूलचूल परिवर्तन होता है
पूजा के समय देवताओं के स्थूल रूप का ध्यान ही आता है – क्या यह सही है?
- कल्पना योग भी होता है, यदि हम देवताओं के रूप की कल्पना स्थूल रूप में कर लेंगे तो हमारे ही शरीर में से एक बायोप्लाजमा निकलकर एक आकृति बना देता है परन्तु वास्तव में वैसा होता नहीं हैं
- देवता हर जगह सव्यांपत रहते है, जो हर जगह रहेगा वह आकृति में कैसे रहेगा
- जैसे कृष्ण काले थे परन्तु फिल्म या अन्य जगहों में गौरा दिखाया जाता है
- ये सभी मूर्तिया भक्त ने ईश्वर के गुणों के आधार पर कल्पनाओं से बनाई है
- वेदो में जो देवताओं की चर्चा आती है, ये सब Magnetic Field है
- बह्मा को ज्ञान कहा जाता है, विष्णु को समृद्धि कहा जाता है, उर्जा को शिव कहा गया है, तो इनकी आकृति भला क्या हो सकती है
- गुरुदेव शिवजी को कैलाश पर ढूढ़ने गए थे, कही नहीं मिले, तब एक वाक्य समझ में आया कि शिवजी व पार्वती श्रद्धा और विश्वास को कहा जाता है
- सजल श्रद्धा – प्रखर प्रज्ञा / सदज्ञान और सत्कर्म -> इसी को शिव – पार्वती कहते हैं
- लोगों को पढ़ाने के लिए, आकृतिया बना ली जाती है, मदिरों की मूर्तिया पत्थरो की पुस्तके है जिनके माध्यम से हम आत्मज्ञान / आत्मज्ञान की Philosphy व दर्शन को प्राप्त कर लेते है
- गायंत्री के 5 मुख, गणेश जी की लंबी सूंड -> ये सब अलग अलग ढ़ंग से पढ़ाने के लिए बनाए गए है
- श्रद्धा हो तो उस श्रद्धा से सत्य को पा लेगे 🙏
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