पंचकोश जिज्ञासा समाधान (03-12-2024)
कक्षा (03-12-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
सुर्य-अर्थवशिर्षोपनिषद् में आया है कि ॐ घृणी सुर्य आदित्य -> ये आठ अक्षर, जो प्रतिदिन सदा जपता है, वह बाह्मण होता है, सुर्य के सम्मुख यह नाम जपने वाला व्याधि के भय से मुक्त हो जाता है, अलक्ष्मी नष्ट होती है . . . आदि अनेक लाभ मिलते है, का क्या अर्थ है
- सुर्य के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने के लिए ये अनेक नाम है
- एक नाम घृणी है -> जो पापो को हटाएं और शरीर में देवताओं का तेज भरें, इसलिए इसे घृणी कहते हैं, गलाई व ढलाई एक साथ होती हैं
- सुर्य साधना से साधक निरोग होने लगता है
- आदित्य इसलिए कहते है, वे अपनी किरणों से सारे संसार को चलाते हैं
- सविता देवता अपनी किरणो / तरंगो से अनन्त ब्रह्माण्ड को चलाते हैं, इस गुण को आदित्याय कहते है
- इन गुणों को स्मरण करने से सुर्य के प्रति श्रद्धा बढेगी, उपासना गहराई लेगी और इसी के अनुरूप वह भाव किया जाए कि सविता देवता की वो किरणें आकर हमें लाभ दे रही है
वर्तमान समय में रामायण के पाठ करने में क्या परिवर्तन किया जाय की लोग लाभान्वित हो कृप्या प्रकाश डाला जाय
- परम पूज्य गुरुदेव ने मानस का भाष्य किया उनका एक वांग्मय है -> मर्यादा पुरुषोतम श्री राम -> उस वांग्मय में प्रवचन करने का तरीका बताया है कि आज के लोगो के समक्ष मानस की चौपाइयो की किस ढंग से व्याख्या करनी चाहिए
- गुरुदेव ने उसमें से जो कम समझ मे आने वाले है, उन्हे नहीं लिया
- जो हमें समझ ना आए उसे छोड सकते है
- तुलसी यदि इस तरह की गलत बाते नारी के खिलाफ लिखते तो लोककवि कभी नही बनते तथा समूह का प्रतिनिधित्व कभी नही करते
- हमें उनकी चौपाइयो में यह देखना चाहिए कि कौन पात्र किस उद्देश्य से कह रहा है, कहा पर कह रहा है
- हर दोहे का वैज्ञानिक आध्यात्मिक अर्थ होता है, वह जानना चाहिए
- जैसे वाल्मिकी रामायण के 24 श्लोको में आया कि जब शत्रुघन वाल्मिकी की पर्ण कुटिर में गए तो उसी दिन सीता ने दो पुत्र पैदा किए -> यहा व्यक्ति परक अर्थी नही ले रहे बल्कि इसका अर्थ यह है कि जब शत्रु भाव संसार से समाप्त हो जाता है तब उदार भाव उत्पन्न होता है तथा व्यक्ति का जीवन सादगी में प्रवेश करता है
- वाल्मिकी की पर्ण कुटिर में जाना = आदर्श पूर्ण जीवन शैली अपनाना
- वहा जाते हैं तो आत्मा रूपी सीता दो पुत्र पैदा करती है = सद्ज्ञान (लव) व सत्कर्म (कुश) -> यही पूरे जीवन भर की पूंजी है
- आध्यात्मिक वैज्ञानिक शैली में Interpretation यदि हो वही अमृत के समान है
- इसी प्रकार भगवद कथा, श्री कृष्ण चरित्र या सत्यनारायण कथा का भी अर्थ लिया जा सकता है -> वांग्मय 31 में प्रवचन करने के कई तरीके बताएं है
नारदपरिव्राजकोपनिषद् में नारद जी ब्रह्मा जी से कह रहे हैं कि संन्यास की विधी क्या है, बह्मा जी बता रहे है कि आतुर संन्यास अथवा कम्र संन्यास में चतुर्थ आश्रम ग्रहण के लिए प्रायश्चित रूपी व्रत अनुष्ठान करें, फिर अष्ट श्राद्ध करे, का क्या अर्थ है
- संन्यास ग्रहण करने के लिए Age factor को fix ना माने, यदि बचपन में ही यह संन्यास भाव जगे तो बिना विलम्ब किए जाना चाहिए
- उसके लिए वेद अनुमति देता है
- जैसे विवेकानंद विद्यार्थी जीवन में चल पड़े, संन्यासियों पर संसार के नियम लागु नहीं होते, ऐसे में उन्होंने जीवन की यात्रा का उद्देश्य जल्दी ही पा लिया था, संसार को यह देखकर प्रसन्न होना चाहिए कि एक ने ईश्वर ने उनके साथ दोस्ती कर ली, नही तो अनेकों जन्मों में भी सफलता नहीं मिलती
- चाहे विद्यार्थी जीवन हो या गृहस्थ आश्रम हो, जीवन के किसी भी क्षण में कभी भी संन्यास ले सकता है
- संन्यास = आत्मानुसंधान की कक्षा में प्रवेश, इसी को संन्यास कहते हैं
- संन्यास का अर्थ घर बार छोड़ना नहीं है, यदि कोई व्यक्ति 365 दिन, 24 घंटे पूर्ण आत्मा अनुसंधान के कार्य में लगा हुआ है तो हम कह सकते हैं कि वह पूर्ण संन्यास के कम्र पर चल रहा है
- कम्र संन्यास में यह चारो आश्रमो में अन्तिम में संन्यास आश्रम आता है, जैसे Retirement के बाद यह समय समाज के लिए लगा सकते है, 3 महीना घर तथा 9 महीना समाज के लिए
- इस समय जंगल में नहीं जाना बल्कि समाजसेवा में समय देना है, आज के समय में जगंल भी नहीं बचे
- जब शरीर अधिक दौड भाग नहीं कर सकते तो प्रशिक्षण का कार्य करते है तथा आश्रम बनाकर Training देते है या अपनी ही छत पर अलग से एक झोपड़ी या कमरा बनवा ले उसमें रहकर अपने परिवार के जीवन में अधिक Interfere न करे तथा अपनी दबंगी न चलाए तथा अलग से रहे तथा उन्हे बिल्कुल छोड दे -> इस प्रकार घर में रहकर भी आत्मानुसंधान किया जा सकता है
- आतुर संन्यास में जैसे जब पूरे जीवन किसी ने कुछ नहीं किया तो मरने से पूर्व वह चाहता है कि कुछ तो प्रयास कर ले जैसे राजा परिक्षित मरने से पूर्व कथा सुनकर प्रयास किया
- किसी न किसी ढंग से हमें आत्मा को जानना ही जानना है यह शरीर छोड़ने से पहले, उस अवस्था को जबरन कहा जाता है कि अब आप कथा के माध्यम से सुने तथा बीच बीच में कथा वार्ता भी रखी जाती है, हो सकता है किसी व्यक्ति को इसका बोध हो कि वह किस उददेश्य के लिए धरती पर आया है और वह आत्मानुसंधान के मार्ग पर चल पड़े
क्या आतुर संन्यासी ही 8 प्रकार से श्राद्ध करेंगे, बाकी नहीं करेंगे
- पहले अपने को तपाइये, जैसे आतुर संन्यास एक कृच्छ तप है
- कृच्छ तप = चाद्रायण तप को कहा जाता है, इस प्रकार का तपस्या करेगा तो उसका लाभ मिलना शुरू हो जाएगा
- हिमादरी संकल्प श्रावणी पर्व पर करते हैं तथा 24 दोष दर्गुणों को जबरन हटाना होता है
- आत्मा को जानना ही जानना है तथा आत्मसाधना करना ही करना है
यदि किसी की ईश्वर या आत्मा के प्रति श्रद्धा न हो तो जबरन कैसे किसी को सीखाया जा सकता है
- श्रद्धा उत्पन्न करना गुरु का काम है
- क्योंकि उस समय किसी बच्चे को यह नहीं पता कि इस ज्ञान में कितना अमृत है तो इसलिए बच्चों को माँ बाप जबरन पढ़ने के लिए भेजते है
- इस प्रकार भाव संवेदना को बदलना व श्रद्धा उत्पन्न करना ही करना होगा
- माता पिता को चाहिए कि गर्भ संस्कार कराते हुए उन सभी Process से उसे गुजारना होता है तब वह कार्य पुण्य में आएँगा, उस अवस्था में वह पाप नही होता
- यदि कोई इस रास्ते पर न भी आना चाहे तो भी अपना सुधारने का प्रयास न छोड़े क्योंकि यदि हमने कोई कुपुत्र पैदा किया तो अनेकों पीढ़िया नरक में जाती है, इसलिए सुधारगृह भी इसी को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं
ॐ की चतुर्थ मात्रा, अर्ध चतुर्थ मात्रा है वहीं समस्त देवों के रूप में अव्यक्त होकर आकाश में विचरण करते हैं, अर्ध मात्रा की उपासना ही उचित है क्योंकि इससे कर्म बन्धन कटते हैं, कृप्या इस पर प्रकाश डाले
- कर्म बंधन तुरीया स्थिति से कटते है
- जागृत स्वपन सुषुप्ति तीन अवस्थाएं बनती है तथा स्थूल सूक्ष्म कारण तीन शरीर है
- कभी कभी आत्मा को जानने की बात भी आती है तो इसलिए उसे अर्ध मात्रा के रूप में कहा गया
- आत्मानुसंधान में थोडा सा झिलमिलाहट भी बहुत काम का होता है, इसलिए हमें संसार के लिए सारा समय नहीं लगा देना चाहिए, इन शरीरो से बाहर की झलक भी हमें लेनी चाहिए
- इसलिए जीवनमुक्त / तुरीया स्थिति पाने के लिए कहा गया है
- ॐ, त्रिआयामी सत्ता के लिए अ उ म बन गया तथा इसको शीतलता चंद्रबिदु दे रहा है, यह चंद्रबिंदु सहस्तार चक्र है
- यह चंद्रमा बहुत Cool/शान्ताकारम है, इस चौथी मात्रा का अर्थ यहा Peace या Bliss से है तथा स्थूल चंद्रमा से कोई लेना देना नहीं
- उसी को चंद्र कह दिया गया जो करोड़ों चंद्रमा की तरह Cool व करोडों सुर्यो के समान तेजस्वी है, यहा चिदाकाश वाली अवस्था को चंद्रमा कहा गया
एक रोग Chiken Pox या माता में पूजा करने से माँ शांत होती है तथा इससे रोग ठीक हो जाता है तो क्या यह अंधविश्वास है या इसके पीछे कुछ आध्यात्मिक विज्ञान भी है
- पूरा विज्ञान ही है
- माता की साधना = गायंत्री माता की साधना, यही आदि शक्ति है
- गायंत्री की साधना =प्राण की साधना है तथा शरीर में Toxine को निकालने का अपना तरीका है
- इसमें नीम औषधि का प्रयोग होता है जो रक्त का शोधन करती है, यह पूर्ण विज्ञान है
- फिर इसमें अपना Immune system भी बढ़ाया जाता है इसलिए इसमें मुख्य रूप से रक्त की सफाई करनी होती है तो इसमें नीम का अधिक उपयोग किया जाता है व नीम के पानी से ही स्नान किया जाता है ताकि उसमें जल्दी शरीर का Cleaning होता है, इसी को माता की पूजा कहते है
- Natural Diet, Natural रहन सहन पर रहा जाता है -> यही गायंत्री साधना है, इसी के उपचार को इस प्रकार बताया जाता है
इस माता के रोग में Allopath दवा खाने से भी मना किया जाता है, ऐसा क्यों किया जाता है
- Allopath दवा इसलिए मना किया जाता है क्योंकि यदि हम इस रोग को दबाएंगे तो Secondary Diesease पैदा करेगा
- खाना पीना भी बंद नही किया जाएगा तथा खाना पीना भी वो खाएं जिससे खून की सफाई होती है जैसे रक्त शोधक या क्षारीय भोजन ले, इसी प्रकार गर्मी को, एलर्जी को और एसिडिटी को शरीर से खत्म करना है
ओजस, तेजस , वर्चस , ब्रह्मवर्चस शब्दों का क्या अर्थ है, पदार्थ का सूक्ष्म और कारण रूप क्या है।
- हर चीज का स्थूल सूक्ष्म कारण रूप रहता है
- पदार्थ का स्थूल रूप वह है जिसे हम देख सकते है, जैसे भोजन पदार्थ के रूप में स्थूल रूप में शरीर में आया, स्थूल Electricity को Carry करता है
- सूक्ष्म गुण वह होता है जो शरीर में काम आता है, लाभ देता है
- पदार्थ का कारण रूप संस्कार लेकर आता है जैसे भोजन का सतोगुणी रजोगुणी तमोगुणी रूप शरीर मन आत्मा पर अपना अलग अलग प्रभाव डालता है
- Solid Liquid Gas को स्थूल सूक्ष्म कारण की तरह समझ सकते है
- ओजस – शरीर रोगो को हटाने वाली बिजली / तेज / Electricity है, हर Electricity ओजस का ही रूप है
- तेजस – Bio Magnetic उर्जा है, इसमें चुम्बकत्व भी होता है, तेजस्वी व्यक्ति, आलसी नहीं होगा
- वर्चस – आत्मिक गुण / भाव / संवेदना / आत्मा का प्रकाश / Divine Light / सहृदयता
- आत्मा का प्रकाश ही आत्मवर्चस है
- परमात्मा का प्रकाश बह्मवर्चस है
- वर्चस को यहा विज्ञान के रूप में लिया
गुरुदेव का आर्ष साहित्य (वेद उपनिषद् पुराण) का अनुवाद किया तथा गुरुदेव का एक तरीका धर्म तंत्र से लोक शिक्षण की बात आती है तो क्या गुरुदेव का लिखा साहित्य क्या आर्ष साहित्य का ही सरलीकरण है तथा इन सब का उददेश्य क्या लोक निर्माण की तरफ ही लोगो को झुकाना था
- युग के अनुसार अपनी-अपनी आचार्य संहिता बदलनी होती है यदि बदलाव नही लाएंगे तो आगे प्रगति करने में दिक्कत होती है
- हर 12 साल के बाद समाज का रहन सहन, खान – पान बदलता व व्यक्ति की ताकत / Stamina में कमी आने लगती है
- आजकल Immune System तेजी से घट रहा है, पौधों के, वनस्पतियों के सभी के स्वभाव बदलते हैं तो आदमी के भीतर भी बदलाव लाना पड़ता है
- प्रकृति में भी बदलाव आता रहता है, पहले एक समय में व्यक्ति के शरीर में जल तत्व अधिक था परंतु अभी पृथ्वी तत्व प्रधान है, उन दोनों की साधनाएं भी आज नहीं हो सकती पहले लोग जल के बिना रह लेते थे परंतु अभी जल के बिना रहेंगे तो रोग होगा तथा Toxine शरीर में बढ़ जाएगा तथा शरीर को हानि होगी
- इसलिए आचार संहिता में बदलाव अनिवार्य है पुराने समय में व्रत करने को कहा गया परंतु अभी उस व्रत को करने का तरीका भी बदलना होगा
- युग के अनुसार इसकी व्याख्या की जाए – इसी को व्यास कहते हैं
- आजकल मिश्रित औषधि परम्परा टिकाऊ नहीं है, यह अधिक Complex हो जाती है, इसलिए एक औषधि वाला तरीका आज के समय में अधिक कारगर है
- प्रत्येक ऋषि परम्परा को गुरुदेव ने एक नया वैज्ञानिक रूप देकर हमारे सामने रखा है
- कणाद का आध्यात्म विज्ञान, बुद्ध की परिवार्जक परम्परा को नए रूप में रखा
- आज के समय असली महात्मा की जरूरत है जब जैसा कार्य करना हो उस समय वही कार्य अच्छे से करो
- एक नया Angle of Vision समय समय पर दिया जाता है तथा ऐसा कोई ऋषि ही कर सकता है
- Life Time तक ये वांग्मय काम नही आएगा परन्तु गुरुदेव ने ये कहा कि हमारे विचार इतने पैने कि दुनिया की कोई शक्ति इसे नहीं काट सकती तथा अगले 1000 वर्षो तक बासी नहीं होगे
- गुरुदेव ने हमें इस स्तर तक के दूरदर्शी विचार दिए हैं तो 1000 वर्ष के बाद क्या होगा तब यही किसी अन्य महापुरुष के रूप में आएंगे तथा बताएंगे कि अभी ये विचार समय के अनुकुल नही है तथा तब उस समय बदलाव लाना होगा क्योंकि पकृति परिवर्तनशील है
- यहा वांग्मय के रूप दिशा निर्देश लिया, इसलिए पुराने की संख्या बढ़ती जाती है स्मृतियां बढ़ती जाती है
- उसमें वेद का शाश्वत ज्ञान भी लेना है और युग के अनुकूल समस्याओं का समाधान भी लेना है
- अन्य ऋषियों ने कथा शादी का प्रयोग किया है परंतु गुरुदेव ने कहा की कथा आपत्य है, भटकाव हो जाता है, इसीलिए गुरुदेव ने उपनिषदिक शैली में प्रज्ञोपनिषद लिखी
- प्रज्ञोपनिषद् में कोई कथा नही लिखी अपितु जो भी लिखा वह तत्व ज्ञान और ब्रह्म ज्ञान परक है, सीधी बात की गई है
- आज के समय के अनुरूप युग की समस्याओं का समाधान वांग्मय में मिलता है लेकिन उद्देश्य वही रहेगा कि व्यक्ति का चरित्र चिंतन व व्यवहार ऐसा हो कि स्वस्थ शरीर स्वच्छ मन व सभ्य समाज हो 🙏
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