पंचकोश जिज्ञासा समाधान (11-12-2024)
कक्षा (11-12-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
हयग्रीवोपनिषद् में नारद जी ने ब्रह्मा जी के पास पहुंचकर निवेदन किया कि भगवन उत्तम बह्म विधा का उपदेश करे जिससे शीलकाल के पापों को जलाकर बह्म विद्या को प्राप्त करके मनुष्य ऐश्वर्यवान होता है, बताए फिर बह्मा जी बोले हयग्रीव देवता से संबंधित मंत्रो को जो जानता है वह सभी श्रृति, स्मृति, पुराण एवं इतिहास को भी जान लेता है वह समस्त ऐश्वर्यो से सम्पन्न हो जाता है, यहा हयग्रीव मंत्र व देवता कौन है
- हयग्रीव दो शब्दों से मिलकर बना है, जिसके उपर घोडे का सिर हो तथा नीचे मनुष्य का शरीर हो, जैसे नरसिंह अवतार में गर्दन के उपर सिंह का सिर था, आधा नर व आधा सिंह
हय = घोडा
ग्रीव = सिर / गर्दन - विष्णु का एक अवतार हयग्रीव राक्षस के वध करने के लिए था, 24 अवतारो में एक अवतार वह भी था, जैसा राक्षस होता है तो उसे मारने के लिए वैसा ही अवतार लेते थे
- बह्मा जी के पास सारी विद्याए थी तो पहले राक्षसो को वरदान देने के बाद उसे मारने के लिए वैसे अवतार को उत्पन्न कर समाधान देते थे, जो संसार बनाया तो उसका काट भी जानता होगा
- हयग्रीव का अर्थ यहां परमात्मा से है, जो सृष्टि को उत्पन्न करता है, सृष्टि का पोषण, नियमन व पालन करता है
- परब्रह्म का एक नाम हयग्रीव भी है
नारदपरिव्राजकोपनिषद् में बह्मा जी कह रहे है कि कुटि चक्र और बहुदक संन्यासी को बाह्य प्रणव का ध्यान करना चाहिए और हंस व परमहंस को आन्तरिक प्रणव का ध्यान करना चाहिए, का क्या अर्थ है
- कुटि चक्र और बहुदक संन्यासी जो है जो आधा संसार और आधा आत्मा के साथ जुड़े हुए है, उन्हे लगता है कि उनका संसार छूटेगा तो अभी उन्हें संसार से तृप्ति मिली नहीं तथा वे संसार को पाने चले तो आत्मा / ईश्वर की प्राप्ति के लिए विशुद्ध रूप से वैरागी होना पडता है
- वैराग्य का अर्थ = संसार से Cut Off
- संसार से Cut Off का मतलब छोड़ना नहीं है क्योंकि जहा भी जाएगें वहा संसार है, करोडों बह्माण्डो के भीतर ही हम रहेगे तो सारा बह्माण्ड ही संसार है
- cut off होने का अर्थ मन से चिपकाव से है
- संसार के प्रति आसत्ती चिपकाव को हटाना है
- संसार फूटने के स्वभाव वाला है, संसार जब फूटेगा तो कष्ट होगा
- प्रणव से संसार भी बना है तथा प्रणव आत्मा से परमात्मा को भी प्राप्त कराता है यही आत्मा से परमात्मा को जोडने वाला है
- पहले बाहर वाले प्रणव को भोग ले, संसार में निर्लिप्त रहने की विद्या भी पढ़े
- संसार वाला कर्मयोग उन्हे बताए, संसार को सुन्दर कैसे बनाए, उसमें भी ईश्वर है, तो संसार में रहते हुए उस ईश्वर को कैसे पाए
जीवन मरण के चक्र को पार कैसे किया जाए, क्या उपाय है तो उत्तर मिला कि प्रणव ही जीवन मरण के चक्र से पार ले जा सकता है, प्रणव के तीन भेद है, व्यष्टि प्रणव, समष्टि प्रणव, अव्यात्मक प्रणव (अंतः प्रणव व बाह्य प्रणव), का क्या अर्थ है
- यहा सृष्टि विज्ञान को बताया है
- बह्मा विष्णु महेश को ही अलग अलग नाम से बताया है
- सृष्टि की रचना पोषण व संहार प्रणव द्वारा ही होता है
- प्रणव = ॐ = ॐ विश्व बह्माण्ड की आत्मा है
- ईश्वर के सभी रूपो से हमें साक्षात्कार होना चाहिए, सर्वं खल्विदं ब्रह्म, सभी रूपो में ईश्वर को नही देखेगे तो अन्य रूपो से घृणा होगी
- हर जगह हर कोने में उलट पुलट कर ईश्वर को देख लेगे तो ईश्वर कहा छुपेगा
- इसलिए पात्र विशेष के अनुसार साधना व ध्यान बताई जाती है
- स्थूल सूक्ष्म कारण हरेक में तीन तीन परत है
- जैसे सप्त आयामी सृष्टि है, प्रत्येक आयाम में स्थूल सूक्ष्म कारण होता है, जहा भी जाएगे सब प्रकाश से बना है तथा प्रत्येक में तीन ज्ञान गति व शक्ति/उर्जा की सत्ता है, इसी को ब्रह्मा विष्णु महेश कहा जाता है, प्रकृति त्रिधा है
छान्दग्योपनिषद् में आया है कि जब तक आदित्य अपने पूर्व भाग से उदित होता है तथा पश्चिम भाग में अस्त होता है उसके दुगने समय तक उसका दक्षिण भाग उदित होता है व उत्तर भाग अस्त होता है, उस समय तक वह रुद्रगणो के ही अधिकार एवं स्वराज्य को प्राप्त होता है, इसी तरह पूर्व भाग को दिया है, उत्तर भाग को दिया है, इसी तरह से दक्षिण भाग को दिया है, का क्या अर्थ है
- मानना इसलिए पड़ रहा है क्योंकि सुर्य का इस Universe में एक Pathway है
- हम अपनी तुलना में सुर्य को देख लिए कि हम (पृथ्वी वासी) घूम रहे है तो वह उदय व अस्त हो रहा है, सुर्य स्वयं भी तो घूम रहा है
- इस बह्माण्ड में स्थिरता कही नहीं है, स्थिरता का अर्थ प्रलय है, सृष्टि में संसरण बना रहता है
- सुर्य अपने Pathway पर भी चलेगा तो उसका भी पूर्व पश्चिम होगा
- हमें आगे बढ़ना है तो अपने अतीत (पश्चिम) को भी देखना होगा
- क्या थे, क्या हो गए, क्या होने चाहिए
- इसी को पूर्व पश्चिम कहा जाता है, यहा दिशा में न फंस के रहा जाए
- पहले हमारी संस्कृति क्या थी, पहले हम सोने की चिडिया थे, अब अति दरिद्र बन गए, परावलम्बी बन गए, क्या होना चाहिए
- पहले नारियां कितने उत्कृष्ट स्तर पर थी परंतु आज के समय में दासी बनकर दम तोड रही हैं
- क्या होना चाहिए -> फिर से वही स्थिति आनी चाहिए
- दक्षिण से उपर जाने में दुगना समय लगता है जैसे कुण्डलिनी से उपर सहस्तार तक जाने में, नीचे से पानी चढ़ाए या उपर से गिराए तो दोनो में अंतर पड़ेगा, इसी Effort को कह दिया कि समय लगता है
- ऋषियों की ज्ञान की भाषा अलग रहती है
मंत्र लेखन क्या किसी भी कापी पर कर सकते है तथा क्या मंत्र लेखन के बाद मन्दिर में ही जमा करना चाहिए
- किसी भी Copy में लिखा जा सकता है, प्रारम्भिक छात्रो के लिए वह कापी होता है ताकि वह साफ लिखे, मंत्र भूल न जाए तथा Hand writing भी अच्छी बनी रहे
- पहले एक ही Page में 33 Line लिखते है
- शुरुवाती कक्षा में इसकी आवश्यकता होती है फिर बाद में तो Plain Page पर भी सीधी लाईन में लिख सकते है, लाइन वाले कॉपी की आवश्यकता केवल शुरवाती कक्षा में पडती है
- सभी रंग ईश्वर के रंग है, गांठ न बनने दे तथा किसी भी रंग के पैन से लिख लिजिए
- वेद की पुस्तक भी काले रंग से लिखी है, अपने विवेक से काम ले, कही कोई बंधन नहीं
क्या मंत्र लेखन के बाद कापी को मंदिर में ही जमा करे या कही भी रख सकते हैं
- मंदिर हम वही मानते है जहा मूर्ति रखी है
- घर को भी मंदिर माने, घर में उसे रखे
- उसमें उर्जा भरी है, घर को ही तीर्थ बना देगा
- शुरुवात में मंदिरो में प्राण प्रतिष्ठा करनी होती है इसलिए मंदिरो मे मंत्र लेखन की कापी मंगवाई जाती है
- घर मे रखेगे तो घर को भी Charge कर देगा
दैत्य कडा तप करते थे, अपने शरीर को सुखाते थे फिर इतना तप करने के बाद बुराई का मार्ग चुनते थे, तो इन्सान भी ऐसा करते तथा वो भी घमण्डी हो जाते है, गलत मार्ग का अनुसरण करने लगते है, इसके लिए आज क्या किया जाए
- यर्जुवेद के 40 वे अध्याय में उत्तर मिलता है -> हमें दोनो तरह की विद्या जाननी चाहिए, पदार्थ विज्ञान के साथ आध्यात्म विज्ञान भी
- बिगडते वो लोग है जो केवल भौतिक वादी है, केवल पदार्थ विज्ञान को पढ़ते है, वे खडड् में गिरते हैं, उसका नियंत्रण आत्मविद्या से होता है
- पदार्थ परिवर्तनशील है, पदार्थ से चिपकेंगे तो इसकी भूख आग की तरह बढ़ती जाएगी तथा यह अग्नि शरीर को जलाकर नष्ट कर डालती है
- आत्म जगत शांति वाला है तथा इस क्षेत्र में वे लोग प्रगति नहीं किए तो हमें दोनो तरह की विद्या जाननी है, विद्याम च अविद्याम च, भौतिक विज्ञान के साथ में आध्यात्म विज्ञान भी
- भौतिक विज्ञान से संसार का सुख तो मिलेगा लेकिन तृप्ति नहीं मिलती
- तृप्ति व शांति आत्मा/आत्मविद्या से मिलती है
- वेद को इसलिए ईश्वरीय वाणी कहा इसके अनुसार चलना सीखे, जो वेद के अनुसार नहीं चलते उन्हें दिक्कत आती है
- अवतार प्रक्रिया वेद के अनुसार चलना सिखाने के लिए आती है
- गुरुदेव वेदमूर्ति थे, गुरुदेव इतना तप इसलिए किए क्योंकि हम वेद के अनुसार चलना सीखे और आत्मा को भी साथ लेकर चले
- शरीर में चक्रों का ध्यान करेगें तो मूलाधार स्वादिष्ठान मणीपुर, ये सभी संसार से जुडा है, स्थूल जगत से जुडा है
- दया वाला Area अनाहात चक्र से आता है
- अनाहात चक्र की जो साधना करेगा वह दयालु ही होगाऔर यह हो ही नहीं सकता कि वह दूसरे को टॉर्चर करें
- आध्यात्म व विज्ञान को साथ न लेकर चलने वाले Handicapped साधक कहलाएंगे
- दोनो का संतुलन रखे, समत्वं योग उच्यते, कृष्ण ने कहा है समत्व ही योग हैं, आध्यात्म और विज्ञान दोनो में संतुलन बनाकर चले
- विज्ञान जरूरी है, शरीर को सुख सुविधा देगा लेकिन शांति नही दे पाता है, भोग अशांति को बढाता है तथा भोग की अधिकता शरीर को भी क्षीण कर देती है, भोग के बिना जीवित भी नहीं रह सकते, इसलिए जितना जरूरी हो उतना रखे, संतुलन की विद्या को आध्यात्म कहते हैं
भावना की शक्ति कहा तक काम करती है
- संसार भावनाओं से चलता है
- आत्मा भावातीत है
- आत्मिक शान्ति के लिए भावनाओं से उपर उठना होगा
- हमारी भावनाएं किसी खास व्यक्ति, किसी खास पदार्थ, किसी खास रुचि से जुड़ी रहती हैं और ईश्वर इसके विपरीत दिशा में भी है
- जिस दिन हमारी भावनाएं सर्वव्यापी बन जाएगी तो वह भावातीत कहलाएंगी उसको उदार भक्ति भावना कहेंगे
- हम रात दिन अपने सगे संबंधियों के लिए मनोतिया करते हैं, ईश्वर से / गुरु से । इसके लिए हमें या तो हस्पताल जाए या योगा किजिए तथा अपना ख्याल स्वंय रखकर अपने से ठीक करना है
- हम स्वार्थो से दोस्ती किए है इसलिए कहते है कि ऐसी भावनाओं से कष्ट होगा
- भावातीत बनना होता है इसलिए ईश्वर की भावनाओं से अपनी भावनाओं को जोड़ें
- देवता भावनाओ के भूखे हैं, संसार के प्रत्येक तत्व को देवता (subject) कहते है, पृथ्वी देवता, अग्नि देवता, वसुवो देवता -> ये सब संसार के लिए कहा गया है
- ये सब भावना के आधार पर चलते है, भावनाओं से उनकी उत्पत्ति हुई है, ईश्वर ने भावना किया कि एक से अनेक बने, इसलिए सारा संसार भावनाओं से चलता है
- ईश्वर संसार भी है तथा संसार से परे भी है
- हमारी भावनाएं दोनो से जुड़े
- संसार से काम लेना है तो भावनाओं के धनी बने
- आत्मा को पाना है तो भाव संवेदनाओं को उत्कृष्ट बनाया जाए, उसको छोड़ नहीं जाए बल्कि सबके प्रति चाहे वे जड़ हो, शत्रु हो, मित्र हो सबके प्रति अपनी भावनाओं को Limited को UnLimited कर दिया जाए
- हम लोग केवल सुख में ही मजा लेते हैं तथा दुख में मजा नहीं लेते तथा दुखः में ही ज्ञान मिलता है
- दुखः से भी यदि भावनाएं उतनी ही अच्छी लगनी लगे तो ईश्वर अब आपसे खेलना चाहेगा, ऐसे ही लोगों के हृदय में ईश्वर में रहता है जो सुख व दुख दोनों में एक समान आनन्दित रहे
वांग्मय 22 में आया है कि मानसिक उद्विग्नता का दूसरा कारण है बढी चढ़ी महत्वकाक्षाओं का घटाटोप, लोकेष्णा – वित्तेष्णा – पुत्रेष्णा को भी शांति खा जाने वाली डाकिने माना गया है, का क्या अर्थ है
- इसका सन्धिविच्छेद करे
- पुत्रेष्णा = पुत्र + ऐष्णा
- ऐष्णा का अर्थ हाह होता है, अधिक बटोरने की चाह
- जितना बटोरेंगे उतना भूख बढ़ जाती है
- रावण ने भी खूब बटोरा तथा फिर भी कुबेर के पास जाता था तो कुछ ना कुछ उसका छीन लाता था
- यहा गुरुदेव ने अपने धन को समाज के लिए दान कर दिया
- गुरुदेव ने धन को बाटने का सुख लिया तो देवता बन गए जिन्होने धन को लूटने का सुख लिया, वे राक्षस बन गए
- ऐष्णाए हमें अतृप्त बना देती है
- पुत्रेष्णा होगी तो लगेगा कि अपना ही बेटा चाहिए
- शिष्य पैदा करने की छूट है चाहे हजारो कर ले
- अपने घर से हजारो पैदा करने की छूट नहीं है
- शिवजी ने दूसरो के लिए सन्तान उत्पन्न किए
- अपना बच्चा उत्पन्न करे तो साधुम पुत्रम जनेह -> उसके लिए अपने को तप करना होगा तथा फिर उसे पढाना लिखाना संस्कार देना, ऐसी बहुत सारी Duties उसके साथ जुड़ी है
- ऐष्णाए तीन प्रकार की रखी गई
- एष्णा = वासना = चिपकाव = हाह
- ये तीनो ऐष्णाए कभी पेट नहीं भरने देती
- लोकेष्णा = हमारी ही जय हो, चाहे योग्यता हो या न हो, तो इसके लिए दूसरों की टांग खीचेगा तथा दूसरे को आगे बढने से रोकेगा जबकि उसे मेहनत से आगे बढना चाहिए
- सांसारिक यश प्रतिष्ठा हमे मिले, योग्यता चाहे हो या ना हो, बिना योग्यता के संसार में प्रतिष्ठा चाहना, इसे ही लोकेष्णा कहते हैं
गायंत्री युग शक्ति है का आशय क्या विशेष कल से है कृपया प्रकाश डाला जाय
- बुद्धिजीवी पिछले ढर्रे के अनगढ़ सिद्धान्तो को छोडकर नए पकडते है, वे वैज्ञानिक सोच रखेंगे
- युग धर्म का अर्थ है कि वैज्ञानिक युग आने वाला है, आध्यात्म व विज्ञान को साथ रखे
- भौतिक विकास किया तो उसे आत्मिक विकास / Personality Refinement में खर्च करे
- भविष्य का धर्म वैज्ञानिक धर्म है इसलिए अभी प्रज्ञा का अवतार है
- सारी समस्याओं का समाधान लोग अन्य तरीकों से ढूंढ रहे थे, समस्याएं अनेक समाधान एक = अध्यात्म और आध्यात्म की गंगोत्री को गायंत्री कहा जाता है
- धरती को स्वर्ग बनाना यह भौतिक विज्ञान के अन्तर्गत आएगा तथा अपने को देवता बनाना, यह आध्यात्म विज्ञान में आएगा
- इन दोनों का संतुलन रहेगा तो आदमी का सारा दुःख धरती पर से खत्म हो जाएगा
- इसी को सद्ज्ञान और सत्कर्म कहा जाता है, अभी इन दोनों का समन्वय है
भगवदगीता का श्लोक – कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः। स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।4.18।। जो पुरुष कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है – का क्या भावार्थ है ?
- कृष्ण की बताने की अलग शैली है
- हर प्रोफेसर की पढ़ने की अपनी अलग शैली होती है, उन्होंने कहा कि बिना कर्म के हम नहीं रह सकते, सृष्टि है तो कर्म नहीं रुकती, मन सदैव कुछ ना कुछ सोचता ही रहता है
- कर्म यदिआसत्त हो गया, पदार्थवादी हो गया तो बंधनकारी हो जाता है, चिपकाव वाला हो जाता है
- यदि अनासत्त कर्म करते है तो कर्म करते हुए भी उसके साइड इफेक्ट नहीं आएंगे तथा वह कम निश प्रभावित रहेगा इसके लिए यहां अकर्म शब्द का प्रयोग किया गया है
- हम कर्म ऐसे करे कि उसका लाभ भी मिल गया और उसके पाप पुण्य भी नहीं आए, यह कर्म मोक्षदायी होगा
- बार बार जन्म लेने की श्रृंख्ला पाप पुण्यों को भुगतने के लिए होता है तो कुछ ऐसा कर्म करे कि कर्म भी हो तथा उसके Side Effect भी ना आए इसलिएअनासत्त कर्म करने को योग कहा तथा कुशलतापूर्वक करे तो अब वह कर्म होते हुए भी अकर्म कहलाएगा
- कोई भी कर्म खराब नही बस एक शर्त यही है कि वह आत्मिक विकास में लगता हो
- अकर्म ही वास्तविक कर्म है, इस भाषा का उपयोग यहा किया गया है
- यह भाषाशैली कुछ विचित्र बनाई है ताकि बुद्धिजीवी वर्ग के लोग भी इसका लाभ लें 🙏
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