पंचकोश जिज्ञासा समाधान (16-10-2024)
आज की कक्षा (16-10-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
जब हम ज्योतिषी के पास कुण्डली दिखाने जाते है तो हमारी राशी के अनुसार रंग रूप व व्यवहार कैसे बता देते हैं
- यह एक मानसरोवरी विद्या है, व्यक्ति जिस ग्रह नक्षत्र में जन्म लेता है तो उसमें फलित ज्योतिष के अनुमान पर कुछ विशेष प्रकार की किरणों का उसके जन्म के समय उस पर पड़ती है तो व्यक्ति स्वयं भी एक चुंबक है तथा ज्योर्ति पिण्ड भी एक प्रकार के चुम्बक है जिनसे विशेष प्रकार की किरणे आती रहती है
- हर प्रकार की किरणो की Frequency व स्वभाव अलग अलग होता है
- प्रखरता, तेजस्विता नाम का वांग्मय पढ़ सकते है
- हस्तरेखा या भाग्य को व्यक्ति पुरुषार्थ से बदल सकता है, अवचेतन मन में ही सारे संस्कार जमा रहते है तथा उसी के आधार पर विचार चलता रहता है
- विचार तरंगे ही हाथ में रेखा बना देते है, इन रेखाओं के आधार पर ज्योतिष मनोभूमि पढता है परन्तु आत्मा को इससे कोई संबंध नही
- आत्म साधना करने पर ये मूहर्त – दोष कट जाते है तथा आत्म साधक पर ये सभी असर नही डालते
- गायंत्री महाविजान में भी आया है कि गायंत्री महामंत्र के तीव्र तेज से, ये सभी नष्ट हो जाते है
- प्राणवान / आत्मसाधक पर ये असर नहीं करते, कुछ Range तक असर करेगा, इसी आधार पर कुछ लोग अनुमान भर लगाते है परन्तु वह पूर्ण सत्य नही है तथा वह पुरुषार्थ से बदला जा सकता है
पतंजलि के एक सुत्र में आगम प्रमाण, प्रत्यक्ष प्रमाण और अनुमान प्रमाण में क्या अन्तर है
- आगम प्रमाण = वेद में दिया है कि शरीर 8 चक्र 9 दरवाजे है तथा कुछ चमकीले कोश है, यही ईश्वरीय वाणी है, वेद मे इसे प्रमाण में रखा जाता है, इस आधार पर व्यक्ति प्रभावित होता है कि उसे क्या प्रमाण दिया गया -> यह शास्त्रों का दिया गया प्रमाण है
- शास्त्रों में वेद व उपनिषद् Absolute Truth है, इसलिए इसे अधिक महत्व दिया जाता है
- अनुमान तथ्यों को लेकर लगा लेता है जैसे जहा धुआ दिखा तो अक्सर अनुमान लगा लेते है कि वहा आग होगा, जहा ठंडी हवा आ रही हो तो वहा जलाशय का अनुमान लग जाता है, यह आवश्यक नही कि वह सत्य हो
- प्रत्यक्ष प्रमाण = जो आंखें प्रत्यक्ष देखती है उसी पर व्यक्ति विश्वास कर लेता है परन्तु उपनिषद् इसे दर्शनो में काट देता है
- क्योंकि आँखे सत्य नही देख सकती सत्य का अनुमान से नही पता लगाया जा सकता है जैसे छुरा कैची हत्यारा भी चलाता है तथा डाक्टर भी, भावना मुख्य है, फिर भी यह दृश्य दृष्टा दर्शन व्यक्ति के मस्तिष्क को प्रभावित करते है
सन्यासोपनिषद् में आया है कि संन्यासी की दो प्रकार की प्रवृति होती है मार्जरी व वानरी, जो संन्यासी ज्ञान का अभ्यास करते हैं उनमें मुख्य रूप से मार्जरी प्रवृति होती है और गौण रूप से वानरी प्रवृति होती है, का क्या अर्थ है
- भगवान भरोसे जो रहने वाले है उनकी मार्जरी प्रवृति है, बच्चे परवाह नही करते परन्तु माँ चिन्ता करती है तथा जहा जाती है बच्चो को साथ ले जाती है
- परन्तु बन्दर अपने बच्चो को छोड देता है, बच्चो को ही स्वयं से ही पकडना पड़ता है, यहा भक्त को ही भगवान को पकड़ना होता है
- वानरी वृति वाले अपने भाग्य के निर्माता स्वयं होते है
- दोनो ही वृतिया परिस्थितियों के अनुरूप अच्छी है तथा दोनो वृतियो का प्रयोग जीवन में किया जा सकता है
- कोई एक रास्ता मत पकड़े रहे, पता नही समय के अनुरूप कौन सा सैट कर जाए
- मन चंचल है वानर कहा गया परन्तु यहा वानर नही अपितु वानरी प्रवृति की बात आई है
- वानरी प्रवृति हमें यह भी सीखाती है कि अपना अपना मेहनत स्वयं करो
कौशितिकीबाह्मणोपनिषद् में कौशितिकी ऋषि कह रहे है कि प्राण ही बह्म है तथा पैंगल ऋषि भी यही कह रह है, उस प्रसिद्ध प्राण रूपी बह्म के लिए वाणी से परे नेत्र इंद्रिय है जो वाक इद्रियों को सभी ओर से व्याप्त करके विद्यमान है, चक्षु से परे श्रॊत्रिय इंद्रिय है, उसने नेत्र को सभी ओर से व्याप्त कर के स्थित है क्योंकि मन को सावधान रहने पर ही श्रवणेद्रिय श्रवण करने में समर्थ हो सकती है, मन से परे प्राण है, जो मन को सभी ओर से व्याप्त करने स्थित है, प्राण ही मन को बांध कर रखने वाला है, ऐसा वाक प्रसिद्ध है, प्राण न रहने पर तो मन भी नही रह सकता इसलिए सब की अपेक्षा श्रेष्ठ और आत्मा होने के कारण प्राण का बह्म होना उचित ही है, सबसे श्रेष्ठ आत्मा है परन्तु यहा प्राण बह्म है, ऐसा क्यो आया है
- प्राणो भवेत परबह्म -> बह्म से आत्मा को चिंगारी की तरह उत्पन्न हुआ किया
- गीता में जीवात्मा से श्रेष्ठ अव्यक्त को कहा है तथा अव्यक्त से श्रेष्ठ बह्म है
- बह्म की शक्ति को प्राण कहा गया
- यहा सब प्राण ही प्राण है तो यहा शब्दों मे अपनी विवेक बुद्धि लगानी होती है कि यहा कौन श्रेष्ठ है जैसे अन्नमय से प्राणमय श्रेष्ठ है तथा . . . मनोमय से श्रेष्ठ विज्ञानमय है, यहा सब सापेक्ष में आ रहा है
- जहा यह कहा गया कि आत्मा से श्रेष्ठ प्राण है तो यह समझना चाहिए कि वे अव्यक्त शक्ति (परमात्मा / बह्म / महामाया) को प्राण कह रहे है तथा आत्मा शब्द जीव सत्ता के लिए आया है
- जहा सबसे श्रेष्ठ आत्मा को कहा जा रहा हो तो वहा पर प्राण तत्व से श्रेष्ठ आत्मा को कहेंगे तथा वहा आत्मा से उपर परमात्मा को कहा जाएगा
रामकृष्ण की एक पुस्तक में लिखा है भक्त को ऐसा होना चाहिए कि जैसा बिल्ली के बच्चे जैसा होना चाहिए, माँ जहा चाहे ले जाए, जैसे चाहे वैसे रखे, उसे अपनी कोई ईच्छा नही होनी चाहिए परन्तु यहा पिछले प्रश्न में आया कि भक्त को वानर के जैसा होना चाहिए तो थोडा मतभेद उत्पन्न हो रहा है
- वही रामकृष्ण अब गुरुदेव के रूप में आए तथा उन्होंने कहा कि मनुष्य अपने भाग्य का विधाता स्वयं है, इस विश्वास के आधार पर हमारी मान्यता है कि हम अच्छा बनेंगे और दूसरों को श्रेष्ठ बनाएंगे तो युग अवश्य बदलेगा
- हमारे शरीर के भीतर भी ईश्वर की दी सभी शक्तियां हैं और वह भी क्रिएटिव है, उसे क्रियमाण कहा गया है तथा वह अपना भाग्य स्वयं बना सकता है, संचित व प्रारब्ध कर्म भी होता है
- उपासना समर्पण योग के अनुरूप स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने कहा कि मार्जरी के ढंग से कर्म करो
- हमने स्वयं को गुरुदेव के प्रति समर्पित कर दिया तो वह भी मर्जरी के ढंग से कर दिया तथा अब हम गुरु के आदेश पर हम कर रहे है
- विवेकानंद के लिए गुरु का आदेश का पालन किया तो वहा पर वे मार्जरी कहलाए परन्तु गुरु के आदेश के प्रति चल पडे है तो वह वानरी प्रवृति होगी
- जैसे हनुमान जी की वानर वृति = राम काज किए बिना मोहे कहा विश्वाम
हनुमान जी की मार्जरी वृति = हृदय चीर कर दिखाए कि राम जी उनके हृदय में वास करते हैं - प्रत्येक शब्द का एक दूरी तक प्रभाव होता है यदि एक ही शब्द से काम चल गया होता तो बहुत सारे शब्द लिखने की जरूरत ही नहीं पड़ती, इतने मंत्रो की भी आवश्यकता नही होती
- यहा सब सापेक्षता के आधार पर चल रहा है तथा प्रत्येक शब्द का प्रभाव एक निश्चित दूरी तक ही होता है
रामचरितमानस में सुन्दरकाण्ड में प्रसंग आया था जब विभिषण राम जी को समर्पण कर देते है तो क्या किसी की सम्पत्ति बिना उसकी मर्जी के किसी दे सकते है जैसे रावण की सम्पत्ति विभिषण को दे दी गई तथा यदि वह सम्पत्ति दे ही दी तो फिर संकोच कैसा
- इसके अन्य अर्थो में भी हम जीए तथा केवल लंका के धन दौलत को न देखे
- जैसे महाभारत में भीष्म पितामह ने विपक्षी को विजयी होने का आर्शीवाद दिया
- 10 मास का अर्थ = रावण ने घोर तप किया साधना से सिद्धी मिलना विज्ञान का नियम है
- यहा इन्होंने एक क्षण में समय को संकुचित करके उपासना समर्पण योग करके पा लिया, यहा इन्होंने 10 मास को एक मिनट में बदल दिया, वहा रावण ने धूर्तता करके पाया तब 10 मास लगा, उसका निष्काम भाव नही था
- जो भाई को दुत्कारते है उनकी दुर्गति होती है ना कि फूट के कारण दुर्गति हुई, राम ने अन्त तक भाई को अपने साथ रखा तो उन्हे लाभ मिला, तो इस प्रकार से यहा Interpretation होना चाहिए
- रावण फूट के कारण नष्ट नही हुआ बल्कि रावण ने अपने भाई का साथ नही दिया तथा उसे निकालकर फैक दिया
- विभिषण ने पूर्ण समर्पण कर दिया तभी उन्होंने जल्दी ही वह सब पा लिया
क्या सोहम् साधना से शरीर के सारे रोग दोष समाप्त हो जाते हैं कृप्या प्रकाश डाला जाय
- सोहम् साधना से दुख कष्ट सहने का गुण बढ़ा देगा, कष्ट समाप्त नही होगे
- प्रारब्ध तो आएगा परन्तु सहने की ताकत बढ़ जाएगी तब प्रारब्ध परेशान नही कर पाएंगा
- Nuero Humeral Secreation से Endorphines, Gaba निकलेगे तथा वह अवसाद को हटा देगा
- सोहम् साधना ज्ञानात्मक है तथा यह दुःख कष्टो को ज्ञान के माध्यम से काट देगा तथा शरीर भाव से अलग रहेगा
- यहा कुण्डलिनी जागरण में सोहम् साधना के साथ साथ ग्रंथि भेदन भी किया जा रहा है
- गांठो को फोडने से ही कुण्डलिनी जागरण होगा, विचारो को भी उत्कृष्ट रखा जाए तथा क्रिया भी करते रहा जाए
- Accident के बाद शरीर के लिए साधना तो करनी ही पडी तथा शरीर के लिए कुण्डलिनी साधना होती है, यह अपरा प्रकृति पर command करेगा और
- आत्मा के लिए आत्म साधना करने से इश्वरीय गुण बढने लगेगे
- एक योग है तथा एक तप है तथा दोनो जरूरी भी है, सारे रोग भगाने है तो दोनो का अभ्यास करना होगा
शरभोपनिषद में आया है कि उन महा बलवान महेश्वर ने शरभ का को रूप धारण करके नृसिंह को मारा, का क्या अर्थ है
- अवतार को भी अपने स्थूल शरीर में आने के बाद भुल्लकडी आ जाती है
- उनका क्रोध जल्दी शांत नही हो पा रहा था तो महाकाल / परब्रह्म कोई उपाय तो करेंगे है तब यह हुआ कि उन्हे वही मार सकता है जो उनसे भी भिन्न हो
- पहले नर + पशु मिलकर नृसिंह बने
- शरभ = नर + सिंह + पक्षी = विचित्र रूप
इनमें तीन योनियो का रूप एक साथ था - परबह्म ने अवतार लिया तथा अपनी ही शक्ति से अपना ही शमन किया क्योंकि यहा दो की सत्ता नही है, हमें लगता है कि वह ब्रह्या है या विष्णु है, जब की वह सब एक ही है तथा वही संसार का काम चला रहा है
- यदि क्रोध शान्त भी हो गया था तो भी मारना इसलिए भी आवश्यक था क्योंकि उस शरीर की भूमिका समाप्त हो चुकी थी / उस शरीर की अब जरूरत भी नही थी क्योंकि वह डरावना शरीर था इसलिए उस शरीर को अधिक समय तक बनाकर नही रखना था 🙏
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