पंचकोश जिज्ञासा समाधान (19-02-2025)
कक्षा (19-02-2025) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
गायंत्रीपनिषद् में मौदगल्य ऋषि कहते है कि मन ही सविता व वाणी ही सावित्री है, जहा पर मन है वहा पर वाणी है, जहा पर वाणी है वहा मन है, ये दोनो एक युग्म है, योनि रूप है, इसी प्रकार अग्नि से पृथ्वी का युग्म, वायु से अंतरिक्ष का युग्म है, इनका क्या अर्थ है
- सारा संसार चुम्बक के अनुरूप, आकर्षण विकर्षण के सिद्धान्त पर काम कर रहा है
- कोई भी पदार्थ बनेगा तो उसमें दोनो होगें
- हर पदार्थ चुम्बक है, ब्रह्माण्ड में जितने भी पिण्ड है, सब Magnet है, तो दोनों ध्रुव सभी में होगें
- दोनो धुवो का गुण कर्म स्वभाव अलग है इसलिए अलग अलग योनि कह दिया जाता है
- जैसे स्त्री व पुरुष दो अलग अलग योनि है, जब संतान उत्पन्न करना है तो दोनो मिलकर संतान की उत्पत्ति होगी -> योनि दो है परन्तु मिथुन एक है
- दोनो एक दूसरे के पूरक है, ऐसे ही संसार के सभी Particles में दोनो ध्रुव होते है तथा दोनो एक दूसरे के पूरक हैं
- हर जगह दोनो का बराबर महत्व है
- मन और वाक दोनो साथ रहेंगे, मन में कुछ भी यदि सोचते है तो सोचना भी एक तरह की वाणी है
- मन में सोचना भी पश्यन्ति वाणी है
- दोनो को हम महत्व दे तभी सुष्मना काम करेगी नही तो दोनो बंधन में रहेंगे
- पकृति व ब्रह्म दोनों को महत्व दे
मडलब्रह्मोपनिषद् में आया है कि बाह्य लक्ष्य यह है कि नासिका के अग्र भाग से 4 – 6 – 8 – 10 – 12 अंगुल की दूरी पर कम्रशः नील वर्ण – श्याम वर्ण – रक्त वर्ण – पित्त वर्ण तथा दो रंगो से मिश्रित वर्ण से आकाश दिखाई पडता है, वह योगी हो जाता है, पांच वर्ण क्या है
- आकाश में सारे तत्व है, 4 – 6 – 8 – 10 – 12 अंगुल -> ये तभी बढ़ती हुई Frequency के आधार पर ऐसा कहा गया
- Frequncy के अन्तर को Color कहते हैं
- Color नाम का कोई अलग तत्व नहीं है, तत्वदृष्टि की दृष्टि से देखे तो Wavelength व Frequency के उतार चढ़ाव को Color कहते है तथा दोनों में से एक भी रंगीन नहीं होता, ना Wavelength रंगीन होता है ना Frequency रंगीन होता है
- आंखो पर वे Wavelength / Frequency क्या असर करते है, उस आधार पर हम उन्हे Color कह देते हैं
- जैसे पृथ्वी तत्व पीला, अग्नि तत्व लाल होता है तथा उपर अंतरिक्ष तत्व नीला होता है
- नीला + पीला मिलता है तो = हरा होता है
- पांचों तत्वों को सूक्ष्म रूप में आकाश में विलीन होता देखे, यहा तत्वों का रूपांतरण होता है
- आकाश तत्व से वायु निकला, वायु से अग्नि, अग्नि से जल तथा जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई
- ये अलग-अलग ना माने, ये एक ही तत्व का रूपांतरण भर है, सब शुभ ज्योति के पुंज अनादि अनुपम है
- विराट तन्तु = कमल का लंबा डंढल
श्रीमद् भगवदगीता में अध्याय 2, श्लोक 59 में आया है कि देहधारी जीव इंद्रिय भोगों से भले ही निवृत हो जाए पर उसमें इंद्रिय भोगो की इच्छा बनी रहती है, लेकिन उत्तम रस के अनुभव होने से ऐसा कार्यो के बंद होने से फिर वह भक्ति में स्थिर हो जाता है तो यहा बात आती है कि सांसारिक सुख की नश्वरता तो है परन्तु वह आत्मिक सुख भी ध्यान जप तप करने से मिल नहीं रहा इसकी अनुभूति कब व कैसे होगी तथा आत्मिक सुख के उस विराटता की अनुभूति किस प्रकार से की जाए
- अनुभूतियां किसी भी तरह की जब भी होगी तो केवल Practical से ही होगी -> यह समझे
- स्वादिष्ट वस्तु को जब तक चखेंगे नहीं तब तक स्वाद नही मिलेगा -> इसलिए Practical में इंद्रियों का विषयों से सम्पर्क होने पर कुछ Feeling होगा
- 5 ही विषय है तथा 5 ही ज्ञानेंद्रिया है
- उसका लगातार अभ्यास करते रहेंगे तो यह हो ही नहीं सकता कि उसका कुछ अच्छा या बुरा अनुभव ना हो, मन लायक है तो अच्छा लगेगा, मन लायक नहीं होगा तो नाक मुंह सिकोडेंगे -> यही तो हमारे अनुभव / अनुभूतियां है
- कुछ फायदेमंद है तो शुरू में 2-4 दिन नाक मुंह सिकोड़ने पर आदत में आने पर अच्छा लगने लगता है
- धुम्रपान का स्वाद अपने में स्वादिष्ठान नहीं है परन्तु चखते चखते चखते चखते वह स्वादिष्ट लगने लगता है
- जो धूम्रपान नहीं करते हैं उनके सामने यदि कोई धूम्रपान करने वाला व्यक्ति फूंक भी दे तो भी उनके दम घुटने लगता है तथा जो धूम्रपान लेने का आदी है यदि उसके सामने कोई बीड़ी या सिगरेट पी रहा है तो उसका मन यह करेगा की काश कुछ हवा बह कर यहां तक भी आ जाए और धूम्रपान का रस वह भी ले ले
- मन जिस भी विषय में आनन्द लेकर Practical करने लगेगा तो उसमें रस आने लगेगा तथा जहा क्रिया को काफी बार Repeat & Repeat कर दिए तो उस रस की जडें गहरी होती जाएगी, फिर वह मना करने पर भी नहीं मानेगा तथा उसी दिशा में ही जाएगा
- जिसे साधना का / संगीत का Taste / रस मिल गया है तो उसे साधना के सिवा कुछ सुझेगा ही नहीं भले ही भोजन मिले या ना मिले
- साधुओं को भोजन भले ही ना मिले परन्तु भजन मिल गए तभी उन्हे असली आनन्द मिलता है
- पढ़ते वाले को कितनी भी सुख सुविधा देगें परन्तु Library नहीं देंगें तो भी भाग जाएगा
- यह सब मन के उपर है, जिसमें हमारा मन रस लेकर कार्य करने लगता है तो उसका सुख मिलने लगता है
लेकिन गिरने का डर भी बना रहता है
- गिरना व उठना अलग चीज है कि किस चीज में रस लेकर कार्य कर रहा है, उसका Chemistry काम करेगा -> यहा गिरने उठने से कोई मतलब नहीं, यदि सुख मिल रहा है तो जिस दिन धडाम से गिरेगा तभी समझेगा कि यह सुख ठीक नहीं था / स्थाई नहीं था
- यहां गिरने उठने का कोई मतलब नहीं है मन का चस्का जिसमें लग गया मन वही करेगा, यदि नशा करने में मन रस ले रहा है तो चाहे जितना उसे कहे कि तुम्हें कैन्सर हो जाएगा तो वह जवाब देगा कि होगा तो भी देख लेंगे परन्तु मन का वह मजा जो मिल रहा है वह क्यो छोड़े, ऐसा कहकर फिर अपनी मस्ती में खो जाएगा
- मन बडा ठीठ जैसा है, जिधर डूबकी लगा दिया तो संसार को नकार देगा
विश्वामित्र जैसे व्यक्ति भी अपने पथ से गिर गए
- वे गिर गए या उठ गए ये तो अपने अपने देखने का दृष्टिकोण भर निर्भर करता है
- यह भी समझे कि गिरने वाला ब्रह्मऋषि कैसे बनेगा, उसे इस प्रकार समझे कि उसने अपने वीर्य का दान कर दिया
- किसी को संतान चाहिए तो उन्होंने वीर्य दान दिया तो उन्हे हम दानी क्यों नहीं कहते
- जहा पर भी दोष दृष्टि जब भी आएगा विश्वामित्र के प्रति घृणा होगी, विश्वामित्र तो महादानी और महा पराक्रमी थे
- वे गिर नहीं गए थे परन्तु जब वे जा रहे थे तो सभी राजाओं को लगा कि फिर भारत को चक्रवर्ती राजा कौन देगा तथा यही राजा है तो इसी का वीर्य चाहिए जैसे कार्तिज्ञ के लिए शिव का वीर्य चाहिए भले ही कामदेव को भस्म होना पडें तो यह नहीं कह सकते कि शिवजी गिर गए
- यहा कोई गिरता नही है, जब ईश्वर कण कण में है तो ईश्वर कैसे गिरेगा, हमारा स्तर / खोपडी / विचार गिरा हुआ है तो दूसरों के बारे में ऐसा ही सोचते हैं
- जब तक हम दोष दृष्टि से 100% दूर नहीं होते तब तक आत्मा नहीं मिलने वाली
- दोष दृष्टि से आत्मा बहुत दूर होती जाएगी
- हम अपनी दृष्टि से विश्वामित्र को देखे तो वे तो बहुत बड़े दानी थे कि अपना वीर्य दे दिया यदि नहीं देते तो आज भारत का नाम भरतवंशी नही पड़ता, हम भरतवशियों के ही सब वंशज हैं
- प्रत्येक में हम positive अर्थ निकाले, संसार ने उसका क्या अर्थ निकाला परन्तु आप भी अपना भाष्य करे ताकि हमारे बाद कोई उसका उतना अच्छा सकारात्मक अर्थ देने वाला भाष्यकार न बने
- तुलसी ने राम कहा तो वह उसका Patent नहीं हो गया, कबीर का राम अलग है
कभी कभी हमारा मन सब कुछ सामान्य होते हुए भी विषादग्रस्त अवस्था में रहता है तथा कभी कभी हमारा मन विपरित परिस्थितयों में भी बहुत अच्छा महसूस करता है, इसके पीछे कौन सा विज्ञान कार्य करता है कि मन ऐसा क्यों करता है
- प्रकृति सत रज तम से मिलकर बनी है तो हर जगह में तीनो गुण रहेगा ही रहेगा तो हमारे भीतर जब सतोगुण हावी (Dominant) रहता है तब वह सात्विकता / Freshness का अनुभव करेगा, रज होगा तो थोड़ी चंचलता का अनुभव करेगा तथा तम होगा तो आलस्य अनुभव करेगा
- यह सत रज तम प्रकृति ही बनी हुई है तो इसे लेकर कोई Tension नहीं -> गुणा गुणेशु वर्तन्ते
- समुद्र में लहरे चुम्बकत्व व ज्वारभाटे के कारण आती है तथा सारा संसार तरंगो से संचालित है
- गति तभी होगी जब तरंग उत्पन्न होता है
- हर स्थिति का आनन्द लीजिए, यदि मन चंचल भी है तो उसका स्वर बदल दीजिए जैसे युद्ध से पूर्व एक सैनिक अपना स्वर बदलता है
- कोई हानि नहीं है, उस समय उसके ढ़ग का कार्य कर लीजिए
- गुण ही गुणों में बदलते हैं
वांग्मय 15 मुर्धन्य मनीषी आचार्य चतुरसेन शास्त्री अपने संस्मरणार्थक ग्रंथ में लिखते है कि भारत के पास से गुजरती हुई भूचुम्बकीय रेखाएं इसके कुरुक्षेत्र स्थान को बिलकुल स्पर्श करती हुई गुजरती है इससे प्राचीन में निर्माण एवं सूर्योदय सूर्यास्त की सही घटक गणना कुरुक्षेत्र के ही मध्य बिंदु से होती थी तथा यह उन दिनों समस्त एशिया में विश्व का ग्रीनविच था, कृपया इसे स्पष्ट करे
- यहा Equator Line को कहा जा रहा है कि वह क्षेत्र इसके इर्द गिर्द गुजरता है
- यहा भौगोलिक स्थिति को बता रहे है
- Greenwich को समय को लेकर बनाया
- Equator के आधार पर नहीं अपितु सुर्योदय या सुर्यास्त को देखकर वह बनाया गया
पदार्थ विज्ञान अब तक सुर्य की स्थूल सूक्ष्म केवल 9 किरणों ( 7 स्थूल किरणे VIBGYOR + UV + IR ) का ही पता लगा पाया है, बैनी आनी पाला के साथ स्थूल किरणे क्या ये Visible Rays है
- इसे Visible Rays कहते है
- पहला पहला अक्षर जोड देंगें तो हिंदी में वैनिया पीनाला हो जाएगा तथा इसे अंग्रेजी में VIBGYOR कहते हैं
अगर दिया गया दान लेने वाले वापस कर दे तो उस दान का क्या किया जाय कृपया प्रकाश डाला जाय
- लेने वालो के लिए यदि उपयोगी नहीं तो आप उसका कहीं Good use करे, उससे जिद न करे कि लेना ही पड़ेगा तो यदि उसके काम का नहीं है तो बढ़िया ही है कि उसने लौटा दिया
- आपको ऐसा कुछ ऐसा Gift मिल जाए जो उपयोग का न हो तो कैसे ना कैसे व्यक्ति उसका Disposal करता है तथा दूसरों को दे देता है
- मन में खटास है तो भी वह Gift लौटा सकता है, नहीं ले तो आप रख ले, परेशान न हो
- यदि Gift नहीं लिया तो अपनी समीक्षा कर ले कि क्यों नहीं लिया
- हर व्यक्ति का अपनी-अपनी सोच के आधार पर व्यवहार होता है
- यदि हम सरल व सहज जीवन जीने का अभ्यास करेंगे तो कभी कोई दिक्कत नहीं आएगी, अक्सर हम ऊबड खाबड़ ढंग का कल्पना करके जीते रहते हैं
- हम अपनी तरफ से Due Respect (सम्मान) उन्हे देते रहे तथा हम अपने भीतर काई ना बैठाए
जब भी मै ध्यान करता हूँ सुर्य का प्रकाश ध्यान में दोनो भौहो के बीच दिखाई देता है परन्तु थोड़ी देर देखने के बाद लगता है कि मेरा सर फट जाएगा और फिर ध्यान वहा से हट जाता है
- जब सर फट जाने जैसा लगता है जब सुर्य का या सविता देवता का ध्यान जब किया जा रहा हो तो उसकी गर्म किरणों वाली कल्पना न की जाए, गर्म से फटता है, बल्कि ध्यान एक शुभ ज्योति पुंज के रूप में किया जाएगा तथा यह सूर्य तो उस दिव्य सत्ता से सम्पर्क बनाने / Tuning करने का का एक माध्यम मात्र है
- गायंत्री मंत्र का देवता सुर्य नहीं, सुर्य की आत्मा सविता के बारे में यहा कहा जाता है
- सविता, जिसने सुर्य को भी प्रसंवित करे / प्रकट करे
- सविता = परमात्मा तथा वह Cool है, शांताकारम है, सूर्य में शांति का गुण भी है / शांति का प्रकाश भी है, जिसे चंद्रमा Filter करके हमें देता है
- हम लोग शीतलता का ध्यान करे तो मस्तिष्क फटेगा नही तथा शांत व प्रसन्न हो जाएगा
- करोड़ों चंद्रमा के समान शीतल तथा करोड़ों सूर्य के समान तेजस्वी -> ऐसा ध्यान करे
- शांति का भाव बढ़ रहा है, हमारा आभामंडल तेजस्विता से भर रहा है, Aura बढ़ रही है
- पहले सुर्य को त्राटक करके देख लिया फिर सुर्य का आध्यात्मिक प्रकाश के रूप में ध्यान करना है तो फटेगा नहीं तथा फटा हुआ भी जुड जाएगा तथा शांत होगा
जब मै गायंत्री मंत्र का उच्चारण करता तो मेरे शरीर के भीतर से Echo के जैसा कुछ निकलता है, इसका क्या अर्थ है
- ध्वनि एक तरंग है, गायंत्री मंत्र के उच्चारण से शरीर के विभिन्न शक्ति केद्रों में कम्पन्न उत्पन्न होता है
- शांत मन से उच्चारण किया जाएगा तो मन की तरगों से शरीर में कंपन होगा ही होगा
- गायंत्री महाविज्ञान में बताया गया है की गायत्री मंत्र का उच्चारण शरीर में विभिन्न शक्ति केंद्रों को झंकृत करता है
- जिस दिन साधक उपवास करता है या फिर जलाहार करता है तो उस दिन यदि गायंत्री मंत्र का उच्चारण करते हैं तो शरीर में और भी अधिक कंपन का अनुभव होगा
- इसे हम साक्षी भाव से देखते हुए इसका लाभ ले
- जब साधक गायंत्री मंत्र जपता है तो दो प्रकार के वृत निकलते हैं -> एक सद् वृत निकलता है जो आपके आभा मंडल से निकलकर जाएगा और सूर्य को छुएगा यानि जो भी अपना Subject होता है उसको जाकर छुता है और फिर वहां से उसकी शक्ति लेकर साधक में लौटेगा
- दूसरा भाव वृत बनता है -> ईश्वर का भाव या ध्यान कर रहे हैं तो वह यही से यही घुल जाएगा तथा क्योंकि ब्रह्म हर जगह है, कही दूर नहीं जाना पड़ेगा तथा यहीं से यही ब्रह्ममय बना देगा
किसी में दोष दृष्टि न देखे तो गलत संगत या गलत खान पान के प्रति दोष दृष्टि आ जाती है तो ना चाहते हुए भी उसका दोष समझ में आता है कि यह हमारे मन में आया इससे कैसे बचा जाए
- यदि हमें लगे कि यह समाज में विषैले व्यक्ति हैं तो उन का धन्यवाद दे कि इन्होंने हमें समाज में विष तत्व का ज्ञान करवाया तथा हमें उस विष तत्व में कूदने से बचा लिया
- दूसरो की गलतियां हमें आगे बढ़ाती है
- उस व्यक्ति के रूप में ईश्वर ही पाठ करने तथा हमें सीखने आता है कि हमको देखो और समझो कि इस तरीके से चलते पर हमें यह घाटा हुआ तो तुम ये गलतिया मत करना
- यह तो सकारात्मक सोच हुई तो इसमें कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए
- जो हानिकारक चीजे है उसे हम नहीं खाएंगे तथा जो फायदेमंद चीज हैं उन्हें हम खाएंगे
- हानिकारक चीजें भी सबके लिए हानिकारक नहीं है, कहीं ना कहीं वह भी उपयोगी है, जहर भी जहर को काटता है तथा जहर भी कभी-कभी दवा का काम भी करता है
- इसमें घृणा करने की तो कोई बात ही नहीं
साधना के कम्र में हम समझते है परन्तु यदि बच्चों की संगत में शिक्षण कैसे दे
- यदि आप अपने को नशे से बचना चाहते हैं तो आपका मन बच्चा हो गया तो अब मन को पढ़ाना होता है तो मन को इसके सेवन करने के लाखों घाटे पढ़ाए तथा बिना नशा का जीवन जीने के लाखों फायदें भी उसे बताए
- बिना नशे का भी इससे अधिक अच्छा जीवन जिया जा सकता है यह भी हमें अपने मन को बताना होगा
- केवल दोष गुण बता देना बहादुरी नहीं है बल्कि उसका समाधान तथा उसे अपने जीवन में अपनाने का तरीका भी बताना होगा कि इसे छोडना कितना आसान है
- गुरुदेव व्रत शब्द का उपयोग करते थे कि थोडा थोडा व्रत करेगें तो इसके लाभ भी मिलने लगेंगे
- नशे से कितना अधिक नुकसान होता है इसका विज्ञान हम समझे कि यदि हम नशा करते हैं तो हमारा रक्त दूषित होगा तथा रक्त दूषित होने से वीर्य की गुणवत्ता कमजोर होगी तथा उससे हमारी संतान भी कमजोर होगी
- यह घृणा का विषय नहीं है, जैसे कोई मांस खाता है तो खाए हम नहीं खाते
- अघोरी मुर्दे का मास भी खाते है परन्तु यदि हम उन्हे कहें तो वे कहेंगे कि हम मुर्दा नहीं खा रहे, यहा कण कण में ईश्वर है हम ब्रह्म को खाते है तुम्हारे लिए मुर्दा दिख रहा है परन्तु हम ब्रह्म को खा रहे है
- भारतीय दर्शन बहुत ही विराट है
- अपने को जो जो भी set करता है तथा जो हमें साधना के पथ पर आगे बढ़ाए उसी को लेकर चले -> उसे कहते हैं तत् सवितुर्वरेण्यम्
नाद योग के समय कभी -कभी नींद आ जाती है और समाप्त होते ही खुल जाती है , ये किस तरह का संकेत है, प्लीज बताएं
- तन्मयता जहा पर हो गी तो झपकी आती है, शरीर को आराम देने के लिए नीदं आता है
- बच्चा माँ की गोद में हृदय की धड़कन को नाद के रूप में सुनता है तथा नाद योग के प्रभाव से सो जाता है
- यह तादात्म / Resonance के चलते ऐसा होता है 🙏
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