पंचकोश जिज्ञासा समाधान (13-08-2024)
आज की कक्षा (13-08-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
योगशिखोपनिषद् में ग्रसित कर देता है तथा सभी दोष उत्पन्न हो जाते है, जब क्षेत्रज्ञ और परमात्मा एक होता है तब साधना के द्वारा उस बह्म में चित्त विलीन हो जाता है, तब ऐसी एकीकरण से प्राण की स्थिरता को प्राप्त हो जाने पर लययोग की प्राप्ति हो जाती है, योग के मध्य महाक्षेत्रज्ञ बंधुक नामक वृक्ष के नजदीक जप करते हुए आत्मा में ही रज का निवास रहता है वह देवी तत्व के चारो ओर आवृत रहता है, वह रज तथा वीर्य का योग ही राजयोग कहलाता है, का क्या अर्थ है
- बंधुक एक ऐसा पौधा होता है जिसमें लाल बीज होते है जावित्री जैसे बीज, यहा बताया है कि यदि हम मूलाधार चक्र में ध्यान करें तो वहा उर्जा का केंद्र है, इसलिए वहा रज शब्द कहा जाता है
- मूलाधार चक्र उर्जा के केन्द्र में ध्यान करने को कहा है तथा उस उर्जा को लेकर जब सहस्तार चक्र में पहुंचते है तो रज और वीर्य का मिलन होता है
- यहा चेतना को वीर्य व उर्जा को रज कहा गया है
- यही जीवात्मा परमात्मा का मिलन कहा जाता है
- शिव व शक्ति का मिलन भी यही है
- योगचूडामणी उपनिषद् में आज्ञा चक्र में सुर्य व सहस्तार चक्र में चंद्रमा कहा गया
- नाभी चक्र में मूलाधार है, दोनो के आज्ञा चक्र में मिलने से परमपद की प्राप्ति होती है
- अपनी उर्जा के घनीभूत स्वरूप को शिव में मिलाएं / अपनी शक्तियों का Good Use करते हुए उसे आत्मिक विकास में लगाएं
जब प्राणाकर्षण करते है तो सास खीचने में बार बार टूट जाता है और जब रेचक करते है तो पूरा खाली हो जाता है तो सास यदि बीच में टूट टूट जाता है तो क्या करे
- जब रेचक करते है तो पूरा खाली करके उस समय महाबंध लगाएं
- महाबंध से चक्रो के Toxine गलता है / खत्म होता है, शरीर हल्का होता है व चित्त शुद्ध होता है
- फिर भावना करें कि हम डिवाइन एनर्जी को अपने भीतर भर रहे हैं भीतर भरकर फिर रुके तथा भावना करे कि खीची उर्जा शरीर की प्रत्येक कोशिका में स्थाई रूप से Store / भरा जा रहा है
- उर्जा से भरकर स्वयं को चमकीला महसूस करे तथा ज्ञान भी विकसित हो रहा है तथा आत्मा भी पवित्र हो रही है, इस तरह से भाव करेगे तो शरीर में प्राण भरता जाएगा
अर्थववेद के 18वे अध्याय के पितृमेध सुक्त में आया है कि हे प्रेतपुरुष दहन से उत्पन्न तुम्हारी जलन को यहा कुहरा शांत करे, धीरे धीरे बरसते हुए बादल तुम्हे सुख प्रदान करे, यदि प्रेत का स्थूल शरीर नहीं होता तो देह से उत्पन्न होने वाली जलन को शांत कैसे किया जा सकता है
- सुक्त के अनुसार अर्थ लिए जाते है, यहा पितरो से बातचीत के विषय में आया है
- जलन -> जिनकी वासना तृष्णा शान्त नही होती वही प्रेत योनि में जाते है तथा जिन्हे हाह है उससे उन्हे जलन होता है और पापकर्म भी जलन पैदा करते है तो प्रायश्चित का जलन भी होता है तथा फिर छटपटाहट व बेचैनी भी होती है
- यहा देव यज्ञ / बह्म यज्ञ करके उसकी आभा से उस जलन को शान्त करने की बात यहा की जा रही है, यह उसे आध्यात्मिक उर्जा देता है तथा फिर यह उस गंध को खाता है, उसकी इंद्रियों में ग्रहण की शक्ति होती है तो वह शरीर छोड़ने के बाद भी काम करती है, स्थूल रूप से उसकी इंद्रियां शान्त नही हुई रहती है, इसलिए विशेष औषधियो से हवन किया जाता है
मण्डूपर्णी औषधि क्या है
- मण्डूपर्णी = ब्राह्मी औषधि की प्रजाति होती है, Mind को cool करता है (दिमाग को शीतल रखता है) तथा थोडे गर्म इलाको में भी हो जाता है, प्रजाकुंज में भी मण्डूपर्णी है
श्राद्ध तर्पण में जौ के लडडू व तिल ही क्यो लिया जाता है जबकी अन्य अन्न भी विद्यमान है
- गरुड पुराण में विष्णु का कहना कि जौ व तिल हमारे शरीर से उत्पन्न हुआ इसलिए बहुत ही सात्विक है तथा आत्मा को प्रसन्न करने वाला है
- यह औषधि रूप में भी दिव्यता प्रदान करता है, इसमें प्राण की मात्रा अधिक रहती है, हवन में भी उपयोग होता है, दुर्गा जी भी तिल के तेल के दीपक से अधिक प्रसन्न होती है
चक्रो में 4 दल या 6 दल या 10 दल . . . होते है उसमें विद्यमान अक्षरों का क्या विज्ञान है
- प्रत्येक चक्रो से कुछ विद्युत चुम्बकीय तरंगे निकलती है तो यदि उसे Disc Recorder से सुनेगे तो कुछ कुछ वैसा हीअक्षर सुनाई देगा
- ऐसा ही तरंग उन चक्रो से भी निकलता है
- आकाश में केवल तरंगे ही जाती हैं परंतु रेडियो उन्हें आवाज में बदल देता है
- वैज्ञानिकों ने देखा की तरंगको आवाज में कैसे बदल जाए, उसी के अनुसार तरंगों से भिन्न-भिन्न प्रकार के आवाज निकल जाते हैं
- प्रत्येक चक्रो के अलग-अलग अक्षर होते हैं
- जैसे अनाहात के 12 अक्षरों में कं खं गं. . .आते है
- आज्ञा चक्र के ॐ में 2 अक्षर हं क्षं आते है
- इन सभी को Refraction of Sound भी कहते है, जैसे जैसे ध्वनि घने तत्वों में प्रवेश करती है तो वह Refract हो जाती है / फट जाती है
नारदपरिव्राजकोपनिषद् में सन्यासी के लिए आया है कि ना कभी किसी का आहवाहन करे तथा न कभी विसर्जन, मत्रांदि का न तो पयोग करे और न ही त्याग करे ध्यान एवं उपासना भी न करे तथा न ही उसका कोई लक्ष्य हो न लक्ष्य हीनता हो, का क्या अर्थ है
- देवताओं का आहवाहन किया फिर विसर्जन किया जैसे आकाश देवता है तो उसे बुलाया तथा फिर कहे कि आकाश जाओ तो आकाश कहा से आया व अब कहा जाएगा जो पहले से ही विद्यमान है
- इसी प्रकार देवता भी हर जगह रहता हैयदि यह ज्ञान मिल गया की हर जगह ईश्वर ही ईश्वर है तो किसे बुलाए और किसे जाने को कहे
- वह इसीलिए यह सब करता है क्योंकि इसकी अब जरूरत नहीं रही
- यह ज्ञान (आत्मा का ज्ञान) संन्यासी को मिल गया रहता हे तो आहवान व विसर्जन उसकी जरूरत अब नही रहीं
- ज्ञान पाने के लिए किया जाता है जिसे वह (आत्मा / परमात्मा) मिल जाए तो वह अब किसका ध्यान करेगा
- वह पा लिया है तो ध्यान की कक्षा खत्म माने तथा अब ध्यान की आवश्यकता नहीं रही
- दिन में जाकर जरूरतमंद लोगो को ज्ञान बांटे
- कृष्ण ने भी कहा कि जिसे श्रद्धा मत हो उसे गीता मत सुनाओ, यह आम लोगो के लिए बात आई
- खास लोगो के लिए तो भगवान बने ही है जैसे मीरा, प्रहलाद -> वे खास थे
अर्थवशिरोपनिषद् में कहा गया कि अक्षर से काल की उत्पत्ति होती है तथा काल से वह व्यापक कहलाता है, व्यापक व शोभाएमान रूद्र शयन करने लगता है तब सब प्रजा का संहार हो जाता है, जब रूद्र सांस लेते हैं तब तम उत्पन्न हो जाता है का क्या अर्थ है
- यहा बह्म को रुद्र कहा गया है
- यहां रुद्र का अर्थ प्राण से है जैसे एकादश रूद्र होते हैं = 10 प्राण + 1 आत्मा
- तम = अधेरे में विलीन होना = Kinetic Energy जब शांत हो तो उसे तम कह देते है = हलचल बंद
- रेचक पूरक इसी को कहा जाता है कि सृष्टि का बनना व नष्ट होना, यही ईश्वर का सांस लेना छोडना है, इसमें उर्जा का रूपांतरण भर होता है
गायंत्रीरहस्योपनिषद् में आया है कि अग्नि वायु एवं सुर्य रूपा है . . . ऋक यजु सामवेद स्वरूपा है गायंत्री ब्रह्मा विष्णु एवं शंकर के रूप वाली ईच्छा, ज्ञान एवं क्रियाशक्ति स्वरूपा है, इसके भीतर क्या अर्थ दिया है
- यहां उपनिषद्कार पूरे विश्व को 3 भाग में बाटकर बताना चाह रहे हैं -> त्रिआयामी सृष्टि
- तीन अवस्थाओ में पूरे संसार को बांटा गया है
- कोई ऋषि 5 भाग में तो कोई 16 भाग में बाटकर भी पढ़ा सकते थे
- यहा 3 भाग में सुविधा के लिए पढाया जा रहा है
- गायंत्री ही गायंत्री हर जगह है यानि यहा प्राण के ही सब स्वरूप है, सब उर्जा के ही रूप है
एक श्लोक में आया है कि श्रेष्ठ अक्षरो वाली गायंत्री को यदि विद्वान एक बार भी जपे तो तत्क्षण सिद्धि होती है और वह ब्रह्मा की सायुज्यता को प्राप्त कर लेता है, का क्या अर्थ है
- सायुज्यता = Resonance = तालमेल बैठा लेना = तादात्मयता बैठा लेना = बढिया दोस्ती कर लेना जो किसी भी काल में टूटे नही
- प्रत्येक समय में हम सुख दुख में ईश्वर को छोडे नही, हमेशा ईश्वर को पकड़े रहे
- ईश्वर के गुणो में लयबद्ध हो जाना सायुज्यता है
भारतीय धर्म को क्यों वर्णाश्रम धर्म कहा जाता है
- भारतीय धर्म यह मानता है कि मृत्यु कभी भी आ सकती है, अपने कर्म फल की व्यवस्था में मृत्यु कभी भी आ सकती है
- जीवन के हर उम्र का सदुपयोग कर डाले
- वर्ण = योग्यता , अपनी योग्यता का उपयोग हम आत्मिकी विकास के लिए करें तथा संसार के लिए भी करें, इसे वर्णव्यवस्था रहते है
- आश्रम व्यवस्था = जहा उम्र के उपयोग की बात की जाती है
- हम में से प्रत्येक आत्मिकी विकास को न छोडे
- उन्होंने बुढ़ापे में साधना नही किया तथा student Life से किया जा सकता है
- पढ़ा लिखा या अनपढ़ सब उसे पा सकते है
- भारतीय धर्म बहुत ही विशाल है तथा वह किसी बंधन में बंधा हुआ नहीं है
- हम चाहे किसी भी उम्र में हो या किसी भी योग्यता में हो, हम अपनी ड्यूटी नहीं छोड़ेंगे
वर्ण व्यवस्था में बाह्मण क्षत्रिय वैश्य शुद्र में क्या अंतर है, शंकराचार्य परम्परा में शंकराचार्य वहीं बनता है जो जन्म से बाह्मण है, क्या यह उचित है
- यह वेद सम्मत नहीं है
- प्रज्ञोपनिषद के चौथे मंडल देव सस्कृति प्रकरण है उसमें वर्ण व्यवस्था प्रकरण एक अध्याय है वहा अवश्य देखे
- जन्म से उसका कोई महत्व नहीं
- जन्म से ही यदि बाह्मण है तथा संस्कार भी पहले से है तो जनेऊ संस्कार की क्यो जरूरत पड गई
- गायंत्री महाविज्ञान में कहा गया है कि प्रत्येक व्यक्ति जन्म से अनगढ़ / अनपढ़ ही होता है
- जो बाते वेद सम्यक नहीं उसे मानने की बाध्यता भी नही है
- अभी वैज्ञानिक युग है तथा मरने की आवश्यकता भी नहीं है 🙏
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