पंचकोश जिज्ञासा समाधान (01-11-2024)
आज की कक्षा (01-11-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
सिद्धान्तशिखोपनिषद् में आया है कि पहले शिव की पूजा से ही देव गण वशु पाश , विष्णु ने इंद्र नीलमणी से निर्मित शिवलिंग की पूजा की, . . . देवताओं पर्वत से निर्मित लिंग की पूजा की, राक्षसो ने . . . तथा सभी लोगो ने शिव की पूजा से ही सिद्धि प्राप्त की, का क्या अर्थ है
- बह्मा विष्णु शिव ने भी गायंत्री मंत्र का तप किया परन्तु सिद्धी अलग अलग मिली
- मंत्र एक ही है परन्नु सिद्धिया अलग अलग क्यों मिलती है -> इसका उत्तर यह है कि भावनाओं के अनुरूप सिद्धियां मिलती है
- कौन किस भाव से उस मंत्र का जप कर रहा है, भाव के अनुरूप मंत्र फल देता है
- पुत्र की कामना, धन की कामना से जप किया तथा अपनी भावनाओं से जैसा जप किया, उसी प्रकार का फल मिलेगा
- शिव = परमात्मा, शिव के नाम में ना फंसे
जाबालदर्शनोपनिषद् में आया है कि अपने इस देह में शिव के नाम पर . . . तीर्थ स्थित है, ललाट में केदार केंद्र स्थित है, नासिका के बीच में काशीपुरी स्थित है, . . . मूलाधार स्थान में कमलालय तीर्थ की स्थापना की गई, इन सबको त्याग करके आत्मभाव में रहना है, जो अपने भीतर के तीर्थो को छोड़कर बाहर भ्रमण करता रहता है, वह हाथ में रखे हुए बहुमूल्य रत्नों का त्याग करके घास को ही ढूढ़ता रहता है
- यत बह्माण्डे तत् पिण्डे – > कही न कही तो बताना ही पड़ेगा कि शरीर के भीतर वो कहा है जो हम बाहर तीर्थो में या अन्य स्थानों में खोजते है
- सब तीर्थ अपने शरीर में ही खोजें
- कामदेव भस्म होने के बाद अमर कैसे हुआ -> स्थूल शरीर भस्म हुआ सूक्ष्म शरीर भस्म नहीं होता, स्थूल रूप से उद्धण्डता को हटाया
- यह आवश्यक नही कि जहा पर इस उपनिषद् में बताया गया केवल उसी स्थान पर उसी एक तीर्थ को मानेंगे, शरीर में कोई भी तीर्थ कही भी कह सकते है / मान सकते है
एकाक्षरोपनिषद् में किसी अक्षर की चर्चा नहीं है केवल एक ईश्वर की ही चर्चा है तो क्या इसका अर्थ ॐ से लिया जा सकता है
- एकाअक्षर = एक ही अक्षर = जिसका नाश नहीं किया जा सकता = परमात्मा = ॐ
- तीनो (अ उ म) को मिलाकर एक ही ध्वनि निकालेंगे तो ॐ होगा, अलग अलग नहीं बोलना
- सत् चित् आनन्द को ही अ उ म कहते है
- वह सृजन / उत्पन्न करता है, वह पोषण करता है, वह विनाश करता है -> ये तीनो गुण उसमें है -> सत् चित् आनन्द भी उसी एक में है
- एकाक्षर = परमात्मा
- कण कण में जब वही है, दूसरा है ही नहीं तो दूसरे का नाम क्यों समझे, उसकी चर्चा क्यों करे
- कुछ मनन चिंतन करते है तो ईश्वर को पा लेंगे
हमें ये कैसे पता चलेगा कि यह हमारी इच्छा है या ईश्वर की इच्छा है
- जिसमें सबका कल्याण हो वह ईश्वर का है
- उस इच्छा में अपना कल्याण है या सबका कल्याण है तथा उसका Range कहा तक है
- प्रज्ञापुराण का पहला ही श्लोक है कि लोककल्याण की जिज्ञासा कितनी है
कौन सा उपनिषद् पहले पढे
- ईशावास्योपनिषद से शुरू करे
- उपनिषद् स्वयं कह रहा है कि पहले इसे पढ़े तथा यह यर्जुवेद के 40 वे अध्याय से लिया है
- इसमे विज्ञान, कला, जन्म लेने से मरने तक इसमें सब है , विशुद्ध विज्ञान है तथा अभी के समय के लिए भी उपयुक्त है
- सारा संसार ईश्वर का घर है, सब कुछ उसी ईश्वर का है, मन – बुद्धि भी सब उस ईश्वर की कृपा से मिला है
- संसार को भोगना है तो त्यागपूर्वक भोगों
छान्दोग्योपनिषद् में आया है कि हृदय चैतन्य ज्योति गायंत्री रूपी बह्म प्राप्ति स्थान के प्राण, व्यान, उदान, समान और अपान -> ये 5 द्वारपाल है अतः इनको वश में करे, यही से हृदय स्थित गायंत्री स्वरूप बह्म की प्राप्ति होती है, यहा द्वारपाल का क्या अर्थ है
- पूज्य गुरुदेव इसे बह्मपुरी में प्रवेश करने के पाच दरवाजे बताते है -> नाभी, मूलाधार, त्रिकुटि, अनाहात, बहमरध्रं
- हर जगह पर एक प्राण विद्यमान है
इन शक्ति केंद्रो पर पांच द्वारपालो को नियुक्त करने का क्या उद्देश्य रहा होगा
- द्वारपाल Semipermiable Membrane / Filter की तरह होते है
- अधिकृत लोग जाए, अनाधिकृत की Entry ना होने पाए, इसके लिए द्वारपाल रखे जाते है
- प्रत्येक प्राण का एक विशेष कार्य है तथा वह अनावश्यक को रोकना व जरूरतमंद को जाने देना
- देवता बनने का Formula यहा से मिलता है
ईशावास्योपनिषद् में आया है कि सब कुछ ईश्वर का ही है परन्तु हमें अहंकार आ जाता है तो यह बात हृदयगम करने के लिए सरल उपाय क्या है
- पूज्य गुरुदेव धरती पर सरल से सरल रूप में महात्मा बन कर आए तथा उन्होंने 18 सुत्र युगनिर्माण व सत्संकल्प का दिया
- ईश्वर को सर्वव्यापी मानकर उसके अनुशासन को स्वीकारे, इसे पचाने के लिए जीवन में संयम करना है तथा धारणा ध्यान समाधि को एक बिंदु पर लगा देंगे तो संयम हो जाएगा, गुरुदेव ने जो बताया है उसी पर Practical किया जाए
- प्रयास ही करना पड़ेगा
- याद रखने के लिए जेब में एक भारी समान रखे कि याद रहे या अन्य कोई उपाय करे
- एक संत यही याद करने के लिए अपने पास नर कंकाल (खोपडी) रखते थे ताकि यह देख ले कि अन्त में यही हमारी दुर्गती होगी
- अपने को दण्ड देना है ताकि भूल न हो
मुण्डकोपनिषद् में आया है कि पढने लिखने सुनने से आत्मा नही मिलती तो क्या इतना अधिक पढ़ा जाए लिखा जाए सुना जाए, क्या यह आवश्यक है
- ढाई अक्षर प्रेम का ही काफी है
- इतना पढ़ने की आवश्यकता नहीं है
- आत्मीयता की खेती करो व आत्मीयता बाटो
भगवत प्राप्ति की राह पर चल रहे है परन्तु जरूरी नही कि मिल जाए तो जब तक होगा प्रयास करते रहेगे परन्तु अवश्य नहीं कि ईश्वर को पाए तो इसे पाने के लिए अगला जन्म तो लेना पड़ेगा तो प्रश्न यह है कि मानव का पुर्नजन्म कब होता है
- मान लीजिए कि हमारा Target ईश्वर है या दिल्ली है तो उसके लिए हम चल रहे है, तो पहुंच तो जाएंगे परन्तु देरी कितनी होगी, इस जन्म में या अगले जन्म में, यह आपकी गति पर निर्भर करता है
- जूनून है तो एक Second में / पलक झपकते ही पा लेगे क्योंकि दिल्ली हमारे भीतर भी है, दूर नही है
- इसी को पाने के लिए गुरु की आवश्यकता पडती है तो इससे वायुयान मार्ग मिल जाता है
- इसी जन्म में भी पा सकते हैं
- यदि पंचकोश में 2 घंटा भी ईमानदारी से दे तो 10 वर्षो में पा लेगे
- कृष्ण ने कहा है कि सभी कालो में मेरा स्मरण करे तो बिना नहाए भी, नहाने के बाद भी, गीता के एक एक श्लोको में हम डुबकी नही लगाते
- पढ़ना है तो उसे पीना पड़ेगा
क्या अनुबंध ही धर्म का प्राण है तो इसे कैसे साधा जाय कृप्या प्रकाश डाला जाय
- अनुबंध को आत्म साधना भी कहते है, ईश्वर ने अपनी सारी विभूतियां बीज रूप में आत्मा में डाल दी हैं, उसमें हमें अपने भीतर खोजना होगा तथा भीतर सत प्रवृतियो का संवर्धन करना होगा, वही प्राण है, अपने भीतर बैठे ईश्वर को जागृत करना है
- अनुबंध को ही प्राण कहते हैं
- अनुशासन तो बाहर का है वह बदलता रहता है शाश्वत नही होता है आपतकाल होता है
- परन्तु अनुबंध शाश्वत है तथा यह आत्मा का गुण है, इसी शक्ति को हमें अपने भीतर विकसित करना है
गुस्सा बहुत आता है कैसे कम करें और गुस्से को कम करने के लिए कोई प्राणायाम है तो बताएं
- उसके लिए सोहम् प्राणायाम है, मै शरीर नही आत्मा हूँ तथा आत्मा को गुस्सा नही आता और वह सबके हृदय में वास करता है
- बाहर किसी के प्रति गुस्सा आ रहा है तो उसके प्रति प्यार बढ़ा दीजिए, प्यारे आदमी पर गुस्सा नहीं आता तथा उसकी गलतियां भी अच्छी लगती हैं
- जिससे हम प्यार न करे तो उसकी अच्छाई भी खराब लगने लगती है
- गुस्से को प्यार ही शान्त करेगा, यदि गुस्सा नही निकल रहा तो भी कोई बात नहीं, फिर हमें प्यार को बढ़ाना होगा
- यदि गुस्सा अच्छी चीज के लिए आ रहा है तो अच्छा है, अनुशासन बनाए रखने के लिए तथा संस्कृति की रक्षा के लिए गुस्सा आना अच्छा है, वह गुस्सा देवताओं का गुण है
आत्मा को पाने के लिए या भौतिक जगत में उन्नति के लिए स्वाध्याय अनिवार्य प्रतीत होता है, उसे कैसे छोड़े
- स्वाध्याय को केवल पढ़ना क्यों मानते है, स्वयं का अध्यन करो
- प्रत्येक कार्य में आत्मा / ईश्वर को ढूढ़े
चेतना का स्तर कैसे उपर उठेगा
- हर चीज में समझदारी का उपयोग करना होगा तथा इसका अच्छे से अच्छा उपयोग करना जानना होगा तो चेतना विकसित हो जाएगी
- समझदारी के साथ साथ चेतना विकसित हो जाती है
अभी हम आत्मा के स्वरूप व गुणों को नही जानते जिससे कारण भटक रहे हैं तो अपने अंतःकरण को निर्मल बनाना जरूरी है तो उसके लिए पढ़ना भी जरूरी है तथा उस पर Practical करना भी जरूरी लगता है, हम इसे नकार कैसे सकते है कि पढने से आत्मा नही मिल सकती
- अपरा व परा दोनो को जानो
- अपरा = पेट भरने की विद्या
- परा = मौन से आत्मा मिलता है
- किताब को ही क्यों माने कि इसी से आत्मा मिलेगा, पढ़ने से भी आत्मा का समझ में कहा आता है क्योंकि उस पर Practical नहीं किया
- Practical से ही मिलेगा अन्यथा शब्दों में उलझते जाएंगे, शब्दों से परे है तो इसलिए शब्दों से उसे नही जान सकते 🙏
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