पंचकोश जिज्ञासा समाधान (12-12-2024)
कक्षा (12-12-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
हेरम्बोपनिषद् में आया है कि सभी देवो से पूजनीय श्रीगणेश प्रभुओं के भी प्रभु तथा विद्यनहर्ता हैं, वे सिन्दूरवर्ण वाले पुरातन पुरुष है, का क्या अर्थ है
- जैसे जब सुर्योदय होता है तो लालिमा पहले आती है, सबसे पहले सुनहरी किरणे आती है जिसमें सृष्टि के सृजन का गुण होता है
- सिन्दुर वर्ण = सृजन की शक्ति = ईश्वर की शक्ति, उसमें चंचलता रहती है
- उसी को गायंत्री सावित्री व सरस्वती भी कहते है, ये सभी रंग / तरंग है / ज्ञानयुक्त उर्जा है, जो संसार के विघन को भी समाप्त करे तथा ज्ञानात्मक भी हो, यहा ज्ञानात्मक (रितम्बरा प्रज्ञा) के लिए गणेश जी का नाम यहा आया है
- लाल रंग का कोई देवता यहा नहीं है, इसके पीछे दर्शन पक्ष यह रहता है कि हमें जीवन में उत्साह/उमंग चाहिए इसलिए लाल पीले रंग का वर्णन यहा आया है
- इसमें आनन्द है,उल्लास है, सृजन की शक्ति है
छान्दोग्योपनिषद् में आया है कि वे पांच बह्मपुरुष स्वर्ग लोक के द्वारपाल हैं, जो पुरुष स्वर्ग लोक के द्वारपालो इन पांच ब्रह्म पुरुषों को जानता है, उसके कुल में वीर बालक उत्पन्न होता है और वह स्वर्ग लोक को प्राप्त करने वाला होता है, अतः स्वर्ग लोक के द्वार वालों इन पांच ब्रह्मपुरुषों को जानकर इनकी उपासना करने योग्य है, इसमें पांच द्वारपालो का अर्थ पंच प्राण से लिया जाए या पंचकोश से लिया जाए
- किसी से भी ले सकते है इसके उत्थान से मतलब है, इसमें स्वर्ग शब्द का महत्व है
- यदि सारी सृष्टि को पंचधा बाटे, पांच पुरुष ही पांच पुरीया है, यही पांच जन्य है, पंचकोश है
- पुरियो का मालिक पुरुष कहलाता है
- पांचो कोशो के अलग अलग देवता होते है
- जैसे गणेश ॐ के देवता है
- भूर्भुवः स्वः के भवानी हो गए
- तत्सवितुर्वरेण्यं के बह्मा हुए
- भर्गो देवस्य धीमहि के विष्णु हुए
- धियो यो न प्रचोदयात् के शिव हुए
- इसी को कहा जाता है कि
सदा भवानी दाहिनी ,सन्मुख रहे गणेश।
पांच देव रक्षा करें, ब्रम्हा विष्णु महेश।। - ये शरीर के भीतर के पाच परत, प्रकृति के पाच परतो, पंचधा प्रकृति की नियंत्रक शक्तियां, जो इनको जानता है, इनकी उपासना करता है, इनको अपने जीवन में धारण करता है, उन्नतिशील अपने जीवन को बनाए तो उसका जीवन स्वर्गमय हो जाता है
नारदपरिव्राजकोपनिषद् में प्रणव के तीन भाग बताया है -> संहार प्रणव, सृष्टि प्रणव और उभ्यात्मक प्रणव, इसके अलावा एक आस प्रणव है, वही विराट प्रणव के नाम से भी जाना जाता है, विराट प्रणव सगुण एवं संहार प्रणव निर्गुण माना गया है, सृष्टि प्रणव सगुण निर्गुण दोनों से ही संबंधित है, यहा सगुण, निर्गुण व सगुण – निर्गुण का क्या अर्थ है
- इसके लिए कही कही सकल निष्कल शब्द का भी प्रयोग किया है
- सगुण – निर्गुण का अर्थ संसार या शरीर होता है, शरीर में हमारी Body सगुण है व तथा आत्मा निर्गुण भी है
- संसार भी हो गया तथा उसमें घुली हुई परमात्म चेतना भी हो गई, इसी को सगुण-निर्गुण कहेंगे और प्रलय की स्थिति में सगुण समाप्त हो जाता है केवल निर्गुण बचा
- आत्म साधना का हम ध्यान करते हैं तो केवल निर्गुण हो जाते हैं
- शरीर का भी हम ध्यान करते है, कुण्डलिनी जागरण में, सगुण-निर्गुण हो गया, शरीर को भी हम मजबूत बना रहे है, ईश्वर का घर है, सभी देवता इसी से काम करते है, शरीर हमें जीवन को धन्य बनाने के लिए मिला है
- इन संसाधनों में ईश्वरीय चेतना विद्यमान है
- संसाधनो की अलग से सत्ता नहीं है, इसमें ईश्वरीय चेतना घुली हुई है
- गुरुदेव एक जगह लिखते हैं कि जिस बह्म की हम मनुष्य उपासना करते हैं वह विकार बह्म है, सगुण – निर्गुण है (संसार में घुली हुई चेतना है क्योंकि हमें धन भी चाहिए तथा अन्न वस्त्र आवास भी चाहिए, सुविधा – शरीर – संसार – आनन्द – समृद्धि सब चाहिए
- क्योंकि मनुष्यों को यह दो कार्य मिले हैं -> मनुष्यों में देवत्व का उदय तथा धरती पर स्वर्ग का अवतरण -> इसी को सगुण निर्गुण कहते है
- इसमें निर्गुण को हम देख नहीं पाए तो सगुण में इतने फंस जाते हैं कि दलदल में डूब जाते है
- इसमें निर्गुण ही महत्व का हे
- इस खोल (संसार/शरीर) के भीतर घुली हुई चेतना का हम दर्शन करे
- संसार में रहे परन्तु मुख्य उद्देश्य इस सगुण/संसार में घुली हुई ईश्वरीय/निर्गुण सत्ता के साथ तालबद्ध हो जाना/उस सत्ता से Resonance स्थापित करना
प्रणव 36 तत्व प्रकार के तत्वों से भिन्न है / परे है, इसका क्या अर्थ है
- 36 तत्व = 24 तत्व [पंच महाभूत+पंच सूक्ष्मभूत+5 कर्म्रेदिया+5 ज्ञानेंद्रियां+ मन+बुद्धि+चित्त+अहंकार] + 10 प्राण + आत्मा + परमात्मा (अव्यक्त) -> ये सभी प्रणव कहलाएंगे
- प्रणव से परे = 36 तत्वों से परे = परबह्म परमात्मा
क्या मनुष्य से नीचे की योनियों में गुजरने के बाद आत्मा का प्रकाश कम हो जाता है कृपया प्रकाश डाला जाय
- नीचे से गुजरने से कम नही होगा, आत्मा का प्रकाश भुल्लकडी के कारण कम होता है
- या मनुष्य के शरीर में रहे और आत्मविस्मृति हो गई तो भी प्रकाश कम हो जाता है
- इसलिए Dominancy हमें जड़त्व की नहीं आने देनी क्योंकि ईश्वर तो प्रत्येक जीव के केंद्र में बैठा है तथा जहा ईश्वर है वह खराब कैसे कहला सकता है,
- प्रकाश का कम होना आत्मविस्मृति है
- ज्ञान को ही प्रकाश कहा जाता है
- एक बार गुरुदेव ने कहा कि हमारी हार्दिक इच्छा है कि एक बार हम सभी योनियों में जाएं
- इसका एक अर्थ यह भी है कि अब उनको बौधत्व मिल गया और बौधत्व मिलने के पश्चात हम किसी भी योनि में जाएंगे तो आत्मा का प्रकाश कम नहीं होगा तथा उस निम्न योनियों में जाकर वे प्रवचन करेंगे तथा वहा उन्हें प्रोत्साहित करेंगे तथा उन्हे आत्मज्ञान देकर वही से काम ले लेंगे
- यदि हम आत्म स्थिति में जागृत है तो इसी को जागना कहेंगे, तब हमारी आत्मा का प्रकाश बढ़ जाएगा
- Positive Mind में रहेगे तो चमक बढ़ जाती है, Negative Mind में रहेंगे तो कालिमा बढ जाती है, Depression आ जाता है व आत्मा की Illuminacy (चमक) कम हो जाएगी
रामचरित मानस में सुन्दरकांड की एक चौपाई में आया है कि अंगो का फड़फड़ाना शुभ और अशुभ कैसे होता है
- जो आपसे निकटतम जुडाव रखते हैं, जो आपके Best Friend है तथा वे हमारे हृदय में वास करते है तो ऐसे व्यक्तियो के साथ हमारी बहुत सी कोशिकाएं, Neurons व विचार जुड़े रहते हैं
- उस अवस्था में उस व्यक्ति के भीतर चलने वाली उनकी तरंगे अनायास ही हमारे मस्तिष्क को आकर प्रभावित करेगी, चाहे भले ही आप उन्हे याद करे या ना करे
- जहा कुछ भी अटपटा या गलत उनके साथ होगा तो आपको भी एक बेचैनी सी होगी, इसी कारण हमारा शरीर के किसी अंग का फडफडाना शुरू हो जाता है
- यह शरीर तो जड़ तत्व है तो यदि तरंगे आती है तो वे शरीर को हिलाती है, तभी शरीर कापता है जैसे Rod से एक तार को बांध दिया तथा फिर एक Tuning Fork ले तथा उसमें ठोकर दे तो वह कंपन करेगा फिर तार में एक कागज का टुकड़ा रखे तो जब Tuning Fork को करीब लाएगे तो बिना छुए ही वह कागज, Tuning Fork के कंपन से हिलने लगेगा
- इसी प्रकार ये तरंगे जाकर ही संसार को चला रही है, सारा संसार तरंगों से चल रहा है और तरंगे निकलने वाला हमारा मन है
- जब हमारा कोई अंग फडफडाने लगे तो इसका अर्थ कि हमारे निकलतम के साथ कुछ अप्रिय हो सकता है तथा यदि हमने सार्वभौम अपनी चेतना को बना लिया तथा किसी व्यक्ति विशेष पर Concentrate नहीं किए अपितु पूरी विश्व चेतना के साथ जोड लिए तो विश्व की हलचलों को भी ऋषि समझने लगते है, उसके कंपनो से वे जान जाते हैं कि कहा पर क्या हो रहा है, इसी को नाद योग कहा जाता है, तब अलग अलग प्रकार की आवाज (पायल की / वीणा की / समुद्र की लहरे), जब वे सुनते है तो जान / समझ जाते है कि कही पर विनाश / परिवर्तन चल रहा है
- फड़फड़ाने का विज्ञान यही है, इसी को शुभ अशुभ से जोड दिया गया है
- एक बार हमारे साथ भी 21 साल की उम्र में अचानक बाए गालों में फड़फड़ाहट आने लगा, पहले समझ नहीं आया फिर पता चला कि पत्नी की दादी माँ का देहान्त हो गया है, तथा विवाह टल गया, जैसे ही यह सूचना मिली तो उसी समय अंग का फडफडाना शांत हो गया
- एक बार अन्दर से प्रेरणा हुई कि दौड कर बाहर जाना है परन्तु पता नहीं कहा जाना है तो भी हम दौड़कर जाने लगे, आगे जाकर तब पता चला एक महिला का Accident हो गया था तथा उसे कोई उठा नही रहा था कि वह महिला जाति है, हमने उठाकर रिक्शा पर बैठाकर Hospital पहुंचा दिया, जब उठाया तब रुई के समान हल्का लग रहा था तथा फिर उसके बाद हमारा चलने का गति सामान्य हो गया
- तब गुरुजी की बात याद पड़ी कि ईश्वरीय चेतना किसी को किसी भी ढ़ंग से काम लेती है
- प्रवृति प्रेरणा देकर काम लेती रहती है, अखण्ड ज्योति में भी इसका वर्णन मिलता है
कर्मकाण्ड भास्कर से शिखावन्दम् के श्लोक को स्पष्ट करे इसका वैज्ञानिक पक्ष क्या है तथा इसका उपदेश क्या है
- इसमें यह बताया गया है कि ईश्वर एक चेतना के रूप में है
- देवी शब्द में किसी महिला की कल्पना न करे
- ईश्वर ना नर है ना नारी है, देवी इसलिए कहा जाता है क्योंकि ईश्वर दिव्य गुणों से संपन्न है
- उनकी दिव्यता यह है कि वे चेतना के रूप में वह हर जगह घुले हुए हैं
- महामाया = संसार में जितने भी रूप हम देख रहे हैं वे सब वास्तव में चेतना के घनीभूत होने से बनी है, चेतना के ही condensed Part है
- जैसे भाप को हम नहीं देख पा रहे परंतु भाप यदि थोड़ा सा भी condensed हुआ तो पानी बन गया तथा अब हम भाप को पानी के रूप में देख पा रहे हैं तथा और भी solid हो जाए तो बर्फ की चट्टान बन जाता है
- संसार का प्रत्येक कण परिवर्तन शील है, इसी को महामाया कहा गया
- माया का एक अर्थ परिवर्तनशील भी है तथा यह सब चेतना की तरगें भर है
- मंत्र में आया है कि आप हमारे शिखा के मध्य सहस्तार में स्थित हो, इसी को शिखा मध्य कहते है, जहा हम शिखा रखते हैं
- जहा पर Occipital व Parietal Lobe मिलता है, वही पर हम शिखा रखते हैं -> यहा पर हम वास करे, इसका अर्थ यह है कि हमारा चिन्तन उत्कृष्ठ हो, इस चेतना को हम धारण करने योग्य बने और इस संसार का पूरा लाभ ले व जीवन को धन्य बनाए
- पहले के कर्मकांड में शिखा को गांठ लगाने को कहा जाता था शिखा बन्धनम था परन्तु आज कल नवयुवक शिखा ही नहीं रखता
- इसलिए गुरुदेव ने इसे बदलकर शिखा वन्दम कर दिया, शिखा की वन्दना करे
- बढ़ाना ही है तो बाल क्यों बढ़ाए, ज्ञान बढ़ाए
- कुछ लोग अपना मुण्डन करवा लेते है
- चोटी का अर्थ अपना विचार उत्कृष्ट व चोटी के स्तर का हो, उत्कृष्ट चिंतन को शिखा कहा जाता है
- उपनिषद का कहना है कि जिसकी ज्ञान ही शिखा हो तथा ज्ञान ही यज्ञोपवित है, उसी का बाहमणत्व सफल होता है
- यहां यह कहने का अर्थ यह है कि हम प्रतीकों में उलझकर न रहे, किसी भी कर्मकांड के साथ दर्शन पक्ष स्पष्ट होना चाहिए
तैत्तिरीयोपनिषद् 2/1/1मे दिया गया है कि मनुष्य अन्नरसमय है। यही उसका शिर है। यही उसका दक्षिण पक्ष है। यही उसका उत्तर पक्ष है। यह आत्मा है।यह पुन्छ तन्त्र मेरुदंड पर प्रतिष्ठित है। इसके अर्थ को स्पष्ट करने की कृपा करें
- शरीर को भगवान का मन्दिर मानकर उसके अनुशासन को स्वीकार करेंगे एवं उस शरीर की नियमितता संयमशीलता से आरोग्यता की रक्षा करेंगे
- संयम का अर्थ -> धारणा – ध्यान – समाधि तीनो को मिला देगे तो संयम कहलाता है
- हमेशा चलते फिरते उठते बैठते आत्मा का स्मरण करे तथा शरीर उसका घर है
- चेतना सहस्तार में तथा मूलाधार में उर्जा पक्ष / शक्ति पक्ष होता है
- यहा हमें बताया जा रहा है कि शिव व शक्ति में एकत्व स्थापित करना चाहिए
- इसलिए गुरुदेव ने दोनो उददेश्य रखे
- मनुष्य में देवत्व का उदय
- धरती पर स्वर्ग का अवतरण
- धरती = मूलाधार = पृथ्वी तत्व शरीर है तो उसको हमें जागृत करना जरूरी है नहीं तो शरीर में इतनी शक्तियां, रिद्धी – सिद्धियां होते हुए भी कंगाल की तरह भटकता रहेगा -> यह सब मूलाधार में स्थित है
- शरीर में जितनी भी शक्तियां है जैसे पलक झपकाना, हृदय का धड़कना, मस्तिष्क का कार्य करे, सभी प्रकार की शक्तियां मूलाधार से मिल रही है
- इसलिए पृथ्वी पांच तत्वों को धारण करता है
- ऊर्जा का सबसे Condensed Form पृथ्वी होता है
- गुरुदेव ने कहा है कि पृथ्वी के एक परमाणु में इतनी शक्ति है कि यदि एक परमाणु भी पूर्ण रूप से विखंडित (Blast) हो जाए [जितने भी Particles उसमें है जैसे Electron, Proton, Neutron . . . इत्यादि सभी पूर्ण रूप से Blast हो], तो वह सुर्य को भी समाप्त कर सकता है -> सोच सकते है कि 🤔 एक छोटा सा Particle सुर्य को धूल में मिला सकता है, इतनी शक्ति है पृथ्वी के एक Atom में
- इसी के आधार पर कहा कि हम अपने भीतर की सोई हुई शक्ति को हम पहचाने, जगाएं, संवारे और जीवन को धन्य बनाए तथा पूर्णता की तरफ चले
- तैत्तिरीयोपनिषद् में जो पुच्छ है, उसका अर्थ अंतिम छोर है जैसे मेरुदण्ड में मूलाधार
गायंत्री मंत्र का या अक्षर कहता है कि पिता कुपिता वैसे ही होता है जैसे पुत्र कुपुत्र होता है यदि वह ज्ञान न दे, अपना उत्तरदायित्व भी ना निभाए . . . गुरुदेव ने जो बताया वह Daily Life में कैसे उतारे, उस ज्ञान के बिना हम भी कुपुत्र ही कहलाएंगे, गुरुरेव के इस ज्ञान को अपने जीवन Digest कैसे करे
- आप अपने घर परिवार की व्यवस्था व Office की व्यवस्था सब संभाल रही है परन्तु आप अपने आप को कुपुत्र इसलिए कह रही है क्योंकि आत्मिक विकास जिस स्तर का होना चाहिए था वहां तक नहीं पहुंची, यह भूख जीवन भर बनी रहनी चाहिए नही तो अपनी प्रगति रुक जाती है
- गायत्री मंत्र का धी अक्षर भी उसी से मिलता-जुलता है -> हमें जीवन की सभी दिशाओं में तरक्की करनी चाहिए
- जो ज्ञानी है वे आगे बढ़ गए तो उनका Duty है कि अपने से नीचे वालो को भी आगे बढ़ाए
- हर कोई अपनी-अपनी Duty में लगे रहे, सामने सीखने वाला छात्र कितना लाभ ले रहा है यह उसी छात्र पर निर्भर करता है
- सभी शिक्षक ईमानदारी से पढ़ाए तथा सभी छात्र Top करे या ना करे, उन छात्रों की भी यह जिम्मेदारी होती है कि जो पढ़ाया गया उसे ध्यान से पढ़े, समझे, प्रश्नोत्तरी व अभ्यास करें तथा अपना ज्ञान दूसरो को भी बांटे
- शिष्य भले ही अपना फर्ज निभाए या ना निभाए जैसे पुलस्त ऋषि के नाति रावण के कारण उन्होंने अपना कर्म नहीं छोडा
- गायंत्री मंत्र का या अक्षर है जिसमे बताया गया है कि हम अपनी जिम्मेदारियो को अनासत्त भाव से करते रहे
- आप Brilliant है व सुपुत्री है
मुझे जल्दी क्रोध आ जाता है चिड़चिड़ा जैसा लगता है, मन को शांत करने के लिए क्या करूं, इसके लिए कोई योग या आसान किया जाए या कोई पुस्तक पढ़ा जाएं
- क्रोध मन का विषय है, मनोमय कोश से संबंधित है
- मन के बाद वाला जो विज्ञानमय कोश है उसके क्रिया योगो का अभ्यास करना चाहिए जैसे सोहम् साधना, आत्मानुभूति योग, स्वर संयम व ग्रंथि भेदन
- मन की गांठों को फोड़ा जाए, व्यक्ति क्रोध तभी करता है जब अन्य व्यक्ति हमारे मन के अनुरूप कार्य नहीं करता तभी क्रोध आता है
- ऐसी अवस्था में अपने बारे में तथा संसार के बारे में सही-सही जानकारी मिल जाए तो क्रोध नहीं आएगा क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने Ionosphere में जी रहा है तथा वह अपनी ही Mentality से काम करेगा तथा अपने ही गुण कर्म स्वभाव के अनुसार ही व्यवहार करेगा
- हमारे अनुसार संसार नहीं चलने वाला, संसार ईश्वर के अनुसार चलेगा
- ईशावादयम ईदम सर्वम -> हर व्यक्ति का अपना मस्तिष्क है अपनी सोच है वह अपने अनुसार ही व्यवहार करेगा
- इस प्रकार का ज्ञान पाकर व्यक्ति थोडा उदार प्रकृति का हो जाता है और सभी की भावनाओं को सम्मान देना शुरू कर देता है, उसमें तालमेल मिलाकर जितना अधिक हो सकता है उसमें समायोजन कर आगे बढ़ता है
- यह सब तकनीक जब आ जाती है तो क्रोध खत्म हो जाता है
- स्वर संयम में अनुलोम विलोम की क्रिया की जाती है
- आत्मानुभूति योग स्थिलीकरण की मुद्रा में जाकर किया जाता है
- अपने भीतर जो क्रोध आ रहा है तो भीतर के Thalamus Part में कचरा है, चंद्रभेदन प्राणायाम से यहा clean करने पर क्रोध खत्म होने लगता है
- खान पान के कारण या Hypertension के कारण भी शरीर में असर पड़ सकता है, शरीर में Uric Acid बढ सकता है
- व्यक्ति का चिंतन भी शरीर में Disturbance लाता है, उसे जितना ही उदार प्रकृति का बनाया जाएगा उतना लाभ मिलता जाएगा
- क्रोध को सात्विक क्रोध में बदल दिया जाए तो यह देवताओं का गुण है, यह हानिकारक नही है, शिव जी का सात्विक क्रोध है तथा वे क्रोध के कारण ही वे पूजाते है क्योंकि उनका क्रोध आदर्श से जुडा हुआ है, सृष्टि की व्यवस्था परिवर्तन से जुडा है, हम स्वार्थ के लिए क्रोध करेंगे तो दिक्कत होगी परन्तु परमार्थ के लिए क्रोध करना तो यह देवताओं का गुण है निसिचर हीन करउँ महि 🙏
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