पंचकोश जिज्ञासा समाधान (28-02-2025)
कक्षा (28-02-2025) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
छान्दयोपनिषद् में आया है कि 21 अक्षरों से साधक आदित्य लोक को प्राप्त करता है, आदित्य ही 21 वा अक्षर है, 22 वे अक्षर से साधक आदित्य से परे सुख स्वरूप, शोकरहित लोक को प्राप्त करता है, यहा 21 अक्षर क्या है
- तीन अक्षर -> हिंकार, प्रस्ताव व उदगीथ, जो शब्द उनके आस पास हो उनमें अर्थ खोजना चाहिए, उपनिषदों के प्रसंग में आगे या पीछे कोई न कोई मंत्र दिया रहता है, उसमें यदि संकेत नहीं है तो फिर हम स्वभाविक मूल घटकों में अर्थ को लेंगे
- हिंकार व प्रस्ताव मे 3 – 3 अक्षर है
- प्रतिहार शब्द 4 अक्षरों से मिलकर बना है, उसमें से एक अक्षर निकालकर आदि शब्द में वे जोडने से समान हो जाते हैं
- उदगीथ में या उपद्रव में चार अक्षर आते हैं
- इन सबका कहने का अर्थ है कि हम अपनी साधना का शुरुवात करे व विधिवत सिंचित करे तथा साधना का सार तत्व निकाले
- गुरुदेव ने कहा है कि केवल गायंत्री जप से पूर्णता को नहीं पाया जा सकता
- जब मनोभूमि शुद्ध हो गई तो फिर 5 साधनों की जरूरत पड़ती है जिन्हें पंचकोशी साधना कहते हैं, फिर हम खेत को बीच में छोडकर ना भागे तथा यह कहते ना रहे कि हमें साधना का लाभ नहीं मिला
- सम्पूर्ण सृष्टि 7 आयामों वाली है, सप्त मांत्रिकाए, सप्त धातुए, सप्तम आयामी सृष्टि को जानकर इसका विराट रूप में लाभ ले
- किसी की पढ़ाई को आधा अधूरा हम बीच में न छोडे क्योंकि जब हम आधे अधूरे ज्ञान के साथ practical करते है तभी विलम्ब होता है
मडंलब्रह्मोपनिषद् में आया है कि जो मन त्रिजगत की उत्पत्ति, स्थिति और संहार कर्म सम्पादन करता है, वही मन जिसमें विलय होता है वह विष्णु का परम पद है, का क्या अर्थ है
- त्रिजगत = Mental State = लोक मानस
- लोकमानस का परिष्कार = किन परिधियों में व्यक्ति का मस्तिष्क काम कर रहा है, जैसे ज्ञानप्रधान – भक्तिप्रधान – कर्मप्रधान मस्तिष्क
- कुछ कर्म योग में विश्वास करते हैं
- कुछ का सृजन में मन लगता है
- कुछ का सृष्टि के पोषण / संरक्षण में मन लगता है
- उर्जा का रूपांतरण भी जरूरी है इसी को 3 जगत कह दिया
जो परमात्म तत्व को जानने वाला है वह बालकवत, उनवत और विशादवत हो जाता है का क्या अर्थ है
- कहने का अर्थ है कि जो तत्वज्ञानी है तो उसका दिखावे में फालतु पदर्शन नहीं होता जैसे परमपूज्य गुरुदेव के वस्त्र व रहन सहन
- गुरुदेव कहते है कि पीले वस्त्रो में प्रवचन करे तथा Civil Dress में जाकर कार्य करे
- इसलिए गुरुदेव ने फसली साधु बनाया ताकि हर प्रकार का कार्य कर सके
- यथायोग्य व्यवहार करना उचित है
अवधूत उपनिषद् में आया है कि व्यक्ति के भीतर अनेक प्रकार की सांसारिक कामनाएं रहती है, जब इसका समूल विनाश हो जाता है तब मनुष्य यही पर ईश्वर का साक्षात्कार कर लेता है तो समूल विनाश में अभी बहुत पीछे महसूस कर रहे हैं
- इसके लिए एक काम यह कर सकते हैं कि कि अपना और विस्तार (भौतिक) न बढ़ाएं
- अपने जीवन के लिए भी जीना है
- ढेर विस्तार करेंगे तो उम्र लंबी नहीं है तथा क्षीण होगी
- अपने लिए स्वाध्याय का Daily Routine आत्मसाधना के लिए अवश्य रखे
- अगली यात्रा के लिए Balance छूछ न रखे
बृहदआरण्यकोपनिषद् में आया है कि याज्ञवल्क ऋषि ने जब विदेहराज जनक से पूछा फिर जनक जी ने उन्हे बताया कि वाक्य ही ब्रह्म है, फिर कहते है कि प्राण ही ब्रह्म है, चक्षु ही ब्रह्म है, मन ही ब्रह्म है, हृदय को भी ब्रह्म बताया है, यहा एक ही बार में नही बताया कि सब कुछ ब्रह्म है बल्कि अलग अलग करके सबको ब्रह्म बता रहे हैं फिर याज्ञवल्क्य जी ने कहा कि मेरे पिता ने बताया कि जब तक मै आपको सनुष्ट न कर दूं तब तक दान नहीं लुंगा, यहा याज्ञवल्क जी के पिता कौन थे, दूसरा मन ही ब्रह्म है, इसे स्पष्ट कीजिए
- हम सब ब्रह्मा जी के पुत्र है, सम्पूर्ण संसार को वही उत्पन्न करते हैं
- मुख्य रूप से ध्यान दिया जाए कि याज्ञवल्क जी की कथनी करनी क्या थी
- मन ही ब्रह्म है तो सोचे कि संसार को किसने बनाया -> ब्रह्म ने ही बनाया
- ब्रह्मा जी तो केवल Assembly करते हैं
- जोड़ने तोडने का काम ये करते है
- केनोपनिषद् में भी आया है कि मन को गति ईश्वर ही देता है
- मन को हम आत्म विकास में लगाए
- याज्ञवल्क ऋषि ने एक महत्वपूर्ण बात कहीं कि पूरा ज्ञान दिए बिना हम दक्षिणा नहीं लेते
- इसलिए हमें भी जानकारी आधी अधूरी नहीं देनी चाहिए, आधा अधूरा ज्ञान देकर certificate ना बांटे
- हम एक पूर्ण जीवन जीने का प्रयास करे
ज्ञान और अनुभव से परमात्मा को कैसे प्राप्त किया जाता है, मार्गदर्शन कीजिए
- किसी भी विषय की जानकारी लेना तो जरूरी है, ज्ञान को सर्वोपरि रखा गया है
- कृष्ण ने पहले युद्ध का जानकारी दिया
- युद्ध से पहले लड़ने की कला तो आनी ही चाहिए, इंजीनियर या डाक्टर को पहले Theory की जानकारी दी जाती है
- बिना जानकारी के कोई भी काम करेंगे तो गलत ही करेंगे
- बिना जानकारी का कर्म करेंगे तो पूर्णता को नहीं पा सकते
- पहले जानकारी ले (Theory पढ़ें), फिर कर्म करे (Practical करें) तो अनुभव बढ़ता है
- बिना Practical के अनुभव नहीं आएगा तथा हम भूल जाएंगे
- ज्ञान व कर्म (गायंत्री माता के एक हाथ में वेद व दूसरे हाथ में कमण्डल है)
- अनुभवी व्यक्ति पूर्णता (ईश्वर / लक्ष्य) को पा लेगा
- Theory को आध्यात्म / ज्ञान व Practical को यज्ञ / कर्म / विज्ञान कहते हैं
- जहा केवल ज्ञान हो, कर्म ना हो उसे पाखण्ड कहते हैं
- गुरुदेव ने कहा है कि -> कथनी-करनी भिन्न जहां हैं धर्म नहीं पाखंड वहां है
कभी कभी जानकारी का आभाव रहता है तो उस अवस्था में क्या अकेले Practical करना ठीक है
- ऐसे में गुरु का मार्गदर्शन लिया जाता है
यदि उस विषय की जानकारी के गुरु भी उपलब्ध नहीं है तो क्या करें
- तन्मात्राओं की साधना इसलिए की जाती है ताकि प्रत्येक विषय में धीरे धीरे सावधानी पूर्वक आगे बढ़े नही तो बडा Side Effect हो सकता है, सावधानी पूर्वक धीरे धीरे करने से प्रकृति भी मदद करती है तथा हमारा बचाव करती है
बिना ज्ञान के कर्म योग के पथ पर आगे कैसे बढ सकते है
- बिना ज्ञान के कर्म हो ही नहीं सकता तब कर्म पंगु होगा
- भोजन करना है तो ज्ञान तो चाहिए कि क्या खाना है तथा कितनी मात्रा में खाना है
- शेक्स्पीयर ने कहा है कि अज्ञानी रहने से अच्छा है कि जन्म ही न ले
- हर जगह ज्ञान ही पहले बच्चो को सीखाया जाता है
- ज्ञान से ही कर्म बनता है
- ज्ञान ही कर्म को जन्म देता है
- जैसे Light Energy से ही सब कुछ बना है
भक्ति में ज्ञान को कहा ढूढ़े, भक्ति योग में हमें यह नहीं पता होता कि हम भक्ति क्यों कर रहे हैं
- कोई भी व्यक्ति बिना ज्ञान के भक्ति नहीं कर रहा है, किसी साधु ने अवश्य उसे ज्ञान दिया है कि इस भगवान का ये नाम तथा इस प्रकार के इनके गुण व इनकी विशेषताएँ है
- जैसे सुर्य पहले प्रेरणा देता है तभी ग्रह नक्षत्र उसके चारो ओर घुमते है, ईश्वर निराकार है परन्तु प्रेरणा देता है
- इसी प्रकार किसी भी देवता की भक्ति से पूर्व उसे प्रेरणा अवश्य मिली है
- ज्ञान व कर्म जहा मिलता है उसे भक्ति कहते है, भक्ति का अर्थ सेवा है, केवल झाल बजाना भक्ति नहीं है, भक्ति का अर्थ लोकसेवा भी है
क्या इन सबका निचोड / सारांश यह समझा जा सकता है ज्ञान सर्वोपरि है तथा ज्ञान तीनो प्रकार के योग में घुला है
- ज्ञान घुला भी हुआ है तथा ज्ञान, कर्म को प्रकट भी करता है, इसका अर्थ यह है कि कर्म भी ज्ञान में घुला हुआ था
- आनंद को भक्ति कहते हैं, कर्म करने में आनन्द मिल रहा था तभी कर रहा है
- वास्तव में ज्ञान कर्म भक्ति आपस में घुले हुए है, केवल पढ़ाने के लिए हम इन्हे अलग कर देते है, ज्ञान ही कर्म है तथा ज्ञान पाने के लिए कर्म करते ही है तथा आनन्द पाने के लिए किसी उद्देश्य से आनन्द के लिए करते हैं तो यह कम्रशः फूटता है
- ज्ञान को गंगा व कर्म को यमुना कहते है, दोनो के मिलने से जीवन में सरसता (सरस्वती) आती है
योगतत्वोंपनिषद के 28,29 श्लोक में दिया है कि यमों में एकमात्र सूक्ष्म आहार ही प्रमुख है तथा नियमों के अंतर्गत अहिंसा प्रधान है।इसका क्या अभिप्राय है कृपया मार्गदर्शन दीजिए।
- इसका अभिप्राय यह है कि अन्न से सारा शरीर बना है तथा अन्न में स्थूल सूक्ष्म कारण तीनो गुण रहते हैं तथा हमारा अन्न तीनों शरीरो को प्रभावित करता है
- आहार का अर्थ केवल दाल भात सब्जी न मान ले
- पांचो तत्व सेआहार बनता है तो आहार शुद्धि का अर्थ तत्वशुद्धि से है
- solid भोजन भी अन्न है
- जल भी अन्न है
- सूर्य की रोशनी भी अन्न है, उससे भी विटामिन मिलते हैं
- प्राण ही अन्न / जीवनी शक्ति है
- आकाश मन / विचारो को कहते है, विचार भी भोजन है
- शरीर व संसार तत्वों से बना है तो हम तत्व शुद्धि करें
- अहिंसा = प्रेम
- प्रेमी व्यक्ति को कोई अन्य मारते नही है, ईश्वर से प्रेम करते तथा सभी से प्रेम करते हो तो हमारा EQ Level भी बढ़ेगा
- ज्ञान के साथ यदि EQ Level बढ़ जाता है तो व्यक्ति personalityआत्मसाक्षात्कार कर लेता है
- अंहिसा का अर्थ प्रेम / सौजन्यता / शालीनता है तथा लडने मे लिए पराकर्म है
- अहिंसा परमो धर्म धर्मम हिंसा तथाईवचे
- पहले ऋषियो के समय मेंअहिंसा धर्म के लक्षणो में नहीं था
- धर्म को 10 सुत्रो में रखा गया है वहा अहिंसा के बदले सौजन्यता शब्द का उपयोग किया है और लडने के स्थान पर पराकर्म शब्द का उपयोग किया गया
- प्रज्ञोपनिषद् इन सबका समाधान करता है
- धर्म के 10 सूत्रो / लक्षणों में से सत्य – विवेक – संयम – विवेक – सौजन्य – पराकर्म – अनुशासन – अनुबंध – सहकार और परमार्थ है -> ये सभी धर्म के 10 लक्षण है जो हर मनष्यों पर एक समान लागु होते हैं
विष्णु लोक कहा है इस युग के नारद कौन है क्या एक ही नारद जन जन तक सबकी समस्या का समाधान पहुंचाने है उनमें क्या क्या विशेषताएं है कृपया प्रकाश डाला जाय
- नारद एक Category है, जब ब्रह्मा विष्णु महेश एक नही है तो हर ब्रह्माण्ड के ये अलग अलग होते हैं
- जो इनसे समर्पित लोग होते है तथा जो राष्ट्र हित के प्रति समर्पित भाव से जीते है, वे सभी नारद कहलाते है तथा नारद Translator को कहा जाता है, विष्णु की गूढ़ भाषा को समझकर वैज्ञानिको को उनकी भाषा में समझाएगा तथा मछुआरों को उनकी भाषा में समझाएगा
- जैसे ब्रह्मा ने एक सुत्र दिया द -> नारद ने सभी को उनकी भाषा में पढ़ा दिया
- द = दया (राक्षसों के लिए)
- द = दमन ( देवताओं के लिए
- द = दान (सामान्य जनो के लिए)
- विष्णु ने तो केवल द की शिक्षा दी
- गुरुदेव ने कहा कि यदि हमारा अभियान फेल हो गया तो हालाकि कम संभावना है तो लोग यूं ही नहीं छोड देगे कारणों की जांच करेंगे कि इस व्यक्ति के विचार इतने पैने थे कि जब दुनिया की कोई शक्ति नहीं काट सकती तो उसका अभियान असफल क्यों हो गया
- एक ही कारण पकड़ में आयेगा कि इनके पास योग्य व्यक्तियों का आभाव था यानि देव ऋषि नारदो का आभाव था जो उनके सच्चे संदेश वाहक थे जो उनकी सही बात को सही ढंग सेअपने से अनुभव करते हुए दूसरों को सही ढंग से नहीं समझ सके, ऐसे लोगों का अभाव था इसीलिए इनका अभियान असफल हुआ और कोई कारण नहीं पकड़ में आएगा
- बैकुण्ठ लोक उसे कहा जाता है जहां विश्व बंधुत्व वाले व्यक्ति रह रहे हो, उनके ग्रुप या cell को बैकुण्ठ लोक कहेंगे
संशय, संदेह, शक और जिज्ञासा क्या होता है इसको स्पष्ट करे
- संशय = जब कोई गुत्थी हम नही सुलझा पा रहे कि ये बढ़िया या वो बढ़िया तथा Decision ही नहीं ले पा रहे
- संदेह होता है कि यह आदमी असली है या नकली है क्योंकि पहले जो धौका खाए रहता है तो हम सभी को संदेह की दृष्टि से देखते हैं, ऐसे में दूध का जला छाछ को भी फूक फूक कर पीता है तो वह भी जरूरी है, जहां हम धोखा खाए तो वहां पर हम सचेत हो जाएं
- शक करने के पीछे भी इसका मिलता हुआ कारण होता है
- शक व संदेह मिलते जुलते है तथा अधिक प्रार्यवाची है परन्तु सशंय इससे बिल्कुल भिन्न है
- यदि हम शक कर रहे है तो यह अविश्वास है तथा विश्वास की कमी को शक कहते हैं फिर भी विश्वास पर दुनिया चल रही है
- गुरुदेव ने एक बार कहा था कि विश्वास सब पर करो परन्तु भरोसा केवल स्वयं पर करो क्योंकि कोई भी व्यक्ति कभी भी बदल सकता है क्योंकि ईश्वर सभी में बैठा है, डाकू हत्यारा तक ब्रह्मर्षि बाल्मिकी बन गया था
- किसी को बुलाया है तथा उसका रास्ते में यदि एक्सीडेंट हो जाए तो भी तुम्हारा कार्यक्रम सफल हो तथा असफल ना हो तु इसलिए अपने आप को इतना तो तैयार रख हमेशा
- जिसका प्लानिंग Self Based होता है वह कभी हारता नहीं है उसका अभियान कभी असफल नहीं होता, इसलिए महपुरुष लोग एकला चलो की नीति अपनाते हैं कोई साथ चले या ना चले यह तो भी सूर्य की तरह अकेले चले
धर्म के दस लक्षणों जैसे सत्य व विवेक को पंचकोश के साथ कैसे जोडेंगे
- सत्य व विवेक ज्ञान वाले Area में है तो उसे आनन्दमय से जोड सकते है, सत्य ही ईश्वर है तथा ईश्वर साक्षात्कार कराता है तथा ज्ञान भी सहस्तार चक्र को कहा जाता है तो सत्य व विवेक आनन्दमय से सीधे जुडा हुआ है तथा यही व्यक्ति का अतिंम लक्ष्य भी होता है
- इंद्रियों का संयम किया जाता है तथा इंद्रियां प्राण तत्व से बनी है
- सौजन्य आत्मिकी में आता है
- सहकार व परमार्थ में लोकसेवा हम करते हैं तो इसे अन्नमय कोश से जोड सकते है
- अनुशासन व अनुबंध, मनोमय कोश में आते हैं, समाज व स्वयं को अनुशासन में रखना मन पर नियंत्रण करने से आता है
- इस प्रकार हम अपने अनुरूप इसे कोशों से जोड सकते हैं 🙏
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