पंचकोश जिज्ञासा समाधान (15-10-2024)
आज की कक्षा (15-10-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
षटप्रश्नोपनिषद् में आया है कि पुष्कर कर्म कहलाता है, . . . पर्जन्य लोकाभिमानी है, मंत्र का देवता स्वाहा है, अग्नि तप का अभिमानी है और वरुण वीर्य का देवता अभिमानी है, का क्या अर्थ है
- षट -> यहा 6 चक्रो से जुडे प्रश्न है
- जल स्वादिष्ठान चक्र से संबंधित है तथा प्रजनन तंत्र से भी जुडा है वीर्य का उत्पादन भी इसी से जुडा है
- अग्नि मणीपुर चक्र से संबंधित है
- मंत्र -> मंत्रणा / विचार को कहते है
- स्वाहा -> वह कुण्डलिनी शक्ति जो देवयान मार्ग से उपर की ओर ले जाए
- यहा चक्र जागरण की बात कही जा रही है
- एक एक चक्र पर ध्यान करते हुए शक्ति चालीनी करे, तब वीर्य भी संरक्षित होने लगेगा, गाढ़ा होने लगेगा, काम करने की शक्ति देगा
सन्यासोपनिषद् में आया है कि संन्यासी के लिए घी कुत्ते के मुत्र के सदृश्य है, शहद मदिरा पान के समान है, तेल शुकर के मुत्र के समतुल्य है, लहसुन युक्त पदार्थ गौ मांस के समतुल्य है, दुध मुत्र के सदृश्य है अतः संन्यासी के लिए घृत आदि से विहीन भिक्षा ही स्वीकार करना चाहिए, का क्या अर्थ है
- ऐसा इसलिए कहा कि तुम संन्यासी के रूप में आत्मा की खोज के लिए चले हो तो अपने दिमाग से स्वाद की इच्छा / लपलपाहट को हटाओ
- घृणास्पर्द शब्दो का उपयोग किया है कि यह सुख सन्यासी के लिए नही है अपितु राजसी लोगो के लिए है, तुम सन्यासी के लिए यह सब रुकावट है तो इसलिए त्यागी बनो
- स्वादिष्ट अन्न बहुत खाया अब सुखी रोटी भी खाओ तो इस प्रकार ये तप की ओर ले जा रहा है, इसलिए घृणित शब्द का उपयोग हुआ
- किसी पर आश्रित न रहे दुध या गाय पर भी नहीं, दुर्वासा ऋषि की तरह घास खाकर भी जीवित रह सकते है
- आत्मा के लिए संसार के सारे बैसाखियो को छोड़ना पडता है, आत्मा किसी पर आश्रित नहीं, वह निरालम्ब है
- अच्छा भोजन नही मिलने से केवल शरीर से दुबला होगा तो भी आत्मा को उससे कुछ लेना देना नहीं है, शरीर भाव से उपर उठे
- याचित = मांगा हुआ या बिना मांगे हुए भी मिल गया
- शब्दों से विचलित नही होना, आगे बढिए
कौशितिकीबाह्मणोपनिषद् में आया है कि बह्मा जी ने अपसराओ व सहायको से कहा, 500 अप्सराएं जाती है . . तथा ये सभी अपसराएं उस महान आत्मा को बह्मोचित्त अलंकारो से सुशोभित करती है, बह्मा के आभुषणो को धारण करके वह साधक बह्मा के स्वरूप हो जाता है, उस जलाशय के समीप पहुंचकर अज्ञानी मनुष्य उसमें डूब जाते है, तत्पश्चात वह बह्म ज्ञानी के समीप आता है, को क्या अर्थ है
- आत्म साधक को यह सब सुख मिलता है
- अपसरा उसके लिए महत्व नही रखती
- भोग सामग्री उसे मिलती रहती है परन्तु वह उनमें लिप्त नही होता
- हर चक्र अपने में एक नदी है
- ज्ञानेद्रियों को भी नदी कहा है
- नाडियों में जो ज्ञान है तो 72000 नदिया है
- पंचकोश के अनुरूप आगे बढे, पंचकोश की उपलब्धिया ही रिद्धियां सिद्धियां है तथा ये सब मिलती है तो किसी लोभ से साधक इनका दुरुपयोग न करे
पांच महाप्राण व पाच लघुप्राण क्या है
- बाहर से प्राण एक ही है
- जैसे एक ही बिजली पंखा, कूलर, हीटर . . . चलाती है
- इसी प्रकार दिमाग में 2 प्रकार का बिजली है, एक आत्मा व परमात्मा का सोचता है तथा दूसरा शरीर व संसार का सोचता है -> एक व्यान है तथा दूसरा धनंजय है
- गले में भी बिजली है, बोलने के लिए तथा हाथ पाव चलाने में अलग बिजली है, एक उदान है तथा दूसरा देवदत्त है
- बिजली की ही 10 Variety है
- हृदय में भी बिजली है, प्राण व नाग -> प्राण खीचने का तथा नाग शरीर में बाटने का काम करता है
- क्रिया कलाप के आधार पर अलग अलग नाम दे दिए गए, बाहर से एक ही बिजली घर में घुसकर अलग अलग क्रियाकलाप करती है
- पेट में वह बिजली गया तो एक अग्नि से पचाने का काम करता है तथा दूसरा जल का काम करता है -> आग वाली बिजली को समान तथा पानी वाली बिजली को कृकल कहते है इसी को पित्त व कफ भी कहा जाता है
- नीचे अपान (कोशिका को तोडना / Toxine [मल] को निकालना) व कुर्म (उमंग जोश उल्लास देना) बिजली है
- पाच बिजलियां बाहर से प्राण खीचने का कार्य करती है तथा पांच बिजलियां भीतर प्राण को ले जाने का कार्य करती है राजा व मंत्री की तरह
देव संस्कृति मानव मात्र को आसुरी प्रपंच से बचाकर देवोपम विकास की प्रेरणा और विधि व्यवस्था प्रदान करती है कृपया प्रकाश डाला जाय
- देव संस्कृति के दो निर्माता -> यज्ञ (Practical) पिता व गायंत्री (सिद्धान्त) माता
- आत्मा परमात्मा व संसार के बारे में सही जानकारी होनी चाहिए व फिर Practical करेंगे तो व्यक्ति अपना असुरत्व से बचाव कर लेगा, सही जानकारी के आभाव में असभ्य जैसा व्यवहार करेगा
- प्रत्येक में शुद्ध ज्ञान (संस्कृति) का होना जरूरी है
- असुर दूसरो का उपहास करता है तभी उसके 2 दांत बाहर निकले दिखाए जाते है
- समझदार व्यक्ति उपहास नही करेगा, वह जान लेता है कि सबमें एक ही आत्मा है, इस भाव से वह स्वंय को असुरत्व से बचा लेगा तथा उसका तेज बढ़ता जाएगा
- गायंत्री मंत्र का Practical करते करते आदमी देवता बनता जाएगा
- रोगों को ही राक्षस कहते है
- गायंत्री महाविज्ञान में सारी जानकारी दी हुई है, Practical करने से आदमी सभ्य बनेगा तथा Theory जानेगा तो आदमी सुसंस्कृत रहेगा
सभी कहते है कि सबमें एक ही परमात्मा है तो किसी से इतना प्रेम व किसी से इतना नफरत क्यों हो जाता है
- यह सहधर्मिता का सिद्धान्त के कारण होता है
- जहा विचार – भाव – संस्कार (प्राण) मिलता है तो चुम्बक कि तरह वह खीचाव करेगा तथा जब प्राण नहीं मिला तो दूरी / टकराहट होने लगती है
- विचारो में चुम्बक होता है
- जिसका magnetic field जहां मिलता है वहा उसके प्रति लगाव बढ़ जाता है
- यह प्रकृति का नियम है
- दिन व रात दोनो विपरित होते हुए भी मिलकर चल लेती है बह्ममूहर्त में, यह समायोजन है
- ज्ञान को देवता तथा बल को राक्षस कहा जाता है
- आग व पानी में भिन्नता है परन्तु तालमेल बैठा लिया तो भाप बनकर बड़ा बड़ा ईंजन चला लेता है
- कुछ सोचे, Research करे तथा अपने स्तर को बढ़ाते रहे
योग्य संतान के श्रेष्ठ कर्मों से ही अभिभावकों पितरों को वंछित योनि एवं सुख मिलता है कृपया प्रकाश डाला जाय
- यह सुपुत्र के लिए यह का कहा गया है
- रावण के पास कितने अधिक पुत्र पुत्रियां थी परन्तु संसार में दिया बाती जलाने वाला नही रहा
- तेजस्वी व संस्कारी पुत्र पैदा करो (साधुम पुत्रम जनेहः), ऐसा पुत्र ही संसार से हमें तारेगा
- कौरव जैसे पुत्र नही तारते है
त्राटक में वस्तुए / सुर्य दो बन जाते है तो इसे किस तरह देखा या समझा जाए
- अभी concentration किसी एक पर रखे तथा साक्षी भाव से देखें
- concentration एक ही निडल पर रखे तथा फिर अभ्यास करें तब देखेगे कि यहा शून्य के सिवा कुछ है ही नहीं
- सुर्य के बीचो बीच Pointedl या छेद बनाकर आगे जाए
- सूक्ष्म स्थूल से अधिक ताकतवर होता है
- नासिकाग्र पर भी त्राटक करने से concentration बन जाता है तथा भटकाव खत्म हो जाता है 🙏
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