पंचकोश जिज्ञासा समाधान (07-11-2024)
आज की कक्षा (07-11-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
सुदर्शनोपनिषद् में आया है कि यर्जुवेद के
तृतीय कांड के तृतीय सुक्त में बताया गया है कि जो भुजाओ में तपे हुए चक्र एवं शंख को धारण करता है वह पुण्य शाली है, जो ऐसा नही करता वह पाप करता है, का क्या अर्थ है
- तंत्र महाविज्ञान में Chapter वैण्णवाचार आया था जिसमें बताया गया है कि यदि अपने को विराट से जोडना हैं तो अपने भीतर विष्णु के गुणों को धारण करे
- यदि अपने को विराट सत्ता से जोडना है तो क्रमशः अपनी चेतना का आयाम / विस्तार बढ़ाना पड़ता है
- अपनी संकीर्ण सत्ता को विश्व बधुत्व में बदलना -> ये वैष्णवाचार है
- बड़ा कार्य करने में बडे बल की जरूरत पड़ेगी तथा समाज सेवी को समाज में आगे बढ़ना है तो अपने में बल व पराकर्म को भरना होगा, इसी के लिए न्यास क्रिया की जाती है
- शारीरिक बल अधिक कारगर नहीं होगा
- बल के साथ बुद्धि नहीं बढाए तो उदण्डता का व्यव्हार करेगा तथा दूसरो को कष्ट देगा
- बलवान बनो परन्तु उदण्ड मत बनो
- इसलिए वेदाचार में पहले अपनी भाव संवेदना को विकसित किया जाता है उसके बाद बल बढ़ा तो विश्व बंधुत्व में लगेगा, इसलिए कम्रबद्ध पढ़ाई जरूरी है
- चक्र का अर्थ गतिशीलता से है, बल बढ़ाकर अधिक से अधिक सेवा में खर्च करें
- आध्यात्मिक बल व भौतिक बल दोनो को बढाना होता है
- हर चीज में अच्छा सोचेगे तो सुदर्शन कहलाएगा, सुदर्शन कान के रोगों को भी ठीक करता है
- इस सृष्टि में जो नाद की जो साधना है, कान की अपनी दो भुजाएं है -> अवाछनीयताओं को न सुनना व नाद में बह्म को सुनना, इसे धारण करे -> व्यवहार में उतारे
- यदि संकल्प लेकर क्रिया नहीं किया तो पाप ही कर रहा है
जाबालदर्शनोपनिषद् में दत्तात्रेय ने कहा कि अपनी इंद्रियों को बलात खींचकर लगाना ही प्रत्याहार है, भगवान का पूजन भी प्रत्याहार है , . . .का क्या अर्थ है
- कुण्डलिनी प्रत्येक चक्र में, प्रत्येक cell में, प्रत्येक DNA में, प्रत्येक Atom में दबी हुई उर्जा है
- Atom को = कुण्ड माने
- यह दबी हुई शक्ति है, इसे गुप्त ताप या Latent Heat भी कहते है
- पानी से बर्फ बनने में दोनो 0 degree पर दोनो अवस्थाओ में कई Unit बिजली खा गया, वही कुण्डलिनी शक्ति है
- बलात = घोडे की नाक पर रस्सी से उसे Control करेंगे ताकि वह हमें गिरा न दे परन्तु वह स्वभाव वश इधर उधर भागेगा ही तो मन के सारे भावो को व्यक्त नही किया जाता उसे बलात रोकना होता है
सुर्योपनिपद् में ॐ खगाय नमः, ॐ मित्रायः नमः, सूर्यनमस्कार आसन में भी इनका उपयोग किया जाता है, क्या ये मंत्र केवल प्रार्थना के लिए है, इनके प्रभाव को किस प्रकार समझेंगे
- यह श्रद्धा भाव को विकसित करते है
- सुर्य उपासना जैसे छटपूजा, इस त्यौहार में अधिक Formality की आवश्यकता नहीं है
- सुर्पोपनिषद् में सुर्य की महिमा बताई गई है, महिमा गान करने से श्रद्धा बढ़ती है तो सुर्य भगवान को अधिक से अधिक अपने जीवन में घोले तो शरीर तो निरोग होगा ही
- चाहे जो भी परिस्थिया हो, कोई मरे या जीए, इससे आत्मा की / मन की शांति मिलती है
हृदय प्रदेश में अंगुष्ठ मात्र ज्योति का ध्यान और हृदय चक्र का ध्यान, ये दोनों एक है या अलग है
- यदि अनाहात चक्र का ध्यान किया तो चक्रवात व चुम्बकीय क्षेत्र की बात बन रही है
- वे चुम्बकीय तरंगे आस पास के शरीर के हिस्सो को निरोग बनाएगा
- यदि हम हृदय में अनुष्ठ मात्र ज्योति का ध्यान कर रहे हैं तो सिर्फ अपनी आत्म सत्ता को देखना होग तथा अपने में ईश्वर के गुणो ( मै शुद्ध हूँ, पवित्र हूं, अजर हूँ, अमर हूँ) को देखना होगा
- दोनो में Object व Subject का अन्तर पड़ा
- गुरुदेव यहा शरीर में आकाश का ध्यान करने को बताते है
कभी कभी जप या ध्यान में शरीर में कंपन की जो अनुभूति होती है तो वह जो कंपन, Toxine को निकालने के लिए हो रहा है या उसका कुछ और कारण है
- vibration / कंपन शुरुवाती दौर में होता है
- vibration तभी होता है जब किसी obstacle को पार करना हो, तरंगे सीधी नही जा पा रही है तो तरंग रास्ता बदल रही है, इसलिए पदार्थ भाव में ऐसा होता है
- जब हम मान लेंगे कि संसार है ही नहीं तो वहा कोई तरंग नहीं होगा
- इसलिए इन सभी अनुभवों को साक्षी भाव से देखकर आगे बढ़ना चाहिए
- यदि एक बार कंपन हुआ भी तो भी रोज रोज यह न खोजते रहे आज कल जैसी अनुभूति नहीं हुई, एक बार वह अनुभूति रास्ता साफ करके चली गई तथा अब हमारी आगे की गति रहेगी जैसे मालिश करते समय जब तक दर्द है तब तक सुखद अनुभूति रहती है फिर दर्द समाप्त होने के बाद सुख की वह अनुभूति क्षीण होकर समाप्त हो जाती है
विचार व भाव भी एक कंपन है तो समाधि की अवस्था में क्या साधक के शरीर में कंपन उत्पन्न नही होती
- यह कंपन एक शांति व आनन्द है
- आनन्द को हम कंपन नही कह सकते, आनन्द एक प्रकार की मस्ती / लहर है तथा यह जरूरी नहीं कि आनन्द की अवस्था में व्यक्ति कांपे
- विचारो की एक दिशा होती है तथा विचार एक किसी खास वस्तु / विषय तक जाता है
- वह (आनन्द) सर्व व्यापक होता है तथा उसकी कोई Boundary नहीं होती
- आनन्द की अनुभूति तो है परंतु ना तो उसकी कोई आकृति है और ना ही कोई दिशा है
- इसलिए प्रत्येक विषय (तन्मात्रा) का आनन्द मिलता है, विषयों में भी एक आनंदमय प्रकाश है जो सब जाह घुला हुआ है
मेरा राहु ग्रह खराब है तो क्या एक अनुष्ठान करने से शान्त हो सकता है
- राहु = संघर्ष / तप को कहते है
- प्रत्येक कार्य में संघर्ष की जरूरत पड़ती है, संघर्ष करने से उपलब्धि मिलती है तो कहेंगे कि राहु शान्त हो रहा है, Result उसे शांत कर देता है
- Result को पाने के लिए जो क्रियाए / संघर्ष / प्रयास कर रहे है तो उसे राहु कह देते है, संघर्ष करेगे तो उपलब्धि/सफलता मिलती है तो हम कहते है कि राहु शांत हो गया
- ये सभी नव ग्रह देवता कोई आदमी नही है, यही भूल हम करते हैं, ये सभी चेतनात्मक शक्तियां हैं जो हम सभी को ग्रहण करना चाहिए, ये सब ग्रहणीय है इसलिए ग्रह कहलाते है, प्रत्येक व्यक्ति का संघर्षमय जीवन होना चाहिए, व्यक्ति को साहसी होना ही चाहिए
- साहस का एक नाम केतु है
- वैज्ञानिक नाम = साहस, आध्यात्मिक नाम = केतु
- साहस कोई व्यक्ति नही तथा इसका फोटो नहीं बनाया जा सकता, ये सभी विभूतिया है
- जैसे अनुशासन में रहने पर व्यक्ति महान बनता है, जैसे गुरु / प्रकृति / आत्मा का अनुशासन -> अनुशासन को गुरु कहते है
कठोपनिषद् में उदालक ऋषि ने नचिकेता को यम के पास भेजा तो यमलोक में सशरीर व्यक्ति नही जाता तथा 3 दिन तक भुखे रहते है तो अतिथी को यमदेव ने भूखा क्यों रखा तथा यमदेव के परिवार ने भी उन्हे भोजन क्यों नहीं दिया तथा वहा तक कैसे गए सशरीर या अन्य किसी रूप में
- आप हिनालय जाते है तो हिमालय को ही धरती का स्वर्ग कहा जाता है तो यदि आप सशरीर जा सकते है तो वे भी जा सकते थे
- देवात्मा हिमालय क्षेत्र को ही स्वर्ग कहा जाता है
- गुरुदेव को उनके गुरू ऐसे स्थान पर ले गए जहा सशरीर नही ना सकते तो उन्हे उडा कर ले गए थे
- न्यायपालिका में जज से मिलने जा रहे है तो अन्य किसी से नहीं मिलवा सकते, जज से ही मिलना होगा तथा जज ही ये अनुमति देंगे कि किनसे व कब मिलना है
- अश्वमेध यज्ञ में सब देना होता है परन्तु नचिकेता का बाल बुद्धि का प्रश्न था तथा वे बार बार टोक रहे थे तो उनके पिता उद्दालक ने कह दिया कि हम तुम्हे यम को देते है
ईडा पिंगला सुष्मना के अलावा गुरुदेव ने व्रजा, चित्रणी व बह्मनाडी के बारे में भी बताया है तथा बह्मनाडी में ही सभी चक्रो का दर्शन बताया है, व्रजा व चित्रणी नाड़ी पर प्रकाश गले तथा इनका चित्रण / वर्णन किस ग्रंथ या उपनिषद् में मिलेगा
- आत्मिकी का ग्रंथ केवल उपनिषद् होता है
- भौतिकी का ग्रंथ दर्शन व शास्त्र होते है
- शास्त्र हमें संसार मे उठना बैठना जीना सीखाता है
- उपनिषद् कहता है कि संसार है ही नहीं, इसलिए शास्त्रों के पचडे में उनको पडना चाहिए जिन्हे संसार में रहना है, चलना है
- जो आत्मा की खोज में निकले है वे अपनी आँखो को बंद करे तथा माने कि संसार है ही नही तब वह अपने भीतर जाने में 3 आयाम रुकावटे डालते हैं
- पुराने भौतिक जगत की यादें तथा उसे हम सत्य मानते है, वे हमारा पीछा नही छोड़ती -> यही वज्रा नाड़ी है
- उसके बाद में चित्ताकाश मिलेगा, इसी को चित्रणी नाड़ी कहा जाता है, ये नाड़िया कोई स्थूल नही है, यह सब आकाश ही आकाश है, भीतर की सारी यात्रा आकाशीय विद्या है
- इसके बाद जब चिदाकाश में जाएंगे तो वहा पर बह्म नाड़ी है, चिदाकाश को बह्म नाडी कहते है, यह भावनात्मक हैं तथा सूक्ष्म है तो इन्हे स्थूल में हम ढूढ़े नहीं
- जागृत मन, अवचेतन मन व सुपरचेतन मन -> यही वज्रा, चित्रणी व बह्म नाड़ी है
प्रज्ञा युग में विराट ब्रह्म की झांकी स्पष्ट होगी का आशय क्या संवेदना एवं कर्तव्य परायणता का बोल बाला होगा कृपया प्रकाश डाला जाय
- क्षुद्रता महानता में बदलेगी
- जिन्हे लुटने में मजा आ रहा था वही सेवा भाव से बाटने में आनन्द लेंगे
- जैसे अभी छट पर्व में सब उदण्ड व्यक्ति ही सेवा भाव से अधिक सफाई कर रहे है
- यही प्रज्ञा युग आगमन है जहा सविता की उपासना सब कर रहे है
- सविता युग में सुर्योपासना बढ़ जाएगी
- छट पर्व बहुत पवित्र है, नमक का उपयोग नही किया जाता तथा चीनी के स्थान पर केवल गुड ही उपयोग में आता है
- विचार / व्यवहार परिवर्तन होगा – श्रुद्रता महानता में बदलेगी व में बदलेगी, निकृष्टता उत्कृष्टता में बदलेगी
- साधना में प्राण आते जाए तो यह सब सरलता से हो जाएगा 🙏
No Comments