पंचकोश जिज्ञासा समाधान (10-12-2024)
कक्षा (10-12-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
स्कन्दोपनिषद् में आया है कि जड़ और चेतन का जो दृष्टा है उसे ज्ञान शरीरी अविनाशी अचित्त कहा गया है, उसी को महादेव और महाहरि के नाम से जाना जाता है, का क्या अर्थ है
- ज्ञान शरीरी = ज्ञान स्वरूप है, उसमें सत चित् आनन्द है
- मै यदि आत्मा हूँ तो आत्मा का आकार कैसा है या उसका शरीर कैसा है
- मै शरीर नहीं हूँ तो अपने को जानना जरूरी है
- अपने को जान लिया तो विश्व को जान लिया
- मेरा मूल स्वरूप क्या है, शरीर मर गया तथा उसके भीतर से निकलने वाला शरीर नहीं है, Bioelectricity (प्राण विद्युत) भी नहीं है, मन भी नहीं है, इस प्रकार हमे सोचना चाहिए
- संसार को देखकर ही ज्ञान मिलता है
- प्रकृति पूरी पाठशाला है, उसे पढ़ना चाहिए, किताब में जल्दी नहीं मिलेगा, मिलेगा तो जल्दी समझ में नहीं आएगा, विचार करेंगे तो समझ आ जाएगा
- वह शरीर से निकलने वाला ज्ञान स्वरूप है तथा ज्ञान का फोटो नहीं बना सकते
- ईश्वर ज्ञान के रूप में सब जगह घुला है जैसे तारे ग्रह नक्षत्र से लेकर चीटी व सभी जीवो में विद्यमान है
- यहा आत्मा के रूप में बता रहा है वह ज्ञान स्वरूप है तथा हर जगह हैं तथा नष्ट नहीं होता
- विचार भी नष्ट नही होता
- कुछ भी यहा नष्ट नही होता, केवल रूप बदलता है
- यहा ईश्वर के ही सभी गुणों के विषय में बताया जा रहा है
नारदपरिव्राजकोपनिषद् में बह्मा जी कह रहे है कि कुटि चक्र संन्यासी को मस्तक पर उधर्वपुण्ड धारण करना चाहिए, बहुदक संन्यासी को त्रिपुण्ड धारण करना चाहिए, हंस नामक संन्यासी उधर्वपुण्ड अथवा त्रिपुण्ड तथा परमहंस वाले संन्यासी को केवल भस्म धारण करनी चाहिए, तुरीयातीत के लिए तिलक पुण्ड का नियम बताया गया है, अवधूत संन्यासी के लिए किसी भी प्रकार का विशेष चिन्ह आवश्यक नहीं, यहा 4 प्रकार के संन्यासी कुटिचक्र, बहुदक, हंस एवं परमहंस और तुरीयातीत अवस्था जीव की अवस्था का वर्णन है, का क्या अर्थ है
- ये सभी माध्यम / चिन्ह / symbol है
- कमजोर छात्रों के लिए माध्यम की जरूरत है
- ये सभी मध्यमा वाणी है, इसे लिंग कहते है
- symbolic system (हाव भाव भंगिमाएं) को मध्यमा वाणी कहते है
- ज्ञान सबके लिए common है कि कैसे रहना है कैसे जीना है
- तंत्र साधना में जो आचार संहिताएं है, वे 7 Steps है, यहा इन्होंने उसी ज्ञान को 4 चरण में बताया
- वैष्णवाचार = कुटिचक्र -> जो विश्व के लिए भी सोच रहे हैं, दूसरो के लिए भी दर्द होना चाहिए,
- शैवाचार -> शिवजी को भी symbol दे दिया, हम एकांगी ना रहे, ईडा पिंगला सुष्मना तीनो को एक बिंदु पर लाओं, शिवजी हठयोगी थे, ज्ञान कर्म भक्ति को मिलाओ, इसका एक Symbol रखा, उसी से शैवाचार आ गया
- हंस में वामाचार आ गया, वो नियमों का पालन नहीं करते तथा परिस्थितियो के आधार पर कार्य करेगा, मन किया तो धारण कर भी सकता है तथा नही भीं कर सकता -> धीरे धीरे उसका ज्ञान एक Boundary से बाहर निकल रहा है, ये सभी वामाचार भर है या इसे सिद्धान्ताचार भी कह सकते है
- फिर कौलाचार में जाने वाले अवधूत परमहंस होते है, वे सभी नियमों व बधनों से परे होते है
- भस्म यहा दार्शनिक रूप में है कि सारा संसार भस्मीभूत होता है
- अवधूत के 4 अक्षर
- अ = अविनाशी
- व = वरेण्यं (सविता/ईश्वर ही वरण करने योग्य है, जो उसे सदैव अपने हृदय में धारण किए रहे), यहा वरण करने योग्य केवल एक ही तत्व है, वह गायंत्री मंत्र में भी आया है तत्सवितुर्वरेण्यं, सविता को हमें वरण करना है
- धू = संसार के सभी बंधनो को धू धू करके जला दे आत्मा बंधन मुक्त / सर्वव्यापी है तथा सभी बंधनो से परे है तभी तो सर्वव्यापी होगा अन्यथा यदि बंधन में एक Boundary में रहेगा तो सर्वव्यापी कैसे हो सकता है तथा जो Boundary में आ गया तो उसे कष्ट होगा
- त = तत्वमसि, वह महावाक्यों में जीता है, अहम् बह्मास्मि, शिवोहम् , सोहम्, वह केवल तुम ही हो
- महावाक्यों में ही उसके पाथेय रह गए है
- सोहम् भी महावाक्य है जो यह बताता है कि वह बह्म मै ही हूँ
- वह सविता तुम हो
- जब ईश्वर सदैव तुम्हारे हृदय में बैठा है तो जो हृदय में बैठा है उसी का राज पाठ चलेगा तो अब तुम्हारी सत्ता कहा है, तुम केवल छिलका मात्र हो
- बीज ही मौलिक कहलाता है, छिलका पेड़ उत्पन्न नही कर सकता, केवल बीज ही पेड उत्पन्न करता है,
- Seed / बीज ही personality है
- यही बौधत्व होता है कि भेद दृष्टि खत्म हो जाएगी तथा ईश्वरीय गुणो से वह चमकने लगेगा तथा ईश्वर जैसा व्यवहार करने लगेगा, ससांरी लोगो जैसा व्यवहार उससे करते ही नही बनेगा, वह अत्यंत Kind Hearted (दयालु) हो जाएगा, निष्ठुरता वहा नहीं चलती
कर्मकाण्ड भास्कर में आचमनम का क्या तात्पर्य है तथा इसका वैज्ञानिक पक्ष क्या है, तीन बार आचमनम क्यों करते है
- हमारे तीन शरीर है तो तीनो शरीरो को सीचें
- यह एक तरीके धुलाई सफाई है, छ तरीको से अपने आप को धोया जाए
- जितना बढिया धुलाई होगा उतना ही अच्छा रंगाई होगा, ईश्वरीय गुण अधिक अच्छे से हमारे भीतर आएंगे
- पवित्रिकरण के बाद आनमनम आया
- आचमनम में तीन बार जल की बूंदे मुंह में डाले, मुह में डालने का अर्थ कि तुम Digest करो और ईश्वरीय चेतना के दिव्य गुणो को अपने भीतर पीयो / धारण करो
- पीना क्या है
- आत्मा पर पड़ा 5 शरीरों का लबादा है पंचकोश, इसे अमृतम बनाओ, इसे थोडा Refined कर लिया जाए तो बहुत लाभ होगा
- इसी शरीर में अष्ट चक्र नौ द्वारा की नगरी है तथा कुछ चमकीले पंचकोष है, यदि इनकी cleaning हो जाएगी तो स्वर्ग का आनन्द धरती पर लोगे, मनुष्य में देवत्व का उदय भी होगा और हर जगह आपको ईश्वर दिखेगा
- विधानम् = तकीया = तर्क तथ्य वाला शरीर = सूक्ष्म शरीर
स्थूल शरीर = तोषक - सूक्ष्म शरीर -> स्वस्थ शरीर स्वच्छ मन
- कारण शरीर = सत्यम = अतःकरण जो है वह सत्य को धारण करने वाला बने
- अतः करण को इतना दिव्य बना ले कि यह सारे ईश्वरीय गुणों से ओत प्रोत हो जाए, फिर अपना Personality (अंतःकरण) ही बदल जाएगा, आयतन, प्रतिष्ठा और श्रीं इसमें रखा गया है
- भावना के धनी बन जाए, सद्भाव सम्पन्न हो जाए, समृद्धि सम्पन्न हो जाए और शक्ति सम्पन्न हो जाए -> इन सब का घर अंतः करण है
ब्राह्मण वर्ग के ऋषि गुरुकुल चलाते थे, आरण्यक तपस्वी स्तर के तपस्वी स्तर से क्या आशय है कृपया प्रकाश डाला जाय
- गुरुदेव चाहते थे कि 10 लाख गायत्री गांव का निर्माण हो, मंदिर तो बहुत बन गए परन्तु कही तो गन्दगी अधिक है या कही भीड अधिक है तथा जिस उद्देश्य के लिए मंदिर बना था वह लाभ भी नहीं मिल रहा है, देवता बनाने के लिए मंदिर बनाए गए थे परन्तु यह केवल पूजा पाठ या चढावे का माध्यम भर बन गया
- मंदिर के निर्माण मैं लाखों करोड़ों खर्च हुए हैं परंतु मंदिर बनाने का मुख्य उद्देश्य पूरा नहीं हो पा रहा है तथा व्यक्तित्व परिवर्तन भी नहीं हो रहा है
- व्यक्तित्व परिवर्तन व्यवस्था हो इसलिए आरण्यक व मंदिरो में थोड़ा अन्तर रखा गया
- आरण्यक में तीन conditions पूरा होना चाहिए
- उपासना स्थल
- प्रशिक्षण की व्यवस्था (सालों भर Training चलना चाहिए)
- प्रशिक्षकों का आवास
- कभी भी कोई जाए तो ताला न लगा हो
- मंदिरो में भी ताला न लगा हो
- पहले जितने तीर्थ थे वे सब आरण्यक परम्परा में चलते थे, गुरुदेव ने भी गायंत्री तीर्थ का निर्माण किया जहा प्रशिक्षण भी सालो भर चले तथा वहा पर तपस्वी स्तर के व्यक्ति रहे, वहा व्यक्तित्व परिवर्तन के लिए तपस्या करवाई जाती है
- जो स्वयं तपस्वी न हो, वह दूसरे को भी क्या तपस्वी बना सकेगा, शिक्षक ही रोगी हो जाए तो वह दूसरों को निरोग कैसे बनाएंगे, गायंत्री तीर्थ एक तरह से एक ट्रेनिंग सेंटर है
- तपस्वी ही Training देता है, वह जानता है कि कैसे कचरो को अपने भीतर से निकाला जाए, आरण्यक में यह बात रहती है
- गुरुकुल वे वो लोग रहते है जो हमे तत्वज्ञान आत्मज्ञान सीखाते है तथा हमे बह्मऋषि बनाते हैं, वहा वह लोग रहते हैं जिन्होंने आत्म का / बह्म का साक्षात्कार कर लिया हो
- तत्व ज्ञान = संसार का निर्माण कैसे हुआ
- सर्व ज्ञान = पेट भरने की विद्या कि हम कौन सा कार्यक्षेत्र अपने लिए चुने
- आत्म ज्ञान = आत्मा का स्वरूप क्या है तथा हम इसे कैसे पाए
- बह्म ज्ञान = आत्मा से श्रेष्ठ परमात्मा है तो जब चाहे तब उस परमात्मा से संपर्क जोड ले -> इसमे जो Expert होते है वे बाह्मण कहे जाते थे, आध्यात्मिक Professor उस समय बह्मऋषि स्तर के रहते थे
- आरणयको में गलाई ढलाई के कम्र में उन्हे रखा जाता है
- जिसमें जो गुण है उसी को निखार कर उसको उसी क्षेत्र में लगा दे
गायंत्री स्मृति में गुरुदेव ने उत्कृष्ट चिंतन, प्रखर चरित्र व शालीन व्यवहार रखने के लिए कहा है तो उत्कृष्ट चिंतन के लिए क्या चो अक्षर को ले सकते है व प्रखर चरित्र को क अक्षर तथा शालीन व्यवहार को य अक्षर के रूप में ले सकते है
- ले सकते हैं तथा लेकर उसे उस क्षेत्र में use करना है, सविता का तेज हर जगह भरा हुआ है
- उत्कृष्ट चिंतन यदि हम करते है तो वह कितने लोगों को प्रभावित करता है, यदि थोड़े से लोगों को ही लाभ करेगा तो वह बाकी लोगों के लिए अधिक उपयोगी नहीं है, कोई ऐसी सोच बनाए जिससे पूरा विश्व लाभान्वित हो रहा हो
- सर्वे भवंतु सुखीना, सर्वे संतु निरामया वाला भाव रहे
- उत्कृष्ट चिंतन में हमारे विचार सबके लिए Resonance स्थापित करे
- प्रखर चरित्र = केवल पढ़े नही परन्तु अपने वयवहार में भी लेकर जाए
- सार्थक व प्रभावी उपदेश वह है जो वाणी से नहीं आचरण से दिया जाए = आचरण से देखना प्रखर चरित्र कहलाएगा
- ज्ञानी बन गए तो ज्ञान को परोसना आया या नही, यह भी महत्वपूर्ण है, परोसने की कला शालीन व्यवहार है
- शालीन व्यवहार = बोलने का ठीक तरीका हो
मीठा भी हो तथा सत्य भी हो - हम अक्सर कहते हैं कि सत्य कड़वा होता ही होता है, ईश्वर सत्य है और ईश्वर कड़वा भी है तो कौन ईश्वर की पूजा करेगा
- वास्तव में ईश्वर सत्य और मीठा है परंतु हमें बोलना नहीं आता तो इसलिए हम कह देते हैं कि सत्य कड़वा है
- हम कह सकते हैं कि हम सत्य नही फूहड बोलते है तभी कड़वा लगता है
- जो सत्य बोलने में अप्रिय लगता है तो उसे बोल ही मत, इसी को हमें सीखना और सीखना पड़ता है
- सारा संसार वाणी पर चल रहा है और कश्यप ऋषि ने कहा कि यदि वाणी पर नियंत्रण हो गया तो पूरे ब्रह्मांड को अपनी मुठ्ठी में कर लेगा
- सारा संसार देवताओं के अधीन है और देवता मत्रों के अधीन है, सारा संसार ध्वनि विज्ञान से चल रहा है जिसमें बैखरी मध्यमा पश्यन्ति और परा वाणिया आती है
- हमारे शरीर में सब ध्वनिया है, चक्र व उपचक्र में इसी प्रकार की तरंगे निकल रही हैं तो जो इन भीतर उठने वाली तरंगों को समझ गया वह पूरे ब्रह्मांड का ज्ञान पा लेता है 🙏
No Comments