पंचकोश जिज्ञासा समाधान (13-02-2025)
कक्षा (13-02-2025) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
कौन पितर हम सबको प्रकाश प्रेरणा शक्ति और सहयोग प्रदान करते है कृपया प्रकाश डाला जाय
- इन्हे दिव्य पितर कहते है, पितरो में अनेक श्रेणिया होती है -> मध्यम, सामान्य व उत्कृष्ट
- उत्कृष्ट स्तर के पितर वो पूरे राष्ट्र के हित के आधार पर कार्य करते हैं
- वे विश्व स्तर की बंधुत्व की भावनाओं से ओत प्रोत होते है, वे किसी भी देश में कोई भी अच्छी Personality वाले व्यक्ति को माध्यम बनाते हैं
- एक घर परिवार के सामान्य स्तर के वो पितर जिनके मन में अपने परिवार को आगे बढ़ाने की प्रेरणा रहती है
- जो प्रेत योनि में जाते हैं तो उन को पितर योनि से बाहर कर दिया गया
- जो पितर पहले प्रत्यक्ष जीवन में जैसा जीवन जीते है वैसा ही व्यवहार उनका पितर योनि में शरीर छोड़ने के बाद भी रहता है
- दिव्य स्तर के पितर जैसा महाराणा प्रताप, भगत सिंह, हरिशचंद्र, गांधी, ये केवल घर परिवार तक नही जीते बल्कि वे लोक सेवी होते हैं तथा वे पूरे राष्ट्र के लिए जीते हैं
- जो ऋषि स्तर के है, उनका पितरो से भी उंचा स्तर होता है, वे पूरे पृथ्वी के अलावा अन्य ग्रह नक्षत्रों से भी तालमेल रखते हैं
कुछ पितर जो पूरे संसार के हित में कार्य करते है तो क्या उन्हे आत्म साक्षात्कार हो चुका होता है तभी उनकी चेतना इतनी विराट हो जाती है
- ऋषि स्तर के भी जो होते हैं वे भौतिक या आध्यात्मिक mentality के होते हैं -> पदार्थ विज्ञानी या आत्म विज्ञानी
- पदार्थ विज्ञानी = monadic स्तर के वैज्ञानिक, तो जो पदार्थ जगत में Research चल रहा है, वे उसमें मदद करेंगे
- Astral Level के जहा पदार्थ जगत का Application हो रहा हो, इसमे Help करते है
- Spritual level वाले हमें सजन्नता के रास्ते पर चलाएंगे
- cosmic Level वाले देवत्व संवर्धन में मदद करेंगे, वे तप साधना से लेकर अंतरिक्षय ब्रह्माण्डो के नियंत्रण में हमारा सहयोग करेंगे
- ये सारे अलग-अलग स्तर होते है
- चक्रो को जगाते है तो उस स्तर की आत्माएं सहयोग करती है जैसे मूलाधार जगाया तो भू लोक वाले Help करेंगे
- जब अपना ही Transistor खराब है तो बाहर का प्रसारण काम नहीं करता तथा हमें कुछ सुनाई नही देता या अनुभूति नहीं होती, इसलिए चक्रो की सफाई जरूरी है फिर Tuning करेंगे तो कही ना कही connection बनाने के लिए Tuning किया जाता है
- हम अपने को जितना Glazy बनाएंगे तो उसी स्तर की आत्माओं से संपर्क हम कर पाएंगे
- जितने भी star है, Astral कहलाते है, वे सभी Astral Body से जुड़े है
भिक्षुकोपनिषद् में भिक्षुक की 4 प्रकार बताए गए है, आजकल के जो भिक्षुक है वे किस Category में आएंगे
- ये धर्म के नाम पर कंलक के रूप में आएंगे
परमहंस में आया है कि अष्ट ग्रास लेते हुए निर्वस्त्र रहे या वस्त्र के साथ रहे तो अष्टग्रास कैसे लेगे, यदि कणाद ऋषि के स्तर के नहीं हुए तो वे कैसे अपना जीवन यापन करेंगे
- यह उनके तप पर निर्भर करता है कि किस स्तर का तप किया है
- गुरुदेव सूक्ष्मीकरण की साधना में 4 से 5 तुलसी पत्तो पर निर्वाह कर लेते थे, उसी से सारे अणु परमाणु तोडकर सारी उर्जा प्राप्त कर लेते थे तथा शरीर स्वास्थ्य में कोई कमी नहीं आई
- किस स्तर का चक्र जगाया है तो उस स्तर का ग्रास अपने अनुरूप ही कम या अधिक होने लगता है, शरीर का सब संचालन Automatic है, भिक्षुक का अर्थ यह भी है कि संसार से ले कर बदले में अधिक दे – वे भिक्षुक है
- भिखमगों को भिक्षुक नहीं कहा जाता, जो केवल लेता है तथा समाज को कुछ देता नहीं
- बिना दिए आगे नहीं जा सकते, लिया है तो उसका दुगना चौगना देना भी पड़ता है
जिसके पास जो भी प्रतिभा है या गुण है चाहे वह ज्ञान का हो या कर्म का हो या भक्ति का हो, वह जहां गया अपने काम किया व चलते बना तो उस को किस कैटेगरी में रखा जाए उसको अनासक्त माना जाए या आसत्त माना जाए
- एक ही क्षण में श्रद्धा भावना के आधार पर आप उपर से नीचे या नीचे से उपर जा सकते है
- श्रद्धा भावना किस Category की है उस आधार पर उसको ईश्वर से या संसार से लेना देना होगा
- यहा हम श्रद्धा को category माने, व्यवहारिक क्रिया कलाप को न माने
- क्रिया कलाप से ईश्वर को कोई खास लेना देना नहीं है
श्रद्धा तो उसकी कार्य के प्रति होगी ही, श्रद्धा नहीं होगी तो वह कार्य भी नहीं करेगा
- श्रद्धा में अंध श्रद्धा भी होती है, सात्विक श्रद्धा या राजसिक श्रद्धा -> ये सब गीता में आया है
- मूहर्त के नाम पर काम करना अंध श्रद्धा है क्योंकि ईश्वर 24 घंटे एक समान रहता है
- कुंभ चाहे 144 वर्ष बाद आए या 1 करोड़ साल बाद आए, हर नया दिन एक नया जन्म है, वह जीवन में फिर कभी नहीं आएगा इसलिए किसी खास दिन को महत्व न दे, गायंत्री साधक के सामने ये सब दोष मुहर्त नष्ट हो जाते हैं
- आत्मिकी विकास कितना किया यही महत्व का है, आत्मज्ञानी कोई कर्म करें या ना करें उसे कोई पाप पुण्य नहीं लगेगा ईश्वर हर समय हर क्षण एक समान है
- आत्मज्ञान नहीं लिया तो हर क्रिय कलाप गड़बड़ हो जाएगा
किसी भी कार्य के लिए कोई अपनी प्रतिभा को लगा दिए और चलते बने तो अब वह कर्म सत कर्म या असत कर्म कैसा रहेगा
- यह बाहर से नही दिखता कि आसत्त कर्म है या अनासत्त कर्म है या किस भाव से कर रहा है
- आपने फल बोए परन्तु किसी ने तोड़ दिया तो आप क्रोधित हो गए तो इसका मतलब आप आसत्त थे, हमारा काम था कि पौधे को लगाए तथा उसकी सुरक्षा व्यवस्था करें परंतु फिर भी किसी ने उखाड़ दिया तो अपनी मस्ती में फिर से उसे लगाएं
- यदि उसने पौधा लगाया फिर देखा कि अन्य व्यक्ति नही कर रहे तो भी आसत्त हुआ माना जाएगा
- यदि हम हजार गांव में भी जाएं और यदि कोई एक भी व्यक्ति आपसे प्रभावित न हो तो भी आप मस्त रहें व निराश न हो, यही अनासक्त कर्म है परन्तु यदि हम उदास हो जाते है तो इसका अर्थ है कि हमारी क्रिया में चिपकाव था
- यदि हम निराश नहीं हुए तो हम हर क्रिया कलाप ईश्वर का मानकर कर रहे थे
- यदि हम बेहतरीन कर रहे है तथा अपने से करते जाए तथा तेरा तुझको अर्पण के भाव से करते जाए तो यह प्रत्याहार में आएगा, अभी धारणा – ध्यान – समाधि दूर है
- यदि इतना करने से सब मिल जाता तो फिर योगी तप करते गुफाओ में तप साधना करने क्यो जाता, योगियो की भाषा में संसार है ही नहीं
- Personality Refinement को प्रज्ञोपनिषद् में कल्पवृक्ष Plantation कहा है
- इन दिनो एक ही काम करना है, कल्पवृक्ष लगाना है
- कल्पवृक्ष = महामानव पैदा करना है
- आत्मिकी के क्षेत्र में प्रवेश के बिना ही सब गडबड हो रहा है
गर्भोपनिषद् में आया है कि इस देह में अग्नि के तीन स्थान बताए गए है, इसमें प्रथम आहवानीय है जो मुख में निवास करता है, . . . 109 स्नायु है, 700 शिराए है, 500 मज्जाए, 308 अस्थियां बताई गई है, साढे चार करोड रोम कूप, ये सब कैसे समझेगे
- संख्या में न फंसे, किसी के बाल कम या अधिक होते है
- ईश्वर ने शरीर को बड़ा अदभूत बनाया है तो किसी उददेश्य से बनाया है तो इसका ख्याल रखे व सदुपयोग करे
- एक एक रोम रोम ढेर सारी वनस्पतियां / पत्तिया है
- मांस को गुदा फल कहा गया
- शरीर की एक भी नाडी खराब होगी तो दिक्कत होगी
- शरीर बडा अदभूत है तथा इसमें असंख्य नस नाड़िया है
- यहा कफ का अर्थ मोह ममता आसत्ती के रूप में है जो हमें संसार व घर परिवार से है
- मृत्यु के समय में ये सब गल गलकर निकलता है,Negative Thought भी कफ कहलाता है
- ममता भी कफ कहलाता है, जब ये पिघलते है तो शरीर से निकलते हैं
- मृत्यु के समय उपत्तिकाए टूटने लगती है तो सभी नाडियो में कफ के रूप में Blockage कर देती है
एक मूहर्त जो है उस में हम भी नवरात्री या अनेक पर्व भी मनाते है तथा आप इस समय का विशेष महत्व बताते है, ये कुंभ जो 144 साल बाद पड़ा है तो क्या यहा कुछ गलत है
- गलत कुछ नहीं है, हमारी आस्था यहा मुख्य है कि हम किस चीज को अधिक महत्व देते हैं, किस आधार पर हम यह पर्व मनाते हैं
आस्था को लेकर है - हर समय एक ही बार आता है परन्तु अपना Time का Fixtation (मूहर्त) तो कोई आदमी ने ही किया कि उसके लिए क्या महत्वपूर्ण है या क्या नहीं
- पंचांग में भी मूहर्त देखते हैं
- परन्तु जब हम यज्ञ कर लेते हैं तो वहां पर मुहूर्त नहीं देखा जाता है तथा सालों भर में किसी भी समय विवाह या अन्य संस्कार किए जा सकते हैं, इसलिए हर दिनया किसी भी समय यज्ञ करवाकर कोई भी कार्य कर लेते थे
- पूज्य गुरुदेव भी हरिद्वार रहते हुए वहां कहां स्नान करने जाते थे, वह कहते थे कि इस शुद्धता को अपने हृदय में लाओ
- हमारी आस्था कहा टिकी है, यह उस पर निर्भर करता है
- कुछ लोगो के लिए भीड ही Pollution है
- हमारी आस्था scientific हो तथा धर्म भी न मरे, मूहर्त अपनी जगह आता है, प्रवाह भी आता है परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि मूहर्त सर्वोपरि हो गया
- किसी समय को अच्छा या बुरा कह देंगे तो इस बात को गुरुदेव ने नकार दिया
- ईश्वर ने सब बनाया है तथा ईश्वर हर दिन शुभ है तथा कण कण में ईश्वर है परन्तु यह खराब है या वह अच्छा है तो यह बात कबीरदास ने काट दिया तथा उन्होंने कहा व करके दिखाया कि यहा धरती पर नरक कहा है, हम वही पर मरेंगे तथा स्वर्ग में जाकर दिखाएंगे
- इसे शास्त्र वासना कहा गया है जैसे भीष्म पितामह भी मूहर्त के लिए उत्तरायण की प्रतीक्षा कर रहे थे
- गुरुदेव ने कहा कि संत जब भी शरीर छोड़ेगा तो कभी भी कही भी किसी भी समय छोड़े, वह ब्रह्म में मिलेगा ही मिलेगा
- गायंत्री के प्रचंड तेज से मुहूर्त दोष सब समाप्त हो जाते हैं
- गुरुदेव ने पूर्णमाशी को विवाह की बात उनके लिए की ताकि वे विशेष मूहर्त में न फसें तथा शातिकुंज में तो हर दिन ही शादी होता था वहा किसी विशेष दिन या मूहर्त जैसे पूर्णमाशी की बात नही की गई
- एक ही बार में झटके से न हटा दे इसलिए गुरुदेव ने Stepwise यह Process रखा
- उन्होंने निर्णय सिंधु नामक ग्रंथ से यह तर्क दिया
- हमने वह ग्रंथ पढ़ा नहीं तथा वेद पढ़े नहीं
- तब गुरुदेव ने पंचांग निकाला तथा यह साबित कर दिया कि हर दिन शुभ होता है तथा ईश्वर मूहर्त से परे है फिर पंचांग निकालना बंद कर दिया
- सूर्य ग्रहण या चंद्र ग्रहण के प्रभाव को गायंत्री मंत्र का जप करके काटा जा सकता है, इसका अर्थ यह है कि गायंत्री मंत्र जप से घातक किरणों को भी काटा जा सकता है पृथ्वी के Magnetic Field को भी Change किया जा सकता है
- पूज्य गुरुदेव संत भी थे, सुधारक भी थे तथा संस्कृति के उद्धारक भी थे
कही न कहीं हम भी ब्रह्म मूहर्त या एक Fix दिनचर्या या शुभ अशुभ से बंधे तो है, कुछ Exceptional Case तो दिए जा सकते है
- Exception भी विज्ञान के आधार पर होता है, सृष्टि में कुछ भी Exception नहीं, सभी कुछ पूर्णतया वैज्ञानिक है, हम नहीं जानते तो Exception समझ / मान लेते हैं
- गुरुदेव ने कहा देर रात काम करने वालो के लिए जब भी जगा तब ही ब्रह्म मूहर्त समझे, क्योंकि यदि हम शास्त्रों के इन नियमों से बाहर नहीं निकालेंगे तो आत्म साक्षात्कार नहीं होगा
- इसलिए करोडों में से कोई एक दो ही वहा पहुचते है
जिसे हम शास्त्र वासना कहते है उन्ही शास्त्रो का गुरुदेव ने अनुवाद भी किया है तथा गुरुदेव भी उन्हीं शास्त्रों के पीछे चले थे
- नहीं गुरुदेव ने उपनिषदों के अनुरूप रखा
- गुरुदेव वेदमूर्ति थे
- शास्त्रों का अनुवाद किया क्योंकि समाज को लेकर चलना है इसलिए उन्होने कोई Orthodox नहीं रखा, वे वेद को भी लेकर चले और पुराणो को भी लेकर चलें
- दयानन्द केवल वेद को लेकर चले तो पौराणिक लोगों से अलग हो गए तथा मूर्ति का विरोध भी किया
- ईश्वर को कर्मकांडों या मूर्ति पूजा से कोई लेना-देना नहीं
- गुरुदेव ने सत्संकल्प पाठ में कही भी गायंत्री व यज्ञ शब्द का नाम नहीं लिया है
- इसलिए गुरुदेव ने कहा कि हमारे विचार इतने पहने हैं कि दुनिया की कोई भी शक्ति इन्हें नहीं काट सकती
- कोई भी मजहब वाला यह नहीं कह सकता कि आप खास मजहब वाले हैं
सतसंकल्प पाठ में तो नाम नहीं लिया परन्तु साहित्य में तो यज्ञ व गायंत्री दोनो भरे पडे है
- भरा इसलिए पड़ा है क्योंकि वह हिंदू परिवार में जन्म लिए थे तथा Charity begins from Home
- अपने धर्म में फैले जो कचरे थे गुरुदेव उन्हें हटाने में लग गए
आपने कहा कि आप सीधा उपर की स्थिति में जा सकते हैं परन्तु आप ये भी कहते है कि आध्यात्म में छलाग नहीं लगाई जा सकती
- छलांग नहीं लगाई जा सकती, यह नहीं कहा जाएगा, यह भी एक विज्ञान है
- उपासना समर्पण योग एक अन्य मार्ग भी है -> इससे तत्काल ही साधक र्निबीज समाधि में पहुंच जाएगा, वहा Time व Space शून्य है
- Time Space से नहीं बंधा है
- जो भी प्रक्रियाएं शास्त्रों में बनाई जाती हैं, समाज के Level को देखकर शास्त्र बनाए जाते है,
- गीता मैं भी श्री कृष्ण ने कहा कि तुम वेदों की पुष्पित वाणियों से बाहर निकलो
- क्योंकि हमें सबको साथ लेकर चलना होता है तो शास्त्रों की भी जरूरत पड़ती है, एक ही बार में बच्चों को अहम् ब्रह्मास्मि नहीं कह सकते
- पाशुपतब्रह्मोपनिषद् में आया है कि भक्ष्य अभक्ष्य की जानकारी केवल अज्ञानियों के लिए है, इसी आधार पर वे शमशान में भी रह लेते हैं, जिससे वह हर जगह ब्रह्म को ही देखते हैं
श्री सत्यनारायण व्रत कथा में यजमान का पैर क्यों रंगा जाता है।
- लगे कि कुछ विशेष दिन है तथा कुछ हो रहा है, टीका इसलिए लगाया जाता है ताकि हम मस्तिष्क से गाली गलोच न निकाले तथा कोई भी टोक सकता है कि माथे पर टीका लगाकर आप गाली दे रहे हैं
- ये सब मध्यमा वाणी है, जिससे अपने को ऐसा लगता है कि हम कुछ विशिष्ट हैं
- मोर दूल्हे पर शोभा देता है, सारे बाराती दूल्हे की तरह मोर नहीं पहन सकते नहीं तो हमें ढूंढना पड़ेगा कि वास्तविक दूल्हा कौन है
- वह विशिष्टता के लिए है तथा यह लगे कि आज कुछ संभलकर हम क्रिया कलाप कर ले
छान्दयोपनिषद् में तथा बृहदआरण्यकोपनिषद् में सत्य की परिभाषा स त् य के रूप में आई है, इसकी एक लाईन में क्या परिभाषा है
- सत्य व सत्या में अंतर है
- सत्य ईश्वरवाची है -> हरि ॐ तत् सत् -> यहा पर सदाचित्त आनन्द वाला सत् है
- परमात्मा के दो स्वरूप है
-> ज्ञानात्मक व क्रियात्मक
-> ज्ञानात्मक को सत व क्रियात्मक को चित् कह दिया, दोनो को मिलाएंगे तो जीवन में आनंद आएगा - योग की भाषा में इसे कुंडलिनी और सहस्रार कह दिया जाता है
- सत्य का अर्थ है कि उसका हम अनुगामी है
- ईश्वर सर्वव्यापी है, इसलिए कह दिया कि सत्य है, तत सवितुर्वरेण्यं
- सत्य की परिभाषा सबसे अच्छा प्रजोपनिषद् में दिया है -> यर्थातता को सत्य कहते है
- जहां सदा सत्य बोलने की बात कही जाती है वहां Absolute Truth की बात नहीं की जाती वहां सापेक्ष सत्य की बात की जाती है तो हम Absolute Truth अपने दिमाग में रखें तथा सामने वाले के लिए सापेक्ष सत्य कहें
- जो श्रेय व प्रेय को देखता है वह सापेक्ष सत्य है जिसे हम प्रज्ञा कहते है
- ईश्वर सब जगह है तो अवधूतोपनिषद् में आता है कि विकार में भी ब्रह्म को देखे
- सापेक्ष सत्य एक Limited Boundary में काम करता है
- हमें दोनो तरह के व्यवहार को Balance रखना होता है
स त् य को तम प्रकृति जीवात्मा माना, इसका क्या अर्थ है
- हर शब्द में ईश्वर को देखना है तो यहां उसकी व्याख्या अपने ढंग से हुई है इसका अर्थ यह नहीं की यही व्याख्या ही अंतिम व्याख्या हो गई
- उसकी अनन्त परिभाषाएं / व्याख्याएं हो सकती है, हर Positive अर्थ को ही सत्य कहा जा सकता है
- यहां त्रिआयामी सृष्टि के रूप में सत्य की व्याख्या हुई है 🙏
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