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पंचकोश जिज्ञासा समाधान (26-02-2025)

पंचकोश जिज्ञासा समाधान (26-02-2025)

कक्षा (26-02-2025) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-

छान्दयोपनिषद् में आया है कि यह पृथ्वी ऋक है तथा अग्नि साम है, वह अग्नि रूप साम पृथ्वी रूप ऋक में प्रतिष्ठित है, अतः ऋचा में प्रतिष्ठित साम का गायन किया जाता है, पृथ्वी को सा और अग्नि को म् मानकर दोनो को मिलाने से साम बनता है, ऋचा में प्रतिष्ठित साम का गायन किया जाता है, का क्या अर्थ है

  • यहा पृथ्वी को ऋक व अग्नि को साम कहा
  • पृथ्वी भी तत्व है तथा अग्नि भी तत्व है
  • अग्नि सबमें विद्यमान है जैसे अन्नमय कोश में प्राणाग्नि है तथा प्राणमय कोश में जीवाग्नि है, मनोमय कोश में योगाग्नि -> विशेषण बदल रहे है परन्तु मूल तत्व अग्नि ही है
  • सारी सृष्टि अग्नि तत्व से मिलकर बनी है
  • ऋगवेद का पहले मंत्र में भी अग्नि आया है, अग्नि परमात्मा का एक नाम है, जो हर क्षेत्र में अग्रणीय हो
  • अग्रणीय से अग्नि बन गया
  • अग्रणीय केवल ईश्वर है
  • भक्तिभाव भी एक अग्नि है, पूज्य गुरुदेव ने भावाग्नि शब्द का उपयोग किया
  • सृष्टि के कण कण में घुले ब्रह्म तत्व को हम जाने, इसका यही अर्थ है
  • ऋक -> पृथ्वी से जुड़े सभी पृथ्वी वासियों में -> जलचर थलचर नभचर ये सभी ऋक में आ जाएंगे, इनके भीतर जो जीवनी शक्ति (अग्नि तत्व) घुली है, यह साम है, इसे हम निचोडे
  • गायंत्री मंत्र में भू को ऋषियों ने प्राण कहा है तथा यह सभी प्राणियों में समान रूप से फैला हुआ है, इसलिए यहा कोई बड़ा छोटा नहीं है
  • सारे तत्वों में भी कोई बड़ा छोटा नहीं है, सब प्राण के / अग्नि के ही रूपांतरण है
  • पृथ्वी तत्व के परमाणुओं को तोड़ा जाए तो वो भी आग में बदलेगा तथा उस अग्नि के भीतर में भी ईश्वर है
  • प्रत्येक तत्वो में हम ईश्वर को झिलमिलाते देखे, ईश्वर झिलमिलाता देखने लगे तो साम कहला गया, इससे हमने उसका आनन्द वाला सोमरस निकाल लिया

ऋचा में अधिष्ठित साम का गायन किया जाता है का क्या अर्थ है

  • साम का गायन = जो भी वेद मंत्र है, प्रत्येक मंत्र ईश्वर के गुणों की प्रसंशा करता है, सभी ईश्वर के गुणबोधक है, मंत्र चाहे कोई भी हो हमे उसका ब्रह्मवाची भाव लेना चाहिए

मडलब्राह्मणोपनिषद् में आदित्य नारायण बता रहे है कि प्राण व अपान वायु को एक करके कुंभक धारण करे तत्पश्चात नासिकाग्र पर दृष्टि को एकाग्र करके दीर्घ भावना से करद्वय की अगुलियों से षडमुखी मुद्रा धारण करके प्रणव नाद का श्रवण करे, इसमे मन लीन हो जाता है, का क्या अर्थ है

  • षडमुखी मुद्रा = योनि मुद्रा
  • इसमें प्राण भरे, रोके तथा प्राण व अपान को एक किए
  • भ्रामरी जो करते है तो आज्ञा चक्र का बीज मंत्र ॐ है, ॐ को ही जागृत करना है तथा ध्यान परब्रह्म का करना है
  • उससे अनन्त शांतिमय आनन्दमय किरणें निकलकर पूरे Universe को Vibrate करा रही है, तो Brain के सभी तन्तु Active व जागृत होंगे
  • हमें ॐ ध्वनि को ही सुनना है तथा ॐ से सभी को लाभ लेना है, मस्तिष्क के हर तन्तुओं को झंकृत करना है

अमृतनादोपनिषद् में आया है कि शास्त्रानुकुल गुहा अर्थात विचार करना, तर्क कहा जाता है, ऐसे तर्को को प्राप्त करके दूसरे अन्य सभी प्राप्त होने वाले पदार्थो को तुच्छ मान लिया जाता है, को कृपया स्पष्ट करें

  • आगमस्या अविरोधेना कुहनम तर्क उच्चयते -> यदि दो व्यक्ति सत्य को जानने के लिए तर्क कर रहे है या कुतर्क कर रहे हैं तो कौन सा तर्क सही है
  • सत्य को देखा नहीं जा सकता तथा फिर यह भी आता है कि हम किसी भी तरीके से हम परब्रह्म को नही जान सकते, जो अनन्त है तो हम यह कैसे कह सकते है कि हमने जान लिया
  • जो मतन चिंतन से भी परे हो
  • अगोचर, इंद्रियों की पकड से भी परे हो
  • जो भी तर्क हम अपनी इंद्रियों के माध्यम से करते हैं तो इसमें किस तर्क को अन्तिम माना जाए
  • वेद को अंतिम तर्क माना जाता है
  • वेदो का सार तत्व उपनिषद् या वेदान्त को अंतिम तर्क माना जाता है, उसके परिपेक्ष में कोई चर्चा जब की जाती है क्योंकि उसमें केवल आत्मा की ही चर्चा है तो उसी को वेदान्त कहा गया
  • पहले दर्शन पर दर्शन बढ रहे थे, फिर महर्षि वेदव्यास ने वेदान्त दर्शन लिखा और कहा कि यहा एक ईश्वर के सिवा और कुछ भी नहीं, इसलिए तर्को की कोई गुंजाइश नहीं
  • इसलिए कहा गया कि हम उपनिषदो के सन्दर्भ में यदि कोई बात की जा रही हो तो उसे महत्व दे, जो आत्मा के करीब / छूता हुआ हो तो उसको हम महत्व दे

बृहदआरण्यकोपनिषद् में याज्ञवल्क ऋषि प्रश्न का उत्तर बता रहे है कि जो द्यु लोक में निवास करता है, उसी में संव्याप्त है किंतु द्यु लोक जि से नहीं जानता, द्यु लोक हीं जिसका शरीर है तथा जो उस द्यु लोक में रहकर उसका नियामक है वह तुम्हारा आत्मा ही अंतर्यामी और अतर्य है, तो यहां द्यु लोक और अंतरिक्ष लोक या जन: तपः लोक, क्या यहा पर चेतना के आयाम के बारे में बताया गया है या कुछ और है, द्यु लोक को क्या समझे, द्यु लोक से ऊपर अंतरिक्ष लोक है या अंतरिक्ष लोक से ऊपर द्युलोक है

  • द्यु = प्रकाश, जैसे विद्युत मै भी द्यु आता है तो ये ज्योर्तिमय प्रकाश वाले सब लोक है
  • गायंत्री मंत्र में 3 व्याहतिया -> भूर्भुवः स्वः -> स्थूल सूक्ष्म व कारण
  • कारण को द्यो कहा जाता है
  • तीनों ही विद्युत के समान है
  • पृथ्वी तत्व भी फूटेगा तो अग्नि में ही बदलेगा
  • भुवः = अतरिक्ष में भी अग्नि के Particle ही दौड रहे है
  • जो नहीं दिख रहा उसे द्यो कह दिया जाता है
  • इन सबका अर्थ यह भी है कि यहा सभी जगह प्रकाश ही प्रकाश है
  • यह सबमें विद्यमान है तो हम नामों में न फंसकर ब्रह्म से सम्पर्क स्थापित करे

अंतरिक्ष लोक को कैसे समझा जाए

  • पृथ्वी व सबको छूने वाला बीच वाले Layer को अंतरिक्ष कहा गया
  • जैसे नीचे पृथ्वी लोक व उपर स्वर्ग लोक तथा बीच में अंतरिक्ष (भुवः) लोक है
  • बीच वाला लोक जो दोनो को छूता हो / दोनों का अन्तर / दोनों को जोड़ने वाला अंतरिक्ष है

वांग्मय 15 में आया है कि ग्रीक आध्यात्म वेता जूलियन ने सुर्य संबंधी अपनी व्याख्या विवेचना में उक्त तत्व की पुष्टि करते हुए सुर्य के तीन रूपों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया है

  1. पार्थिव Ether के रूप में
  2. Light of Heaven के रूप में
  3. विशुद्ध आध्यात्मिक रूप में माना है
    उनका मत है कि जब कभी धरती पर विध्वंसकारी शक्तियों का बाहुल्य हो जाता है, तब सर्वत्र विक्षोभकारी वृतियां ही विस्तार ले लेती है, तब सुर्य अपने तीसरे रूप में प्रकट होता है और अपने प्रचंड शक्ति प्रवाह से ध्वंस को सृजन में बदल देता है, इसकी पुष्टि पाईथागोरस एवं एन्क्सागोरस की रचनाओं में भी की गई है, कृपया इसे स्पष्ट करे
  • पूज्य गुरुदेव ने पाश्चात्य वैज्ञानिको की बातें भी ली है क्योंकि इन दिनों व्यक्ति विज्ञान को Authentic मानता है
  • गुरुदेव ने पूरे विश्व को लेकर चलना था तथा संपूर्ण विश्व के मस्तिष्कों को झकझोरना था तो गुरुदेव ने आध्यात्म / उपनिषदों को छूने वाले तर्क दिए गए है तो उनको गुरुदेव ने Highlight किया कि तुम इनको (पाश्च्यात जगत के वैज्ञानिको) देखों, इन्होंने भी यह बात कहा है
  • सुर्य में तीन प्रकार की किरणो की प्रधानता है तथा ये तीनों किरणे कम्रशः एक दूसरे से शक्तिशाली किरणे है
    ओजस = स्थूल किरणें
    तेजस = सूक्ष्म, यह मस्तिष्क के सभी रोगों को समाप्त कर सकता है
    जब बुद्धिजीवी ही नासमझी कर रहे हो तब तीसरा कार्य अंतःकरण की सफाई करनी होगी
    वर्चस = अंतःकरण की सफाई = आत्मिक, आत्मिक स्तर पर इजेक्शन की जरूरत है, यही कल्कि अवतार भी कहलाता है
  • इन दिनो अतःकरण के चिकित्सक ही सफल हो पाएंगे, आजकल के रोग दुखः विषाद से परे निकल गए है

पाईथागोरस एवं एन्क्सागोरस की रचनाओं में भी की गई है, का क्या अर्थ है

  • इन वैज्ञानिको ने उसी एक तत्व को अलग अलग वैज्ञानिक नाम दिया तथा गुरुदेव ने उन्हीं तत्वों को आध्यात्मिक नाम दिया
  • जैसे पांचों कोशों को वैज्ञानिकों ने अलग नाम दिया जैसे अन्नमय कोश को Matter कहा, प्राणमय कोश को Battery, मनोमय को Mind, विज्ञानमय को Personality कह दिया, आनन्दमय कोश को Intution कह दिया, वैज्ञानिक इसे अलग नाम से पुकारते है परन्तु रहेगा तो वही

रोग उससे उपर निकल गया का क्या अर्थ है, रोग किस के ऊपर निकल गया है तथा वहां पर कौन सा शरीर उसकी चिकित्सा के लिए कामयाब होगा

  • मन की जो बीमारियो होती थी तो उनको मनः चिकित्सक उसे ठीक कर देते थे, अब मनः चिकित्सक से उपर रोग चला गया है अब भावनाओं में विकृति आ गई है
  • अब अतःकरण / विज्ञानमय कोश तक में राक्षस पहुंच गया है तो वहा पर अब केवल प्रज्ञा काम करेगा, आज केवल प्रेम से ही सुधार संभव बन पड़ेगा, किसी को डाट से फटकार से नहीं सुधार सकते
  • किसी से बहस नहीं कर सकते, उलटा हमें ही नुकसान होता है
  • किसी को नशा छुडवाना है तो हम तर्क नहीं दे सकते कि नशा हानिकारक है, तो उलटा जवाब मिलेगा कि हम तुम्हारा तो कुछ नहीं खा रहें, यह अब प्रेम से आपरेशन करने पड़ेंगे, प्रेम का इजेंक्शन ही सफल हो पाएगा
  • हमें जताना पड़ेगा कि आप अपने है तथा आपका दर्द हमें अपना दर्द दिखता है, एक बुरी आदत छुडवानी है तो 10 प्रशंशाए भी करनी पड़ेगी
  • अतःकरण में इजेंक्शन देना कठिन होता है, युग बदलने के लिए अधिक साधना में लोग सफल नहीं होगें
  • विज्ञानमय कोश की साधना को प्रखर करना पड़ेगा
  • विज्ञानमय कोश की सफाई करेंगे तो राक्षस समाप्त होगा क्योंकि विज्ञानमय कोश के बाद आनन्दमय आता है और इसी को अतःकरण भी कहते है
    -अरविंदों ने इसे अति मानसिक भी कहा है तथा इसी पर अधिक ध्यान दिया और कहा कि यही Personality है, Personality Change करने का अर्थ अतःकरण की सफाई ही है
  • भावनाओ में विकृति आने का अर्थ है कि आजकल व्यक्ति आत्मभाव (परमार्थ भाव) में ना आकर स्वार्थ भाव में आ गया है, हमारी भावनाए जब हम अनाहात चक्र से कुण्डलिनी जागरण में जब चलते हैं तो
  • इसलिए गुरुदेव ने कुण्डलिनी जागरण को अनिवार्य किया
  • कुण्डलिनी जागरण विशेषांक में कहा है कि अब बात इससे आगे निकल चुकी है
  • इसलिए गायंत्री की दो उच्चस्तरीय साधनाएं गुरुदेव ने हमें बताई
  • जब हम सुष्मना मार्ग में आगे बढ़ते हैं तो अनाहत चक्र, संसार में भावनाओं के माध्यम से जुड़ा रहता है और वहा से रूपांतरण तब होगा जब आत्मा का क्षेत्र शुरू होगा
  • सारा संसार स्वार्थ की धुरी पर चलता है पर वहा से साधक की परमार्थ की धुरी Change हो जाती है -> आदर्शों के प्रति यदि प्रेम हो जाएगा तो वह उदार भक्ति भाव हो जाएगा
  • यदि स्वार्थ परक प्रेम होगा तो लोभ मोह अंहकार बढ़ते हैं, लोभ मोह अंहकार भावनाओं का Area है
  • प्रज्ञोपनिषद् में उद्दालक प्रश्न करते है कि हमने बहुत संयमी लोगो को देखा तथा वह हर प्रकार के संयम का उपयोग जीवन में कर रहा है परन्तु उसके हृदय में प्रेम भाव नही जग रहा है, उधर उसका अतः करण शुष्क है
  • ज्ञान और कर्म से जो हम पाते है उसे उदार आत्मीयता में खर्च करे
  • इसलिए प्रेम + सीमित स्वार्थ = मोह होता है, अब यहा केवल Boundary को बढ़ा दिया जाता है तो उदार भक्ति भावना बन जाता है
  • प्रेम यदि सीमित दायरे में होगा तो ये उसके Byproduct लोभ, मोह, अंहकार उत्पन्न हो जाते है
  • पंचकोश योग व कुण्डलिनी जागरण उस सीमित स्वार्थ व प्रेम की Boundary को बढ़ा देने का ही Process है

अर्थववेद का पहले सुक्त का पहला मंत्र में क्या यहा तेषाम वाचसपति के लिए आया है

  • यहा कहा जा रहा है कि सारा संसार 7×3 पर चल रहा है, 7 Dimensional सृष्टि है और सातो Dimension / सातों लोकों में स्थूल सूक्ष्म कारण की सत्ता है तथा सभी के भीतर अलग अलग Nature की शक्ति होगी तो उसके भीतर की शक्तियों को वाचसपति कहा है
  • तेषाम -> उनको आज हमें प्राप्त कराए, हे ईश्वर आज उन शक्तियों को हमें प्राप्त कराए, सारी सृष्टि के सभी गुणों को हम अपने अंदर अनुभव करे और उसको Handle करना सीखें
  • सात व्याहतियो को सात शरीर कहा गया, एक Dimension एक शरीर हो गया जैसे ->
  • अन्नमय कोश एक शरीर है जिसे हम भू कहते हैं
  • भुवः = Etheric Body
  • स्व : = Astral Body
  • महः = Monadic Body
  • जनः = Spritual Body
  • तपः = Cosmic Body
  • सत्यम – Bodyless Body
    यहा हर जगह शरीर ही शरीर है
  • बाहर भी इसी रूप में लिया गया है
  • यत् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे

40 कोर करने मथुरा गई थी तो 40 दिवसी पूर्ण करने मथुरा गई थी, सुबह शाम का ध्यान करती थी तो बाएं हाथ में घन घन शुरू होता था गर्दन के नीचे से पूरे शरीर में होता था अब वहा से वापस आने पर वह यहां ऐसा नहीं होता है, ऐसा क्यों नहीं होता

  • मथुरा गए तो मथुरा गुरुदेव की तपस्थली रही है वहा पर गुरुदेव ने गायंत्री की सिद्धी प्राप्त की, इसके अलावा भी वह स्थान बहुत बड़ा तपस्थली था, ऋषि सन्दीपन ने वहा तप किया था और दुर्वासा का भी तपस्थली था, कृष्ण भी वहां पढ़ने गए थे
  • वहा गुरुदेव के पुराने संस्कार भी जगे
  • वहां काफी ऊर्जा नीचे दबी पड़ी है, वहां की दबी तरगों से मनुष्यों के शरीर भी प्रभावित होते है
  • यही देखने कुंभ के मेले में भी जा रहे हैं जहा अगस्त ऋषि ने तप किया था तथा वे वहा सत्र चलाते थे
  • इसलिए वहा मथुरा में आपके शरीर ने उसे Feel किया होगा
  • उसके चलते भी शरीर में कुछ झनझनाहट या Feeling कुछ आई होगी -> एक कारण यह हो सकता है
  • घर के माहौल में उस स्तर का वह तपस्थली वहा नहीं बन पाता है
  • घर में एक साधना कक्ष में यदि 12 साल तक एक कोठरी में तप करे तो वहा भी उर्जा कुछ अलग रहेगी
  • किसी को प्रेत ने पकड़ा है तो उसे व्यक्ति को पूजा घर ले जाने पर प्रेत वहा नहीं जाता, वही बाहर रुक जाता है
  • पृथ्वी में उस उर्जा को वह स्थान सोख लेता है तथा लंबे समय तक छोड़ता रहता है
  • स्कूल वह कॉलेज में Prayer इसलिए पहले कराए जाते हैं ताकि वहा शांतिप्रिय माहौल में लड़के पढ सके
  • अलग-अलग प्रकार की उर्जा का शरीर पर असर दिख सकता है
  • एक अन्य कारण यह भी हो सकता है कि शरीर की एक खास अवस्था में तथा विशेष स्थान में आपके शरीर में कंपन हुआ परन्तु अब वह कंपन हर समय या बार बार नहीं आएगा, वह अपना काम कर चुका है, वहा मथुरा में भी रोज साधना करेंगे तो रोज एक जैसी कंपन की अनुभूति नहीं होगी, यदि हमारे भीतर Cleaning हो गया तो हर बार वैसी कंपन या झनझनाहट नहीं होगी
  • क्योंकि ईश्वर शांताकारम है, वह सारी तरंगों से परे है तथा बिल्कुल शांत स्थिति में है तो ऐसी स्थिति साधना के बीच वाले कम्र में आता है जब cleaning चल रहा होता है

संकल्प का विज्ञान क्या है कितने प्रकार है शिव संकल्प क्या है कृपया प्रकाश डाला जाय

  • पूरे पृथ्वीवासी शिव के भक्त है
  • संकल्प का विज्ञान = अपने भीतर जो आकांशा / इच्छा उठती है, उसी को ही संकल्प कहते हैं, एक से अनेक बनने की आकांशा को ही Will Power कहते है तथा Will Power को ही प्राण कहा जाता है, यह Will Power भीतर ही भीतर आत्मा से ही निकलता है
  • उसी Will Power को जगाना होता है
  • शिवसंकल्प = कामना उठे तो कल्याणकारी उठे, यदि भौतिकवादी आकांशा उठी तो वह शिवसंकल्प नहीं होगी, प्राण में दोनो तत्व है जड व चेतन, कौन कितना Dominant है उसी के अनुरूप वह जड़ात्मक या चेतनात्मक कहलाएगा
  • शिव = शुभ
    शंकर = कल्याणकारी
  • मन से उठने वाले विचार शुभ व कल्याणकारी हो, इसी को सतसंकल्प भी कहते हैं
  • सतसंकल्पो के प्रत्येक वाक्य सारे मजहबों में एक समान लागु होते हैं, इसलिए गुरुदेव ने कहा कि हमारे विचार इतने पैने हैं कि दुनिया की कोई भी शक्ति उन्हें नहीं काट सकती, इसको लेकर चलेंगे तो गुरुदेव विश्व व्यापी हो जाएगें
  • इसके अलावा कुछ और लेकर चलेंगे तो एक छोटे से दायरे में हम सिमट कर रह जाएंगे तथा एक मजहब बना लेंगे या सम्प्रदाय बन जाएंगे
  • यह आदर्शोन्मुख है तथा सबके लिए है
  • जाति भाषा लिंग साम्प्रदाय के आधार पर हम भेदभाव नहीं बरतेंगे
  • कर्मकाण्ड या पूजा पाठ को लेकर चलेगें तो सर्वव्यापी नहीं बन पाएंगे
  • हमें शुभसकल्पों को जीवन में चरित्र चिंतन व्यवहार के रूप में जीवन में उतारेंगे

उपासना, साधना व आराधना सब एक ही या अलग, कृपया बताए

  • शब्दावली अलग-अलग है तो अलग अर्थो में उसका उच्चारण किया जाता है
  • उपासना =ईश्वर से दोस्ती / ब्रह्म सायुज्यता
  • साधना = self control को कहते है
  • अराधना =  लोकसेवा
  • यह तीन चरण है इसी के माध्यम से ईश्वर अपने भीतर प्रवेश करेगा    🙏

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