पंचकोश जिज्ञासा समाधान (18-10-2024)
आज की कक्षा (18-10-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
श्रीसहिंतोपनिषद् में आया है कि सौ संहिता के सपांदन का फलपुरुष चार है -> सहिपुरुष, छंदपुरुष, वेदपुरुष व महापुरुष, इसका क्या अर्थ है
- सहिंताए, वेद का भाष्य होती है
- जैसे अन्न ही बह्म है, गायंत्री महाविज्ञान या तत्त्रियोपनिषद् में भृगु वल्ली आया है
- भृगु ऋषि आत्मा की खोज के लिए पिता वरुण के पास गए तो पता चला कि तप के द्वारा ही उसे जाना जा सकता है तब तप किए तो इस दैहिक कोश को जाना कि अन्न ही बह्म है
- अन्नमय कोश में बह्म की झांकी दिखेगी
- छंदपुरुष -> प्राज्ञ की प्रक्रिया के द्वारा = मनोमय कोश के द्वारा -> सारा वेद छंदबद्ध है
- सारे संसार को चलाने वाली तरंगो की लयात्मक गति को छंद कहते है
- लयात्मक गति = छन्द -> सारे तरंग लयबद्ध है
- सारे वेदमत्रं छंद बद्ध है, किस लयात्मक गति से कहा पर कैसे इस प्रकृति को इच्छानुसार स्वर्ग में बदला जाए, यह जानकारी भी छन्द में मिलती है, तत्वज्ञान विकसित होता है
- वेदपुरुष =
शुद्ध मन से वेद को पढने पर इस आकार मयी विष्णु (वेदपुरुष) की अनुभूति होती है - महापुरुष = आत्मा कालात्मा = महाकाल
- बह्म के 2 रूप
i) अपरबह्म / विकार ब्रह्म = संसार के रूप में
परब्रह्म
ii) परब्रह्म -> यदि संसार समाप्त भी हो जाएगा तो भी इनका अस्तित्व बना रहता है - उपनिषद् पढ़ेंगे तो इसका जानकारी मिलेगा
कौशितिकीबाह्मणोपनिषद् में आया है कि पूर्णिमा के दिन शयनकाल में जब इन्द्र देव चंद्र देव का दर्शन होने लगे तब उस समय पूर्व मंत्र में बताई हुई रीति के द्वारा चंद्रदेव को अर्घ समर्पित करे, प्रस्थान के समय निम्न मंत्र का पाठ करें -> हे सोम संसार प्रतीति रूप उमा के साथ रहने वाले तुम सोम नाम वाले राजा हो, तुम सभी लौकिक व वैदिक कार्यो में प्रवीण हो, तुम पांच मुंखो से युक्त प्रजापति के रूप में सम्पूर्ण प्रजा का पालन करते हो, एक मुख बाह्मण है जो क्षत्रियों का भक्षण करता है, दूसरा मुख क्षत्रिय है जो वैश्यो का भक्षण करता है, तीसरा मुख सेन है उस मुख से तुम से तुम पक्षियो का दमन करते हो, उस मुख से तुम मुझे भोगने वाला बनाओ, चौथा मुख अग्नि है, पांचवां मुख तुम स्वयं ही हो, उस मुख के द्वारा समस्त प्राणियो का संहार करते हो . . . जो तुमसे देष करते है या जिससे तुम द्वेष करते हो उनका प्राण नष्ट हो जाता है, का क्या अर्थ है
- भौतिक / लौकिक जगत को भी साथ लेकर चलना चाहिए
- पूर्णिमा के दिन चंद्रमा पूर्ण प्रकाश में रहेगा, उस प्रकाश में जलन नहीं है, इसका अर्थ है कि वह शांति प्रदायक है
- शांतिमय आनंदमय स्थिति -> बह्म की स्थिति होती है, इसलिए चंद्रमा को सहस्तार पर कहा जाता है
- चंद्रमा की अपनी शक्ति नही अपितु बह्म ही चंद्रमा के माध्यम से चमक रहा है, क्योंकि बह्म शांतिमय आनंदमय है तो बह्म ने अपने को प्रकट करने के लिए चंद्रमा को माध्यम बना लिया, जो भी प्रार्थना या ध्यान चंद्रमा को देखकर करे तो बह्म का ध्यान करे, साधारण चंद्र रूप में ना देखे
- इसी प्रकार अग्नि / प्रकाश को साधारण न माने, परमात्मा के तेज से वह चमक रहा है
- उन किरणो को शरीर के भीतर ले गए तथा शांतिमय आनंदमय रूप में उसका लाभ ले
- आत्मा जब पूर्ण विकसित होगा तब उसके प्रकाश में संसार के सारे अवरोध समाप्त हो जाते है, इसी को प्राण कहते है
- धीरे धीरे हम चक्रो को जगाते जाएंगे तो प्राणों पर विजय प्राप्त होता जाएगा
- विजय का होना शत्रु का नाश होना है व इसके प्रभाव से मुक्त हो जाएंगे
गीता में सांख्य योगी व आत्मा में रमण करने वाला योगी में क्या अंतर है
- सांख्य योगी = तत्वज्ञान का सहारा लेकर जीने वाला / वह निरालम्ब हो जाता है / किसी अन्य के सहारे की आवश्यकता नही पड़ती
- तत्वज्ञान के द्वारा भिन्न भिन्न वस्तु / प्राणी में भी एक ही बह्म को देखता है इस तरह के ऋषि को जिसने वेदान्त को पचा लिया है उसे सांख्य योगी कहेंगे, उसे यह भम्र कभी नहीं होता कि यहा दो की सत्ता है, वह मोह में कभी नही फंसेगा, यह ज्ञान Practical Life जीने से ही मिलता है
- यह ज्ञान पाने के लिए सांख्य योगी को संसार में रहकर कर्म / Practical करना पडता है
- स्वयं को कष्ट देकर / चोट लगाकर यह देखता है कि हमें कष्ट का अनुभूति हो रहा है या नहीं
- यदि हमें कष्ट हो रहा होता था तो हम अपने को शरीर भाव से अलग कर लेते थे तब कष्ट का अनुभूति खत्म हो जाता था, इससे यह proove हो गया कि यदि हम आत्म भाव में रहेंगे तो हम निर्भय होकर रमण करेंगे, कोई डर या भय नही होगा
- उसमें सबके प्रति करुणा का भाव होगा तो कहेंगे कि आत्मा में रमण कर रहा है -> वह सबके हृदय में स्वयं को देखता है तथा स्वयं के हृदय में सबको देखता है
आत्म योगी में करुणा भाव होगा तथा वह निर्भय होकर रमण करता है, परन्तु क्या दोनो ही निर्भय होकर रमण करते है या नहीं
- आत्म योगी ही सांख्य योगी होता है तथा सांख्य योगी ही आत्म योगी होता है
- आत्म ज्ञान को ही सांख्य कहते है तथा संसार के बारे में व अपने बारे में सही सही ठीक ठीक पूरी जानकारी को सांख्य कहेंगे
- आत्मज्ञान / तत्वज्ञान / बह्मज्ञान के माध्यम से देख लेने के बाद, भेद दृष्टि अब समाप्त हो जाती है, अभेद दृष्टि से अब सब देखेगा
- जब तक भेद दृष्टि है तब तक वह प्रगति में चल रहा है, कहा जाएंगा, मंजिल नही पाया
- परमपद पाने का अर्थ है कि भेद दृष्टि अब समाप्त हो गई
- Practical Life जीने से ही वह अभेद दृष्टि की स्थिति आएगा, केवल मन ही मन सोचने मात्र से तो फिल्म देखने जैसा होगा
- Practical करने से वह प्राणो पर विजय प्राप्त करता जाएंगा
- मन व भाव बदलकर नही अपितु Practical करने से वह धीरे धीरे स्वयं ही अनुभव लेकर विचार बदलते जाएगे व सत् की अनुभूति करेगा
- Practical से बौधत्व होता है तथा बौधत्व से स्वभाव बदलता है
- Practical Life बहुत जरूरी है
गायंत्री महाविज्ञान में आया है कि सतयुग में लंबे समय तक दान तप होते थे क्योंकि उस समय शरीर में वायु तत्व प्रधान था, त्रेता में शरीर में अग्नि तत्व की प्रधानता थी, द्वापर में शरीर जल तत्व प्रधान था, उन दिनो में जो साधना हो सकती थी वह आज नही हो सकती क्योंकि आज कलयुग में मानव देहो में पृथ्वी तत्व प्रधान है तो वे साधनाएँ नही हो सकती, का क्या अर्थ है
- युग के अनुसार शरीरो में तत्वो का परिवर्तन होता रहता है, अभी पृथ्वी तत्व प्रधान है
- भोजन छोडकर साधना करेंगे तो दिक्कत आएंगी तथा यदि भोजन छोड भी दे तो भी जल मत छोड़े
- प्रकृति भी अपनी लयात्मक गति से चलती रहती है, कलयुग में शरीर पृथ्वी तत्व प्रधान होते है तो मूलाधार चक्र अधिक काम करेगा, पेट प्रजनन की तरफ लोगो का अधिक रुझान होगा, शरीर भारी भी होगा
- द्वापर में स्वादिष्ठान चक्र स्वतः ही काम करता था, पानी नही भी पीते थे तो लोग नही मरते थे, आकाश से ही शरीर चक्रो के माध्यम से पानी खीच लेता था क्योंकि वाष्प रूप में जल तो हर जगह रहता है तो उन दिनो लोग पानी में डूबकर भी नहीं मरते थे, पानी शरीर का अंग अवयव है, दुर्योधन भी कई दिन जल में छुपकर बैठा रहा
- मणीपुर चक्र त्रेता में अधिक काम कर रहा था
सीता जी अग्नि में बैठी रही, छाया प्रति के रूप में बैठी रही, वास्तव में सीता जी नही थी परन्तु उनकी Bio Plasmic Body उन्होंने निकाल दी थी जो अग्नि में थी, इसलिए उस युग में अग्नि से लोग नहीं मरते थे - सतयुग में शरीर वायु तत्व प्रधान होने के कारण थोडी ही प्राणायाम साधना से ही लोग हवा में उड जाते थे, हड्डियो के भीतर में Porous होते होंगे जैसे पक्षी उडते होगे
- आकाश तत्व प्रधान में विचार सात्विक रहते होंगे
- त्रेता में राम व लक्ष्मण नही उड पा रहे थे परन्तु हनुमान जी उड रहे थे एक दो अपवाद मिल जाते थे
- अभी तत्वों की साधना कम लोगो में मिलेगी
- अभी अधिकतर लोगो में पृथ्वी तत्व की प्रधानता मिलेगी तो साधना का स्वरूप बदल देना पडता है तथा अन्य युगों की साधना पद्धति के अनुरूप साधना करने का अधिकार नही है, यदि फिर भी करेंगे तो घाटा हो सकता है
- चेतनात्मक लाभ सभी युग में एक सा मिलेगा, सोचने का तरीका लगभग एक जैसा मिलेगा
- केवल शारीरिक स्थितिया ऐसी नही मिलेगी
- इसलिए आज की साधना के उपवास के 5 नियम अवश्य पालन करे -> पानी पीकर, घूंट घूंट कर पीए, कमजोरी हो तो रसाहार ले, कडे काम न करे, जप तप अधिक करे तथा आध्यात्मिक उर्जा अधिक ले, उपवास के बाद कडें भोजन न करे नुकसान हो सकता है
आत्म योगी में करुणा भाव होगा तथा वह निर्भय होकर रमण करता है, परन्तु क्या दोनो ही निर्भय होकर रमण करते है या नहीं
- आत्म योगी ही सांख्य योगी होता है तथा सांख्य योगी ही आत्म योगी होता है
- आत्म ज्ञान को ही सांख्य कहते है तथा संसार के बारे में व अपने बारे में सही सही ठीक ठीक पूरी जानकारी को सांख्य कहेंगे
- आत्मज्ञान / तत्वज्ञान / बह्मज्ञान के माध्यम से देख लेने के बाद, भेद दृष्टि अब समाप्त हो जाती है, अभेद दृष्टि से अब सब देखेगा
- जब तक भेद दृष्टि है तब तक वह प्रगति में चल रहा है, कहा जाएंगा, मंजिल नही पाया
- परमपद पाने का अर्थ है कि भेद दृष्टि अब समाप्त हो गई
- Practical Life जीने से ही वह अभेद दृष्टि की स्थिति आएगा, केवल मन ही मन सोचने मात्र से तो फिल्म देखने जैसा होगा
- Practical करने से वह प्राणो पर विजय प्राप्त करता जाएंगा
- मन व भाव बदलकर नही अपितु Practical करने से वह धीरे धीरे स्वयं ही अनुभव लेकर विचार बदलते जाएगे व सत् की अनुभूति करेगा
- Practical से बौधत्व होता है तथा बौधत्व से स्वभाव बदलता है
- Practical Life बहुत जरूरी है
गायंत्री महाविज्ञान में आया है कि सतयुग में लंबे समय तक दान तप होते थे क्योंकि उस समय शरीर में वायु तत्व प्रधान था, त्रेता में शरीर में अग्नि तत्व की प्रधानता थी, द्वापर में शरीर जल तत्व प्रधान था, उन दिनो में जो साधना हो सकती थी वह आज नही हो सकती क्योंकि आज कलयुग में मानव देहो में पृथ्वी तत्व प्रधान है तो वे साधनाएँ नही हो सकती, का क्या अर्थ है
- युग के अनुसार शरीरो में तत्वो का परिवर्तन होता रहता है, अभी पृथ्वी तत्व प्रधान है
- भोजन छोडकर साधना करेंगे तो दिक्कत आएंगी तथा यदि भोजन छोड भी दे तो भी जल मत छोड़े
- प्रकृति भी अपनी लयात्मक गति से चलती रहती है, कलयुग में शरीर पृथ्वी तत्व प्रधान होते है तो मूलाधार चक्र अधिक काम करेगा, पेट प्रजनन की तरफ लोगो का अधिक रुझान होगा, शरीर भारी भी होगा
- द्वापर में स्वादिष्ठान चक्र स्वतः ही काम करता था, पानी नही भी पीते थे तो लोग नही मरते थे, आकाश से ही शरीर चक्रो के माध्यम से पानी खीच लेता था क्योंकि वाष्प रूप में जल तो हर जगह रहता है तो उन दिनो लोग पानी में डूबकर भी नहीं मरते थे, पानी शरीर का अंग अवयव है, दुर्योधन भी कई दिन जल में छुपकर बैठा रहा
- मणीपुर चक्र त्रेता में अधिक काम कर रहा था
सीता जी अग्नि में बैठी रही, छाया प्रति के रूप में बैठी रही, वास्तव में सीता जी नही थी परन्तु उनकी Bio Plasmic Body उन्होंने निकाल दी थी जो अग्नि में थी, इसलिए उस युग में अग्नि से लोग नहीं मरते थे - सतयुग में शरीर वायु तत्व प्रधान होने के कारण थोडी ही प्राणायाम साधना से ही लोग हवा में उड जाते थे, हड्डियो के भीतर में Porous होते होंगे जैसे पक्षी उडते होगे
- आकाश तत्व प्रधान में विचार सात्विक रहते होंगे
- त्रेता में राम व लक्ष्मण नही उड पा रहे थे परन्तु हनुमान जी उड रहे थे एक दो अपवाद मिल जाते थे
- अभी तत्वों की साधना कम लोगो में मिलेगी
- अभी अधिकतर लोगो में पृथ्वी तत्व की प्रधानता मिलेगी तो साधना का स्वरूप बदल देना पडता है तथा अन्य युगों की साधना पद्धति के अनुरूप साधना करने का अधिकार नही है, यदि फिर भी करेंगे तो घाटा हो सकता है
- चेतनात्मक लाभ सभी युग में एक सा मिलेगा, सोचने का तरीका लगभग एक जैसा मिलेगा
- केवल शारीरिक स्थितिया ऐसी नही मिलेगी
- इसलिए आज की साधना के उपवास के 5 नियम अवश्य पालन करे -> पानी पीकर, घूंट घूंट कर पीए, कमजोरी हो तो रसाहार ले, कडे काम न करे, जप तप अधिक करे तथा आध्यात्मिक उर्जा अधिक ले, उपवास के बाद कडें भोजन न करे नुकसान हो सकता है
वर्तमान स्थिति में महामानव के उत्पादन में गृहस्थ किस प्रकार सहयोगी बन सकते है कृप्या प्रकाश डाला जाय
- प्रजोपनिषद् के दूसरे वाले खण्ड देव मानव प्रकरण में हैं
- अपने मजहब में रहकर हम देवता बन सकते है तथा किसी भी उम्र में बन सकते है
- महामानव बनने के लिए धार्मिक बनना होता है तथा 10 गुणों को अपनाना पडता है जो देवता बनने में सहायक है तथा प्रत्येक को धारण करने चाहिए
1&2. हमे निरन्तर सत्य की खोज में लगे रहना चाहिए व विवेकवान बनकर निरन्तर प्रयासरत रहना चाहिए -> गृहस्थ हो या वैरागी हो
3&4. संयमशीलता व कर्तव्यपरायणता
आध्यात्मिक गुणों को जीवन में धारण करना है जो सबके लिए एक समान है तथा सभी मजहब के लिए एक समान है, असंयमी व्यक्ति सदा रोगी भी रहेगा - दरिद्र दूसरो को नही दे सकता
- Time manganent भी करना है
- Thought Management
- Wealth Management
- Self Management
- इंद्रिय संयम
- संयम की जो शक्ति मिले तो उसे कर्तव्यपरायणता में लगा दे आगे बढ़ने में लगा दे, लोक कल्याण में लगा दे
5&6. अनुशासन व अनुबंध
श्रेष्ठता की दिशा में चलने वाले जो सुत्र हमनें बनाए उसमें रखना तथा - आत्मा के अनुशासन में हम चले
- कोई रहे या ना रहे परन्तु हम तो देख रहे हैं कि हम क्या क्या कर रहे है
7&8. सौजन्य व पराकम्र - आदमी को सज्जन भी होना चाहिए आदमी को बहादुर भी होना चाहिए दोनों एक साथ होना चाहिए
- सारे देवता सज्जन है, सब का ख्याल रख रहे हैं
- सारे देव बहादुर भी है
- समाज का कीमती व्यक्ति संसार से जा रहा है उसका ध्यान करे
7&8 सज्जनता व बहादुरी
सज्जन व पराकर्म दोनो देवताओं में होता है जहा जरूरत पडी वहा हथियार भी चाहिए - यह दोनों भुजाएं आध्यात्म और विज्ञान की होती हैं
9&10 सहकार व परमार्थ - cooperative Type का आदमी होना चाहिए
- संसार में जीना है तो एक दूसरे का सहयोग करेंगे तो सुविधा होगी
- घर वालो को घर के काम करने में सहयोग करे, मिल बाटकर एक दूसरे का सहयोग ले
- छट समाज में विभिन्न जाति के लोगो का सामग्री रखा जाता है
- सभी कार्य एक दूसरे के सहयोग से किया जा रहा है अन्यथा सारा काम स्वयं करने में ही पूरा समय निकल जाएगा
- परमार्थ के लिए संगठन बनाकर रखे 🙏
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