पंचकोश जिज्ञासा समाधान (16-12-2024)
आज की कक्षा (16-12-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
अमृतनादोपनिषद् में आया है कि प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, तर्क तथा समाधि, इन छ अंगो से युक्त साधना को योग कहा गया है, इसमें तर्क को योग कैसे कहेंगे
- तर्क = शास्त्रों के स्वाध्याय मनन चिंतन = विचार
- स्वाध्याय हमें सही व गलत पर निष्कर्ष निकालने में मदद करता है
- प्रत्येक दिन हमें अपनी समीक्षा करनी चाहिए
- हमें अपने भीतर उठने वाली मन की तरगों को देखना चाहिए कि हम उनसे किस प्रकार प्रभावित होते है, मनन चिंतन जरूरी है
- स्वाध्याय में केवल पढ़ना नहीं बल्कि मनन चिंतन व सत्संग भी होता है
- इस प्रकार का स्वाध्याय मानसिक योग है जो जोडता है,
- इनसे जुड़ा रहेगा तो भटकाव नहीं आएगी अन्यथा साधना से प्राप्त उपलब्धियों का र्दुपयोग कर अनायास खर्च कर खराब कर देगा
- भटकाव न आए इसके लिए 4 उपाय है, दो उपाय भीतर वाले (मनन + चिंतन) तथा दो उपाय बाहर वाले (स्वाध्याय + सतसंग)
- चिंतन मनन स्वाध्याय सत्संग – चारो मिलकर समाधि की अवस्था में जल्दी ले जाएगा
छान्दोग्योपनिषद् में आया है कि उस मुख्य प्राण ने प्रश्न किया कि मेरा अन्य क्या होगा ? तब वाक् आदि इंद्रियों ने उत्तर देते हुए कहा कुत्तों और पक्षियों से लेकर सभी प्राणियों का यह जो कुछ भी अन्न है, वह सब तुम्हारा ही है, ‘अन्’ यह प्राण का नाम प्रसिद्ध है, इस प्रकार जानने वाले के लिए कुछ भी अभक्ष्य नहीं होता है ।
इस प्राणोंपासना पद्धति का विवरण सत्यकाम जाबाल ने व्याघ्रपद के पुत्र गोश्रुति नामक वैयाघ्रपद को सुनाया “यदि कोई इस प्राणोपासना को शुष्क ठूँठ से भी कहेगा, तो उसमें भी शाखाएं उत्पन्न हो जाएगी और पत्ते प्रस्फुटित हो जाएंगे, यह प्राणोंपासना कौन सी है तथा कुछ भी अभ्क्ष्य नहीं होता है का क्या अर्थ है
- जब यह सिद्ध कर लिया कि यहा ईश्वर के सिवा कुछ नहीं, तो फिर अन्य कहा रहा
- जब हर चीज में ईश्वर देख रहा है तो ईश्वर को ही खा रहा है तो फिर कुछ भी अभक्ष्य नहीं
- इसलिए वामाचार को तंत्र में रखा
- इसलिए वामाचार से पहले चार और Class पार करना पड़ा, यह सबसे उत्कृष्ट माना जाता है, यह भेददृष्टि खत्म करता है, जब भेददृष्टि समाप्त होगा तब सब में प्राण दिखेगा
- यहा जो कुछ भी दिख रहा है वह परमाणु से ही बना है तथा परमाणु प्रकाश से ही बना है, जब इस अवस्था में किसी पदार्थ को खाएंगे तो एक तरह से हम प्रकाश खा रहे हैं इसी अवस्था में दुर्वासा ने कहा कि यहा कुछ भी नहीं है
- नशा को भी बह्म मानकर पी रहे है तो फेफड़ा खराब नहीं होगा, यदि फेफड़ा खराब हो रहा है तो इसका मतलब कि हम केवल स्वपन भर देख रहे थे, उसे बह्म नहीं मान रहे थे
- शिवजी ने बह्म मानकर विष को पीया तो इस का अर्थ कि वे विष को बह्म मानकर पी रहे थे
- मीरा ने विष को कृष्ण मानकर पी लिया
- उस स्तर तक चेतना को Refine करना होगा तब बात बनती है, साधारण चेतना से बात नही बनती तथा यह फिल्म देखने भर तक है
- पदार्थ के भीतर परमाणुओ का हेर फेर, यह साधारण चेतना से नहीं होता इसलिए गुरुदेव ने कहा कि इससे उस स्तर का व्यवहार करो, यह इतना ठोस है कि इसको हिलाने के लिए आग बनना पड़ता है, साधारण Bombarding से नही टूटता है, इसलिए प्रकृति से छेड़छाड़ अधिकतर लोग नहीं करते
- श्री कृष्ण ने कर्ण के स्थूल तीर से बचने के लिए रथ को झुका लेना उचित समझा, ताकि अपनी अधिक शक्ति बर्बाद न हो
- श्री कृष्ण यह बात समझते थे कि कब लड़ना है, कब छोड़ना है परन्तु हम लोग अक्सर अकड़ स्वभाव के हो जाते हैं, महत्वाकांशी हो जाते है, हमें तालबद्धता सीखनी चाहिए
व्याघ्रपद के पुत्र गोश्रुति को कौन सी प्राणसाधना बताए
- आत्मसाधना / रितम्बरा प्रज्ञा बताए थे
- आनन्दमय कोश के भी पार जाने की साधना बताएं थे, परमहंस वाला साधना -> कुछ भी खा ले, योगियों पर कोई नियम लागू नहीं होता
- मुर्दे को जिन्दा करना – इसे संजीवनी विद्या है
- गुरुदेव ने प्रत्यक्ष कितने मुर्दो को जिदां किया
- श्री कृष्ण ने पारीक्षित को जिन्दा कर दिया था, पारीक्षित मरे हुए ही जन्म लिए थे, सहस्तार चक्र से प्राण प्रवाह कर फिर से जीवित कर दिया था
- इस स्तर का प्राण हमें भी अपनी साधना में चाहिए, बिना प्राण के नही होगा, साधना का अर्थ है कि हम 24 घंटे उठते बैठते चलते फिरते हर समय प्रयास करते रहे
नारदपरिव्राजकोपनिषद् में आया है कि बह्म का स्वरूप कैसा है, बह्मा जी ने बताया कि आत्मनिजस्वरूप आत्मा ही बह्म है, जैसा बह्म है, वैसे हम है, यह हमें समझना चाहिए, . . . पांचो महाभूत व जीवात्मा कारण रूप है, उत्तर मिला कि उस एक नेमि वाले तीन घेरों से युक्त, षोडश सिरो से सुयुक्त, 50 अरो से परिपूर्ण, 20 सहयोगी अरो से यक्त, 6 अष्टको से पूर्ण, अनेक रूपो वाले, एक ही पात से संयुक्त, मार्ग के तीन भेदो से युक्त, दो निमित्त एवं मोह रूपी एक नाभी से युक्त चक्र को उन जिज्ञासु जनो ने देखा
- यहा सम्पूर्ण समग्रता को देखा, पूरे Universe की समग्रता को बता दिए
- एक नेमि से युक्त = मै अविनाशी हूँ और समस्त सृष्टि की आत्मा हूँ
वांग्मय 22 में आया है कि मन 5 दोषो/क्लेशो से पीडित और लिप्त रहता है, वस्तुत मन स्वयं में मात्र संकल्पत इंद्रिय है,यह संकल्प उसमें स्वत: नही उदभूत होता, वह अन्तः करण के स्वरूप पर यानि श्रद्धा पर निर्भर होता है, मन स्वयं तो छटी इंद्रिय मात्र उपकरण है, दोष मूलतः चित्त वृति की स्थिति विशेष का है, समान्य मन, चित्त व बुद्धि एक ही अर्थ में प्रयोग किए जाते रहते है, परन्तु जिसे प्रचलन में मन कहा जाता है, वह वस्तुतः अन्तःकरण है, अन्तःकरण त्रिविध होते है यह बुद्धि अहंकार व मन है, पांच कलेशों में अस्मिता, अविनिमेश क्या है
- अस्मिता = आत्मविस्मृति को कहते हैं, जब हम अपने स्वरूप को भूल जाते है तथा स्थितियो के अनुसार बह जाते है
-> यह जो भौतिक जगत की मग्नता है, यह आत्म सजगता से दूर भगा लेती है - अविनिमेश = मृत्यु का डर
यह डर अनन्त यौनियो से / पूर्व जन्मों से ही यह हमारे साथ चलता आ रहा है, पूर्व जन्मों के शरीरों को मिले हुए डर को साथ लेकर चलता है, यह डर जल्दी खत्म नहीं होता - हमारी इतनी जटिल गांठ बन गई है कि हमें कृष्ण की इस बात पर यकीन नही होता कि आत्मा न मरती है न ही जन्म लेती है, जिस दिन यह बौधत्व हो जाएगा तो उस दिन सारा भय समाप्त हो जाएगा
मन स्वयं में मात्र संकल्पत इंद्रिय है, संकल्प उसमें स्वतः उदभूत नहीं होता, वह अन्तःकरण के स्वरूप यानि श्रद्धा पर निर्भर होता है, का क्या अर्थ है
- जिस चीज के प्रति श्रद्धा / इच्छा / भाव जगी उसी स्तर के अनुरूप मन काम करेगा
- आगे जो भावनाएं काम लेगी उसे मन कह दिया गया, यहा सब जगह चित्त शक्ति ही है, उसी चित्त शक्ति का व्यवहार बदल गया तो नाम बदल गया, ऐसे समझ सकते हैं, वही बह्म मन कहलाने लगा
- जब इच्छा उभर रही थी तो भाव कहला रहा था / श्रद्धा कहला रहा था
- गुरूदेव ने श्रद्धा की परिभाषा बदला
- आदर्शो के प्रति अटूट प्रेम को श्रद्धा कहा
- अच्छाई से प्रेम हो गया तो फिर अच्छाई अपनाने के लिए Planning करेंगे, इस प्रक्रिया में चलने लगे तो वही मन कहलाने लगेगा
- एक ही चेतना के विभिन्न नाम हो जाते हैं
- जब निर्णय लेने लगता है तो बुद्धि कहलाने लगता है, वास्तव में यह अलग-अलग घटक नहीं है, ऋषियों ने इसे अलग-अलग नाम दे दिए है ताकि समझाने में सुविधा हो
- Planning बनाने लगा तो वही चेतना मन कहलाने लगी
- इस प्रकार ये सब नामकरण कर दिए गए है
- कबीरा मन निर्मल भयो -> यहा मन का अर्थ तीनो मानिये = मन = बुद्धि + चित्त + अंहकार
- चेतना का केंद्र मन है
- लोक व्यवहार में जो मन प्रचलन में आता है, वह अतःकरण के लिए है
- सामान्य व्यक्ति मन को अलग-अलग नहीं मानकर बैठेगा
- यहां गुरुदेव ने भी यही बताया है कि यहां मन शब्द का प्रयोग अंतःकरण के लिए किया जा रहा है
- किसान को अंतःकरण अलग से कहने की आवश्यकता नहीं उसे सीधा मन कह सकते है
अतःकरण के त्रिविध बुद्धि अंहकार एवं मन कैसे बताएंगे
- Planning करना, अकांशा करना, निर्णय लेना -> इन्ही 3 का प्रयोग कृष्ण ने भी किया है तथा अष्टधा प्रकृति में पांच महाभूत व तीन -> मन – बुद्धि – अहंकार को जोड़ दिया गया है
- अहंकार मान्यता बनाता है, इच्छा उभारता है
- जो अपने को राजा मान लिया है तो बाहर भी जाएगा तो राजा के ढंग से ही सोचेगा, जो अपनी बाध्यता बना लिया है, उसी के घेरें मे वह सोचेगा व करेगा
- अहम जब आकार बना लेता तो वैसा वह करने लगता है, त्रिविध में यही कहा गया है
- पदार्थवादी अहंकार बंधन में डालेगा व आत्मवादी अहंकार मोक्ष देगा तो अहंकार बंधन व मोक्ष दोनो देगा
- अब अहंकार ही सिरमौर बन गया, मान्यता जो बना रखी है तो अब बुद्धि उसी के अनुरूप फैसला लेगी तथा उसी के अनुरूप क्रियाकलाप चलेंगे
समय दान ही युग धर्म है कृपया प्रकाश डाला जाय
- पैसा देने से सारी बात नहीं बनती
- जैसे ज्ञान रथ में केवल Labor रखने से बात नही बनेगी, वह Labor पुस्तक के विषय से संबंधित अच्छे से नहीं बता पाएंगा
- बडे लोग ऐसे कार्य करते है तो समाज में भी सभी उनका अनुसरण करते हैं
- बुद्धिजीवियों को अंधड समाज का Engine कहा गया, बडें काम अधिकतर Engine के द्वारा ही पूरे किए जाते हैं
- Engine से बात बनती है डिब्बो से नहीं
- समयदान भी बहुत बडी चीज है, हमें समय अपने लिए भी देना है व लोक्सेवा के लिए भी
- अपने लिए 4 घंटा बचाकर आत्मसाधना व practical के लिए अवश्य दे
- सप्ताह में एक दिन दे सकते है या महीने व साल में भी एक साथ दे सकते हैं, बिना समय दिए बात नहीं बनेगी
- गुरूदेव ने बहुत तरीके बताए है
गीता के अनासक्त कर्म के ज्ञान को आज के परिप्रेक्ष्य में किसी व्यक्ति के लिए अपने जीवन में उतारना , कैसे संभव हो सकता है एवं इसके लिए कौन से मुख्य अभ्यास करना चाहिए ?
- सरल सरल अभ्यास करे
- अनासत्त कर्म = अपना अधिकार न रखें
- पत्नी को अपनी बकोति/वस्तु न माने ईश्वर की बेटी माने
- यह सब ईश्वर की सम्पत्ति है तथा ईश्वर के काम के लिए है, हम तो केवल माध्यम भर है, संरक्षक की तरह
- ईश्वर ने हमें जो कुछ भी दिया सब ईश्वर का है वह जब चाहेगा तब हमसे छीन कर ले जाएगा
- ईश्वर का काम मानकर करेंगे तो अनासक्त होगा
- सब ईश्वर की सम्पत्ति है, त्यागपूर्वक भोग करे
- घर में सबसे (व्यक्ति या वस्तु से) प्यार भी खूब करे, ये सब उपकरण भर है
- सेवा भी हो मोह भी न हो, प्यार तो हो परंतु प्यार मोह में ना बदले अपितु प्यार दिव्यता में बदले व आत्मिक शांति में बदले
- आत्मा से प्यार करे, आत्मा अमर है तो प्रेम दिव्य प्रेम में बदल जाएगा
- ॐ का ही एक नाम आत्मिक प्रेम या अनासक्त प्रेम भी है
सतगुण रजोगुण तमगुण क्या है।
- संसार में 3 शक्तियां काम करती है, ईश्वर तेज के रूप में है, प्रकाश में तीन गुण होते हैं
- एक आभामंडल है, जिसे ज्ञान कहते है, सृष्टि में ईश्वर ज्ञान स्वरूप है, छोटे से परमाणुओं के भीतर भी एक ज्ञान है तथा उसके भीतर इलेक्ट्रॉन अपनी एक निश्चित कक्षा में घूम रहे हैं, इसी प्रकार सारी सृष्टि एक नियम व्यवस्था में चल रही है, इसका अर्थ है कि ज्ञानात्मक ऊर्जा हर जगह खुली हुई है, इसी को सत कह दिया जाता है
- ज्ञान के साथ समृद्धि साधन सुविधा भी है, प्रकाश में रज गतिशीलता को कहा जाता है
- गतिशीलता = रज = सुदर्शन चक्र
सारा संसार एक चक्रीय व्यवस्था में चल रहा है, इसी गतिशीलता को रज कह दिया जाता है
- उर्जा = Energy = शक्ति , यहा हर जगह भरी पडी है, इसी को तम कहते है
- इस प्रकार ज्ञान, गति और ऊर्जा को ही सत, रज और तम कहा जाता है
- तीनो उपयोगी है , तीनों देव पूजनीय है
एक जगह आत्मविद्या का वर्णन अश्वनी कुमार से किया था, ऋषि ने उनसे कहा कि ये अश्वनी कुमार जी, जिस प्रकार मेघ वृष्टि को प्रकट करते हैं, उसी प्रकार मै तुम्हारे उग्र कर्म को प्रकट करता हूं, अश्व के मस्तक वाले तुम दोनों के लिए अर्थव मधु विद्या प्रदान करता हूं, इस मधु विद्या में कहते है कि आप अर्थवन के निर्मित अश्व का मस्तक लाए, का क्या अर्थ है
- यह कथानक है, उस समय Head Transplant की जरूरत पड गई जैसे आजकल Heart या kidney बदल लेते है
- उन दिनों यह विद्या (Head Transplant) आम विद्या थी, यहांआधुनिक विज्ञान को उस स्तर तक पहुंचने में अभी समय लगेगा
- अर्थवा को इसकी आवश्यकता थी, . . . एक प्रकार की विद्या संजीवनी विद्या / मधु विद्या कहलाती है, गुरूदेव के पास भी यह विद्या थी 🙏
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