पंचकोश जिज्ञासा समाधान (27-02-2025)
कक्षा (27-02-2025) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
बृहदआरण्यकोपनिषद् में शाकल्य ने याज्ञवल्क्य जी से प्रश्न किए तथा अन्त में शाकल्य जी ने पूछा कि आप किसमें प्रतिष्ठित है, याज्ञवल्क्य ने कहा प्राण में, शाकल्य ने फिर पूछा प्राण किसमें स्थित है, उत्तर मिला अपान में, फिर पूछा अपान किसमें स्थित है, उत्तर मिला व्यान में, व्यान किसमें स्थित है, उत्तर मिला उदान में, उदान किसमें स्थित है, उत्तर मिला समान में, याज्ञवल्क्य ने आगे नेति नेति कह दिया, आगे आया है कि उपनिषद् में आए उस पुरुष के विषय में मै आपसे पूछता हूँ उसका स्पष्ट विवेचन न करे तो आपका मस्तक गिर जाएगा तो शाकल्य ने उस पुरुष को न जाना तो उसका मस्तक गिर गया, उसकी अस्थियो को चोर लोग उठा ले गए, का क्या अर्थ है
- यह एक प्रकार का वाक युद्ध है, शास्त्रार्थ में जो फसे उनकी दुर्गति दिखाया गया है
- मस्तक गिरना = अंहकार का खत्म हो जाना
- अंहकार को ही यहा मस्तक कहा गया है
- गुरुदेव हमें हिदायत दिए थे कि कही भी शास्त्रार्थ में मत फंसना तथा जहा शास्त्रार्थ करना आवश्यक हो तो अपने को आचार्य मत मानना, फिर वहा पर मस्तक गिर जाएगा परन्तु आचार्य का बेटा जरूर मानना ताकि अपने पर आत्मविश्वास रहे
- गुरुदेव यदि ब्रह्मज्ञानी है तो हम ब्रह्मज्ञानी का बेटा तो जरूर है तो ब्रह्मज्ञान की कुछ जानकारी तो अवश्य ही रखते हैं तो मै संभाल लुंगा
- कहने का अर्थ यही है कि हमारे जीवन में विनम्रता हो तथा जानने की एक ललक बनी रहे
भौतिक ज्ञान व आध्यात्मिक ज्ञान दोनों का होना जरूरी है, दोनो में से किसी एक के लोप हो जाने पर मनुष्य का पतन हो जाता है तो इसे जीवन मै कैसे Balance करे
- इस जीवन में बैलेंस करने के लिए -> आत्मा के साथ-साथ शरीर का भी ध्यान रखें तथा केवल शरीर स्वास्थ्य को ही सुधारने में लगे हैं तो यह भी आधा अधूरा है
- शरीर को साफ सुथरा वह निरोगी रखें परंतु ध्यान रहे कि कालांतर में यह भी समाप्त होने वाला है तो आत्मा का ध्यान रखे व उसे चमकाएं -> आपः दीपो भवः -> आत्मा के बारे में जाने तथा अपनी Personality को भी निखारे
- दोनो के संतुलन से ही शरीर जीवित है
- पढ़ाई कर रहे हैं तो उससे योग्यता बढ़ती है लेकिन संस्कार (विद्या) पर भी हमें ध्यान देना है तथा शालीनता से अपने जीवन में व्यवहार करना है
- दोनों (विद्या व अविद्या) से सृष्टि चल रही है तो Unipolar Magnet की कल्पना नहीं की जा सकती
अमृतनादोपनिषद् में आया है कि प्रणव की अकारादि जो मात्राएं है तथा उसमें जो लिंगभूत फल है, उन सभी के आश्रयभूत संसार का चिंतन करते हुए एक उसका त्याग कर स्वरहीन मकारवाची ईश्वर का ध्यान करते हुए साधक की कम्रशः उस सूक्ष्म पद में प्रविष्ठि हो जाती है, वही परम तत्व सभी प्रपंचो से पूर्णतया दूर है, का क्या अर्थ है
- सारा सारा मौलिक उर्जा, ॐ (Sound Energy) से ही उत्पन्न हुआ है
- यह ॐ भी किसी और का उत्पादन है
- ॐकार ईश्वर का अन्नमय कोश है, जब उन की एक से अनेक बनने की इच्छा हुई
- इसी प्रकार ईश्वर के अन्य 4 कोश भी है
- यहां यह कहा गया है कि हम इन सब के बीच रहते हुए इससे परे एक तत्व है उसके साथ अपनी ट्यूनिंग करें
छान्दग्योपनिषद् में आया है कि उर्ध्व लोकों में 5 प्रकार से साम की उपासना की जाती है, पृथ्वी हिंकार है, अग्नि प्रस्ताव है, अंतरिक्ष उदगीथ है, आदित्य प्रतिहार है और घुलोक निधन है, का क्या अर्थ है
- इसे हम 5 भाग में इस प्रकार समझ सकते है
- कुण्डलिनी भूलोक हुआ, पेट प्रजनन के लिए जी रहे है तो भूलोक कहलाएगे
- हिंकार = शुरूवात, युद्ध से पूर्व बिगुल बजाना, साधना का प्रारम्भ, प्रतिपसंवन का प्रारब्ध, ईश्वर जब संसार को समेटते है तो पहले भूलोक से शुरू करते है तो उसी को हिंकार कहते है
- सृष्टि की रचना के प्रारम्भ में एकोहम बहुश्यामः ही हिंकार है तथा निधन का अर्थ समापन से है, जिसमें हम अन्तिम अवस्था को पा लेते हैं
- समेटने के क्रम में पहले मूलाधार को स्वादिष्ठान में विलीन करें
- फिर आता है अग्नि प्रस्ताव हैं -> इसका अर्थ कि सीधे मणीपुर में चले गए
- फिर धीरे धीरे अंतरिक्ष (उदगीथ) में हम अनाहात से होकर चले
- निधन = विलीन / विसर्जन हो जाना / अपनी सत्ता को ईश्वरीय सत्ता में घुला देना/भुला देना, अपनी कोई स्वतंत्र सत्ता ना रहे / तदरूप होने को यहा निधन कहा गया
- यहा निधन का मरने से कोई मतलब नहीं
- इस कम्र से साधक की प्रगति होती है -> पहले अग्नि से शुरुवात कर थोडा प्रज्वलित करे, फिर गति को थोड़ा बढाए तथा फिर अपने को थोड़ा Expand कर लोक हित में ले जाए, फिर सार तत्व मे घुली उस ईश्वर चेतना में विलीन हो जाए, यह हर उपनिषद् की पढ़ाने की अपनी शैली है
ईशावास्योपनिषद में संभूति और असंभूति के विषय में बताया गया है, 15 वे श्लोक में आया है हिरण्यमयेना पात्रेणा सत्यस्थापी हितम मुखम तत्वम पुरुषम आवरणो सत्धर्माये निष्ठये, इसे कृपया स्पष्ट करे
- यहा हिरण्यमय का अर्थ एक सुनहरे ढक्कन से यह पात्र ढका हुआ है, संसार की चौध चमक बैंड बाजे में व्यक्ति नाच कूद रहा है
- बारातियो के चेहरे जाते व आते समय देखे -> चकाचौंध का जीवन जीने वालो को बाद में थकावट होती है
- सत्य को इसी चकाचौंध में ढूढ़ना चाहते हैं परंतु जीवन भर अपना इसमें खपा देते हैं परंतु वह सत्य उन्हें नहीं मिलता
- मृग मरीचिका की तरह इस संसार की स्थिति यहा बताई गई है
- सुनहरा इसलिए कह दिया गया है क्योंकि यह संसार वासना से भरा हुआ है -> रूप से – रस से – गंध से – शब्द से – स्पर्श से -> आदमी के हृदय में यही वासनाए वास करती है तथा अपना मस्तिष्क व अपनी चेतना इसी में उमड़ घुमड रही है
- इसी को यहा हिरण्यमयना पात्रेणा कहा गया है तथा सत्य का मुख इससे ढका हुआ है
- यहा प्रार्थना की गई है कि सबको पोषण देने वाले हे परमात्मा उस ढक्कन को आप हटाइए ताकि हम आपका सत्य स्वरूप देख सके
- इस ज्ञान का प्रयोग हम सूर्य पर त्राटक करते हुए करेंगे, जब शुरू में हमें सुर्य की चकाचौंध से सूर्य नहीं दिखता या तीखा लगता है तो पहले भौहो के बीच उसकी हल्की सी झलक देखे, धीरे धीरे हम prayer करते रहे कि हम सत्य का साक्षात्कार करे क्योंकि वेद कहता हैं कि जो आपकी आत्मा है वही मेरी भी आत्मा है, यह आत्मा करोड़ों सुर्य के समान तेजस्वी तो है परन्तु करोडों चंद्रमा के समान Cool भी है तो उस सत्य स्वरूप को हम देखना चाहते हैं तो धीरे धीरे अपनी चेतना उसमें घुलने लगती है तथा फिर सुर्य की तीखी आभा भी खत्म होने लगती है, अब वह साधक सत्य स्वरूप देखने लगता है
- यो असो आदित्य पुरुषाः सो असो अहम्
- यहा ईशावास्योपनिषद् में साक्षात्कार करने से पहले की स्थिति यहा दी गई है
मडलब्रह्मोपनिषद् में याज्ञवल्क ऋषि पूछ रहे है कि आकाश पंचक का लक्षण सविस्तार पूर्वक बताए, यहा पाच प्रकार के आकाश -> आकाश पराकाश महाकाश, सुर्याकाश परमाकाश बताए गए है तथा उनका वर्णन मिलता है, जो बाहर व भीतर से अंधकारमय है, वह आकाश है, जो बाहर भीतर से कालाग्नि सदृश्य है, वह पराकाश है, जो बाहर और अंदर से अपरिमित क्रांति के समान है वह तत्व महाकाश है, जो बाहर और भीतर से सूर्य के सदृश्य है वह सुर्याकाश है और जो अर्निवचनीय ज्योति वाला सर्वव्यापक और आनंद के लक्षण से युक्त है वह परमाकाश है, यहा पराकाश कालाग्नि सदृश्य व महाकाश अपरिमित कान्ति के समान बताया गया है, का क्या अर्थ है
- यहा स्थूल जगत को कालाग्नि स्वरूप कहा गया, जड तत्व को अधेरा / कालाग्नि स्वरूप कहा गया, यहां चेतना सुषुप्ता अवस्था में है, यह भी आकाश स्वरूप है
- Valence Electron आकाश में ही इंदौर रहा है और उसका केंद्र से उतना ही दूरी है जितना सूर्य का पृथ्वी से, यहा आकाश के सिवा और कुछ नहीं है, हमें भम्र है कि यहा कुछ Solid है
- यहां आर पार हम नहीं देख पा रहे हैं इसलिए इसे कलाग्नि कह दिया, यह समय (काल) के साथ परिवर्तनशील है, काल की अग्नि इसे खाता रहता है तथा उर्जा का रूपांतरण होता रहता है, इसके भीतर जो उर्जा वाला आकाश है, उसे अपरिमित कान्ति के समान कहा गया
- यहां अन्नमय कोश को Dark कहा गया तथा प्राणमय कोश को कालाग्नि कहा गया तथा कान्तिमय मन को कहा गया तथा सुर्याकाश आत्मिक सुर्य (विज्ञानमय कोश) को कहते हैं
- पांचो कोश पांच आकाश हैं और परमाकाश आनंदमय कोश है
आत्मा समीक्षा की सरल एवं सहज विधि क्या है इसमें कौन-कौन से लोग सहायक हो सकते हैं कृपया प्रकाश डाला जाए
- आत्म समीक्षा में गुरुदेव के साहित्य उपयोगी बनते हैं
- आत्मा का विषय उपनिषद् में है
- रोज हमें उपनिषद या गीता का अध्ययन करना चाहिए
- गीता में भी आत्मा के बारे में बताया गया है
- आत्मा के बारे में गायत्री मंत्र बताता है किउसे आत्मा को धारण करें (तत्सवितुर्वरेण्यं)
- आत्मा वारे ज्ञातव्य ध्यातव्य श्रोतव्य मनतव्य
- उस सविता को (आत्मा को) हम वरण करें
- वरण करने का उपाय भी बता दिया गया है कि अपने दोष दुर्गुणों को भुंज डालो (भर्गो देवस्य धीमहि)
- इन शक्तियों से चारो ओर लाभ दे ( धियो यो न प्रचोदयात् )
- यदि हम गायंत्री मंत्र, गायंत्री उपनिषद्, गायंत्री गीता का स्वाध्याय करते हैं तो इसमें हमें देखना होता है कि इसमें मैं कहां हूं, जैसे गायत्री मंत्र का तत अक्षर कह रहा है कि तुम तत्वज्ञानी बनो, विद्वान बनो और तपस्वी बनो
- जब यह जानकारी हो जाएगी तो संसार से चिपकाव खत्म होता जाएगा और यही वैराग्य उत्पन्न करता है और ईश्वर से राग उत्पन्न करता है, इसलिए आत्मा समीक्षा के लिए वेद, वेदांत उपनिषद् और गीता सबसे अच्छे हैं, यही स्वाध्याय की सामग्री है तथा बाकी सभी शास्त्र कहलाते हैं जो समाज में हमें जीने की कला सीखाते है
- शास्त्रों में गायंत्री उपनिषद् अच्छा है
- ऐसे लोगों से दोस्ती की जाए, जो इस क्षेत्र में एक्सपर्ट रहे हो, यही वरेण्यम् है (श्रेष्ठता के समूह के साथ जुड़ना), यही सत्संग है
- अपने मित्र जो इस क्षेत्र में हो उनसे भी सहयोग मिलता रहता है
- प्रकृति के साथ हम चले, प्रकृति भी हमारा सहयोग करती है
गीता जी के सातवे अध्याय में भगवान ने कहा कि मेरे भक्त चार प्रकार के हैं आर्थ अर्थी जिज्ञासु ज्ञानी इन चारों भक्तों का जो स्वभाव आपने बताया 12 फरवरी को तो मुझे ऐसा लग रहा है कि इन चारों भक्तों का जो स्वभाव है वह गुणो के उतार चढ़ाव या परिस्थितियों वश एक ही व्यक्ति में देखने को मिल सकता है तो इन्हें किस तरह का भक्त कहा जाएगा क्या कहा जाएगा कृपया इस पर प्रकाश डालें
- भक्त तो भक्त है
- जब हम किसी वैद्य के पास जाते हैं तो वह कहता है कि आप यह दवा गायंत्री मंत्र के साथ लीजिए
- कुंडलिनी शक्ति का चमत्कार तो इतना होता है कि वह चार तो क्या पूरे पापों का पहाड़ भी निमिष मात्रा में जलकर भस्म कर देगा
- गुरुदेव ने कहा कि हमारे पास इन दिनों ऐसे ही भक्तों की भीड़ आ रही है जो आर्थ अर्थी चिंतित भोगी सभी है तो सभी को एक Master Key, गायंत्री साधना के रूप में दे दिया, ईश्वर के पास सभी Variety का चाबी है तो गायंत्री महामंत्र इन चारों लोगो को एक साथ निपटता है
क्या रुद्राभिषेक शिवरात्रि के ही दिन किया जा सकता है क्या और दिनों में नहीं हो सकता
- रोज कर सकते है, सोहम असि इति वृत्ति अखंड़ा -> सोते बैठते, चलते फिरते हर समय अहम् ब्रह्मास्मि का भाव रखा जा सकता है तो इस प्रकार हर समय हम अपने आप का रुद्राभिषेक कर सकते हैं
- शिवरात्री हर महीने भी कृष्ण पक्ष में आता है तो उस समय भी रुद्राभिषेक किया जा सकता है, इस प्रकार हर क्षण रुद्राभिषेक है, ईश्वर से दोस्ती ही रुद्राभिषेक है
- यीशु ने कहा था कि यदि आपका दान देने का भाव आ जाए तो बाएं हाथ से दाएं हाथ तक न लेकर जाए हो सकता है कि इतनी देर में आपका विचार/भाव बदल जाए 🙏
No Comments