पंचकोश जिज्ञासा समाधान (05-12-2024)
कक्षा (05-12-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
क्या विद्या की उपयोगिता का पूर्ण ज्ञान न होने के कारण उसको प्राथमिकता नही दी जा रही है कृपया प्रकाश डाला जाय
- यह बिल्कुल सही है, जब जिज्ञासा / चाह खत्म हो जाती है तो उस छात्र को आगे बढ़ाना बहुत मुश्किल होता है
- जिसका मन ही न हो, स्वाध्याय का तथा जो भोग का जीवन जीने का इच्छुक हो, ऐसी पाश्विक यौनियो को पशु कहा जाता है जो पेट प्रजनन मे सुख में निमग्न रहे, ऐसे लोगो के लिए ही यह संस्कार परम्परा थी
- प्रज्ञोपनिषद् में कात्यायन ऋषि पुलस्त ऋषि को समझा रहे है कि मनुष्प के खोल में ढेर सारे जानवर घूमा करते हैं
- इन पाश्विक वृतियों को हटाना तथा महामानव देवमानव व देवत्व के गुण भरना -> इसी प्रक्रिया में मेहनत करनी पड़ती है, तभी वह पूज्यनीय बनता है, इसी प्रक्रिया में ही कितने ऋषियों के जीवन खप गए
- पहले रुचि जगानी पड़ती है, रुचि जगने को ही जिज्ञासा कहते है, देवऋषि नारद ने विद्या के प्रति जिज्ञासा जगाई थी
- इसी प्रकार यदि कोई उसके अंतःकरण को छुने में सफल हो गया तथा यह समझा सके कि वह विद्या उसके जीवन में कितना बड़ा परिवर्तन कर सकती है तथा इस नरक से केवल विद्या ही बाहर निकाल सकती है
- जिन लोगों को उस विद्या के प्रति रुचि नहीं जग रही है तो ऐसे लोगो के लिए अष्टांग योग है / हठ योग है, जिनमें क्रियाएं अधिक की जाए
- यम – नियम – आसन – प्राणायाम – प्रत्याहार – धारणा – ध्यान – समाधि -> इन सभी उपकरणों का उपयोग उन लोगों के लिए हैं जिन पर काई बैठा हुआ है, जो विद्या का महत्व नहीं समझ रहा तथा जीवन भर दुःख पाता रहता है परन्तु जब इसका सुख मिलने लगता है तो इस दिशा में चलने लगता है
- विद्या के प्रति रुचि है तो व्यक्ति अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए अपने खेत खलिहान सब कुछ बेच देता है
- विद्या वह है जो लोभ व मोह से बंधन मुक्ति करवाए
- भारत केवल विद्या के बल पर ही जगतगुरु बना तथा पूरे विश्व का मार्ग दर्शन किया
- इस की प्रेरणा दी जानी चाहिए, जब तक Practical सामने से नहीं बताएंगे
- अनीति से मिलने वाली सफलता के स्थान पर नीति से चलने वाली असफलता को स्वीकार जिन्होंने भी किया, इतिहास केवल उन्ही का ही बना है
- करोड़ों लोग भेड चाल वाले होते है किसी का इतिहास नही बनता
- क्योंकि यह कायरों की श्रेणी है तथा कायरो के कभी भी इतिहास नहीं बनते, इसलिए देवताओं का या महापुरुषों का उदाहरण दिया जाता है
- गायत्री मंत्र का दे अक्षर कहता है कि मनुष्य विद्या के द्वारा, देवता भी बन सकता है
- शिक्षा के साथ विद्या का समन्वय अपने बच्चो को भी दिया जाए
- समस्याओं का समाधान भौतिक जगत में है ही नहीं, अब तक से भौतिक जगत में खोजा जा रहा है तो पाया कि शांति व आनन्द की प्राप्ति पदार्थ जगत से संभव है ही नहीं
- विद्या के प्रति जिज्ञासा होगी तो वह अपने आप ही पढ़ लेगा
- गुरुदेव भी अंग्रेजों की लाइब्रेरियों में जाकर पढ़ते थे तथा इतना पढ़ा कि विश्व के हर Particle को पढ़ाया
- ज्ञान के माध्यम से ही मुक्ति संभव है
वांग्मय 13 में शरीर की 6 अग्नियां उष्मा लोह वृक्ष रोहिता आप्त व्याप्ति जागृत होती है, इसे कैसे समझे
- 6 चक्रो के भीतर दबी कुण्डलिनी शक्ति / बिजली है, इसे जगाएं
- शरीर को चलाने वाले ये 6 तत्व ही 6 अग्नियां है, जिनमे 5 भौतिक तत्व है तथा एक मनस तत्व है
- मनस तत्व = मन बुद्धि चित्त अंहकार सब इस मनस तत्व में आ जाता है
- लोग अलग-अलग समय में अलग-अलग शब्दों का प्रयोग करते थे
हर एक मनुष्य को अपने ढंग से जीने का अधिकार है, तो यदि परिवार वालो के ढंग से नहीं जीते हैं तो वे कहते है कि यदि हम उन्हें दुखी करते हैं तो उसका पाप लगता है, क्या यह पाप पुण्य सही में लगता है या ऐसे ही कह दिया गया है
- हमें यह देखना चाहिए कि कहने वाले का स्तर क्या है, क्या वह गुरु है, ज्ञानी है या यदि वे देव मानव वाली श्रेणी में अपना जीवन जी रहे है तो उनकी बात अवश्य माननी चाहिए
- यदि गुरु के स्तर के व्यक्ति ने कहा तथा वह आत्म कल्याण, लोक कल्याण व वातावरण परिष्कार, तीनों को जो एक साथ देखता हो तब यह समझिए कि वह आपको सही सलाह दे रहा है
- हमें सलाह लेने वाले के स्तर को भी देखना चाहिए, यदि किसी पाकेटमार जैसे स्तर के व्यक्ति से सलाह ले तो वह पाकेटमारी को ही ईश्वर का मुख्य कार्य बताएगा
- यदि कहने वाले व्यक्ति का उच्च स्तर है तथा उसने समाज राष्ट्र के लिए कार्य भी किया है तो उसकी सलाह को महत्व देना चाहिए
- माता पिता भी यदि उस स्तर के है तो उनकी बात माने या यदि वे Business Minded होगें तब अपना व्यापार बढ़ाने की सलाह देगें तथा यदि पढ़ने वाला व्यक्ति कहेगा कि पढ़ो तथा officer बनो या आत्मिकी स्तर का कोई व्यक्ति याज्ञवल्क जैसे स्तर का होगा तो आत्मज्ञान पाने के लिए ही कहेगा
- घर के बड़े लोगो की बात को जी कहकर सुन लेना चाहिए, उनका विरोध ना करें, इतने भर से ही वे प्रसन्न होते है
- जब उनका मूड ठीक तब उनकी सेवा करते हुए अपनी बात परोसे, डाक्टर भी इसी प्रकार Anesthesia देकर आपरेशन करते हैं
कर्मकाण्ड भास्कर में पवित्रिकरण मंत्र का वैज्ञानिक व आध्यात्मिक पक्ष क्या है तथा इसे अन्यों को कैसे समझाया जाए
- हमें लोगो के स्तर को देखकर के शब्दों का प्रयोग करना चाहिए कि वे लोग किस तरह से बात को समझ पाएंगे तो सबसे पहले अपने को हर स्तर से समझना जरूरी है तथा इस पर मनन चिंतन करे कि इस मंत्र का क्या क्या उपयोग हो सकता है
- वैज्ञानिकता यह है कि पवित्रिकरण = स्नान करना है व अपने को साफ स्वस्थ रखना है
- देवता बनकर देवताओं से अच्छा Tuning होता है, देवताओं से Resonance स्थापित करना है, जब तक हम उनके सुर से सुर नहीं मिलाएगे तब तक उनके गुण हम पर Land ही नहीं करेंगे
- Plane या Hellicopter के लिए Runway या Hellipad होना चाहिए, वह कही कीचड में Land नहीं करेगा
- डाक्टर पहले stirlization करके ही Injection देता है
- हम किसी भी अवस्था में रह रहे हो, वह पवित्र हो या अपवित्र हो, तो मन हर जगह काम कर रहा है, यदि मन के भीतर -ve विचार / भाव आ रहे हो तो मन के भीतर जो Negativity आ गई है वही असली गन्दगी है
- यज्ञ शाला में यज्ञ, सूक्ष्म शरीरो की सफाई के लिए भी किया जा रहा है
- स्थूल शरीर में वाणी होती है, सूक्ष्म शरीर में मन तथा कारण शरीर में अंतःकरण होता है
- इस प्रकार यज्ञ में एक मनोभूमि / Ionosphere बनाया जा रहा है ताकि हम Resonance स्थापित कर सके
- पांचो शरीरो में Negatavity कही पर भी है तो वो Resonance नहीं बनाने देगा -> यह नियम भौतिक जगत व आध्यातिमक जगत दोनो में लागु होता है
- Air Tight Plug In करने के लिए यह जरूरी है कि हम Sterlization प्रक्रिया से गुजरे, प्रत्येक Operation के बाद सभी औजारो को sterlize करना ही होता है
स्वामी विवेकानंद का सर्मपण अपने भीतर में लेकर आए, योगानन्द परमहंस भी अपने गुरु की बाते नहीं मानते थे परन्तु गुरु के शरीर छोड़ने के बाद उनमें काफी सर्मपण आ गया, इस प्रकार का समर्पण हमारे भीतर क्यों नहीं आता जबकि गुरुदेव को शरीर छोडे भी काफी समय बीत गया है
- विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस से जुडने से पहले भी Philosphy पढ़ते थे तो इनका अध्यन पहले भी था
- विवेकानंद ने जब वेद उपनिषद् पढ़े थे तो वे जानते थे कि ईशवर निराकार है परन्तु लोग मूर्ति पूजा करते थे तब वे सोचते थे कि कोई मूर्ति में ईश्वर कैसे देख सकता है तभी उन्हे रामकृष्ण जी से पूछना पड़ा कि क्या आपने कभी ईश्वर को देखा है
- ईश्वर निराकार है, ईश्वर सार्वभौम है, हम साकार में क्यों पडे हुए है तथा ईश्वर का साकार रूप कैसा हो सकता है, उपनिषद् पढ़ने पर ही ऐसी मनोभूमि बनी
- सभी वेदान्ती बेबाक होते है, पहले से उनका स्वाध्याय का कम्र बना रहा था
- उनका Meditation भी एकांगी हो जाता है
- साकार मूर्ति ध्यान
- निराकार आत्म ध्यान
- काली माँ को ईश्वर माने तो उपनिषद् उस पर क्या तर्क देता है, उपनिषद् कहता है कि ईश्वर सर्वव्यापी है तो एक खास आकृति में कैसे रहेगा, वेद कहता है कि आप ही कुमार आप ही कुमारी हो, इसलिए तंत्र विद्या में भी बताया गया है कि यदि पूर्णता पाना होता है तो वेदाचार वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणाचार -> ये सभी पाशविक आचार है, बंधन में डालने वाले है, वामाचार में इन्हीं बंधनो को तोडकर Reverse Gear में चलना होता है, जड़ में चेतनत्व व चेतनत्व में जड़ को देखे, दोनो को (विज्ञान व आध्यात्म को) साथ में लेकर चलने की बात वेदान्त दर्शन में आई है
- यह गायंत्री मंत्र का / वेद का / ईश्वर का ही आदेश है कि अपने ज्ञान को ही हितकारी माने तथा कभी भी किसी का अंधानुसरण ना करे
- इस प्रकार करने को अवहेलना करना नही कहेंगे, इसे ज्ञान का सम्मान करना कहेंगे
- गुरुदेव को पौराणिक तथा वैदिक दोनों को साथ लेकर चलना था तो पौराणिक लोगों के लिए मूर्ति स्थापना करवा दिया तथा वैदिक लोगों के लिए निराकार सविता देवता का ध्यान करवा दिया, कही मूर्ति का ध्यान नहीं लगवाया
- गुरुदेव दोनो की समन्वित प्रक्रिया लेकर चले
- पहले शुरुवात में बच्चो जैसी शिक्षा तथा बाद में उपर की पढ़ाई करवाई जाए
- दिमाग की बनावट ऐसी है तो इन्होंने लिया कि प्रतीक उपासना सनातन धर्म का प्राण है
- प्रत्येक विषयो में कुछ विशेष प्रतीक चिन्ह बने होते है, इससे उस विषय को समझने में आसानी होती है -> आज विज्ञान के युग में भी हम कुछ खास आकृतियों को लेकर आगे बढ़ रहे है जैसे बिंदु की लम्बाई चौडाई ऊचाई कुछ होती ही नहीं परन्तु हा एक गलत Base को लेकर आगे बढ़ रहे होते है तथा फिर भी conclusion तक पहुंच जाते है
- यदि हम यह मान ले कि Universal सत्ता ही सब कर करवा रही है
- विवेकानंद ने तर्क तथ्यों व वेदो को महत्व दिया
- समर्पण इसलिए जुड़ा क्योंकि यह सब का सब ज्ञान व बौधत्व ऐसे गुरु के चलते उन्हें मिला था तथा जब बाद में विचार करते है कि आज हम जहा तक पहुंचे उसके मूल कारण / मूल प्रेरणा देने वाले वो गुरु ही थे, इसलिए उनका समर्पण अपने गुरु के प्रति था
- तब बाद में समझ आता है कि ईश्वर भी अपने ढ़ग से Handle करता है, ईश्वर ने रामकृष्ण परमहंस को माध्यम बनाया विवेकानंद से अपना काम लेने के लिए -> ईश्वर ही सबको Handle करता है
- हम में भी ऐसा समर्पण आएगा जब हम स्वयं से खूब स्वाध्यायशील होगे, हर हर स्वाध्याय करेंगे
- समर्पण का न होना इसलिए होता है कि हम किसी की भी (अपने गुरु की भी) तो बात नहीं मानते तथा हम केवल अपनी मनमानी करते हैं, लगता है हमें डाटने वाला कोई नहीं है दूसरो को दोष देते रहते हैं, ठोकरे खाते हैं तथा बाद में पछताते हैं, जब हमें संभलने का अवसर नहीं मिलता, हर किसी के जीवन में यह आता ही आता है, यदि ऐसे स्वाध्याय के द्वारा या गुरु के द्वारा नहीं समझेंगे तो प्रकृति रगड़ कर समझाती है
ईश्वर अकर्ता है, तो आप कहते है कि ईश्वर विवेकानंद के माध्यम से काम करवाना चाहते है तो यहाअकर्ता व कार्य करवाने में कुछ Confusion होता है तथा एक स्पष्ट दृष्टिकोण नहीं बन पा रहा कृप्या इसे स्पष्ट करें
- Confusion इसलिए होता है क्योंकि हम उन दोनो को जोडने वाली कड़ी को हम नहीं देख पाए
- साख्य दर्शन में कपिल मुनि के विषय में आया है तो हमें यह विचार करना चाहिए कि कपिल मुनि में ऐसी क्या विशेषताएं थी जो अन्यों में नहीं थी
- हमने भी कपिल व भृगृ की साधना पद्धति को पढ़ना शुरू किए थे
- भृगु -> पंचकोश साधना के सबसे प्रखर professor थे, उन्होंने पांचो कोशो में बह्म को देखा, भृगु की लात को भी विष्णु ने सहा था तो हम समझ सकते हैं कि भृगु पंचकोश साधना से कितने तेजस्वी रहे होगे, इसके बाद पचंकोशी साधना के प्रति और जूनून बढ़ता गया
- महामुद्रा को सिद्ध करने वाले ये पहले ऋषि कपिल थे तो हमे यह उपनिषद् में मिला, फिर यह समझ आया कि महामुद्रा से इस जन्म में तो क्या किसी भी जन्म में रोग दुःख नहीं होगा
- संसार में दुःखों को का कारण चिपकाव है
- जो भी क्रियाएं होती है ये प्रकृति के द्वारा करवाई जाती है
- प्रकृति बोल रही है, मै कार्य नहीं हूँ कारण हूं, सृष्टि को उत्पन्न करती हूँ,मै प्राणिक Energy हूँ
- ईश्वर ने प्राण को उत्पन्न किया तथा उनकी इच्छा मात्र से सृष्टि का निर्माण शुरू हुआ
- उनकी (ईश्वर) इच्छा/फेन भर होती है, एक से अनेक बनने की इच्छा हुई परन्तु क्रिया प्रकृति मे द्वारा ही होती है
- अक्सर यह Confussion रहता है कि कभी हम कुछ कहते हैं तथा कभी कुछ अलग कहते है, कभी आगे चलते है कभी पीछे Reverse Gear में चलते हैं
- सभी दिशाओं में प्रगति करके हमें ईश्वर को देखना है, Orthodox ना बने, ईश्वर सर्व व्यापी है व सर्वतोमुखी है
- हमें स्वच्छता में, कचरे में , प्रत्येक स्थान पर सभी में बह्म को देखना है
- इसलिए सभी दिशाओं में चलकर ईश्वर का साक्षात्कार करे
- Omnipresent सत्ता को हम देखे तथा इसका कैसे रूपांतरण हुआ इस विज्ञान को समझे
- संसार के सारे व्यवहार सापेक्षता के सिद्धान्त पर चलते है लेकिन हमें अपनी सार्वभौमिकता बनाए रखनी है
- इसलिए Balance बनाने के लिए हमें एक को छोड़कर दूसरी कुछ पकडनी पड़ती है ताकि हम इड़ा पिंगला को Balance कर सुष्मना में रहे, इसलिए यह Contradictory दिखता है परन्तु contradictory कही होता नहीं 🙏
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