पंचकोश जिज्ञासा समाधान (12-08-2024)
आज की कक्षा (12-08-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
योगशिखोपनिषद् में सम्पूर्ण शरीरों में वायु पश्चिम मार्ग से प्रवेश करता है, रेचक होने पर क्षीण हो जाता है तथा पूरक होने पर उसका पोषण हो जाता है, का क्या अर्थ है
- प्राण अदृश्य है इसलिए उसे पूर्व (आगे) न कहकर पश्चिम (पीछे) कह दिया
- रेचक में अन्दर खाली होता है तो क्षीण हुआ कह सकते है प्राणिक Energy को बाहर निकाल रखा है तो प्राण अभी न्यून है
- बाह्य कुंभक में जाकर Hold करे तब अन्दर बिल्कुल खाली रहता है भीतर भूख जगती है, फडफडाहट होती है तो Toxine खाता है चित्त निर्मल होता है, खाली है तो उसे क्षीण कह दिया
- पूरक = पोषण = Ihhaling = प्राण भीतर भरना
- भीतर भरकर जब अंतः कुम्भक में Hold किया जाता है तो खींची हुई प्राण उर्जा से शरीर पोषण करता है तथा प्राण store होता है, Battery Charge होती है
जैसे वातावरण में जो रहता है तो वह वैसा ही बनता है विभिषण व उनके भाई में इतना अंतर कहा से आया जबकी दोनो का वातावरण एक ही था
- हर व्यक्ति के शरीर व मन की बनावट अलग है
- उसका (विभिषण) का खान पान सात्विक था
- विभिषण आत्म साधना करते थे
- संस्कार अच्छे हो तो वातावरण का प्रभाव नही पडता जैसे चंदन में सांप लिपटा रहता है पर साप के विष का चंदन पर प्रभाव नही पडता
- यहा निर्भर करता है कि कौन अपने को अच्छा Magnet बना लिया
- आत्मा पर किसी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता इसलिए जो साधक आत्म साधना करते हैं वह संसार के प्रभाव में नहीं आते
- जैसे हिरण्यकश्यप के घर में प्रहलाद हुए परन्तु उसने अपने पिता का एक भी गुण नही रखा
- प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र होती है यदि आत्म साधना कर लेगे तो आप संसार से प्रभावित हुए बिना उसे प्रभावित कर सकते है
- रावण की माँ अलग थी विभिषण की माँ अलग थी, माँ के द्वारा गर्भ में दिए गए संस्कार भी प्रभावी होते हैं
- दोनो की साधना भी अलग थी
क्या कारण है की ऋषि के संरक्षण में पले हुये लोग भी समय की धारा में बह जाते है कृप्या प्रकाश डाला जाय
- सरंक्षण अलग बात है, बनना बिगडना अलग है
- हम ऋषि / गुरू से यदि जुड़े है तो किस भाव से जुडे है व किस उद्देश्य से जुड़े हैं
- जो आत्मसाधना के लिए जुड़ेंगे केवल वही आत्म साधना कर पाएंगे
- सरंक्षण भाव से जुडने वाले या लोककामना भाव से जुड़ने वाले केवल उतना भर ही लाभ लेंगे
- यदि उनकी अपनी इच्छा नहीं रहेगी तो वह चाहे कहीं भी रहे उससे कोई अंतर नहीं पड़ता ईश्वर ने सभी को अपने ढंग से छूट दिया है कि वह जीवन में जो चाहे वह पा सकता है
- गुरुदेव प्रत्येक से काम ले सकते है राक्षस से या देवता से उसके अनुरूप समायोजन की बुद्धि से उससे काम ले लेंगे
- प्रत्येक को अपना विकास यहा स्वयं करना होता है, गुरु केवल आपकी इच्छा के अनुसार मार्गदर्शन दे सकता है आपकी इच्छा के अनुरूप आपसे काम भी ले लेगा
- स्वयं के प्रयास करने पड़ते है
- वे चाह कर के भी वह नही दे सकते क्योंकि हम लेना नही चाहते, आध्यात्म में यहा One Way नहीं चल सकता
- मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है, गुरु नही
रुद्रोपनिषद् में शांतिपाठ नहीं है, शिवभक्त बाह्मण में ॐ नही आया है केवल नमः शिवाय आता है तथा शिव ही जंगम रूप है तथा जंगम ही शिव है तथा जगंम श्रेष्ठ है का क्या अर्थ है
- जो शांति पा लिए तो उनके लिए शांतिपाठ आवश्यक नहीं वह मौन भी हो सकता है
- जो आम प्रचलन में है लोकाचार परक है उसे ले सकते है तो उन भक्तो को Guide करने के लिए सहायक रहा होगा
- नमः शिवाय में 5 अक्षर हो गया तो पचांक्षरी पूर्ण हो गया तो अब ॐ की आवश्यकता नहीं है
- एक बार आदेश दे दिया तो अब हर बार लिखना जरूरी नहीं है
- शिव भक्त वेद का ॐ इसलिए नही कहते है कि ॐ सात्विक है तथा वे मांस मछली खाते रहते है तो ॐ कहने से वह छूट सकता है
- जंगम = घूमने फिरने वाले जो घूमकर साधना करते है जैसे शिवभक्त साधारण सफेद वेशभूषा में रहकर जनसामान्य में रहकर शिव के दर्शन के ज्ञान को बताते चलते है, समाज में रहकर लोगो को उपर उठाने की कला उनके पास होती है
गायंत्री रहस्योपनिषद् में गायंत्री किस रंग की कौन सी दिशा में प्रतिष्ठित है, उनका स्थान क्या है, स्वर लक्षण क्या है, किन अक्षरो की वे अधिष्ठाति देविया है, उनके ऋषि , छन्छ , शक्तिया व उनके तत्व कौन है एवं उनके अव्वय कौन है तब उत्तर मिला कि पूर्व दिशा में गायंत्री स्थित है, इनका वर्ण काला है, मध्यमा अवस्था में श्वेत वर्ण वाली सावित्री स्थित है, पश्चिम दिशा में कृष्ण वर्ण युक्त सरस्वती विद्यमान है, यही ध्यान करना उचित है . . . यहा दिशाओं का क्या अर्थ है तथा क्या इनके अलग अलग लाभ भी मिलते है
- पूर्व दिशा = सुर्योदय = प्रारम्भिक अवस्था के लिए आया है = जैसे बच्चे का पैदा होना = सुर्य के समान
- शुरू में बच्चों में प्राण चंचल होता है / प्राण का फव्वारा अधिक होता है, उस समय प्राण को दिशा देकर योग्यता को बढाना होता है
- अपना बल, विद्या व संस्कार अपने को डिवाइन बनाने में लगा देना चाहिए तथा फिर संसार को लाभ दे, दोपहर के सुर्य की भांति -> इसी को white कहा गया तथा सावित्री (पंचधा प्रकृति) कहा गया
- शाम = कृष्ण = पूर्ण आध्यात्मिक = प्रकृति व बह्म की मिलन = आत्मानुसंधान में लगे = सरस्वती = जीवन का सरस हो जाना
- अपने विस्तार को समेटकर आत्मानुसंधान में लग रहा है / अन्तरमुखी हो रहा है
- यही त्रिकाल संध्या है इसी प्रकार हमें तीनों फेजो को जानना चाहिए तो जीवन रसमय सरस रहता है तथा आनन्द स्वरूप बन जाता है / कृष्ण (जगतगुरु) बन जाता है
- छट पर्व में डूबते सुर्य पहले पूजते है, Seniors को पहले महत्व दे
चंदन विष व्याप्त में लिपटे रहत भुजंग तो चंदन जड़ चीज है और मनुष्य चेतनशील है तो मनुष्य को वातावरण प्रभावित करता ही करता है तो जड़ में विष का आरोपण जरूरी नहीं कि हो ही जाए, इसे कैसे समझे
- परिस्थितयो के दास क्रांतिकारी / Leader नही होते जो समाज को दिशा देना चाहते है, वे कुछ नया खोजते ही रहते है
- समाजसुधारक इस प्रवाह में नहीं फंसते
- जब हम High Voltage के बन जाएंगे तो परिस्थितियों के गुलाम नहीं होंगे बल्कि परिस्थितियों को अपने ढंग से मोड सकते हैं तथा अपने ढंग से बना भी सकते हैं, सभी ऋषि भी इसी वर्ग में आते थे
- परिस्थितियों मनुष्य पर प्रभाव डालती ही है यह केवल सामान्य व्यक्तियों के लिए कहा गया है
- हमारे भी कई मित्र नशा करते हैं तो इसको देखकर हम नशा नही करते
- केवल Unmatured Mind ही प्रभावित होते है
विभिषण एक अपवाद के रूप में संत निकले तो उस एक अपवाद का उदाहरण सब जगह कैसे दिया जा सकता है
- जब एक हो सकता है तो कोई भी हो सकता है
- यह कोई आवश्यक नहीं की कॉलेज में सभी लड़के परीक्षा में पास करें, कोई एक भी यदि पास किया तथा बाकी यदि नहीं पास किए तो यह समझ सकते हैं कि वे बाकी सब Failure थे
- एक ही सुर्य रोशनी देने के लिए काफी है
महानारायणोपनिषद् में परमेश्वर प्रजापति बह्मा जी ने 3 ऋचा वाली गायंत्री के तीनों चरणो को तीनो वेदों से सारभूत निकाला है, का क्या अर्थ है
- प्रजापति यहा बह्मा जी है
- ब्रह्मा ने जब तप साधना किया तो उन्होंने वेदों का सृजन किया फिर उसे लोक प्रवाह के लिए विस्तारित किया, इसी को त्रिपदा कहते है
- ज्ञान (ऋग्वेद) – कर्म (यर्जुवेद) – भक्ति (सामवेद) ही त्रिपदा है
- तीनो के Application को अर्थववेद कहते हैं
- स्थूल सूक्ष्म कारण ही इसके तीन चरण है त्रिपदा कहा गया है
- ज्ञान कर्म या भक्ति किसी भी माध्यम से हम इस Universe को Saturate कर सकते हैं
- प्रकृति के वातावरण मे हेर फेर करके भी हम परिस्थिति को अनुकूल बना सकते है
- भक्ति भावना से भी यदि हम प्रदार्थो को Charge कर ले तो इसका भी पौष्टिक अनाज के रूप में लाभ ले सकते हैं
पंचकोश साधना वांग्मय 13 में हर दिन नया जन्म हर रात नई मौत का क्या तात्पर्य है
- कल के घटनाकर्म जो मन को परेशान करते है तथा व्यक्ति उन्हे याद करके परेशान रहता है तो जो बीत गया उस पर परेशान होकर / Tension लेकर कोई विशेष लाभ नही मिलता अपितु पिछली घटनाओ से केवल शिक्षा लेकर आगे बढ़े तथा उसमें अटका न रहे
- हर दिन नया जन्म = हर दिन एक नया अवसर मिलता है
- हर रात नई मौत = पिछले गलतियों से सबक लेकर आने वाले कल को बेहतर बनाएंगे
- जो कुछ दुर्घटना भी हो जाएगा तो भी Upset नही होंगे
- रात को सोते समय अकेले हो जाएगें तो उस समय सोच ले कि जैसा सोचा था वैसा आज जीया या नही जीया, कहा कहा हमने आत्मा के लिए कार्य किया है
- अपने से ही अपने का Postmortem करना = तत्वबोध की साधना = Tension Free होकर सो जाए, इसी के लिए साधना की जाती है, यही नया जन्म व नई मौत है
काम क्रोध लोभ मोह अहंकार में यदि क्रोध आता है तथा क्रोध को Physically रोक भी दिया परन्तु मन में / हृदय में भरा रहता है तो उसे कैसे Manage किया जाए
- इसी के लिए कुण्डलिनी जागरण है, कुण्डलिनी में इतना अधिक बिजली है कि चक्रो में Toxines को जलाकर साफ कर देगा व उसके भीतर सोच में Divnity लेकर आएगा
- Cleaning पंचकोश साधना / कुण्डलिनी जागरण से होता है
- 1987 का कुण्डलिनी विशेषांक अवश्य पढे
- permanent Cleaning इसी से होता है
- Scientific Interpretation से समझे
- जब जब ऐसी विपरित स्थिति आए तो इसका +ve लाभ ले, यही सतसंग है -> इसी समय अपनी आत्मा व आत्मा के गुणों को स्मरण करे, सत्य की संगति वहां हमें करनी है जहां हमारी चेतना defom हो रही है या शांति मे रुकावट आ रही हो
- इस समय आत्मानुभूति भी करे 🙏
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