पंचकोश जिज्ञासा समाधान (16-01-2025)
आज की कक्षा (16-01-2025) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
कठोपनिषद् में आया है कि मनुष्य के मृत हो जाने पर आत्मा का अस्तित्व रहता है, यह वाक्य अनेको बार चर्चा में आती है, इसे सही में कैसे समझे कि मरने के बाद आत्मा का क्या होता है
- चारवाक का दार्शनिक / भौतिक पक्ष से इसे समझते हैं कि जब सामने लाश जलते देखा गया तो शरीर सामने समाप्त होता दिख रहा है
- बाद में विज्ञान ने इसे गहराई से समझा जाने लगा तथा 1974 के आस पास एक रूसी वैज्ञानिक समुअल क्रिलीयन ने एक मशीन निकाला जिसका नाम क्रिलीयन फोटोगाफ्री रखा गया
- चूहे को मारकर प्रयोग किया चूहा मर गया परन्तु Bioplasma निकला जो मशीन ने Record किया, इसी अन्नमय कोश के साथ एक Layer और भी हैं जिसे Bio Plasma कहते है, इसे Bioplasmic Body भी कहते हैं, यह केवल कैमरे ने देखा
- यह कैमरा प्रेतो का भी फोटो लेने लगा
- अब्राहम लिंकन की आत्मा White House में भटकती थी, इसका भी कैमरे में Record हुआ
- विज्ञान तब जाकर माना कि पृथ्वी पर सूक्ष्म रूप में प्रेतो का अस्तित्व होता है
- भारत में तो पहले से ही उपनिषद् में कहा गया कि आत्मा मरती नहीं
- यदि मर ही गया तो फिर महापुरुषो का जन्मदिन क्यों मनाए तथा फिर जन्माष्टमी या अन्य महत्वपूर्ण जन्म तिथिया महत्वहीन हो जाएगी
- कई बार ऐसी भी घटनाए घटी कि उन्होंने बताया कि वे शरीर से बाहर निकले तो उन्होंने क्या अनुभव किया, शरीर से बाहर निकलने पर भी जीव की सत्ता बनी रहती है
- कुछ लोगो को अपने पूर्व जन्म की घटनाएँ याद थी तो कुछ उदाहरण ऐसे मिले तो उससे पता चला कि जीवात्मा का सूक्ष्म शरीर नही मरता, केवल स्थूल शरीर समाप्त होता है
- [Bioplasmic, Etheric, Astral, Cosmic] Body -> ये सभी आभामंडल के रूप में निकलते हैं
- कुछ लोग जन्म से ही Brilliant कैसे आ गए तो वे अपने साथ पिछले जन्म के संस्कार व ज्ञान साथ लेकर आते है यदि ऐसा नहीं होता तो जन्म से सभी का मानसिक स्तर एक सा होता
- इससे पता चलता है कि आत्मा मरती नहीं ना ही जन्म लेती है, वो केवल शरीर बदलती है
पैगलोपनिषद् में हृदय को निर्मल करके और अपने को मै अनामय ब्रह्म हूँ ऐसा चिन्तन करके मै ही सब कुछ हूँ ऐसे सोचने व देखने से परमसुख प्राप्त होता है, यहा अनामय ब्रह्म का क्या अर्थ है
- अनामय = विकार रहित = निष्कलंक = Pure = अत्यन्त शुद्ध अवस्था -> उसमे किसी भी तरह का चिपकाव न हो, निर्मल स्थिति हो
- जैसे सर्वे संतु निरामया कहा जाता है तो इसका अर्थ है कि किसी भी प्रकार के कलाए कलमश ना हो
- संसार मैं रहते हुए संसार से निर्लिप्त रहते हैं, तो अनामय कहलाते हैं
- इसे कुटस्थ भी कह सकते है
जब ज्ञान के द्वारा देह में स्थित अभिमान विनष्ट हो जाता है तथा बुद्धि अखंडाकार हो जाती है तब विद्वान पुरुष ब्रह्मज्ञान रूपी अग्नि से कर्म बंधनों को भस्म कर देता है, का क्या अर्थ है
- तत्व ज्ञान जब विकसित होगा तो साधक भ्रमित नहीं होगा तब वह देख लेगा वि एक ही ईश्वर या प्रकाश तत्व हिरण्यगर्भ से सब बना है, साधना करने पर इसका साक्षात्कार हो जाता है
- अपने को साफ करते रहा जाए तो साधना से सब कुछ अलग सा / नया सा दिखने लगता है
- ब्रह्मज्ञान जब मिलता जाता है तो मन शांत, बुद्धि शांत व चेतन शांत होती जाती है
- जानकारी के साथ साथ शांति व ज्ञान बढ़ता जाता है
निरालम्बोंपनिषद् में आया था तप दान भव बंधन है परन्तु हम रोज ही कहते है आयुम् प्राणाम् प्रजाम् कीर्तिम् द्रविडम् ब्रह्मवर्चसम तो उसमें भी तो कामना है तो फिर यह कैसे भव बंधन से मुक्त कर देता है तथा वहा जो पहले निरालम्बोपनिषद् में बताया गया था वह कैसे भव बंधन का कारण बनता है
- कामना दो प्रकार की होती है
- जो शब्द बोले तो उस समय क्या सोचे
- जैसे आयु शब्द बोलते समय -> हम अपनी उम्र का ध्यान रखे कि हमें जो भी हमें उम्र मिला है उसे Dutyfullness में लगाए
- प्राणम् -> प्राण का Care करे अच्छे कर्म करने के लिए
यदि हम प्राण केवल अपने मजे के लिए या अपने Entertainment के लिए करते हैं तो यह कामना के अन्तर्गत आ गया - हर कार्य के लिए कामना करना ही है तो दो प्रकार की कामनाएं है
- एक स्वार्थ कामना दूसरा परमार्थ कामना
- सर्वे भवन्तु सुखिना -> यह शुभ कामना में आ गया
- शुभ कामनाओं से मोक्ष मिलेगा
- कबीर दास भी कामना करते थे कि साई इतना दीजिए जामे कुटुम्ब समाय, मै भी भूखा ना रहूं, साधु भी भूखा ना जाए
- एक अन्य आदमी जो यह शब्द बोल रहा है वह सोच क्या रहा है कि वह अपने कुटुम्ब में केवल अपनी पत्नी बच्चे के बारे में सोच रहा है
- कबीर दास वसुदैव कुटुम्बकम को ही अपना कटुम्ब (परिवार) मानते थे
- कबीर दास ने चतुराई से इतना मांग लिया कि जितना भी ईश्वर देंगे तो यह कम ही पड़ेगा
- प्रकृति में समस्त जीव व वनस्पतियां सभी हमारे परिवार में ही आती है
- मन को समष्टि मन बना ले तथा अपनी कामनाओं को समष्टि कामना बना ले तो वह मोक्षदायी होगा
- गायंत्री से जो भी मिला है वह भी स्वार्थ के लिए नही मिला है। गायंत्री से जो भी मिला है उसकी मदद से हम आत्मज्ञान के मार्ग पर सदा बढ़ते रहें
- सद्ज्ञान – सद्बुद्धि – आत्म कल्याण – लोक कल्याण – वातावरण परिष्कार करना , यह सभी बहुत काम की चीजें हैं
- केवल शुभकामनाएं ही मोक्ष देंगी
प्रेम मोह में बदल जाता है, यह बहुत ही खतरनाक है तथा उसके लिए ज्यादा खतरनाक है जिसके लिए मोह किया जाता है, माता पिता अपने पुत्र को मोहवश बाहर नौकरी नहीं करने देते, यह बहुत ही खतरनाक हो जाता है, तो मोह से कैसे बचे
- बिना ज्ञान के मोह नही कटता
- जब विशुद्ध ज्ञान (ब्रह्मकमल) की वर्षा होगी तो मोहरूपी शरीर गलता है
- जब ज्ञान मिलने लगेगा कि यह ईश्वर का बच्चा नहीं है मेरा नहीं है क्योंकि किसी को कोई जन्मा नहीं सकता -> गीता में भी यह बात आई है, इसलिए गीता को अमृत कहा गया तो ज्ञान से मोह समाप्त होता जाता है
- जब हम देश धर्म संस्कृति का अध्यन करे तो पाएगे कि कितने महामानवो ने अपने देश धर्म संस्कृति के लिए अपना सब कुछ दाव पर लगा दिया तथा हमे जीवन एक छोटे दायरे में या पुत्र मोह में जीने के लिए नही मिला
- जो पुत्र मोह में है तो उन्हे सैकड़ों उदाहरण दिए जाए कि पुत्र मोह कितना द्यातक है
- दशरथ ने पुत्र मोह किया तो भगवान जैसे बच्चे को पाकर भी छाती पीट पीटकर मरे
- गुरू स्तर का भी कोई व्यक्ति हो तो उसके लिए भी द्यातक है जैसे गुरु द्रोणाचार्य भी मोह के चलते मारे गए
- लोभ मोह अंहकार ऐसा चीज है कि अपने स्वामी को ही मार डालता है तो तत्वज्ञान से ही ज्ञान विकसित होगा
- यदि बच्चे ने जन्म लिया है तो यह हमारा Duty है कि उसे प्रेम दिया जाए, पढ़ाई लिखाई कराया जाए परन्तु उसकी अपनी भी तो यात्रा है, इसलिए मोह नही दिव्य प्रेम करे
- ताकि वह अपने वंश का नाम उचा करे
- ऋषियो के ज्ञान विज्ञान को नही बाटेंगे तो ऋषियो का कर्जा लेकर मरेंगे, स्वयं भी गिरेंगे तथा अन्यों को भी गिराएगे
- समाज में लोक सेवा का काम करने से पितृ ऋण चुकता है यदि समाज के लिए कार्य नहीं किया तो पितृ दोष हम पर लगता है
- देव ऋण भी हमें चुकाना होता है
- ये सब साधना से ही होता है, जिस घर में आत्म साधना होगी वहा यह सब दिक्कत नहीं होगी
- ये सभी भाव साधना से विकसित होते है, देश व समाज के लिए जीने वाले अपना भी कल्याण करते है तथा एक मिसाल बनकर अपने घर / परिवार / गांव / देश का सम्मान बढ़ा देते हैं
- गुरु का हमारे जीवन में बहुत महत्व है, गुरु के मार्गदर्शन के बिना हम परमार्थ का जीवन न जीते हुए स्वार्थ परक जीवन जीते हैं व समाज में / संसार में हमारा कोई सम्मान नहीं होता
वांग्मय 22 में आया है कि शरीर साधारणत अन्न जल व वायु पर जीवित रहता है पर यदि उसकी असाधारण क्षमता को जगाया जा सके, तो अदृश्य जगत की वायुवीय स्थिति में विद्यमान आहार सामग्री को आकृषित करने से काम चल सकता है और जिस अन्न जल व वायु के उपर सामान्य प्राणी जीवित रहते है उन्हे अनावश्यक सिद्ध किया जा सकता है, इसमें स्वामी विवेकानंद ने एक महात्मा पावहारी बाबा का विवरण प्रकाशित किया था कि वे बिना अन्न जल के काफी समय से जीवित थे, उनकी घोषणा को जाचा गया और ठीक पाया गया, कृप्या इस पर थोडा प्रकाश डाले
- विवेकानंद भी अति इंद्रिय क्षमताओं पर खोज करते रहते थे तथा उन्होंने यह सुना था कि बिना अन्न जल के भी जीवित रहा जा सकता है
- पतंजलि ने भी लिखा है कि व्यक्ति भूख व प्यास से रहित हो सकता है
- विवेकानंद जी ऐसो को ढूढ़ते भी चलते थे कि क्या भूख प्यास के बिना व्यक्ति जीवित भी रह सकता है तब उन्हे पावहारी बाबा के विषय में जाना कि पावहारी बाबा गुफा में हवा पीकर रहते थे तथा गुफा से बाहर अधिक नहीं निकलते थे
- बाहर रहकर Physical Activities का अधिक जरूरत होगा तो Energy की अधिक जरूरत होगी, Energy की अधिक जरूरत पड़ेगी तो इतने से (केवल हवा से) काम नहीं चलेगा तथा अन्न जल की भी आवश्यकता पड़ेगी
- पावहारी बाबा से जब मिले तो उन्होंने कहा कि तुम से अधिक हम खाते है
- घर में जो दुध उबाला जा रहा है उसके परमाणु हवा में दौडते रहते हैं, उसी को प्राणायाम के माध्यम से खींचकर के दृढ मनोभूमि से मन की नोक पर वह भीतर आने लगता है
- दृढ़ संकल्प से हम भी यदि प्राणायाम करें तो पाएंगे कि हमारा भी ऊर्जा व ताकत बढ़ गया है
- बिना खाए Energy व ताकत कहा से बढ गया -> हवा में घुले हुए विद्युत पार्टिकल प्राणायाम के माध्यम से Ions के रूप भीतर में भीतर जाते हैं व लाभ देते हैं
- चक्रो को जगा लेने से ऐसा संभव बन पड़ता है
- पावहारी बाबा अनाहात चक्र को जगा लिए होगे तभी वे हवा से प्राण खीच पाते थे वह भी एक प्रकार का अन्न है
- केवल मूंग, पीपल के पत्ते जैसे एक ही तरह के भोजन से सारे तत्व Balance Diet के रूप में कैसे मिल गए
- गुरुदेव ने लिखा कि मणीपुर चक्र यदि जागृत हो जाए तो ईश्वर हर जगह है तथा ईशवर सर्वशक्तिमान हैं, हर पदार्थ में सारे गुण होते है, दबे हुए रहते है, विज्ञान की पकड में नही आते
- यदि मणीपर चक्र जगा लिय जाए तो सारे तत्व एक ही तत्व से, शरीर अपने आप बना लेता है -> इसी के आधार पर चक्र Function करता है
- अभी हम 30% बाहर का अनाज ले लेते है तथा 70% सौर उर्जा से ग्रहण कर लेते है
- आत्म साधना से साधक का भूख कय होता जाता है तथा कम ही भोजन से अधिक Energy मिलने लगती है इस का अर्थ यह है कि हमारे भीतर परमाणुओं को तोड़कर उर्जा निकालने की क्षमता बढ रही है, यह हर साधक के साथ होता है
आयु प्राण प्रजा पशुम कीर्तिम द्रविडम ब्रह्मवर्चस्म -> क्या हम इसे यह मान सकते है कि ये प्रगति के कम्रश: बढ़ती अवस्थाएं है
- प्रगति के भी कम्रशः stage है क्योंकि ब्रह्मवर्चसम् अन्त में है तथा उसके बाद ब्रह्मलोकम् भी है
- वर्चस = ब्रह्मज्ञान
- आयु -> पहले अन्नमय की साधना से आयु मिलता है, रोग भागते है
- प्राणम -> प्राणमय से कुछ रचनात्मक काम करेंगे तथा प्रतिभा बढ़ेगी व सहयोगी मिलेंगे
- पशुम -> संसाधनों का दुरुपयोग नहीं करेंगे तथा सदुपयोग करेंगे
- कीर्ति -> रचनात्मक जीवन शैली से यश मिलेगा
- इसी प्रकार पंचकोश की उपलब्धिया इस मंत्र में निहित है
- यह अर्थववेद का मंत्र है -> इसी में आया है 8 चक्र व 9 द्वार वाले इस शरीर को थोडा Refine कर लिया जाए तो धरती पर स्वर्ग का अवतरण हो सकता है
- इसलिए गुरुदेव ने कहा है की धरती पर स्वर्ग लाना है तो आदमी को देवता बनाना पड़ेगा क्योंकि जहां पर देवता रहते हैं उसी को स्वर्ग कहा जाता है
- देवत्व और स्वर्ग दोनों ही पंचकोशीय साधना से मिल जाता है
गायंत्री चालीसा में आया है कि ऋषि मुनि यती तपस्वी योगी । आरत अर्थी चिन्तित भोगी जो जो शरण तुम्हारी आवे, सो सो मनो वांछित फल पाए, इसे कोई भी कर सकता है, यदि कोई छोटी कामना भी लेकर जाता है तो वह भी अपनी अगली स्टेज में चला जाएगा या नहीं
- अणुव्रत लेकर आगे बढ़ा जाए
- जो दुराचारियो में भी बड़ा दुराचारी हो तो भी वह इस पथ का अनुसरण करे / आत्म साधना करे, तो वह भी संत है
- संत बनते देर नहीं लगती
- सूरदास, डाकू अंगुलिमाल -> ये सभी ब्रह्मऋषि बनकर दिखाएं
ऐसा सुना है कि समर्थ गुरु रामदास व देवराहा बाबा जल में रहकर बहुत देर तक साधना किए क्या ऐसा होता है कि जल मैं रहकर लंबे समय तक साधना करने से तमोगुण कम होता है
- जल प्राण तत्व का Highly Absorbent होता है
- जैसे नदी की धारा फेन को निकालकर बाहर फैक देती है उसी प्रकार जल शरीर की गन्दगी को बाहर निकाल देता है, जल शरीर के Toxines को हटाता रहता है
- घर में भी जल मे रहकर साधना कर सकते हैं
- बहते पानी का TDS कम होता है, प्राण तत्व अधिक होता है तथा बहते रहने से जल का शुद्धीकरण होता रहता है तथा जल साफ अधिक होता है
- गंदला जल स्वास्थ शरीर को रोगी बना सकता है यह जाच लेना चाहिए कि जल हमारे शरीर के अनुकूल है या नहीं
क्या बहते जल में प्राण तत्व स्थिर जल की तुलना में अधिक रहता है
- बहते रहने के कारण Toxine निकल गया तो जीवनी शक्ति बढ गई तो प्राण तत्व भी बढ़ गया
- नदी का जल बहने के कारण अशुद्धियों को हटाते रहता है, निथारने का Process व उसका Filteration भी चल रहा होता है इसलिए उसमें जीवनी शक्ति बढ़ी होती है
- अधिकतर नदियां पहाड़ी क्षेत्रों से होकर गुजरती है तो वहा के अमृतत्व लेकर आता रहता है
- जल को शुद्ध रखे तथा जल को Dispose करने से पहले शुद्ध / Process करके फिर बाहर फैके
- ऐसे पानी में Water Filter ना लगाए जिसमें पानी का TDS 500 से कम है
शान्तिकुंज में प्रातः(गुरुदेव के साथ ध्यान), दोपहर(ज्योति अवधारण साधना) और सायं (नादयोग) तीन साधनाएं होती हैं। जो क्रमशः कारण, सूक्ष्म और स्थूल शरीर से संबंधित हैं। इसै थोड़ा स्पष्ट करें। ये कैसे इन तीन अलग अलग शरीरों से संबंधित हैं?
- नादयोग विज्ञानमय व आनन्दमय कोश दोनो में आता है तथा यह कारण शरीर को जगाता है
- गांयत्री के तीन स्वरूप है
- गांयत्री (सुबह)
- सावित्री (दोपहर)
- सरस्वती (शाम)
- शाम वाली गायंत्री में सरसता है तो नादयोग को सरस्वती से लिया गया है
यदि मन पूर्ण हो गया तो संसार अमृत से पूर्ण हो जाएगा कृप्या प्रकाश डाला जाय
- मन पूर्ण होने का अर्थ = ईश्वरीय मन से अपना मन जुड़ जाए तो अमृत से पूर्ण हो गया, ईश्वर का मन सबके लिए कल्याणकारी है तथा वह मन विषय से रहित होता है तथा वही मन आत्मा की अमरता का बोध कराता रहता है
- मन ही शत्रु व मन ही मित्र बन जाता है, अपने मन को ईश्वर के मां के साथ जोड़ना है यही ध्यान में किया जाता है
- सबको अपने में देखना तथा अपने में सबको देखना इस प्रकार आत्मा की अमरता का बोध मिल जाता है
जब यह पूरा विश्व ब्रह्मांड ब्रह्म स्वरूप है ।सभी जीव धारी ब्रह्म है , तो फिर कर्म भी ब्रह्म ही कर रहा है और कर्म फल का भोक्ता भी ब्रह्म ही हुआ । इस तरह ब्रह्म ही कर्म बंधन में पड़कर संसार में शरीर धारी बनकर जन्म लेता है तथा जन्म – मरण के चक्कर में लगा रहता है । इन तथ्यों का क्या रहस्य है कृप्या प्रकाश डाला जाये ।
- चक्र के प्रवाह में यदि पीसते हुए भी हंसते रहे तो उस साधक के लिए ना कोई मोक्ष है तथा ना ही कही बंधन है, उसे निर्वाण प्राप्त होगा, यह बात समझने की जरूरत है कि सर्वम खल्लु इदम ब्रह्म -> तब संसार में बढिया से रमण कर सकता है
- यह केवल कहने भर नही, इसका प्रत्यक्ष बौधत्व भी आना चाहिए
महाकुंभ का क्या महत्व है, क्या वहाँ स्नान करने से मोक्ष मिलता है कृप्या जानकारी दे ।
- कुंभ का महत्व अनादि काल से चला आ रहा है
- हर 12 साल पर सामाजिक परिस्थितियां बदल जाती हैं
- इसे एक युग कहा गया है
- इतने समय में उस परिस्थितियों में रहन सहन, खान पान तथा शरीर भी बदलता रहता है
- अभी नए समय के अनुरूप क्या छोड़ जाए वह क्या ग्रहण किया जाए, इसी के मंथन के लिए कुंभ मेले का आयोजन होता है तथा ऐसी जगह चुना जाता था जहा काफी जगह हो तथा स्नान के लिए भी सुविधा हो
- यदि ये सब बाहर संभव न हो सके तो घर में भी कर सकते हैं
- शरीर के भीतर यदि कर रहे हैं तो त्रिकुटी स्नान किया जाता है
- योगियो को हमेशा आज्ञा चक्र में रहना चाहिए
- यहा आज्ञा चक्र को कुम्भ कहते है, सहस्तार चक्र में अमृत कलश / घड़ा है
- आत्म साधना के लिए भारद्वाज ऋषि कभी कल्प साधना करवाते थे
- अभी कल्प साधना का प्रचलन नहीं है
- अभी आस्था के रूप में ले लिया गया है तो आस्था के रूप में जैसी हमारी भावना रहेगी, उसी के अनुरूप हमें लाभ मिलेगा 🙏
No Comments