पंचकोश जिज्ञासा समाधान (05-11-2024)
आज की कक्षा (05-11-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
सिद्धान्तसारोपनिषद् में आया है कि वह प्रणवस्वरूप ॐ आत्मलिंग है जो परम चिद् विलास एवं समष्टि के आकार वाला
अति निर्मल – निर्दोष आत्मलिंग – निराश्रय अनन्त कोटि सुर्य प्रकाश से उज्जवल है तथा अनन्त उपनिषद् के अर्थ स्वरूप तथा अखिल प्रमाण (प्रत्यक्ष – अनुमान – उपमिति और शब्द) से अतीत है,मन वाणी से परे, नित्यमुक्त – स्वरूप केवल्या नन्दरूप, परमानन्द लक्षण, अभिन्न अनन्त ज्योति, शाश्वत सदा शोभित होता है, का क्या अर्थ है
- षष्टा अवर्णम (परत) के बारे मै आया है, ज्ञान का कौन सा Layer चल रहा है
- ज्ञान के वर्णन को 6 भागो में बाटा तो 6 चक्रो के जागरण या 5 कोशो को हटाएंगे तो 6वे में क्या मिलेगा – वहा आत्मा / परमात्मा का स्वरूप मिलेगा
- यहा सब आत्मा का गुण बताया गया है
ऐतरेयोपनिषद् में प्रथम अध्याय के तृतीय खण्ड में अंत में आया है कि उसके बाद उसने अपान वायु के द्वारा इसे ग्रहण करने की चेष्टा की, अपान वायु के द्वारा उसने अन्न ग्रहण कर लिया है, अपान वायु भी अन्न को ग्रहण करने में समर्थ है जो अन्न के द्वारा जीवन की रक्षा करने में समर्थ है, अपान वायु मूलाधार में स्थित है तथा ग्रहण हम मुस से करते है तो फिर अपान से ग्रहण कैसे कर सकते हैं
- अपान वायु से ग्रहण करना = Downward दिशा में उर्जा का प्रवाह जा रहा है
- यह क्रिया अपानन कहलाता है
- दो तरह की हवाए बहती है – ईश्वर की तरफ जाने वाली तथा प्रकृति की तरफ जाने वाली
- गायंत्री मंत्र में आया है कि जो प्राण हमें उपर की दिशा में सन्मार्ग की तरफ ले चले, वह प्राण उपास्य है
- प्रचोदयात् का अर्थ प्रेरित करना है परन्तु सन्मार्ग को भी लेना होगा
- केनोपनिषद् में आया है कि किसके द्वारा यह प्राण नीचे की तरफ जाता है, तो Betterment के लिए ईश्वर के द्वारा ही यह संभव होता है
- जब सब जगह वही एक ईश्वर ही है तथा यदि यह बात जानते है तो यह प्रश्न मत करे बल्कि यह प्रश्न उनके लिए है जो यह नहीं मानते कि ईश्वर सब जगह है
- कभी कभी अर्जुन भी कृष्ण की सभी बातें नहीं मानते थे
- वासना – तृष्णा रूपी मधु – कटैभ राक्षस भी विष्णु से नहीं मर रहे थे
अभी तक हम जानते थे कि प्राण की आहुति नीचे नाभी चक्र, स्वादिष्ठान चक्र व मूलाधार चक्र में दी जाती है,का क्या अर्थ है
- प्राण की आहुति नीचे देने का अर्थ है कि वह उसे उठाने के लिए प्राण नीचे गया था
- ईश्वर मजबूत बनाने के लिए ही आते है प्राण भरते है इस मजबूत करने के Process को ही प्राणन कहते है
- ईश्वर नीचे आता है तो प्राण भरने के लिए (ताकत बढाने के लिए) (पाताल लोक)
- ईश्वर उपर जाता है खराबियो को दूर करने के लिए (स्वर्ग लोक)
जाबालदर्शनोपनिषद् में आया है कि त्रिकालसंध्या के समय जिह्वा द्वारा शनै शनै वायु अन्दर खींचकर अमृत पान की धारणा करते हुए उस प्राण को नाभी में स्थित किए रहे, वात व पित के रोग समाप्त होते हैं, कान में ले जाते है, कान के रोग समाप्त होते है . . . का क्या अर्थ है
- प्राणाकर्षण प्राणायाम में भी इसी प्रकार करते है -> Toxines को निकालते है, फिर संधारण करके विनियोग करते हैं तथा खास खास अंगो में धारण करते हैं तथा रोग भागते हैं
- कृकल व समान -> जल व अग्नि को शरीर में नियंत्रण करते है
- शरीर में जल व अग्नि में Balance होना जरूरी है
- जीभ से शनै शनै इसलिए कह दिया कि धीरे धीरे श्वास खीचे ताकि फेफड़ा भी खराब न हो
- धीमे श्वास लेंगे तो फेफडे भी खराब नहीं होगा
- Cool के साथ साथ Dry भी चाहिए
- यहा Cool का अर्थ सर्दी जुकाम वाला नही अपितु हिमालय क्षेत्र वाला coolness है, वहा का सर्दी नुकसान नहीं करता है
क्या प्राणन और अपानन को प्रसवन व प्रतिप्रसंवन समझ सको है तथा
जब हम क्रिया करते हैं तो हमने स्वास्थ्य को नाक के माध्यम से मूलाधार तक पहुंचाया तथा उस अंग को Activate किया तथा कार्य करते करते भी यदि भावना से प्राण खीचकर शरीर के उस हिस्से तक ले जाते हैं तो एक प्रकार की Healing होती है तो यह Healing कैसे होती है तथा कैसे दर्द समाप्त हो जाता है
- किसी भी कार्य में जब मन को लगाते हैं तो हमारा मन दोनों काम करता है एक Cable से तथा दूसरा Wireless / कॉर्डलेस
- मन Nervous system के माध्यम से तथा मन cordless से भी जाएगा, Meditation के माध्यम से
- मन से किसी खास Part पर प्राण लेकर जा सकते है तथा फिर सोचा जाए -> नाक के साथ साथ जैसे कोहनी भी सांस ले भी रहा है तथा छोड़ भी रहा है
- मानसिक स्तर का यही फायदा है कि दोनो System स्वतंत्र रूप से ही काम करेंगे
- Forward Bending मना है तो कमर न मोडे परन्तु घुटना मोड सकते है
- भावना (Cordless) से हीलिंग कर सकते है
सुर नर का क्या अस्तित्व है
- सुर = देवता
- नर = मनुष्य
- प्रज्ञोपनिषद् के चौथे खण्ड (देव मानव खंड) में आया है -> मनुष्य देवता बने व धरती स्वर्ग बने, मनुष्य से उपर वाली कक्षा में देवता होते है
- तीन प्रकार के व्यक्ति होते है
- अपने सुख वे लिए दूसरो को दुखः देते है, ऐसे स्वभाव वाले व्यक्ति असुर/राक्षस/पिशाच कहलाते है
2 . जो स्वयं भी सुख चाहेंगे तथा दूसरो को भी सुख चाहते है, आत्म कल्याण व लोक कल्याण की भावना रखते हैं -> ये नर / मनुष्य है - जो दूसरो को सुख देने के लिए स्वयं दुख: सहेंगे, ऐसे व्यक्ति देव मानव / सुर / देवता कहलाते है, ग्रह, नक्षत्र, सुर्य, तारे इसी स्तर के है
- यह गुण जब मनुष्य के शरीर में आने लगते है तब वे मनुष्य सुर कहलाते है
क्या बिना नाडी शोधन के जब ध्यान और त्राटक किया जाय तो शरीर में मिर्गी जैसा कंपन होता है कृप्या प्रकाश डाला जाय
- मिर्गी जैसा कंपन हो सकता है यदि नाडियों के रास्ते में रुकावट है, Toxine है, Clean नही है
- यदि आसन या प्राणायाम करके साफ नहीं कर पा रहे तो सफाई करने का एक अन्य उपाय जड़ी बुटिया भी है -> आयुर्वेदिक औषधियों का सेवन करे या आहार शुद्धि करे
- मिर्गी को दूर करने के लिए अपामार्ग (चिडचिडी) का वाष्प हवन के पश्चात या उसका खीर बनाया गए -> इसके सेवन से अपसमार्ग रोग खत्म होता है या फिर बह्मी / शंखपुष्पी / तुलसी भी मस्तिस्क को Clean करता हे
- इसलिए कुंडलिनी जागरण तब किया जाता है, जब नाडी शोधन कर लिया जाता है या नाडियां शुद्ध हो जाती है
गायंत्री सहस्त्रनाम में गायत्रीमाता का एक नाम ॐकार आया है, क्या ॐ और ॐकार में कोई अन्तर है
- गायंत्री सहस्त्रनाम = गायंत्री के सहस्त्र (अनेक) नाम -> सभी देवियो का नाम इसमें मिलेगा तथा हम उन नामों में भेद न रखे
- गायंत्री का एक नाम ॐ / ॐकार भी है
- ॐ व ॐकार एक ही है, ॐ को ही ॐकार कहा जाता है
- कर्मयोग को कार (ॐकार का कार) कह दिया गया, प्रस्फुटीकरण को कार कह देते है
- आयातु वरधे देवी त्रयक्षरे (अक्षरे) बह्मवादिनी -> ॐ को त्रयक्षरे कहा जाता है
-> अक्षरे का अर्थ अविनाशी तत्व से है - दोनो ( ॐकार व ॐ ) एक ही है, एक प्रस्फुटिकरण है व एक क्रिया है, हर जगह सत रज तम में वही एक चेतना घुली है
आत्मप्रशंसा से प्रसन्नता का क्या कारण है
- यदि किसी में कोई अच्छा गुण है तथा कोई कह नहीं रहा या कोई प्रशंसा नहीं कर रहा तो कभी कभी व्यक्ति Depression में चला जाता है तथा उसे लगता है कि जो वह कर रहा है, वह सही है या नहीं या कहीं कुछ हमसे गलती तो नही हो रहा
- Depression में आया व्यक्ति यह सोचता है कि सभी हमारी बुराई देखते है परन्तु कोई तो है जो हममें अच्छाई भी देख रहा है
- इसलिए हमें प्रशंसा करनी चाहिए, प्रसंशा करना भी एक कला है
- गुरुदेव ने कहा था कि जिस दिन तुम सबकी प्रशंसा करना सीख जायोगे तो अपने हृदय के भीतर के सभी अदृश्य कांटे समाप्त हो जाएंगे, कुछ अदृश्य काटे है जो चुभते रहते है, उन्हें बाहर निकाले, आत्म साक्षात्कार नही हो सकता
- यदि हमारे भीतर दोषदृष्टि रहा तो कण कण में ईश्वर नही मिलेगा
- प्रसंशा केवल गुणों की, की जाती है, अवगुणों की नहीं, अवगुणों की प्रसंशा करेंगे तो वहा चापलूसी कहलाएगा
- हमें अच्छा इसलिए लगता है क्योंकि हमारे Nature से तालमेल खाता है
- प्रसंशा करने का मुख्य उद्देश्य होता है कि हम गुणों के माध्यम से उसके हृदय में प्रवेश करे, ताकि वह अपने सदगुणों को और भी बढ़ा पाए
प्रत्येक में कुछ न कुछ विशेष गुण अवश्य है यदि हम किसी के भीतर गुणों को नहीं देख पा रहे तो क्या यह भी हमारी ही कमी मानी जाएगी
- शत प्रतिशत हमारी ही कमी मानी जाएगी, जब ईश्वर सर्वव्यापी है तथा हम देख नही पा रहे है तो यह तो हमारा ही Failure है, यह गुण जब तक नहीं आएगा तब तक आनन्दमय कोश पार नही कर पाएगा
- कचरो में भी बह्म को देखने की कला जब आ जाएगी या सुदुराचारी में भी जिसने बह्म को देख लिया तब समझे कि इस जन्म में उसने बह्म को पा लिया तथा वह सुदुराचारी भी उसके आभामंडल के प्रभाव से उसका कुछ नही बिगाड पाएगा
– सांप बिच्छु बाग बकरी भी ऋषियो के आश्रम में उनके चरण स्पर्श करने जाते थे क्योंकि वे ऋषियों के आभामंडल से प्रभावित होकर अपने स्वभाव को भूल जाते थे 🙏
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