पंचकोश जिज्ञासा समाधान (06-11-2024)
आज की कक्षा (06-11-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
सुदर्शनोपनिषद् में आया है कि यज्ञोपवित धारण किए, चक्र धारण किए , बह्मज्ञाता ब्राह्मणों मे श्रेष्ठ है, स्वर्ण हाथ में लेकर अग्नि में तपा हुआ बाह्मण भी यदि स्त्री शुद्र से भी सयुक्त हो जाए तो भी उसके गर्भ से बाह्मण का शरीर उत्पन्न होता है, का क्या अर्थ है
- तप साधना से DNA change होता है
- पांचो कोशो को शुद्ध करके आगे बढ़ते जाने से उसका DNA Change होता जाता है
- देसी पहाडी गाय अधिक खाएगी परन्तु दुध कम देती है तो इसका भी वैज्ञानिको ने उपाय खोजा कि भारतीय देसी गायों का आपस में Cross Fertilization के रूप में समाधान दिया, इससे नस्ल में सुधार होगा तथा यदि यह तीन पीढियो तक होता रहे तो नस्ल सुधर जाएगी
- माँ की भी महत्वूर्ण भूमिका होगी
- जैसे रावण बाह्माण तो था परन्तु वृतियो के चलते असुर भी कहलाया
तैतरीयोपनिषद् में आया है कि जिस आत्मा की हम उपासना अर्चना करते हैं वह जिसके द्वारा प्राणी देखता है, श्रवण करता है, गन्धो को सुंधता है, वाक शक्ति का विश्लेषण करता है तथा स्वाद अस्वाद का ज्ञान प्राप्त करता है वह आत्मा कौन सा है क्योंकि आत्मा तो स्वाद लेता ही नहीं, खिलाता ही नहीं तो यह सब करने वाला कौन है
- जब हम कहते हैं कि आत्मा स्वाद नहीं लेता तो ऐसा मत समझिए कि वह Dead / जड़ है
- स्वाद लेता है परन्तु स्वाद में फंसता नहीं, ईश्वर ने आनन्द के लिए सब बनाया तो आनन्द तो वह अवश्य लेगा
- कर्म फल को भोगने वाला जीवात्मा है
- वह (आत्मा) कर्म करता है परन्तु फल भोगता नहीं है,
- त्येन व्यक्तेन भुंजीता -> संसार के सारे भोगो को भोगते हुए भी लिप्त न हो
- आत्मा -> साक्षी भाव में रहकर आनन्द लेगा
- जब आत्मा मन बुद्धि अहंकार से चिपक गया तो जीवात्मा कहलाने लगेगा तथा सुख दुख अनुभव करने लगेगा
- जबकि वह आत्मा सुख दुःख का अनुभूति नहीं करता बल्कि परमसुख में रहता है
- संसार का सुख भी सुख है परन्तु वह भोगात्मक है
- आत्मा -> संसार के सुख का आनन्द भी लेता है, भोगता नहीं, भोग शब्द आत्मा / ईश्वर के लिए नहीं उपयोग होना, भोग शब्द सजा जैसा प्रतीत होता है
- यहा दुखः नाम का कोई तत्व नहीं है, यदि जानकारी लेकर करेंगे तो आनन्द ही आनन्द लेगे अन्यथा बिना जानकारी के दुखः मिलेगा
- हमारे भीतर एक ऐसा भी रसायन है, जो इसका असर काट देगा, उस स्तर पर हम नहीं पहुंचते है इसलिए डर डर कर रहते है
- डरने का यही कारण है कि उस Layer में हम नहीं पहुंच पाए कि जहा डर समाप्त हो जाए, एक ऐसा भी Layer है जहा से इसका असर समाप्त हो जाएगा, क्रिया की प्रतिक्रिया नहीं होगी, भोगने का अर्थ = कर्म फल का कारण नहीं बनेगा
- सजा भोगना या आनन्द लेना
- देवताओं को भोग लगता है, देवताओ या व्यक्ति की उपासना बंधनकारी है तथा फिर हम एक खास लोक मे जाएंगे तथा अनासक्त प्रेम यह उनका भोग है
- जुती / ज्योति का अर्थ = Photon / गतिशील Particle अंतरिक्ष में दौड रहा है, इसी से यर्जुवेद बना है, ग्रह नक्षत्र तारे सब अंतरिक्ष में दौड रहे है
जाबालदर्शनोपनिषद् में प्राण वायु को अपने वश में करने का बेहतरीय उपाय है गुदा व लिंग के बीच में एक नाड़ी है, जिसे सीवनी कहते है, यह सबको मिलाकर एक करती है, का क्या अर्थ है
- वहा एकत्व वाली / जोडने वाली बात है, वहा एक सिलाई किया गया है, दोनो को एक किया गया है, जोडने की क्रिया को गांठ मारना कहते है तथा वह कुण्डलिनी के रूप में है, वही जोडने की प्रक्रिया होती है
- बाकी जगहों पर sparking करेगा परन्तु मुख्य तो मूलाधार व सहस्तार ही है
- त्रयम्भक = शिवजी
ज्ञानी पुरुष अपने दाएं व बाएं टखने से सीवनी को दूसरे भाग से दबाकर और घुटनों के नीचे जो जोड़ है, उसमें भगवान ज्योर्तिंलिंग की कामना करे, दोनो के नीचे कौन सा जोड है
- सिद्धासन के pose में बैठकर आसन करेंगे तो तीनों प्रभावित होगे
- टखना वाला जोड जो हम सीवन में ले गए, वहा पर ध्यान करे
जब आपका Accident हुआ था तथा जब आप अपने शरीर से बाहर आ गए थे और आप अपने शरीर को देख पा रहे थे तो उसे अवस्था में जो शरीर से जो बाहर जो आया तो वह छाया शरीर था या वह आत्मा थी या उसका कुछ अन्य स्वरूप भी था
- विशुद्ध आत्म तत्व में थे परन्तु जीव संज्ञक ही कहलाएगा तथा हाथ पैर हमारे नहीं थे
- उस समय सुर्य के रूप में थे क्योंकि
- छाया शरीर में हाथ पाव होता है
- साधक अपने शरीर के बाहर, अपने भाव के रूप के अनुसार निकलता है, 1983 में शरीर भाव वाला Ego बहुत पहले ही समाप्त हो चुका था, जब भी meditation करे अपने को सुर्य के रूप में देखे
- जो जिस भाव से लेकर शरीर छोड़ता है वह उसी भाव में अपने अगले जन्म में जाता है
- सप्त ऋषि सभी तारा बन गए
- हम अपने शरीर से कैसे निकले यह पता नही चला, किसी एक ही रास्ते से निकलेगे, यह आवश्यक नहीं, उसके लिए संसार में कोई object ही नहीं जिसको पार करना है, यह सब आवाशवत है
- दूसरी बार शरीर में चक्रो के माध्यम से भीतर गए थे परन्तु आग के गोले की भांति ही निकल रहें थे तथा यह महसूस कर रहे थे कि शरीर का हिस्सा मरता ही जा रहा है
- यह भी हो सकता कि गुरु देव ने आत्मानुभूति योग के अभ्यास के लिए ऐसा किया हो
- शरीर से बाहर निकलना एक मुक्त योनि की भांति ही था, मुक्त योनि से आए हैं और मुक्त योनि में ही जाना है
- गुरुदेव ने अपने काम के लिए हमें बुलाया है तथा पृथ्वी से हमें कोई आसत्ती नहीं है तथा हमें कभी कभी लगता है कि हम धरती पर नहीं हैं तथा कभी कभी लगता है कि हम धरती से उपर चल रहे है तथा भूल जाते हैं कि हम कहां पर है तथा कहा पर जा रहे है तथा कभी कभी शून्य में चले जाते हैं
- स्वाध्याय मनन चिंतन से उस अवस्था में पहुचा जा सकता है
- चक्रो से निकलते समय भी सुर्य स्वरूप ही थे परन्तु प्रकाश थोडा पीलापन (सुर्योदय के समय का प्रकाश – स्वर्णिम सुर्योदय) लिए था
- इसमें अपने आभा मंडल का तेज अनुभव कर रहे थे
ईशावास्योपनिषद् में आया है कि विद्या व अविद्या को एक साथ जाने, अविद्या द्वारा मृत्यु को पार करके विद्या द्वारा अमृतत्व की प्राप्ति की जा सकती हैं, इसमें अविद्या द्वारा मृत्यु को पार कैसे किया जा सकता है
- अविद्या = पदार्थ विज्ञान
- विद्या = चेतना विज्ञान = आत्म विज्ञान, आत्मा अमर है / अमृत है, को जानने की प्रक्रिया को विद्या कहते है
- जो परिवर्तनशील है, जिसका नाश होता है, जो नष्ट होता है, जिसकी मृत्यु होती है, उसे अविद्या कह दिया
- मृत्यु होने की प्रक्रिया को वैज्ञानिक ढ़ग से देखे तथा कुछ ऐसा परिवर्तन कर दे जिससे मनुष्य स्वेच्छा जीवी हो सकता है जैसे भीष्म पितामह थे
- ऐसे बहुत से ऋषि व ऋषिकाएं हुई जिन्होंने स्वेच्छा से अपना शरीर छोड़ा
- पूज्य गुरुदेव ने अखंड ज्योति जनवरी 1987 , page 20 में लिखते है कि हमारे हिमालयवासी गुरु आयु के बंधनो से मुक्त है, इसका अर्थ यह है कि उन्होंने स्थूल से सूक्ष्म व सूक्ष्म से स्थूल में जाने की कोई विद्या सीख ली होगी
- जैसे पानी से भाप (Invisible) बनना तब लगेगा कि पानी नही है परन्तु फिर भाप से पानी (visible) बन जाना तो फिर पानी अस्तित्व में आ जाएगा, तो इस प्रकार की विद्या कोई सीख ले तो जब तक चाहे तब तक अपने शरीर में रह सकता है
गायंत्री द्वारा संध्या वंदन में नित्य कर्म का उद्देश्य आवश्यक तत्वो का संचय व अनावश्यक तत्वों का त्याग हैं . . . यह साधना उन मलो, विकारो व विषयों की भी सफाई करती है जो सासांरिक विषयो और उलझनो के कारण चित्त पर बुरे रूप से सदा ही जमते रहते है, . . . ये कैसे पता चलेगा कि त्याग भी हो रहा है तथा चित्त वृति की सफाई भी हो रही है
- भोग भोगने के बाद पिछले किए हुए कर्म की इच्छा नही करे तो त्याग है
- यदि उस विषय / वस्तु का इच्छा किया तो उसके प्रति चिपकाव व घृणा हो तो राग व द्वेष उत्पन्न करता है
- यदि राग द्वेष हमें तंग किया तो उसका असर हो रहा है
आचमन या शिखा वंदन का Core Part आत्मभाव में रहना तथा चित्त वृतियो को दूर करना ही होगा
- भाव ही प्रधान है
- क्रिया शरीर के लिए करना पडता है
- आत्मा का भोजन भावना प्रधान है
- किसी भी कार्य में शरीर भी शामिल रहता है तथा मन भी शामिल रहता है
- अपने आप को ईश्वर भाव में रखना, ईश्वर से सन्धि करना, संध्या है
- तीन समय ईश्वर को याद रखना यह उनके लिए है जो कम समझ वाले है, बुद्धिमान व्यक्ति तो 24 घंटे ईश्वर का निरन्तर जप/स्मरण करता है
पांच प्रकार की संध्याओं में प्रातः, साय, जप, ध्यान, भजन है तो भजन का क्या अर्थ ले
- भजन में वे सभी तरह की भावनाएं आएगी तथा गीत संगीत आएगा जिससे हमारी श्रद्धा बढ़े, जैसे आरती में भी हम श्रद्धा बढ़ाते है
- वे सारे क्रिया क्लाप जिनसे हमारी श्रद्धा बढ़ती है वह भजन है जैसे सेवा करना, गीत गाना -> उनके गुणों का स्मरण किया जाता है
- आरती वे बाद भाव विराट होते है तथा संकुचित दायरा विराट होगा
वांग्मय 13 में आकाश तत्व की शुद्धि में मन में सदा उत्तम व सात्विक विचारो को ही स्थान देना जिससे उसी जाती के विचार आकाश में से खीचकर हमारी ओर चले आए और सन्मार्ग की ओर प्रेरित करे, . . . यदि प्रतिकूल कार्य नही हो रहे हो तो भी उच्च विचारधारा से भी सद्गति प्राप्त हो सकती है भले ही उन विचारो के अनुरूप वह कार्य न हो रहे हो, यदि विचार हमारे उच्च है तो भी बिना क्रिया के सदगति प्राप्त हो जाएंगी
- स्थूल शरीर यदि साथ न दे तो भी यदि हम अपने सूक्ष्म शरीर को तेजस्वी बनाकर रखेंगे तो जब कर्म फल की व्यवस्था से जब शरीर गलेगा तो भी सूक्ष्म शरीर का तेज बना रहेगा
- इसलिए गुरुदेव ने आसन प्राणायाम के बहिरंग पक्ष को कम महत्व दिया है, आसन – प्राणामान केवल उतना करो कि शरीर स्वस्थ बना रहे तथा सारा ध्यान मनोमय के परिष्कार से चेतना/आत्मा को परिष्कार करने पर लगा दे
- महोपनिषद् में कोई यौगिक साधना नही बताई गई, सब विचारो के परिष्कार के विषय में ही आया है तथा पतंजलि के योग दर्शन के समाधि पाद में कोई क्रिया नहीं दी गर्ई है सब Mental स्तर का दिया है, उसी से द्वारा रितम्बरा प्रज्ञा पा लेगे
- क्रियाएं उनके लिए हैं जिनके जन्म जन्मातरों के संस्कारों के कारण काई जम गई है, सुखदेव मुनि जैसों के लिए क्रिया योग साधना नहीं हैं
ब्रह्म विद्या की तत्व दर्शन ज्ञान साधना, योगा अभ्यास की तप साधना, लोकमंगल की सेवा साधना यह तीनो गंगा, यमुना, सरस्वती के मिलन संगम का प्रयोजन पूरा करती है कृप्या प्रकाश डाला जाय
- प्रजापुराण के प्रथम खंड में यही आया है
- ज्ञान व कर्म के समन्वय से भक्ति पैदा होती है
- वेद (ज्ञान) व छंद (अर्थववेद) सविता को वरण करने के उपाय है
- गुरुदेव ने नचिकेता के ज्ञान को उपासना (ईश्वर से दोस्ती), साधना (ईश्वरीय गुणों को अपने भीतर धारण करना) व अराधना (ज्ञान का Practical करना) के रूप में सीखाया
ब्रह्मरंध्र , सहस्रार चक्र, आज्ञा चक्र का लोकेशन कहाँ है
- बहरंध्र का = Third Ventricle / Mid Brain में
- सहस्तार चक्र का = मस्तिष्क के उपर Cerebrum में जहा चोटी के स्थान पर Parietal व Occipital Lobe मिलता है
- आज्ञा चक्र का = जहा Pineal Pitutary वाला Area है
- आज्ञा चक्र का Center बह्मरंध्र है, ऐसा मान सकते है, इसी को त्रिकुटि व क्षीरसागर भी कहते है 🙏
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