पंचकोश जिज्ञासा समाधान (04-12-2024)
कक्षा (04-12-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
छान्दग्योपनिषद् में आया है कि लोम हिंकार है, त्वचा प्रस्ताव है, मास उदगीथ है, अस्थि प्रतिहार है और मज्जा निधन है, यह यज्ञा यज्ञ शारीरिक अंगो में सन्निहित है, ये शब्द हिंकार – अस्थि – उदगीथ – प्रतिहार बार बार प्रयोग में आए हैं, का क्या अर्थ है
- कोई भी क्रिया (चने का अंकुरण)जब शुरू होती है तो उसके अनुसार इसे समझे
- अंकुरण को हिंकार कहेंगे, जैसे जब बच्चा गर्भ से पैदा होता है तो रोता है तो वह हिंकार हैं, प्रथम चरण हिंकार है
- फिर द्वितिय चरण में प्रस्तावना आती है कि बच्चा क्या बनेना या क्या नाम रखना है तो इस प्रकार किसी भी क्रियाकलाप में कम्रबद्ध development को इन्होंने 5 भाग में बाट दिया
- इसके बाद निधन आता है, जीवन का उदेश्य पूर्ण हो जाना, निधन का अर्थ मृत्यु नही अपितु गोल को प्राप्त करना / लक्ष्य की प्राप्ति करना है, इसे उपसंहार भी कह सकते है
- उदगीथ उठाने वाला है ताकि जागो उठो व श्रेष्ठता को प्राप्त कर लो
- जब हम आत्मा को पा लेंगे तो हमारी साधना का निधन हो जाएगा यानि अब आत्मा को पाने के लिए कुछ नया नहीं करना, अपने उद्देश्य को पा लिया
- साधनात्मक क्रियाकलापों के बंद हो जाने को निधन कह दिया गया
नारदपरिव्राजकोपनिषद् में जागरण, स्वप्न व सुषुप्ति अवस्था में संन्यासी के विषय में बता रहे है कि जागृत अवस्था तथा उसके नियन्ता विश्व की स्थिति नेत्र के अन्दर निहित है, स्वप्न व उसके अठिष्ठाता तेजस का कंठ में और सुषुप्ति व उसके स्वामी प्राज्ञ की स्थिति हृदय क्षेत्र में तथा प्रेत के स्वामी परमेश्वर का निवास बह्मरंध्र में कहा गया है, का क्या अर्थ है
- जो Point हमारे शरीर में बताए गए है, इससे इन उद्देश्यों को प्राप्त किया जाता है
- ज्ञानेंद्रिया जब बर्हिमुखी होती है तो कह दिया गया कि नेत्रों में जागृत अवस्था है, बर्हिमुखी चित्त वृतियों के लिए कहा गया कि यह नेत्रों में स्थित है
- इसी प्रकार स्वपन को कण्ठ में कहा गया कि अवचेतन मन का सम्पर्क कण्ठ में (विशुद्धि चक्र में) रहता है, यह आकाश तत्व से संबंधित है तथा आकाश तत्व से ही मन बुद्धि चित्त अहंकार बने, इसलिए यह स्वपनावस्था कहा गया
- सुषुप्तावस्था हृदय क्षेत्र को कहा गया, वहा पर आदमी कारण शरीर (भाव संवेदना) में चला जाता है, अनाहात का एक नाम ब्रह्मचक्र भी है
- अन्त में बह्मरंध्र (pineal) वाला क्षेत्र में ईश्वर का साक्षात्कार होता है, इसी को तुरीया स्थिति भी कहा गया
- शरीर में ये चारो Points बहुत काम के है
जागृत अवस्था में विश्व रूप, स्वप्न अवस्था में तेजस रूप, सुषुष्ति अवस्था में प्राज्ञ स्वरूप कहा जाता है, का क्या अर्थ है
- चेतना के परतो को अलग अलग नाम दे दिया, यही चेतना के अलग अलग आयाम है
- विश्व का विशेषण = वैश्य
- वैश्य रूप – संसार के पसारे को अनेक रूपो में देखना तथा भेद दृष्टि बना लेना -> एक को अनेक देखने की क्रिया को विश्व / वैश्य रूप कहा गया
- इसी प्रकार तेजस = मस्तिष्क की . . . परत को कहा गया
- इसी प्रकार प्राज्ञरूप भी -> ये सभी ऊंचा उठते हुए चेतना की सूक्ष्म परते है
जीभ सफेद रहती है, इससे क्या समझे
- यदि कोई कष्ट नहीं है, जलन नही है, भोजन के स्वाद में अन्तर नहीं आ रहा तथा काला तत्व न निकले व साफ भी आसानी से हो जाए तो ठीक है, फिर भी चिकित्सक की सलाह ली जा सकती है
वांग्मय 22 में आया है कि भय से बचने या शत्रु से निपटने के लिए भागने व लडने का असाधरण पराकर्म करना पड़ता है, इसके लिए अभिष्ठ उर्जा जुटाने के लिए ही क्रोध अथवा भय के अवसर पर विलक्षण दिखने वाली क्रियाएं स्वमेव होने लगती है, इस नई व्यवस्था में रक्त का प्रवाह संलग्न रहता है और पेट की अभिष्ठ Supply रूक जाती है, अस्तु पाचन क्रिया अपने आप स्थिल हो जाती है और भूख न जाने कहा गायब हो जाती है, क्या यहा Autonomous Nervous System को नियंत्रित किया जा सकता है
- Autonomous Nervous System, Hypothalmus से control होता है
- उसमें (ANS) 10 वा criniel नर्व है, जिसे वेगस नर्व कहा जाता है, वह पूरे Parasympathetic Nervous system का मुख्य अंग है
- उसका पेट व हृदय से भी जुडाव होता है
- जब मस्तिष्क में तनाव व सदमे जैसी स्थिति उत्पन्न होगी तो उसे तरह के कंपन वहां पर जाएंगे तथा Heart के Emotion को भी प्रभावित करता है, इसके साथ पाचन प्रणाली को भी खराब कर देगा
- यदि भोजन खाने का बहुत मनहो परंतु यदि कोई यह समाचार दे दे कि आपके प्रिय का एक्सीडेंट हो गया तो वहा पर भूख अचानक गायब हो जाता है
- इसका अर्थ यह है कि सोचने व Emotion का प्रभाव नाभी वाले Area में गया वही नाभी में हमारा एक Brain और भी है जिसमें 50 करोड के करीब Neurons है जो हमें प्रभावित करते हैं, इसमें Kidney के पास Adrenal Gland भी मदद करता है . . .
- हमेशा हमें शांत व प्रसन्न मन से ही रहना चाहिए, संसार के उठा पटक को तत्व दृष्टि से देखना है
होवी वही जो राम रखी राखा का आधार क्या अपने कर्म है या ईश्वर की मर्जी कृप्या प्रकाश डाला जाय
- ईश्वर अपनी मर्जी चलाएगा तो किसी को बढिया या किसी को खराब देगा तो उस पर पक्षपात का दोष लगेगा
- आध्यात्म की पहली ही कक्षा में पहली लाइन है कि ईश्वर को सर्वव्यापी, न्यायकारी व निष्पक्ष मानेंगे, यदि ईश्वर निष्पक्ष है तो किसी को भी कम या अधिक नहीं देगा
- अपनी ही क्रिया की प्रतिक्रिया होती है
- शरीर में एक Agent मन लगा दिया गया है, यह काया में स्थित है तो कायस्थ कहलाते है
- मन रूपी चित्रगुप्त इस शरीर के भीतर विद्यमान है
- ईश्वर एक सर्वव्यापी तत्व है परन्तु निर्लिप्त चेतना है, अकर्तु कहलाता है, कोई क्रिया कलाप नही करता इसलिए पाप पुण्य से लिप्त नहीं होता
- करने वाली प्रकृति होती है तथा प्रकृति में मन बुद्धि चित्त सब आ जाता है, ये सब अपनी ही क्रिया कलापो के परिणाम है
शरीर भाव से बाहर आने का कारगर उपाय क्या है?
- साधना में आत्मानुभूति योग है, कठोपनिषद् में भी इसका एक उपाय आया है
- अपने शरीर को स्थिल करके शरीर से बाहर निकलकर नीले आकाश में सुर्य के रूप में अपनी आत्मा को देखे, यह देखों कि मेरा शरीर नहीं है तथा आत्मा का हाथ पैर नहीं होता
- इस प्रकार इस साधना को लगातार 1 से 6 महीना लगातार करे
- हम जल्दी जल्दी अपने अभ्यास बदलते रहते है इसलिए गहन अनुभूति नहीं हो पाती
- धीरे धीरे पहले इसे पकाए तथा अपने को एक छोटे सुर्य के रूप में देखें, सुर्य का एक नाम आत्मा भी है
- वहा अपने आप को आत्मसत्ता के रूप में देखें कि मै शुद्ध हूँ, पवित्र हूं, शांत हूँ, निर्गुण हूँ , अवर्णीय हूं, इस प्रकार अपने में यह भाव रखते हुए अपने को एक सूक्ष्म सुर्य के रूप में देखने लगे, यह भाव पक जाएगा तब शरीर से बाहर निकलने का प्रयास करे
- रास्ते में चल रहे हो तो कभी कभी बीच बीच में यह सोच लेना चाहिए कि मैं एक शरीर नहीं हूं बल्कि शरीर के भीतर विद्यमान आत्मा हूं
- किसी को सामने भी देखे तो शरीर भाव से न देंखे, शरीर एक माध्यम भर है जैसे एक बाईक या कार का शरीर अलग होता है
- इस प्रकार एक काल्पनिक ढंग से देखने का अभ्यास करें, यह अभ्यास / यह Angle of Vision जितना पकता जाएगा, तो हमारा स्वभाव बदल जाएगा क्योंकि हर एक के भीतर ईश्वर बैठा है,सब अभ्यास पर ही निर्भर करता है
ढोल गंवार शूद्र पशु नारी चौपाई का विवेचन किया जाए
- ताडण का अर्थ यहा भोजपुरी भाषा में तारने से है, जो जीव चेतनशील है उनकी यह जिम्मेदारी होती है कि वे इन लोगो को जिनमे जडत्व अधिक है, को उपर उठाए
- वेद में इसका वर्णन है तथा यह भारद्वाज ऋषि का शोध है, इसमें बताया गया है कि हे देवताओं / विद्धानो / पढ़े लिखे लोगों जो Conciousness Layer में कम Develop हुए हैं उन लोगों को तुम बार बार अपने से उपर उठाओं, श्राद्ध तपर्ण में भी इसका वर्णन आता है, जो लोग आगे बढ़ चुके हैं अब उनका जिम्मेदारी हो जाता है कि वह भी इन निम्न स्तर के लोगों को अपने साथ, अपना अंग अवयव मानकर ऊपर ले जाएं
- इस तरह की शिक्षा की प्रणाली को इन्होने ताडण कहा है, इसमें कुछ गलत का गुजांईश ही नहीं है परन्तु हम गलत समझ लेते है
- ढोल से शब्द निकलता है, शब्द बह्म है तो जो ध्वनि विज्ञान के ज्ञाता हैं तो वे चाहे तो सृष्टि को दिशा दे सकते है, आवाज को ही मीरा ने भी अपनी भक्ति के द्वारा माध्यम बनाया था
- तानसेन व बैजू बावरा ने भी ध्वनि विज्ञान से मृग को नियंत्रित किया था, सारा संसार ध्वनि विज्ञान से चल रहा है
- ग्वार का अर्थ जो Mentally Develope नही हो पाया तो उन्हें पढ़े लिखे बुद्धिजीवी के साथ दोस्ती करनी चाहिए, संबंध बनाना चाहिए
- जैसे हम गवार जब गुरुदेव के साथ जुड गए तो उन्होने हमें भी उपर उठा दिया तो हमें अपने को उनके साथ जोडना चाहिए जो हमारे जीवन स्तर को ऊंचा उठा सके
- शुद्र = श्रमिक वर्ग को कहा गया है, हमें श्रमिक वर्ग को भी सम्मान देना चाहिए तथा श्रम की महिमा अपरमपार है, किसी भी राष्ट्र की प्रगति का आधार परिश्रम होता है
- अपने परिश्रम को हमेशा आत्मविकास व लोककल्याण में लगाएं
- सतनारायण की कथा में आता है कि लक्कडहारा ने भी भगवान को पा लिया था तो उन्होंने दिखा दिया कि श्रमिक भी ईश्वर को पा सकते है
- नारी के विषय में आया है कि जो इनसे Better हो वह इन्हे आगे लेकर जा सकता है जैसे सीता जी के विवाह के लिए शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने की शर्त रखी गई थी, यहा पुरुष के शिवत्व की परीक्षा ली गई और यह बताने का प्रयास किया गया कि जो इस परीक्षा में उर्त्तीण होगा वही सीता जी को साथ लेकर जा सकता है, जनक जी ने यह घोषणा कर दिया कि बिना शिवत्व की परीक्षा पास किए चाहे भले ही सीता जी जीवन भर कुवारी रहेगी परन्तु किसी ऐसे वर का चयन नही करेंगी जो इनसे उच्च स्तर का ना हो / किसी गलत आदमी के साथ
हम सीता को नहीं जोड़ सकते - पुरुषो को भी चाहिए कि वह अपने मित्र के रूप में अपनी पत्नी को श्रेष्ठता की ओर साथ लेकर चलें
- यहा सब विशुद्ध वैदिक बातें कही गई है
साधना में संकल्प व समर्पण में किसकी भूमिका ज्यादा है
- समर्पण को Top Priority पर रखा गया है
- संकल्प लिया जाता है कि समर्पण की शक्ति हमारे भीतर भी आ जाए
- इसी समर्पण पाने के लिए भगवान से प्रार्थना की जाती है कि हे ईश्वर अभी हमारा त्याग व बलिदान वाला Layer नहीं खुल रहा है
- सारे संकल्पो का अन्त इसी में आता है
- निरालम्बोपनिषद् में प्रश्न आया है कि बंधन क्या है तो उत्तर संकल्प ही बंधन है, यह बंधन कारी होता है तथा कुछ समय के लिए ही होता है, संकल्प का अर्थ कि एक कक्षा में प्रवेश ले लेना है, जब उसे कक्षा में पास कर लेते हैं तो संकल्प अपने आप ही खत्म हो जाता है
- एक Destination पर पहुंचते ही संकल्प अपने आप मर जाता है
अपने भीतर समपर्ण को कैसे बढ़ाएं, इसे व्यवहारिकता में कैसे लाए, कैसे बढ़ाए
- समर्पण का विकास करने के लिए अपनी क्षमताओं का थोडा सा भाग उपयोग करे
- जैसे पूज्य गुरुदेव ने अपने युग निर्माण सद् संकल्प में एक वाक्य जोडा है कि हम अपने पद प्रतिभा समय साधना का एक अंश नियमित रूप से सत प्रवृतियों के सर्वधन में लगाते रहेंगे, ये समर्पण लोक सेवा के लिए था तथा वे समष्टि कल्याण के लिए कर रहे है
- यहा से अंशदान का आरम्भ होता है
- इसका शुरुवात अणुव्रत से किया जाता है
- शुरूवात में थोडा समय देने लगा फिर कुछ अधिक समय दिया तथा फिर पूरा जीवन ही गुरु के प्रति समर्पित कर दिया
- इसकी शुरुवात हमेशा साधनो से करनी चाहिए / भौतिकता से करना चाहिए, यदि हम कंजूस है तो शुरूवात थोड़े से ही करे
- अपने से शुरू करना होता है तथा फिर सामने वाला आपसे प्रेरणा लेकर 5-10 % कर दिया तो बहुत बड़ी बात है
गुरु देव का अपने गुरु के प्रति सर्मपण, विवेकानन्द का अपने गुरु के प्रति समर्पण, यह अपने भीतर कैसे लाया जाए
- यह तब हुआ जैसे जैसे उन्होंने (शिष्यों ने) समर्पण किया तो शक्ति मिली तथा तब Practical करने से जो उपलब्धि आती हे उसे दक्षिणा कहा जाता है
- उपलब्धि (साधना) से जो Result आ रहे है, उसे पर मनन चिंतन करने से लगता है कि हम सही दिशा में जा रहे हैं तो गति तेज होती जाती है तो इस प्रकार वह शिष्य श्रद्धा से सत्य को प्राप्त कर लेता है 🙏
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