पंचकोश जिज्ञासा समाधान (13-11-2024)
आज की कक्षा (13-11-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
सुन्दरीतापिन्युपनिषद् में आया है कि त्रिपुरेश्वेरी विद्या का स्पष्ट उच्चारण करके
जातवेदसे इत्यादि ऋचा का उच्चारण करे का क्या अर्थ है
- जातवेदा = अग्नितत्व का नान है, वह अग्नि सभी पदार्थो के भीतर विद्यमान है, पदार्थ के भीतर जो उर्जा के रूप में विद्यमान है वही जातवेदा है
- समिधा में लकडी में से अग्नि निकलने लगी तो वास्तव में वह अग्नि थी
- जो अग्नि पदार्थ का रूप ले ली है, जातवेदा है
अर्थववेद के पितृमेध सुक्त 2 में आया है कि हे मृत मनुष्य ! आपके प्राण व नेत्र वायु और सुर्य से संयुक्त हो, आप अपने पुण्य कर्मों के फल की प्राप्ति के ‘लिए स्वर्ग, पृथ्वी अथवा जल में निवास करें, यदि वृक्ष – वनस्पतियों में आपका कल्याण निहित है तो सूक्ष्म शरीर सै आप उन्ही में प्रवेश करें, का क्या अर्थ है
- जितने भी जीव जन्तु जो जलीय है, जैसे मछली, केकडा . . . जिन्हे टांग खीचने का स्वभाव था उनके लिए केकड़ा योनि suitable हो सकती है
- अपनी कामना व इच्छा के आधार पर उनके लिए ईश्वर ने जीवो का वैसा शरीर बनाया है
- यह केवल पाप पुण्य के फल के अनुरूप ही नहीं होगा अपितु यदि हमें किसी जीव योनि के प्रति मोह उत्पन्न हो गया तो वह मोह उस योनि में अगले जन्म में जाने का कारण बनेगा जैसे जड़ भरत मृग योनि में चले गए थे
- मोहात्मक संबंध वाले भी प्रेत योनि में जाते है
- लोभ मोह अंहकार को हटाना जरूरी है
- वृक्ष वनस्पति या अन्य किसी भी योनि में अपने कर्म फल के आधार पर जा सकता है तथा उसमें सूक्ष्म शरीर से प्रवेश करेगा
- सूक्ष्म शरीर से प्रवेश करने का अर्थ है कि एक Resultant आत्मा के रूप में वहा जाएं
- हर Body cell एक आत्मा है तथा आत्मा के समूह का एक बह्माण्ड मिल गया तथा उस बह्माण्ड में अपना शासन करेंगे, यह भी जीव सत्ता के रूप में बड़ी प्रगति है
- गाँव में मुखिया या शासक के रूप में प्रगृति मिलती है
- बढ़िया काम करेे तो अपने अपने प्रेम स्नेह के स्तर के अनुरूप व अपनी कामनाओं व इच्छाओं के आधार पर अगला योनि मिलता है
आत्मभाव में कैसे रहा जाए तथा आत्मभाव में रहने पर क्या लाभ मिलता है
- आत्मभाव में रहेगा तो व्यक्ति शांतिमय व आनन्दमय अवस्था में रहेगा तथा उसका चंचल व क्रोधी मन नहीं रहेगा, आत्मा के गुणों का प्रकाश उसमें रहेगा तथा वह हर हाल मस्त रहेगा, वह हर हाल मस्ती व आनन्द की स्थिति में रहेगा क्योंकि आत्मा का गुण शांतिमय व आनन्दमय
- संसार में कैसे भी थपेडे (रुप रस गंध शब्द स्पर्श रूप में) आएगें, वह हर परिस्थिति में आनन्द लेगा तथा कही लिप्त नहीं होगा
- आत्म भाव में नहीं रहेंगे तो किसी एक का पक्ष लेने लगेंगे, एक पक्ष अच्छा लगेगा तो दूसरा पक्ष बुरा लगेगा जैसे आस्तिक अच्छे लगेंगे, नास्तिक अच्छे नही लगेंगे
- आत्मभाव में रहने वाले को सब दुराचारी सदाचारी भी अच्छे लगेगे
- उस आनन्द को बोला नहीं जा सकता कि आत्म साक्षात्कार किया व्यक्ति कैसा अनुभव करता है, इसी को परमपद कहते है
पुन:सवन शब्द का शाब्दिक अर्थ क्या होगा
- सवन = सेना (गर्भ में सेना)
- सवन से सविता नाम इसलिए पड गया कि सवित ने संसार को उत्पन्न करना व अपने गर्भ में सेने का कार्य भी किया
- सेने की प्रक्रिया अपने गर्भ में की जा रही है
- महान आत्माएं जब आती है तो अनेक पितरो को तारती है, ऐसी महान आत्माओं का हम अपने अतिथी के रूप में सेने का कार्य कर रहे है, अपनी जिम्मेदारी है कि उस शिशु के पांचो कोश मजबूत करे तथा उसे सेहने की प्रक्रिया में कोई कमी न हो
- इसी के लिए सवन शब्द का प्रयोग किया है
महः – जनः – तपः – सत्यम में महः शब्द का क्या अर्थ है
- यह चेतना के लोक (Frequency) है, उस लोक की आभा कितनी सौम्य व तेजस्वी है
- हमारी चेतना यदि
- पदार्थ जगत में लिप्त है = भूलोक
- विचार जगत में लिप्त है = भुवः लोक
- भावताओ से प्रभावित/लिप्त है = स्वः लोक
- मान्यतायों ( अपने को पशु पक्षी शिव जीव क्या मानते है) में जी रहे है तो यह महः लोक कहा जाता है
- आत्मभाव में रहने वाले जनः लोक में आएंगे
आत्मा मानते है तो इसका विस्तार करके हमें स्वयं को सारे संसार की आत्मा मानना होगा तब हम जनः लोक में आएंगे
इसके उपर मुक्त योनि वाले जिन्होंने अपने को अधिक तपाया है वे उपर के दो लोक तपः व सत्यम में आएंगे
- इसी प्रकार कमशः चेतनात्मक स्थिति का उन्नयन हो रहा है तथा अन्तिम में आने पर सारी मान्यताएं ध्वस्त हो जाएगी तथा अन्त में 7वे लोक को Bodyless Body कहेंगे, यहा पर भी Ego कभी खत्म नहीं होता अपितु यहा पर Ego अपने शुद्धतम अवस्था में रहेगा यही आत्बोधत्व की अवस्था है
जाबालोपनिषद् में आया है कि जप करने से अमृतत्व प्राप्त किया जा सकता है तो किसका जप करने से अमृतत्व प्राप्त किया जा सकता है फिर उत्तर मिलता है कि शतरूद्रीय जप करने से अमृतत्व की प्राप्ति होती है, यह क्या है
- परबह्म परमात्मा का एक नाम रुद्र है, उनके विभिन्न स्वरूपों जैसे गायंत्री मंत्र के प्रत्येक स्वरूप शतरुद्री में आएंगे
- मंत्र जप करते समय समस्त लोको में संव्याप्त चेतना का ध्यान करना होगा एकांगी नहीं तथा भर्गो में = सभी देवताओं के दिव्य तेज का ध्यान करना होगा
- शतरुद्री में यर्जुवेद के 16वे अध्याय के सभी 60 + मंत्र उसमें लिए गए हैं
- 100 में से 60 से अधिक एक ही अध्याय के हो गए
- जिन में सर्वव्यापकता का बोध होता है ऐसे मंत्रो को उनमें लिया गया है
- शत = पूरे सहस्तार चक्र के / Brain के सभी Neuron उसे Accept करने लगे तब तक जप करते रहें
संन्यास का त्याग कैसे लिया जाए, फिर उत्तर मिलता है कि चौथे आश्रम में संन्यास लिया जाता है परन्तु यदि कोई इच्छुक है . . तो वह संन्यास किसी भी अवस्था में ले सकता है, कुछ लोग प्रजापत्य इष्टि करते है, यह क्या है
- जो हम कर्म काण्ड के रूप में करते है = यही प्रजापत्य है जिसमे साधन सामग्री की आवश्यकता है
- वही इसका दूसरा स्वरूप ध्यानात्मक है, वह किसी साधन पर निर्भर नहीं है, इसमे यज्ञ के लिए प्रेम को ही घी माने तथा पांच कोश ही पांच कुण्ड है, इसमें दबी हुई अग्निया ही यज्ञाग्नि है, अपनी अग्नि को जलाए तथा कुण्डलिनी जागरण वाला यज्ञ करे
केनोपनिषद् में आया है कि जो यह मानता है कि बह्म जानने में नहीं आता, वह बह्म को जानता है एवं जो यह जानता है कि मै बह्म को जानता हूँ वह उसे नहीं जानता क्योंकि जानने का अभिमान करने वालो के लिए वह बह्म जानने वाला नहीं है तथा जानने के अभिमान से रहित पुरुष के लिए वह जाना हुआ है, का क्या अर्थ है, क्या जो प्रयासरत है उसे परमात्मा नहीं मिलेगा
- यहा प्रयास शब्द का उपयोग नही किया, यहा यह बताया गया है कि जिसने अपनी मान्यता बना लिया कि मैने उस परमात्मा को जान लिया तो उसने नहीं जाना
- यह उपनिषद् का भी कहना है कि जिसका कोई अंत नहीं है उसे हम कैसे जान सकते हैं
- वह किसी जीव (बह्मा – विष्णु – महेश) के द्वारा नही जाना जा सकता, जानने की प्रक्रिया में जीव भाव समाप्त हो जाता है
- जो यह जानता है कि वह Infinite है, इसका अर्थ यह है कि वह अवश्य ही उसके बारे में कुछ ना कुछ तो जान ही गया है, वह इतना तो जान गया है कि उसे नहीं जाना जा सकता -> यही कहा जाएगा कि इसने सही जाना है
- जो यह कहता कि मैने जान लिया तो इसका अर्थ है कि किसी और चीज को कह रहा है कि मैने जान लिया तो यहा जाना तो उसने भी कुछ न कुछ अवश्य है लेकिन जिसे जाना है वह बह्म नहीं है
क्या बह्मा विष्णु महेश को भी इसकी जानकारी नहीं होती
- हम रोज थाली लेकर आरती करते हैं तो उसमें उपयोग किए शब्दो के अर्थ भी समझना चाहिए
- जिसके अन्त को देवता व असुरो द्वारा नहीं जाना जा सकता -> यहा तक के लोग भी पुनरावर्तती है
- सभी देव (बह्मा – विष्णु – महेश) जीव है, शरीर व आयु भर का अन्तर है, परन्तु सब जीव है, क्योंकि यदि जीव नहीं होते तो वह ध्यान क्यों लगाते, ध्यान लगा रहे हैं तो इसका अर्थ यह है कि वे अपना संबंध पूर्णता के साथ जोड़ रहे हैं
- जैसे विष्णु जी लेटकर, रुद्र/ शिव तांडव नृत्य करके तथा बह्मा जी बैठकर ध्यान लगा रहे है
- सब ध्यान कर रहे है
- हमें इनसे भी उपर छलाग लगानी है
महोपनिषद् में आया है कि विदेहमुक्ति, गभीर एवं विस्तत अवस्था को कहते हैं, विस्तत का क्या अर्थ है
- विस्तत = सर्वव्यापता की स्थिति आ गई, अब दौड़ने के लिए कोई जगह ही नहीं बचा तो कहां जाएंगे, जब सब जगह पैर पसार लिए तो अब शांत अवस्था है
- ईश्वर इसलिए शांताकारम है, उसे दौडने की आवश्यकता नहीं क्योंकि वह एक जगह रहते हुए सब जगह रहता है, दौड़ने की आवश्यकता उसे है जो यहां है और वहां नहीं है
- ईश्वर सर्वव्यापी है तो हमें भी अपना चिंतन सर्वव्यापी रखना होगा, एकांगी नही
- इसलिए कहा जाता है की ईडा भी बंधनकारी है और पिंगला भी बंधनकारी है, हमें सुष्मना में रहना है = सम्यक दृष्टि सम्यक भाव सम्यक विचार में रहना है
- हमें भी व्यापकता को सब जगह रखना होगा तो अपनी चेतना (मन बुद्धि प्राण आत्मा) को सब जगह ले जाए
- पूरा आकाश ही हमारा शरीर है, इस भाव अवस्था को विस्वत अवस्था कहते हैं
प्रज्ञोपनिषद् में लिखा है जो कार्य बुद्धावतार के दिनों में अधूरा रह गया था वह निष्कलंक प्रज्ञा अवतार द्वारा पूरा होगा कृपया प्रकाश डाला जाय
- जो कार्य अधूरा रह गया था तथा जिन जिन मोर्चो पर बुद्ध को पंडितो से हारना पड़ा, वे पंडित शास्त्र के नाम पर पशु बलि कर रहे थे तथा कहा कि यह हमारे शास्त्रों में लिखा है
- उस समय बुद्ध वेद / शास्त्र नहीं पढ़े थे इसलिए उन्हे शास्त्रीय ढंग से जवाब नही दे पाए
- पूज्य गुरुदेव ने सभी वेदों का गहराई से अध्यन किया तथा उन पड़ितो की बातो को वेद से ही काट दिया
- उन्होंने काम क्रोध लोभ मोह को पशु कहा तथा कहा कि ये जिनके शरीर में है वे सब पशु है, इसका बलि दिया जाए, यह बात बताई
- पंडितो का व्यासपीठ पर एकाधिकार था
- इन्होंने प्रज्ञावतार में कहा कि जन्म से कोई पंडित नहीं है, उसका संबंध जन्म से ना जोडा जाए, यह केवल प्रज्ञोपनिषद् में ही मिलता है
- बुद्ध विज्ञान व आध्यात्म को नहीं जोड पाए थे तो आज के वैज्ञानिक युग में उन्होने कहा कि हम बुद्ध के उतरार्ध है
- बौधिक / नैतिक / सामाजिक क्रांति लेकर आए
- यज्ञ विज्ञान को घर घर पहुंचाए
- ये 20 कला के अवतार थे तो 4 नई कला लेकर आएँ
- पूरी 24 कलाओं के रूप में आध्यात्म को पूर्णता प्रदान किया
जाति शब्द का उपयोग प्रज्ञोपनिषद् के अलावा एक अन्य उपनिषद् में भी आया है
- बाह्मण की जाति का वज्रसूचिकोपनिषद् में आया है परन्तु ऐसा कोई श्लोक नहीं मिल पा रहा था जहा जन्म से ही बाह्मण ना माना जा रहा हो, बह्माण एक विभूति है
- यदि जन्म से पंडित है तो फिर संस्कार क्यों, इसका अर्थ यह है कि अभी संस्कारित करना बाकी है
- बाह्मण का जन्म मुंह से होने का अर्थ अंतकारिक है तथा बाह्मण बुद्धिजीवी समाज का इंजन होता है, इतना भर कहना है
- प्रजोपनिषद् का दिया कोई भी श्लोक किसी भी शास्त्र में कहीं नहीं मिलता, इसका अर्थ कि यह महाकाल का अवतरण प्रक्रिया है
महात्मा बुद्ध को अवतार मानते है तो अवतार तो हार नही सकता तो बुद्ध अवतार रूप में कैसे हार गए
- उस समय बुद्ध में कमी नही थी तथा वे अपना काम करके निकल गए
- आज के समय में
- राम जी का अवतार था तो कृष्ण को क्यों आना पड़ा क्योंकि राम जी समझाना चाहते थे कुछ लोग समझ गए कुछ तथा करने लगे कुछ का कुछ
- इसलिए नए अवतार को आना पड़ता है
- संसार की कोई भी प्रक्रिया कुछ काल के बाद पुरानी हो जाती है तथा उनका समाधान नई अवतार प्रक्रिया में लेना पडता है
- अवतार कोई व्यक्ति नहीं होता अपितु अंतरिक्ष में दौड रहा चेतना का एक प्रवाह होता है जो उस समय के अनुरूप तेजस्वी मनुष्यों को माध्यम भर बनाता है
- बुद्धावतार के समय में बुद्ध को माध्यम बना लिया, कृष्णावतार के समय में कृष्ण को माध्यम बना लिया
- इन्हे ईश्वर मान लेगे तो ईश्वर तो मरता नहीं परन्तु ये सभी मरें परन्तु ईश्वर मर गए ऐसा नही कह सकते
- अवतरण प्रक्रिया में उसे चुंबकीय प्रवाह का अवतरण इस इस महान सत्ता में हुआ क्योंकि इन्होंने अपनी पात्रता का विकास किया था
- हम सभी अपनी पात्रता के अनुरूप अवतार ही है कोई 0 watt, 1 watt , 1000 watt का अपनी क्षमता के अनुसार है परन्तु सब अवतार ही है 🙏
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