पंचकोश जिज्ञासा समाधान (14-10-2024)
आज की कक्षा (14-10-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
श्रीविद्यातारकोपनिषद् में अगस्त ऋषि हयग्रीव जी से पूछते है कि तारक क्या होता है तथा किसको वह तारता है, तब हयग्रीव बोले यह विद्या तारक एक उपासना है इसका पहला खण्ड तार, दीर्घ व प्लुत स्वरूप है तथा इसके बाद दूसरा, तीसरा व चौथा खण्ड लिखा गया, गर्भ, जरा, मरण व भय से वह तारक मंत्र साधक की रक्षा करता है, यह तारक है, यह तारक मंत्र बाह्मण का तारणहार है, का क्या अर्थ है
- भगवान विष्णु का 24 अवतारो में एक अवतार हयग्रीव था
- प्रश्न पूछने पर हयग्रीव ने बताया कि तारक विद्या एक उपासना है, साधना की एक पद्धति है, उसका पहला खण्ड तार, उधर्वगमन, उपर उठने को कहा जाता है, उदान प्राण की भाति
- इससे पूर्व साधना हमारा पतन की ओर जा रहा है तो पहला काम यह है कि U Turn ले, फिर गहरा जाए (फिर दीर्घ जाए) तथा फिर और गहराई में जाए (फिर प्लुत जाए)
- पहले स्थूल शरीर फिर सूक्ष्म शरीर तथा फिर कारण शरीर में प्रवेश करे, इस प्रकार हमें साधना के अन्तराल में गहराई तक जाए
- यहा उपासना का एक तरीका बताया जा रहा है तथा इसी प्रकार सातो शरीरो में जाने की बात यहा की गई है
- यहा प्रणव को तारक मंत्र कहा जा रहा है
- ॐ सोहम् साधना है, प्रकृति के अन्तिम छोर तक ॐ ही हमें ले जाता है, ॐ से बह्म की यात्रा शुरू हो जाती है, ॐ तारक मंत्र है, ईश्वर को किस नाम से याद करे -> यही ॐ ही ईश्वर का स्वयंघोषित नाम है
- ॐ शब्द भी है और एक ही अक्षर भी है , एक ही अक्षर में उच्चारण करना है, अ उ म नहीं बोल सकते, एक ही अक्षर ॐ बोलना होगा
- पूरा ब्रह्माण्ड ही ॐ है
- हयग्रीव ने बताया कि इसी की साधना से संसार के बंधन से छुटकारा मिलेगा
कौशितिकीबाह्मणोपनिषद् में आया है कि वहा पर एक सभा मण्डप है, उसका नाम . . . है, सभामंडल के मध्य भाग में स्थित एक वेदि है जो विचक्षणा के नाम से प्रख्यात है, विशेष लक्षणो से युक्त है जो अपरिमित बल से सम्पन्न है, ऐसा वह अमृतोजस्य प्राण ही बह्मा का सिंहासन है, का क्या अर्थ है
- यहा केवल प्राण ही मुख्य है तथा ये जो नामकरण यहा पर आए है तो वे ऋषि उन दिनों उस युग में जो शब्द प्रचलित रहते थे, वही यहा कहे गए
- मेरूदण्ड मार्ग ही देवयान मार्ग है
- जो भीतर है वही बाहर है व जो बाहर है वही भीतर भी है, सभी जगह चुम्बकीय धाराएं है
- पृथ्वी जल अग्नि वायु और आकाश से भी उपर कुछ तत्व घुले हुए हैं तथा वे नहीं दिखने वाले भी है, आकाश की तरह
- सारा ज्ञान विज्ञान इसे (ईश्वर को) जानने में झोक दिजीए
- मूर्तियो से बोलने की अलग भाषा होती है, वह इंसान की तरह बोलती नही परन्तु वह मन ही मन बोल देता है
- भक्त समझ जाता है /सुन लेता कि मूर्ति क्या बोल रहा है
- अपनी भावनाओं के अनुरूप ही बोलने का तरीका होना चाहिए
- Brain में ही समुद्र है दाया वाला मीठा है बाया वाला खारा है -> ऋषियों ने शरीर में ही घुसकर इसका पता लगाया
- अभी के समय में हमें वैज्ञानिक ढंग से इसे पढते है
सन्यासोपनिषद् में आया है कि अवधूत नामक सन्यासी किसी भी प्रकार का नियम नही मानता, पतित व निन्दित सभी जातियों से आहार प्राप्त करने वाला होता है, यहा किसके बारे में पतित व निन्दित कहा जा रहा है
- जिस खान पान से पहले शरीर खराब होता था तो वह खान पान नही लेता है
- घृणा के भाव से नही अपितु हमारे शरीर को जो Suit नही करता वह भोजन नही लेता
- शरीर स्वास्थ्य को खराब कर देता है तथा आगे साधना में भी रुकावट करेगा वह भोजन निन्दनीय है
- जिनके प्रति श्रद्धा भाव है उनके प्रति अच्छा सोचे तभी उनके सानिध्य का लाभ ले पाएंगे
जिसने चित्त में चित्त को संयुक्त कर किया का क्या अर्थ है
- दो चित्त की बात यहा की गई है
- व्यष्टि मन / चित्त को समष्टि मन / चित्त में मिला देना
निर्यत का क्या अर्थ है
- निरन्तर उसमें लगे रहना
आत्मदर्शन की अनुभूति किसको होती है मन या आत्मा को कृपया प्रकाश डाला जाय
- अनुभूति आत्मा को ही होती है तथा आत्मा को यहां जीवात्मा कहा गया है
- जीवात्मा को ही अनुभूति होती है मन के माध्यम से ही वह अनुभूति करता है
- दो पक्षी एक ही वृक्ष पर मित्र भाव से रह रहे हैं
- एक पक्षी स्वाद लेता है दूसरा साक्षी चैतन्य भाव में सब देखता रहता है
- इसलिए कहा जाता है की अज्ञान ग्रंथियां का नष्ट हो जाना ही मोक्ष है
- जब पहला पक्षी सब तरह के अनुभव ले लेगा तो वह भी अब साक्षी भाव में देखता है
जो ग्रह दोष को शांत करने के लिए ज्योतिषि के पास जाते है तथा उन ज्योतिषयों के बताए मार्ग पर चलकर ग्रह दोष शांत होता है परन्तु कर्म फल के अनुरूप फल मिलना तो तय है तो क्या हम अपना फल बदलकर आत्म साक्षात्कार में स्वंय ही रूकावट बन रहे हैं
- ग्रह दोष शान्त कराने वाला भी ईश्वर है तथा करने वाला भी ईश्वर है
- इसमें कोई न कोई विज्ञान अवश्य काम कर रहा होगा
- ग्रहो का प्रभाव मन तक पडता है इसके आगे जाते ही नहीं, इसलिए कर्मो का फल तो आएगा परन्तु मन के आगे कर्म फल नही जाएंगा
- यदि वह ऐसा सोच ले कि यह शरीर मेरा नहीं है तो प्रारब्ध की पहुंच समाप्त हो जाती है
- कर्मफल की व्यवस्था को ज्ञान के माध्यम से ही काटा जा सकता है तथा यदि स्पर्श तन्मात्रा की साधना कर ले तो शरीर के कष्टो से परे हो जाएंगा जैसे भीष्म पितामह
- शरीर के कष्ट होते हुए भी वह हसता मुस्कुराता रहेगा
- इन्द्र ने एक बार अश्वनि कुमारो को इन्द्रलोक से खदेड दिया तथा कहा कि हम सजा देते है और तुम ठीक कर देते हो परन्तु डाक्टर का यह कर्तव्य है तथा इस आधार पर उसे दंड नही दिया जा सकता
- चिकित्सक को निष्काम भाव से कर्म करना चाहिए
- ग्रह दोष दूर करने में आत्मसाक्षात्कार रुकावट नही बनता
- दुख व कष्ट आत्म साक्षात्कार में मदद करते हैं
- अपने श्राप को ही वरदान बना ले
बाह्य त्याग तामसिक कैसे होत है
- तामसिक का अर्थ है कि वह आपके लिए फायदेमंद नही है
- बाहर से छोड दिया है परन्तु मन से चिपकाव बना हुआ है तो वह हमारे भीतर रोग उत्पन्न करेगा इसलिए मन वाले त्याग को असली त्याग कहा है मन से चिपकाव किसी का भी न हो
- मन के भीतर दबी पड़ी शक्ति को हटाना जरुरी है, मन के भीतर वाले त्याग को असली कहा है
- धीरे धीरे
- ज्ञान के माध्यम से एक बार में ही permanent छूटता है और पहली बार मे ही छूट जाता है
- थोडी बहुत भी ललक है तो उसका अर्थ है कि अपनी इच्छा से नही छोडा है तथा उस ज्ञान को थोडा Repeat भी करना है तभी वैराग्य भाव आएगा
कर्मफल मिलना जब निश्चित है , तो पंचकोशिय या कुंडलिनी साधना से कर्म फल भस्म कैसे हो जाता है
- कर्म फल मिलने का अर्थ यह कि कर्म फल मजा देगा तथा दुख भी नही देगा
- कर्म फल आपको सदैव सुख भी दे सकता है
- जब कष्ट भी वरदान बन जाता है तो कहते हे कि कर्म फल भस्म हो गया
- क्रिया की प्रतिक्रिया तो हुई परन्तु अब यह केवल फायदेमंद ही होगा तथा कर्मफल से मुक्त भी रहेगा
किसी भी शुभ कार्य में काला रंग का उपयोग क्यों नहीं किया जाता है
- काले रंग का उपयोग किया जाता है
- विवाह से पूर्व दुल्हे के बाल काले किया जाता है तथा काला काजल भी बच्चो को लगाया जाता है 🙏
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