पंचकोश जिज्ञासा समाधान (11-11-2024)
कक्षा (11-11-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
सुंदरीतापनीपनिषद् में आया है कि त्रिपुरशक्ति (कुण्डलिनी शक्ति) एकार ही शयन करती है अर्थात एकार ही ग्रहण किया जाता है, . . . जो इस प्रकार जानता है वह ईश्वरीय ज्ञान से परिपूर्ण हो जाता है, का क्या अर्थ है
- चेतना के मूल स्वरूप को एकार कहते है
- यह ईश्वर की अव्यक्त शक्ति के लिए आता है
- कुण्डलिनी शक्ति को बह्म शक्ति मानना चाहिए, सबसे श्रेष्ठ शक्ति माना जाए ताकि जागरण की श्रदा बढ़ेगी, पुरुष उपर सहस्तार में व प्रकृति नीचे मूलाधार में
ऐतरेयोपनिषद् के प्रथम खण्ड में आया है कि परमात्मा ने आरम्भ में मरीची, मर् व आप: लोक की रचना की, मरीची प्रकाश को व मर् पृथ्वी को कहते हैं तो यह आप लोक कौन सा है
- आपः सृष्टि के मूल घटक को कहा जाता है, जिस घटक से सारा संसार बना है, उस मौलिक तत्व को आपः कहा है, उसे ज्ञानयुक्त उर्जा भी कहते है, यही सृष्टि का मूल प्रवाह है, आपः का एक अर्थ सर्वव्यापः भी है, यही सर्वव्यापी तत्व है, प्राण के समुद्र में ही हम तैर रहे है, प्राण से इसी समुद्र से बुलबुलो की भाति सृष्टि उत्पन्न होती है व इसी में विलीन होती है
- एक प्राण प्राणमय कोश में Bio Electric Partical के रूप में है जो धावमान (दौड़ने वाला) है
- प्राण की एक स्वतंत्र सत्ता भी है जो हर जगह है, शून्य में भी है, उस प्राण को आपः कह दिया
- उसी को क्षीर सागर भी कहते है, उर्जा व ज्ञान को हम देख नहीं सकते परन्तु उर्जा व ज्ञान के रूप में यह हर जगह भरी हुई है
जाबालदर्शनोपनिषद् में आया है कि शरीट में विद्यमान पंच तत्वों को व्यापक रूप में समझना चाहिए, जब हम पृथ्वी तत्व की कामना करते हैं तो यह सारी पृथ्वी हमारे बह्माण्ड रूपी शरीर में विद्यमान है, ऐसी भावना करने से पापों का विनाश हो जाता है, घुटने से गुदा तक का भाग जल तत्व है, गुदा से हृदय तक अग्नि तत्व है, हृदय से उपर भौहो के मध्य भाग तक वायु तत्व है तथा उसके उपर फिर आकाश तत्व है, क्या भौहो के नीचे ही वायु तत्व है
- सभी तत्व सब जगह है परन्तु मुख्यालय के लिए शरीर का वह स्थान बताया गया है
- जैसे पृथ्वी तत्व सबसे भारी होता है तो वह शरीर में सबसे नीचे घुटनो के नीचे बनाया परन्तु मस्तिष्क में हड्डिया है तो पृथ्वी तत्व वहा पर भी है, इसी प्रकार आकाश तत्व सबसे उपर मस्तिष्क में है तो घुटनो के नीचे भी है
- मिट्टी घुले पानी को रख दे तो मिट्टी नीचे बैठ जाएगा तथा उपर का पानी बिल्कुल साफ हो जाएगा
- पैंगलोपनिषद् में भी इसे अच्छे से बताया है कि प्रत्येक तत्व में एक तत्व Dominant 50% होता है तथा बाकी के 4 तत्व भी समान मात्रा में एक साथ रहते है, इस प्रभाव को शरीर में पढ़ाने के लिए पांच भागों में बांट दिया प्रत्येक ऋषि की पढ़ने की अलग-अलग शैली होती है परन्तु प्रत्येक तत्व सभी जगह रहेंगे
पांच तत्वो में ब्रह्मा(पृथ्वी), विष्णु (जल), महेश (अग्नि), ईश्वर (वायु) व सदाशिव (आकाश) यह बताया है, का क्या अर्थ है तथा महादेव व सदाशिव में क्या अन्तर है
- इनके स्वभाव को देखते हुए जोड़ दिया है
- सदाशिव शाशवत चेतना को कहा जाता है, उनका चित्र पंचमुखी बनाया जाता है, आकाश तत्व के रूप में वे हर जगह व्याप्त है, सबसे सूक्ष्म अवस्था को सदाशिव कहते है
- यदि कोई किसी अन्य देवी देवता का भक्त है तो वह यह कह सकता है मेरे देवी देवता कहा है तो यह समझ सकते है कि सभी देवी देवता उस सदाशिव में घुले है / समाएं हुए है
- गणपति उपनिषद् में गणेश जी को सदाशिव कह दिया, यह पढ़ाने की अपनी शैली है
- बह्मा प्रजनन से संबंधित है, संसार का ठोस आधार है तो पृथ्वी से जोड दिया
- जल में नारायण रहते है, विष्णु क्षीर सागर में वास करते है तो विष्णु को जल से जोड़ दिया
- शिव / महेश / रुद्र, अग्नि से संसार को भस्म कर डालते है / कामदेव को भस्म कर दिया तो अग्नि से उन्हे जोड दिया
- स्वभाव से मिलते जुलते होने के कारण तत्वों से जोड दिया, रुद्र पृथ्वी में भी है
- गुणबोधक शब्दों के साथ यहा दिया गया है तो हमें तालमेल बैठा लेना चाहिए
कठोपनिषद् में आया है कि हृदय में 101 नाड़ियों का समूह है, इसमें से एक मूर्धा कपाल का भेदन करके बाहर निकलती है, उसके द्वारा उर्ध्वगमन करने वाला साधक अमृत तत्व को प्राप्त करता है अन्य अविष्ठ नाड़ियां बहमोत्सर्ग में सहायक होती है, इस विद्या को पाकर नचिकेता समस्त विकारो से रहित एवं सवर्था शुद्ध होकर जन्म मृत्यु के बंधन से मुक्त हो गया . . . यह पढने पर भूल जाते है तो इसे कैसे पढ़ा जाए
- इसे यदि श्राद्ध काल में पढने को कहा गया है तो ऐसा ना समझे कि जब कोई मर गया है केवल तभी इसे पढ़ना है, इसे श्रद्धालु लोगों के बीच में पढ़िए जिन्हे जरूरत है, जानकरी लेना है तथा जहा श्रद्धा तत्व की बाहुल्यता है उसी को श्राद्ध / सदन कहा गया है
- यहा 101 नाड़ियां बताई है तो व्यक्ति भम्र में पड सकता है कि फिर 72000 नाड़ियां कहा चली गई तथा चक्रो में भी बाटेंगे तो 700 ही हुआ, यहा कहने का अर्थ है कि counting में न फंसे, सहस्त्र शीर्ष का अर्थ अनन्त होता है तो यहा भी नाडियों को counting करके न गिने
- सत / शत को यहा अनन्ता के रूप में लिया है
- हृदय / अनाहात चक्र, बीच वाला चक्र है, यह भावनाओं का प्रवेश द्वार है तथा श्रद्धा तत्व से शुरू होता है तथा उधर्वगमन सहस्तार तक करता है
- हमें समत्व भाव में रहना चाहिए
- समत्व भाव को ही सुष्मना कहा है जो उसमें रहते है वे मोक्ष को प्राप्त करते है व उनका चुम्बकत्व संसार से परे हो जाता है
- कृष्ण ने भी कहा है समत्व ही योग है
- शोक विषाद न करे क्योंकि संसार में कोई मरता ही नहीं है तो किसके लिए रोना तथा फिर भी मरना मान ही रहे है तथा वह स्वर्ग में गया है तो फिर क्यो रोना, नरक में गया होता तो रोते तो ठीक लगता, हर हाल में शोक मोह खत्म करना है
- जिसका जन्म हुआ उसकी मृत्यु निश्चत है तथा जो मरता है उसका जन्म भी होता है तो इस प्रकार ईश्वर की व्यवस्था के अनुसार उसकी गति श्रेष्ठता की दिशा में ही होगी
- जो ये मानते हैं कि आत्मा मरती ही नहीं तो फिर शोक न करे तथा मरता मानते है तो भी शोक न करे, प्रत्येक की उम्र होती है, शोक मोह को हटाने के लिए अपने व अन्यों के विचार परिष्कृत करते रहने चाहिए
जैसे कहा जाता है कि यदि अन्य देवी देवता का लाभ लेना हो तो गायंत्री मंत्र जप के बाद अन्य देवी देवता का मंत्र जप करना चाहिए तो क्या गायंत्री मंत्र लेखन के बाद अन्य देवी देवता का मंत्र लेखन भी कर सकते है
- अपनी श्रद्धा के अनुरूप कर सकते है
- गायंत्री मंत्र सबके लिए है, सभी देवताओं का यह अर्क है
- अलग अलग सभी देवताओ (33 करोड़ का) का मंत्र लिखना तो अधिक कठिन है
- ऋषियों के सामने भी यह समस्या आया तो उन्हे पता चला कि एक ऐसा भी मंत्र है जिसका जप किया तो सभी देवताओं का आर्शीवाद एक साथ मिलेगा
- यदि हनुमान जी के भक्त है तो गायंत्री मंत्र लिखते लिखते हनुमान जी का जप / ध्यान करें तो मंत्र उनको चला जाएगा, ये देवताओ का संदोहन मंत्र है, जप के समय जिस देवता का ध्यान करेंगे तो उसी देवता का अमृत देने लगेगा, यह सभी देवताओं से सम्पर्क जोड़ता है
यदि गायंत्री मंत्र गुरु के द्वारा दिया जाए तो ही इसका जप करना चाहिए क्या यह सही है
- गायंत्री मंत्र का प्रयोग चारो वेदो के अनुरूप चारो तरफ से होता है
- संध्या वंदन के लिए मौन जप किया जाता है तो ऋग्वेद के अनुसार मौन मानसिक जप आत्मिक विकास के लिए किया जाता है
- यर्जुवेद के अनुसार बोल बोलकर जप किया जाता है
- सामवेद के अनुसार संगीत के रूप में भी गा सकते है
- अर्थववेद के अनुसार किसी को कोई रोग दुःख है तो मंत्र पढ़कर भी उच्चारण कर सकते है
- गुरु के द्वारा जो मंत्र प्रदत्त होगा वह विद्यार्थी को लाभ करेगा क्योंकि जहा जहा दिक्कत आएगी तो समाधान भी चाहिए
- गुरु भी ऐसा हो जो गायंत्री का सिद्ध हो, कम से कम वशिष्ठ और विश्वामित्र स्तर से नीचे का न हो
- वैसे व्यक्ति/गुरु यदि न मिले तो सुर्य को ही गुरु मान ले
- अभी धरती पर उपलब्ध परमपूज्य तपोनिष्ठ वेदमूर्ति महाप्राज्ञ पंडित श्री राम शर्मा आचार्य जी -> इन्होंने वशिष्ठ परम्परा में रहकर 24 वर्षो तक घोर तप किया
- वशिष्ठ की परिभाषा = जो व्यक्ति सवा करोड गायंत्री मंत्र का जप करें उसे पचा ले तथा राष्ट्र हित में खर्च करे, उसे वशिष्ठ रहते हैं
- जो ढ़ाई करोड़ गायंत्री मंत्र का एक लंबे अनुष्ठान में जप किया हो, पचाया हो तथा विश्व बह्माण्ड का मित्र बनकर खर्च करता हो, उसे विश्वामित्र कहते है
- हमारे गुरुदेव ने एक अनुष्ठान में 24 वर्षो में जौ की रोटी व छाछ पीकर, साढे छः करोड़ गायंत्री मंत्र का जप किया, सारी सिद्धियां मिल गई, सभी 24 अक्षरों को पचाया, चारो वेदों का भाष्य किया -> ये आचार्य भी है, तपस्वी भी है, ब्रह्मऋषि भी है, नर्सरी से Phd तक करवा सकते हैं
- जब तक ऐसे गुरु न मिले तो विश्वामित्र को या सुर्य को अपना गुरु मानकर चलते रहे
- आचार्य भी दीक्षा दे सकते है लेकिन आचरण तक शिक्षा देंगें, जब कभी शिष्य का Accident हो या वह खतरे मे हो तो प्राण देकर रक्षा नहीं कर सकते
- तपस्वी गुरु होगे तो Accident या अकाल मृत्यु से भी बचा लेंगे
- यदि ब्रह्मऋषि गुरु होगे तो वे हमें बचाएंगे भी तथा बह्मज्ञान तक भी पहुंचा देंगे
- जैसे गुरु वैसे शिष्य, इसलिए कहा गया है कि ये पराविद्या है तो इसके लिए इसके सिद्ध गुरु की आवश्यकता है
- अभी गुरुदेव स्थूल शरीर में नहीं है तो उन के Cosmic Body से ले, जो वरिष्ठ है वे केवल शपथ भर दिलवाएंगे, दीक्षा किसी व्यक्ति से नही अपितु गायंत्री महाविद्या से श्रद्धापूर्वक लिया जाता है क्योंकि ऋषि या व्यक्ति तो आते जाते रहेंगे
- अपने गुरु के बताए Dicipline में रहकर साधना करेंगे तो पूर्णता तक पहुंच जाएंगे तथा इनके अनुशासन का पालन करने से हम इनके शिष्य कहलाएंगे, वास्तव में हम सभी गायंत्री महामंत्र के शिष्य है, उसके अनुसार ही हमे चलना है
सम्यक और समत्व क्या एक ही है
- जी एक ही है
- ईश्वर का एक नाम सम है -> हरि व्यापक सर्वत्र समाना -> जो हर जगह एक समान घुला हुआ है वही सम्यक है
- हमारे विचार ऐसे हो जो सबके लिए फायदेमंद हो तथा सबके कल्याण से जुड़े तो सम्यक विचार कहलाएगा
कहा जाता है कि मनुष्य जैसा चाहे वैसा अपने बच्चे को बना सकते है तो गुरुदेव बह्मज्ञानी के साथ ऐसा क्यो नहीं हुआ
- उसमें दोनो बाते रहती है
- प्रत्येक आत्माएं स्वतंत्र होती है
- माता पिता अपने अनुरूप जितना कर सकते है वह करते है परन्तु बच्चा यदि पढ़ना ही नहीं चाहता तो कुछ नहीं कर सकते
- पुलस्त ऋषि जैसे ब्रह्मज्ञानी के घर में नाती के रूप में रावण ने जन्म लिया तो किसी ने कहा कि आप अपने नाती को बह्मज्ञान क्यों नहीं देते तो उन्होंने कहा कि हम एक नाती के चलते संसार के सभी नातियो को कैसे छोड दे
- माता पिता आत्मा को पैदा नहीं कर सकते, आत्माएं स्वतंत्र आती है, हम केवल उन्हे अपना DNA, गुण व प्रतिभा दे सकते हैं
- आध्यात्म कहता है कि 100 कमाए तो 25 में काम चलाए व 75 बाट दे तो ऐसे में कोई कभी धनी नही बन सकता, रावण सोने की लकां चाहता था तो वह दूसरो से धन लूटे बिना संभव नही था तो यह रावण का जूनून था तो उसने किया, ईश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति को यह छूट दिया है कि वह कर्म करने में व भाग्य निर्माण करने में स्वतंत्र हैं
- प्रकृति का नियम क्रिया की प्रतिक्रिया के अनुसार कर्म का फल सभी को उसके अनुरूप ही मिलेगा
- जो समझाने बुझाने से नहीं मानता है तो प्रकृति उसे दण्ड दे देती है
- साधना से DNA तक बदल सकता है परन्तु साधक करना चाहता है या नहीं यह उस पर निर्भर करता है
स्वर साधना में ईड़ा पिंगला सहित 10 नाडियों का उदगम पूरे शरीर के नाभी क्षेत्र में बताया गया है, तो ईडा पिंगला सुष्मना का ध्यान रीढ़ की हड्डी के बीचो बीच क्यों किया जाता है
- जो प्राण हम खींचते है वह रीढ़ की हड्डी से होकर सहस्तार से मुलाधार तक जाता है तो उसका Formation सूक्ष्म रूप से रीढ़ की हड्डी में ही हो जाता है
- प्राण विद्युत को हम देख नहीं सकते और प्राण का प्रवाह रीढ़ की हड्डी के Central Canal में होता है, वही Gray Matter रहता है तथा वही से ही Nerve Fiber निकलकर Ganglionic Series बनाते है, बाहर से यहा Sympathetic व Asympathetic Series दिखता है परन्तु इसका formation रीढ़ की हड्डी के भीतर ही होता है, बाहर प्रत्यक्ष दिखता है तो इसलिए इसे बाहर से जोड देते है
- जैसे पहले Antenna होते थे, आकाश से Signal, Antenna के भीतर आने के बाद Positive – Negative भीतर अपने आप ही बना लेता है
- ध्यान रीढ़ की हड्डी में इसलिए किया जाता है क्योंकि वहा उसका उदगम है तथा वहा से हर चक्रो में गुजरा है
- नाभी मूलाधार को भी कहते है तथा नाभी, नीचे के तीनो चक्रो को मिलाकर नाभी कंद को भी कहते है
छट पर्व में जल तत्व को प्रधानता देने का कारण क्या जीवन को सरस व शीतल बनाना है
- इसके साथ साथ एक यह कारण भी है कि जल में अल्ट्रा वायलट किरणे जल्दी Absorb हो जाती है, कपडे उसमें रुकावट डालते है तो कपड़ो को भी भीगो लिया जाता है तथा गीले वस्त्रो में सुर्य देवता को अर्पण किया जाता है
कठोपनिषद् में आया है कि जिस प्रकार गर्भवती स्त्रियों द्वारा विधिवत पोषित गर्भ धारण किया जाता है उसी प्रकार जातवेदा अग्नि दो अरणियो के मध्य स्थित रहता है, वह प्रज्वलित होकर हवन करने योग्य सामग्री से युक्त पुरुषो द्वारा प्रतिदिन स्तुत्य होता है, यही वह बह्म है, का क्या अर्थ है
- दो अरणी का मंथन करेंगे तो उसमें से बिजली निकलेगा, जैसे N Pole व S Pole रूपी दो अरणी के मिलने से चुंबक उत्पन्न होता है
- जैसे पुरुष व प्रकृति दो अरणी के मिलने से सृष्टि का सृजन शुरू होता है, तब जातवेदा अग्नि अपना काम करने लगती है, उसी को गुप्त ताप (Latent Heat) कहा जाता है 🙏
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