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पंचकोश जिज्ञासा समाधान (17-10-2024)

पंचकोश जिज्ञासा समाधान (17-10-2024)

आज की कक्षा (17-10-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-

षटप्रश्नोपनिषद् में आया है कि हवन का देवता सोम है . . . रुद्र इंद शेष और काम मन के देवता है, वायु की पत्नी श्रद्धा है, वह सबकी मूल है, का क्या अर्थ है

  • यहा इंद्र आत्मा के अर्थ में आता है
  • मन से जो श्रेष्ठ हो / जो उस मन को नियंत्रण करे, वह उसका देवता कहलाता है
  • शेष = विष्णु -> ये भी मन के देवता है तो विश्व बंधुत्व की भावना मन में आ जाए तो मन में समष्टि चेतना बन जाती है, विष्णु का अर्थ यहा जो पूरे विश्व के भरण पोषण का सोचे, केवल अपने पेट भरने तक ही न सोचे
  • काम भी मन के देवता -> मन कामनाओं के लिए ही बना है, ईश्वर ने एक से अनेक बनने की कामना की, मन को यदि शुभ कामनाओं से जोड दे तो शिव संकल्प बन जाएगा तथा ईश्वरीय मन से जुड जाता है
  • मन को नियंत्रित करना है तो उसे Positive Thought (शुभकामनाओं) से जोड़ दें, यह भी काम का ही रूप है
  • नकारात्मक सोच (-ve सोच) ही जीवात्मा को कष्ट / बंधन में डालता है
  • कामनाओं को यदि उत्कृष्ट कर दें तो वह आत्म शक्ति बन जाता है
  • श्रेष्ठ कामनाएं (शरीर मन आत्मा व दूसरो को भी लाभ मिले) अपने जीवन में अपनाएं
  • मन को नियंत्रण कर लेने के कारण इसलिए इन्हें देवता मान लिया
  • वायु की पत्नी श्रद्धा (प्राण) = प्रज्ञा को प्राण भी कहते है तथा प्राण को वायु कहते है इस वायु से इसका कोई लेना देना नहीं
  • प्रजा की सहचरी = पत्नी = श्रद्धा = भाव संवेदना -> यदि भाव के साथ संवेदना जुड जाए तो व्यक्ति बहुत चमत्कारी हो जाता है तब ऐसे व्यक्ति के संकल्प व क्रियाकलाप दोनों ही अच्छे होंगे
  • जो गतिशील है वह सब वायु कहलाएगा जैसे प्रजा गतिशील है प्राण गतिशील है

कौशितिकीबाह्मणोपनिषद् में अग्निहोत्र की बात आई है, धन की प्राप्ति के लिए भी अग्निहोत्र करना चाहिए, आध्यात्मिक अग्निहोत्र में निश्चय ही व्यक्ति मुंह से जब जब कुछ बोलता रहता है तब वह पूर्ण रूप से श्वास नहीं ग्रहण कर पाता, उस समय वह प्राण का वाणी रूप अग्नि में हवन कर देता है,वाणी व प्राण स्वरूप दो आहुतियां कभी अन्त न होने वाली अमृत स्वरूप है, का क्या अर्थ है

  • प्राण ( चैतन्य उर्जा / ज्ञानयुक्त उर्जा) सृष्टि में सदैव रहता है, प्राण शून्य में भी है, गांयत्री वा इदम् सर्वम
  • यह प्राण या वाणी नष्ट नहीं होता
  • वाणी = गतिमान प्राण
  • प्राण के दो रूप है एक स्थिर तथा दूसरा गतिमान
  • पहले परा वाणी आएगा फिर पश्यन्ति फिर मध्यमा व फिर स्थूल रूप में बैखरी प्रकट होगा
  • व्यक्ति का चिंतन सदैव किसी न किसी रूप में चलता रहता है

जाबालोपनिषद् में प्रथम सृष्टि के पूर्व यह जगत असत्य था, यह आत्मा उससे उत्पन्न नही हुई और ना ही उससे इसने कुछ प्रतिष्ठा पाई, वह आत्मा . . . वह आत्मा जन्मरहित है, ऐसा मानकर धीर पुरुष कभी शोक नही करते, यहा प्रश्न यह आता है कि जब आत्मा परमात्मा से निकली होगी तो कभी तो उस आत्मा का जन्म हुआ होगा, यह कैसे समझे

  • यदि परमात्मा ने निकाला भी हो तो भी उनके सिवा दूसरा कोई जगह नहीं, अपने से बाहर निकालेंगे तभी तो जन्म होगा, यदि बाहर कोई खाली जगह हो तभी हम कह सकते है कि बाहर निकाला
  • यहा से निकालकर जहा भी रखा तो हर जगह वही परमात्मा ही परमात्मा है
  • शून्य की ईकाई को आत्मा कहते है
  • एक बाल की नोक पर 100 की Power 100 आत्मा है, लगभग शून्य का आकार है
  • ईश्वर सब जगह है व पवित्र है, इसी को जानने के लिए ही यह पढ़ाई लिखाई किया जाता है कि हम इसे जान ले तथा यह शुद्ध रूप से हमें दिखने लगे
  • उर्जा नष्ट नही होता, यहा कोई मरता नही मच्छर भी नहीं, आत्मा मरती ही नही
  • यह ज्ञान मिलने के बाद ही अवधूत कहता है कि मै धन्य हो गया तथा अब मुझे कुछ करना नहीं
  • बर्बरीक ने कहा कि युद्ध हुआ ही नहीं, उसे वह आंख मिल गया था, उसी आँख से (दिव्य दृष्टि से) देखने में ही आनन्द आएगा, उससे नीचे वाली आँख में वह अखंड आनन्द नही है, इसलिए सन्यासी क्रिया से रहित हो जाता है
  • ज्ञान से ही मुक्ति मिलती है
  • सारे शास्त्रों का ज्ञान केवल अज्ञानियों के लिए है या निचली कक्षा वालों के लिए है, ज्ञानियो के लिए नहीं, वह आनन्द के लिए बना है
  • सात्विक विष्णु के कान से दो राक्षस रह सकते है तो हमें भी सर्तक व Creative रहना चाहिए तथा आलस्य नहीं करना चाहिए

ईश्वर को तेरा तुझको अर्पण ऐसा कहते है तथा गीता के पाचवे अध्याय के 15 वे श्लोक में कह रहे है कि परमात्मा ना तो किसी के पाप कर्म को ग्रहण करते है तथा ना ही किसी के सत कर्म को ग्रहण करते हैं तो फिर हम तेरा तुझको अर्पण क्यो कहते हैं

  • अपने को अंहकार ना आए, इसलिए कह देते है यहा ईश्वर के सिवा कुछ है ही नहीं जब ईश्वर ही सर्वव्यापी है तो हमारी सत्ता कहा रह गई
  • ईशावास्यम इदम सर्वम -> उन्ही का शरीर, उन्हीं के विचार, यहा सभी कुछ उनका ही है
  • उन्ही के सामान में हमें अहंकार न आए तभी ऐसा कहना उचित ही है
  • शिष्टाचार की एक भाषा है, ऐसी भाषा बोलनी चाहिए तथा ऐसा कहकर एक अपनापन सा लगता है

गायंत्री महाविज्ञान में आनक उपवास में दैवीय शक्ति को आकर्षित करने के लिए सात दिन के उपवास का बताया गया है, मंगलवार को उपवास में भैस का दुध दही सेवन करने का बताया गया परन्तु हमनें बचपन से समझा है कि भैस का दुध अच्छा नहीं होता

  • मंगल वार -> का अर्थ बल पराकर्म का दिन
  • ईश्वर कण कण में है तो उस भैस के भी दुध में कुछ औषधिया है तो खास समय में उसका उपयोग किया जा सकता है
  • जैसे जिन सैनिकों को लड़ना है उनके लिए संवेदनशील बुद्धि की आवश्यकता नहीं ताकि दुश्मन पर दया न आ जाए, यहा संवेदनशील बुद्धि की नहीं, भोथर बुद्धि की जरूरत है
  • भैस के दुध में भौथर बुद्धि होती है, भैस नहाने में भी आलसी होती है तथा उसमें चुस्ती फुर्ती भी नहीं होती
  • भैस का बच्चा तथा गाय का बच्चा दोनों के व्यवहार में बहुत अन्तर होता है
  • जहा बल से अधिक बुद्धि से कम काम लेना है वहा भैस का दुध उपयुक्त है
  • इसी प्रकार प्रत्येक जीव का दुध विशेष परिस्थितियों में उपयुक्त है, औषधि है
  • भैस का दुध भीऔषधि है बलवर्धक है कफ प्रधान है, गर्मी में कफ की आवश्यकता पड़ती है तो उस समय लाभ करेगा
  • इसी प्रकार अपने शरीर की व वातावरण की तथा परिस्थितियों की आवश्यकता के अनुसार भैस के दुध या अन्य जीव के दुध का सेवन किया जा सकता है

शरभोपनिषद में आया है कि रुद्र भगवान ही समस्त सिद्धियां देने वाले एवं सबके पूज्य हैं जिनने बह्मा के पांचवे मुख को समाप्त कर दिया, उनको नमस्कार है, का क्या अर्थ है

  • पंचानन स्वयं शिवजी कहलाते है
  • मुख = Faculty होता है
  • कालेज में भी faculty के अनुसार हम एक विभाग को दूसरे विभाग से जोड देते है
  • कार्य के बटवारे के आधार पर विभाग रखा जाता है
  • 4 वेद है तो बह्मा जी से कहा कि आप वेदो की सख्या मत बढ़ाएं
  • परिवर्तनशील की व्यवस्था पांचवा मुख हमारा Faculty है तो यदि एक ही आदमी को ढेर Faculty दे देंगे तो सभलेगा नहीं
  • Faculty को ही मुख कहते हैं
  • रावण 10 Faculty का विद्वान था तो उसके 10 मुंह बना दिए गए
  • मुख काटना का अर्थ यहा निर्दयता पूर्वक Hard Mass की आकृति का मुह काटना ना समझा जाए -> ये सभी आध्यात्मिक Philosphy है
  • यहा गर्दन काटने का भाव Hard Mass से नही अपितु उस Faculty का Load अपने उपर ले लिए, यह समझा जाएगा

क्या कारण है कि अब साधकों की उद्विग्नता की तीव्रता थोडे समय के लिए बढ़ जाती है कृप्या प्रकाश डाला जाए

  • उद्विग्नता का अर्थ यहा जोश उमंग का बढना समझा जा सकता है या
  • यह भी समझा जा सकता है कि बेचैनी बढ़ गई तो अवचेतन मन का सफाई चल रहा है तो भी उद्विग्नता बढ़ जाती है
  • उद्विग्नता जूनून के अर्थ में लेते है तो वह बढना स्वभाविक है
  • या उद्विग्नता बढने का अर्थ मनोमय कोश की सफाई चल रही है, भी समझ सकते है

मन में बहुत प्रश्न चलते है ऐसा क्यों होता है

  • स्वाध्याय थोडा और बढाना पड़ेगा, थोडा भी थोडा सा भी खाली समय मिले तो अध्यन करे
  • प्रज्ञापुराण का तीसरा खण्ड गृहस्थ प्रकरणम या प्रज्ञोपनिषद् का तीसरा अध्याय परिवार निर्माण प्रकरणम (ग्रहस्थ के लिए) पढ़े, इनमें बहुत सारी कथा कहानी व उदाहरण मिलेंगे तब निर्णय लेने में सुविधा भी रहेगी 🙏

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