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पंचकोश जिज्ञासा समाधान (14-11-2024)

पंचकोश जिज्ञासा समाधान (14-11-2024)

आज की कक्षा (14-11-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-

सुन्दरीतापिन्युपनिषद् में आया है कि देवो ने भगवान को कहा हमें मुद्राओं का सृजन करना चाहिए, भगवान ने उनको कहा पृथ्वी पर दोनो घुटने रखकर पदमासन विस्तृत करके मुद्राओं का सृजन करो, जो योनि मुद्रा का अध्ययन करता है, वह सबका आकर्षण कर सकता है, वह सब कुछ जान लेता है, वह सब प्रकार के फलों का उपभोग करता है, वह सब प्राणियों को जीत लेता है, वह विद्वेष को स्तन्भित कर सकता है, दोनो मध्यमा अगुलियों को अनामिका के उपर रखकर कनिष्ठिका के अंगुष्ठ द्वारा रोकने पर दोनों तर्जनियों को सम्बद्ध कर प्रथमा० मुद्रा सम्पादित होती है, उक्त मुद्रा में दोनो मध्यम अगुलियां मिला देने पर द्वितीया योनि मुद्रा बनती है, का क्या अर्थ है

  • यहा मुद्रा विज्ञान शिवजी देवताओ को समझा रहे है
  • देवताओ को प्रसन्न करने के लिए जो भाव भंगिमाए प्रयास किए जाते है, वे सभी मुद्रा कहलाते हैं, देवताओं को प्रसन्न करने के लिए या उनकी शक्तियों को अपने भीतर आर्कषित करने के लिए जो भी Meditational या हस्त मुद्राए या यौगिक मुद्राए करते हैं, जिससे Divinity बढ़े, उसे मुद्रा कहते है
  • जैसे भ्रामरी में उनमनि मुद्रा करते है उसे भी योनि मुद्रा कहते है, यह भी एक क्रिया होती है
  • इसका उद्देश्य है कि हमें बहिरंग वृतियो के बहाव को रोककर के योनि का ध्यान करे
  • योनि का अर्थ = ब्रह्मयोनि है
  • हमारा उदगम कहा से है, हम कैसे प्रसवित होकर मनुष्य के शरीर में आए, वहा परबह्म ने जब इच्छा किया / सृष्टि विज्ञान का शुरुवात जहा से हुआ है जैसे पहले महाप्राण की उत्पत्ति फिर रितम्बरा प्रज्ञा फिर आत्मिकी
  • ब्रह्म को ही योनि कहा है उसी ने सारी सृष्टि को उत्पन्न किया है, यह परबह्म में ध्यान लगाने की एक प्रक्रिया है, इसमें कई क्रियाएं बताई गई है, यहा शक्तिचालीनी को भी योनि मुद्रा समझ सकते है
  • जैसे बघिरो को भाव भगिमाओं से पढ़ाया जाता है जहा बैखरी वाणी काम नही करती वहा मध्यमा वाणी से पढ़ाया जाता है, यहां मध्यमा वाणी से छात्रो से कहा गया कि आप शक्तिाचालीनी मुद्रा का अभ्यास करें तो शरीर में देवत्व का जागरण होगा

महानारायणोपनिषद् में आया है कि भूत भविष्य वर्तमान जगत परमाकाश की भाँति अमूर्त अक्षर बह्म में स्थित है, का क्या अर्थ है

  • अमूर्त = निराकार
  • अक्षर ब्रह्म = अविनाशी
  • ईशवादयम् इदम सर्वम – > इस बात को यहा कहा जा रहा है, यहा सब कुछ बह्म से आच्छादित है / बह्म में स्थित है
  • इसे तत्व दृष्टि से देखने पर ही यह आएगा, बाह्य नेत्रो से देखेंगे तो केवल वस्तुए ही दिखेगी, तृतीय नेत्र से देखेगे तो पता चलेगा अहम् जगतवा सकलम् शून्यम् व्योम समम सदा
  • व्योम = परमाकाश (चिदाकाश) के लिए कहा गया है, यहा एक ज्ञानात्मक शांतिमय आकाश है, जहा कभी कोई हलचल हुआ ही नहीं, ना इसमें कोई सृष्टि उत्पन्न हुई और ना ही इसमें विलीन होनी है
  • ईश्वर हमेशा एक समान रहता है (हरि व्यापक सर्वत्र समाना), उसमें कोई अन्तर नहीं पड़ रहा है
  • इस Frequency को हम इन आँखो से नही पकड पा रहे, कुछ का कुछ दिख रहा है, इसी को माया कह दिया गया, Absolute Truth नहीं दिख रहा है, यह एक प्रकार का halusination है, यह विपर्य है

जिस सच्चित् स्वरूप मूलकारण सत्ता से अन्तरिक्षलोक, द्युलोक तथा महिलोक संव्याप्त है,का क्या अर्थ है

  • महिलोक में महि शब्द पृथ्वी के लिए आता है
  • घुलोक, स्वर्गलोक के लिए आता है, घुलोक हिरण्यगर्भ को भी कहते है, यह ज्ञानात्मक आकाश है, इसके (स्वर्ग के) उपर के सभी लोक (महः जनः तपः सत्यम्) भी द्युलोक में ही आएंगे
  • जब पृथ्वी वायु भूत होकर अंतरिक्ष में विलिन हो जाती है, जिस आकाश को हम देखते हैं यही पंच तत्वों वाला आकाश है
  • पंचतत्वो में जो आकाश तत्व है, आकाश में इसकी तरंगें रहती है तथा शब्द इसकी तत्मात्रा है, इसमें ईथर तत्व भरा पड़ा है

जाबालोपनिषद् में आया है कि सवर्तक, आरुणी, श्वेतकेत, दुर्वासा, ऋभु ,  निदाग, जड़ भरत, दतात्रेय आदि जो परमहंस स्तर के सन्यांसी हुए है, वे सभी अव्यक्त लिंग अर्थात संन्यास के चिन्हों से रहित थे, उनका आचरण भी अव्यक्त था, वे अन्दर से उन्मत न होते हुए भी बाहर से उन्मत लगते थे, का क्या अर्थ है

  • इसका अर्थ यह है कि ये सभी संत अवधूत की श्रेणी में आते है
  • सांकृति, दत्तात्रेय अवधूतो के ईश्वर/ईष्ट है या सबसे श्रेष्ठ है
  • अपनी ईच्छानुसार आचरण करना ही उनका व्रत है, पाप – पुण्य, धर्म – अधर्म कुछ नहीं है क्योंकि उन्होने सिद्ध कर दिया कि यहा बह्म के सिवा कुछ नहीं
  • इस अवस्था में जब साधक रहता है तो उन्मत की तरह रहेगा, उस पर सामान्य आदमी की तरह की मर्यादाए लागु नहीं होती
  • अवधूत स्तर का संत इसलिए भी अपने को सजा धजा कर नहीं रखता ताकि भीड़ उसके पास न आने लगे,
  • एक संत को सिद्धी मिली थी कि वे अपने चमड़े को उलटकर पहन लेते थे, उन पर मक्खियां बैठी रहेगी तो उस से सामान्य लोग कोढी समझ कर दूर रहेंगे अन्यथा उनके पास भीड़ लगने लगेगी तथा लोग अपनी मनोकामना पूर्ति के लिए आने लगेगे तथा साधना भी नहीं करेंगे
  • इस भीड भाड से बचने के लिए वह अपने आप को बिल्कुल अनजान रखते हैं तथा समाज में रहते हुए भी परिचय नहीं देते

वे संन्यासी लोग लिंग चिन्ह भी नही रखते

  • यहा लिंग का अर्थ लिंग योनि या Reptoductive Organ से नहीं है
  • लिंग का अर्थ है पहचान जैसे टीका लगाना किसी खास संस्था का दुपट्टा ओढ़ना, ये सब वो नहीं करते
  • वे ईश्वर के दूत है इसलिए वो अपना कोई विशेष  चिन्ह नही रखते तथा अपनी कोई मजहबी पहचान भी नही बनाएंगे इसलिए कहा गया कि वो अपना कोई लिंग नहीं रखते
  • संन्यासी को अलिंगी होना चाहिए नहीं तो आम आदमी समझेगे कि वह किसी विशेष धर्म या मत से जुडा व्यक्ति है तब सभी उसके साथ नहीं आ सकते
  • जब वह ईश्वर से जुड गया तो सारी संस्थाए उसके भीतर आ जाएगी
  • हम अक्सर यही भूल करते हैं तथा ईश्वर से नए जुड़कर किसी और के साथ जुड़ते हैं

परन्तु आज के संन्यासी लोग तरह तरह के लिंग चिन्ह रखते है

  • सन्यासीयों में भी ढेर सारा भेद भाव होता है
  • परन्तु अवधूत या परमहंस स्तर के संत लिंग चिन्ह नहीं रखते है

सात चक्रों की भाति शरीर में अन्य भी कितने शक्ति स्त्रोत्र है, इन्हें ग्रथि उपत्तिका आदि भी कहते हैं, यहा उपत्तिकाओं को शक्ति स्त्रोत्र कहा गया है परन्तु उपवास के माध्यम से उपत्तिकाओं का शोधन होता है, क्या ऐसा मान सकते है कि उपत्तिकाए भी शक्ति स्रोत है परन्तु जब उनमें Toxine जमा है तब वो बंधन कारी है

  • जब कण कण में ईश्वर है तो यहा कुछ भी बंधनकारी नहीं है, यहा सब कुछ कल्याणकारी है, हर कोशिका ईश्वर का घर है, हमें यह अनुभव में नहीं आ रहा है
  • अचिन्तय चिंतन व अयोग्य आचरण उपत्तिकाओं की विकृति का कारण है
  • विचार ही चिंतन है, प्रत्येक Body cell का Nucleus उसका Mind है तथा Brain से Nerve fiber हर Body cell में जाते हैं, दूसरा मूलाधार से प्राण रूपी Electric Current निकलकर सभी Body cell में गया है – जहा नकारात्मक सोच रहे है वहा पर भी Short Circuit हो जाता है
  • गलत सोच रहे है वो भी बंधन कारी है

क्या हम कह सकते है कि ग्रंथि व उपतिकाए हमारे लिए Useful है परन्तु हमारे ही गलत विचार से वह बंधनकारी बन जाता है

  • उपत्तिकाएं निहारिकाओं से संबंध रखती है, प्राण शक्ति का आदान-प्रदान भी करती है

भेद का अर्थ छेदना नहीं अपितु जागरण है, क्या इस प्रकार ग्रथ्रि गांठ भी है तथा जागरण होने पर शिव शक्ति मिलन का काम करेगी

  • ग्रंथि का अर्थ युग्म भी है
  • जैसे प्रयागराज को गंगा यमुना सरस्वती का ग्रंथि कह सकते है
  • दोनो की आत्मा के साथ एकत्व होना जैसे आत्मा परमात्मा को ग्रंथि बंधन करे तो योग कहलाएगा
  • एकत्व अद्वैत को ग्रंथि कहते है, ग्रंथि में दो छोर जुड़ते हैं
  • ग्रंथि भेदन / जागरण का अर्थ यही है कि यदि बह्मग्रथि (ज्ञान) कमजोर है तो उसे बढ़ाया गए, ज्ञान उद्दण्ड है तो ज्ञान को विनम्र करे, दोनो ही अवस्था द्यातक है

ग्रंथि व उपत्तिकाओ में क्या संबंध है

  • जैसा बडा स्टेशन छोटा स्टेशन होता है, उसी के समकक्ष ये दोनो भी है
  • बडा वाला = Head Office = ग्रंथियां = Ganglions
  • छोटा वाला = Branch Office = उपत्तिकाएं = Nerve
  • इनसे भी बडा Head Office रीढ की हड्डी में है जहा सभी चक्र उपचक्र है
  • उपत्तिकाएं हमारे भीतर चमक उत्पन्न करती है

उपत्तिकाओं के संबंध में अधिक जानकारी कहा मिल सकती है

  • सभी उपनिषद्,वांग्मय 13, वांग्मय15  तंत्र महाविज्ञान
  • 108 शक्ति क्रेंद्र = 108 मर्म बिंदु = 96 उपत्तिकाएं + 9 चक्र + 3 ग्रंथियां
  • ये सभी भीतर के चक्रवात है, जो हमारे भीतर प्राण शक्ति को बाहर से खीचते रहते है तथा कचरो को शरीर से बाहर निकालते रहते है
  • बाहर पैदा होने वाला चक्रवात हानिकारक है परन्तु हमारे भीतर पैदा होने वाले ये चक्रवात Dual Nature का होता है, जो बाहर से लाभदायक को भीतर लाएगा तथा भीतर के Toxines को बाहर भी फैकता है
  • उपत्तिकाए स्थूल शरीर से सूक्ष्म शरीर को बांधे रहती है, मृत्यु के समय में ये गांठे खुलती है तथा ये गांठे सूक्ष्म के साथ चली जाएंगी
  • स्थूल शरीर के साथ यदि हम सपने में कही टहलने गए तो उपत्तिकाएं ही है जो हमें उस शरीर से जोडे रहती है
  • उपत्तिकाएं -> स्थूल सूक्ष्म कारण तीनो तरह की होती है

सूक्ष्म शरीर के 5 कोश व उनका विवेचन मे समष्टि व व्यष्टि का क्या अर्थ है

  • व्यष्टि = साधक का शरीर
  • समष्टि = सम्पूर्ण ब्रह्मांड

योग वशिष्ठ में आया है कि वैराग्य रहित असत्त शिष्य को जो कुछ भी उपदेश दिया जाता है वह कुत्ते के चमडे से बने पात्र में रखे हुए गाय के दुधवत अपवित्र हो जाता है, इसका क्या अर्थ है कि यदि वैराग्य नही है तो क्या ज्ञान लेना व देना नहीं चाहिए

  • वैराग्य रहित व्यक्ति को आत्मज्ञान की बात रहेंगे तो उसे समझ में नहीं आएगा
  • गाय के दुध को कुत्ते के चमडे में रखकर दुषित करके नही पिया जाता, धारोषण दुध और भी अधिक अच्छा है
  • कुत्ते का चमड़ा यहा पर वैराग्य रहित शिष्य के लिए आया है
  • जिसे मनन चिंतन से ज्ञान नही हुआ है उसे शिष्य नही कहते हैं
  • संसार फायदेमंद नहीं है, सब स्वार्थ परक है तो सत्य क्या है, उसे जानने का जूनून चाहिए
  • जूनून परम स्तर का हो तब शिष्य कहलाएगा
  • अथातो की स्थिति नहीं आई है इसलिए ज्ञान विज्ञान भी बेकार जा रहा है, ज्ञान पाने के लिए शिष्य को समितपाणी होना चाहिए

क्या यज्ञोपवित का कम्र उपत्तिकाओं के स्वरूप में ही होता है जहा 96 फेरे होते हैं, 9 लड़ें व 3 गांठे होती है, उसी की अनुशासन की प्रक्रिया में क्या यज्ञोपवीत दिया जाता है

  • आदमी के शरीर में यत बह्माण्डे तत् पिण्डे -> प्रत्येक व्यक्ति का शरीर 96 अंगुल का होता है
  • इस शरीर के रोम रोम में ब्रह्म की तेजी को भरना है, कण कण में ओजस तेजस वर्चस से भरना है
  • 96 अंगुल के शरीर में बह्म से ओत प्रोत कर डाले
  • पूरे Universe में व्याप्त हम अपनी चेतना को समस्त रूप देखे व जाने
  • ईश्वर सर्वव्यापी है, तो हमें भी One Way नहीं होना चाहिए, हमें भी समग्र दृष्टि रखनी चाहिए तथा समग्रता को लेकर चले

योग वशिष्ठ या गुरुदेव के कौन कौन सी Book पढ़े ताकि हम समाज निर्माण का कार्य कर पाए

  • सारे वांग्मय का उदगम उपनिषद् से है, जिसे वेदान्त कहा गया, वह जरूर पढना चाहिए
  • वेद पढ़ लिए तो कितने ही वांग्मय हम स्वयं भी लिख सकते हैं
  • वांग्मय 13 = तैतरीयोपनिषद से लिया गया है
  • पैगलोपनिषद् में पंचकोशों की जानकारी है
  • अर्थववेद में अष्ट चक्र व नौ द्वारो का वर्णन मिलता है
  • हमें सीधा Text Book पढ़ना चाहिए

क्या मनुष्य को छोड कर प्राकृति के सारे प्राणि ईश्वर के अनुशासन का पालन करते है कृपया प्रकाश डाला जाय

  • ईश्वर के अनुशासन का पालन करना अलग है, ईश्वर ने हम सभी को छूट दी है कि वह अपने स्तर का जीवन जी सकता है तथा अपना भाग्य बना सकता है या बिगाड सकता है
  • प्रेय या श्रेय कार्य के अनुरूप मार्ग चयन कर सकता है
  • वह सभी के हृदयों में है तथा वह अकर्ता है, वह हमेशा साक्षी चैतन्य में रहता है
  • किसी भी जीव में दो पक्षी एक साथ एक ही शरीर में रह रहे हैं

मैं सूर्य , गुरु जी, वंदनीय माता जी एवं गायत्री माता जी का ध्यान करता हूं लेकिन सविता देवता किनको कहा जाता हैं इनका ध्यान लगाने का तात्पर्य क्या है।

  • सविता आत्मा को कहते है
  • गुरु जी का ध्यान लगाते है तो गुरुदेव की आत्मा सविता है
  • हनुमान जी,सीता जी, प्रत्येक की आत्मा सविता ही है
  • सबकी आत्मा को सविता कहा जाता है
  • त्राटक साधना इसलिए भी किया जाता हैकि हम बड़े वस्तु / विषय पर ध्यान करते-करते गहराई तक जाकर उसकी आत्मा को देखे तथा वह आत्मा प्रकाश के रूप में सब जगह है
  • यदि आकृतियो में फंस जाएंगे तो सबमें राम कृष्ण हनुमान में अंतर करेगे तथा वह लाभ नहीं मिलेगा 
  • हमें सब में ईश्वर को देखना है इसीलिए प्रकाश का ध्यान सबसे उत्तम माना गया   🙏

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