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पंचकोश जिज्ञासा समाधान (23-01-2025)

पंचकोश जिज्ञासा समाधान (23-01-2025)

आज की कक्षा (23-01-2025) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-

कठोपनिषद्  में आया है कि जिस अन्तश्चेतना के अनुग्रह से मनुष्य शब्द स्पर्श रूप रस गंध आदि इन्द्रिय सुखों का अनुभव करता है, उसी के अनुग्रह से यह भी जानना है कि यहां क्या अवशिष्ट रहता है, यही ( जो रह जाता है अथवा जानता है), वह आत्मतत्व अथवा परमात्म तत्व है, का क्या अर्थ है

  • जो भी हम ज्ञानेद्रियो से देखने सूंघने का काम लेते हैं तथा ईश्वर सर्वव्यापी है तो हर विषय में भी होगा
  • ईश्वर आनन्दमय है तथा सबमें घुला है, इसलिए ईश्वर हर वस्तु मे तथा विषय (रूप रस गंध शब्द स्पर्श) में भी आनन्द देगा
  • ईश्वर के दो रूप हैं परिवर्तनशील तथा अपरिवर्तनशील
  • परिवर्तशील = परब्रह्म = विकार ब्रह्म या अपर ब्रह्म भी कहा जाता है -> हम लोग जिनकी उपासना करते हैं वह विकार ब्रह्म (प्रकृति में घुला हुआ ब्रह्म) है
  • शरीर के भीतर में अपनी जीव सत्ता (अंतरात्मा) मन बुद्धि चित्त अंहकार को जीव कहेंगे -> इन्ही के द्वारा हम अनुभव करते हैं
  • जीव एक माध्यम बना, जीभ हमें अपने से स्वाद नहीं बताएगा वो स्पर्श कर Reaction को Brain में भेजता है फिर उसी के अनुरूप यह स्वाद जैसा दिमाग में Save होता है वैसा ही वह Response देगा कि वह खट्टा है या मीठा है
  • यदि इस Taste को मीठा कह दिया रहता तो इसी Taste को मीठा कहेंगे
  • फिर उसी के अनुरूप हमें जो आनन्द मिला तो यह आनन्द क्षणिक हुआ तब मन बुद्धि से यह विचार आता है कि यह आनंद बराबर क्यों नहीं बना रहा तथा फिर मस्तिष्क सोचेगा कि स्थाई आनंद कहां से मिलेगा
  • जब सांसारिक थपेरों के बाद अपनी ही जीव सत्ता जब ऐसा अनुभव करने लगती है कि अखंड आनन्द की प्राप्ति कहा है
  • कोई भी काम जब हम करते हैं तो अनुभव से ही यह पता चलता है कि यह ठीक नहीं है तो फिर असली वाला आनंद कहा है इसी को निशेष कहते हैं
  • जब हमने पूरे संसार में इसे ढूंढ लिया तथा वह कहीं नहीं मिला तो ऐसा कौन सा विशेष या शेष स्थान है जहां पर हमें वह स्थाई आनंद मिलेगा
  • अन्तःकरण ही उसे जानेगा तो इसका अर्थ यह है कि विज्ञानमय कोश के द्वारा ही हम संसार व आत्मा दोनो को जानेंगे
  • जिस दिन वह अपने तथा संसार के बारे में तत्वज्ञान से जानेगा तो उस समय वह उस विशेष ज्ञान या निशेष(परमात्मा) के ज्ञान को पा लेगा
  • निषेश = संसार को हटा दे तो भी कितना शेष बचा
  • ईश्वर हमेशा शेष ही रहता है (पूर्णमदा पूर्णइंदम …), इसलिए ईश्वर को कहा जाता है कि वह शेषनाग पर है, उसे हम खाली नहीं कर सकते, यह कितना अदभूत है कि यदि हम पूरे संसार को भी निकाल देंगे तो भी वह पूर्ण ही है
  • इसका अर्थ है कि वह शून्य है और संसार भी शून्य है
  • शून्य में से शून्य निकाल देंगे तो शेष भी शून्य ही रहेगा
  • हमें अज्ञानता के चलते यह लगता भर है कि संसार है परन्तु वास्तव में यहा सब शून्य ही है
  • अवशिष्ट = शेष, शेष ज्ञान ईश्वर को कहा जाता है

ब्रह्मविद्योपनिषद् में आया है कि ब्रह्म का स्थान हृदय में, विष्णु कंठ में निवास करते है, तालु में भगवान रुद्र निवास करते है व ललाट में महेश्वर निवास करते हैं, हम रुद्र को ललाट में मानते हैं, इसे कैसे समझे

  • किसी की भी एक ही तरह से व्याख्या नहीं की जाती, सभी शक्तियां सब जगह है
  • कौन से पक्ष को किस एंगल से व्याख्या किया गया है यह इस पर निर्भर करता है
  • जैसे ब्रह्म ग्रंथि पूज्य गुरुदेव ने मस्तक पर कहा
  • योगा विद्यालय मुंगेर में जो साहित्य मिलता है तो वहा ब्रह्म ग्रंथि नीचे मूलाधार में बताया गया परन्तु गुरुदेव ने यहा रुद्र ग्रंथि बताया
  • इसे अलग-अलग Sense में लिया गया है
  • पूज्य गुरुदेव ने ज्ञान को ब्रह्मज्ञान से लिया है, उन्होंने ब्रह्मा को सृष्टि का उत्पादन करने के आधार पर Reproductive Organ के आधार पर मूलाधार क्षेत्र में लिया
  • किस Angle से कहा पर रखा है, यह महत्वपूर्ण है
  • हृदय भाव का केंद्र है तथा यह भाव पदार्थ विज्ञान से जुडा रहता है, पुत्र भाव – संसार भाव – मित्र भाव -> यह सभी संसार से जुड़ा है, यही Emotion हमें संसार से जोडता है
  • गीता भी उपनिषद ही है
  • यह समझे कि हमारी भावनाए संसार से जुडी है, हम इन नामो (ब्रह्मा – विष्णु – महेश) को हटा दे, इसे केवल तत्व ज्ञान से जाने
  • हमारी भावनाएं संसार से जुड़ी है, हमारी भावनाएं कंठ में है जैसे शंकरचार्य ने भी पुत्र भाव नही रखा तथा पूरे विश्व / संसार के लिए ही भाव रखा,यह थोड़ा उपर उठा हुआ चेतना है
  • सदाशिव = वह सदा कल्याणमय है तथा सदा अपने मूल रूप में रहता है, संसार को स्पर्श भी नहीं करता है
  • विष्णु के सहस्त्र नाम है तो हजारो प्रकार के उनके गुण है, गुणों के आधार पर नाम रखा
  • यहा सब कुछ ब्रह्म ही है कयोकि वह एक Energy है, गुणों के आधार पर अलग अलग नाम दे दिया जाता है

बृहदआरण्यकपनिषद् के अध्याय एक के द्वितीय ब्राह्मण में आया है कि उस विराट् ने इच्छा की कि मेरा द्वितीय (भिन्न) रूप या प्रयास भी प्रकट हो। अस्तु, उस क्षुधारूप मृत्यु ने मन के साथ वाणी की कामना की। दोनों के सम्बद्ध होने से जो रेतस् प्रकट हुआ, वही संवत्सर हुआ। उससे पूर्व संवत्सर अथवा काल नहीं था। उस संवत्सर को उतने ही समय तक वे मृत्यु स्वरूप प्रजापति गर्भ में धारण किये रहे। निर्धारित समय पूरा हो चुकने के बाद उस (संवत्सर) को प्रकट किया। उस उत्पन्न कुमार को खाने के लिए मृत्यु ने मुँह फैलाया, तब उस (कुमार के) मुख से ‘भाण्’ (शब्द) निकला, वही वाणी हो गई, का क्या अर्थ है

  • भाण् = भाषा = आवाज
  • ईश्वर की संसार को उत्पन्न करने की इच्छा हुई, उत्पन्न आनन्द के लिए किया
  • आनन्द लेने को ही खाना कहते हैं
  • उत्पन्न करने से पहले Gestation Period (परिपाक अवधि / पकने की अवधि) मे रखे तो उस Gestation Period को यहा काल कहा गया

क्या यह सब उत्पत्ति इच्छा से सोचने मात्र से हो गई

  • ईश्वर / ब्रह्म की इच्छा बलवती है, हमारी इच्छा कमजोर है / कम Power वाली है, इसलिए हमारी इच्छा समय लेती है
  • ईश्वर की इच्छा इतनी शक्तिशाली है कि एक नैनोसकेंड में ही अनन्त आयाम बन जाते हैं, वह सर्व शक्तिमान है
  • उसका समय इतना कम है कि हम उसका मूल्यांकन नहीं कर सकते, उसी को संवत्सर भी कहते हैं
  • संवत्सर = Periodic Time
  • मनुष्यों का 12 वर्षो एक युग कहलाता है, देवताओ का 12000 वर्ष एक युग कहलाता है
  • ब्रह्मा जी की आयु 100 वर्ष है परन्तु उनका एक दिन हमारे 1000 चर्तुयुग के बराबर है तथा हमारे चारो युग ( एक चर्तुयुग) मिलाकर 12000 वर्ष होता है, उनका काम अधिक है ज्ञान अधिक है इसलिए लंबा जीवन जीते हैं
  • जिसका भी नाम रखा जाएगा उसकी मृत्यु अवश्य होगी तथा वे सभी जीव कहलाएंगे
  • इसलिए ब्रह्मा विष्णु महेश, सब जीव है

उपासना समर्पण योग, इसमें उपासना परमात्मा के समीप बैठना होता है, लेकिन अधिकतर केवल कर्मकाण्ड करते हैं परन्तु वे यह नहीं समझते कि ध्यान करना चाहिए तथा ध्यान से ही ईश्वर मिलेगे और जब ध्यान जब करते है तो इधर उधर का ध्यान लगता है तो क्या रात को सोने से पहले ध्यान कर सकते है

  • प्रत्येक साधक का अपना अपना बौधिक धरातल होता है
  • उसके पूजा के तरीके को देखते हुए हम यह नहीं कह सकते कि वह केवल मूर्ति के पास बैठा है या केवल फोटो के पास बैठा है तो उसके लिए वह केवल मूर्ति नहीं है बल्कि साक्षात भगवान है
  • हम अभी निचली कक्षा में ही है जो हमें अभी तक वह केवल फोटो दिख रहा है
  • भक्त की भावनाओं को हम ना देखे बल्कि अपनी भावनाओं के अनुरूप करे
  • इसलिए हम किसी की श्रद्धा को तोडे नहीं क्योंकि जब कान कान में ईश्वर है तो फोटो में भी वही ईश्वर होंगे
  • मुखय उददेश्य यह कि हमे लाभ मिल रहा है या नहीं फिर चाहे उसे सुबह दोपहर शाम कभी भी करे, माध्यम चाहे कोई भी बने
  • हम अपने को देखे कि हमारा मन कब अच्छे से लगता है, उस समय जप या ध्यान करे तो उसे सहज समाधि कहेंगे

गीता में आया है कि जो पुरुष सम्पूर्ण कामनाओ को त्यागकर निर्मम मै और मेरे का भाव तथा अंहकार और सप्रेय से रहित हुआ वह परम शांति को प्राप्त होता है जिसके बाद कुछ भी पाना शेष नही रह जाता, कृप्या इस प्रकार प्रकाश डाले

  • दिमाग में पदार्थ जगत के प्रति बार बार विचार उठ रहा है तथा वह वृत बना रहा है तो उसे चितवृति कहते है, जैसे-जैसे ज्ञान विकसित होता जाएगा व जानकारी मिलती जाएगी तो यर्थातता का बोध होते से उधर से उसके बारे में जाता हुआ भाव स्थिरता को पाएगा
  • किसी भी फल को जान लेगे तो उधर की तरफ उसका बाहाव रुक जाता है
  • ज्ञान के विकसित होने के साथ-साथ संसार के प्रति जो लगाव / भाग – दौड़ व चिपकाव वह अपने आप ही स्थिरता को पाएगा
  • स्थिरता में सुख लेने लगता है – उसमें उसे शांति व आनन्द मिलने लगती है तथा फिर वह अलग रहना पसन्द करता है
  • एकान्त में Nature का सुख लेने लगता है
  • हमे सार्वभौम तत्वज्ञान का स्वाध्याय मनन चिंतन का अनन्द लेना चाहिए
  • विशुद्ध तत्व ज्ञान व आत्मज्ञान के आधार पर जब संसार का आनन्द लेना शुरू कर देगा तो उसे भागदौड की आवश्यकता नहीं पड़ेगी

जो Nature के साथ अकेले रहना पसन्द करते है, क्या यह भी एक प्रकार की साधना ही है

  • जब वह साधना के मार्ग पर चलने लगेगा तो वह बीच बाजार में भी अपने को अकेला ही महसूस करने लगेगा
  • जहा भी हम किसी भी चीज को साक्षी भाव से देखते है तो अकेले ही है
  • खेल रहे है तभी कहा जाएगा कि आप Player है
  • जैसे जैसे ज्ञान विकसित होता जाएगा  तो वह संसार को साक्षी भाव में देखकर इतना आनन्दित होगा कि कहना ही नहीं
  • साक्षी चेतन्य बहुत अद्भूत भाव है, इसमें रहने का अभ्यास करे

वांग्मय 15 में आया है कि वामी शक्ति चिंगारी के रूप में हमारे मस्तिष्क के मध्य में विद्यमान है, वही सूक्ष्म व कारण शरीरो के दो पात्र प्रतिष्ठित है, ब्रह्मी कामधेनू दोहने वाली की इच्छानुसार इन पात्रो में से एक को या दोनो को भरती रहती है, यहा दो पात्र कौन से है क्या ये Pineal व Pitutary से संबंधित है

  • त्रिकुटि को ही ब्रहरंध्र कहते है
  • वहां पर हम देखेगे तो दो Parietal Lobe हमारे है, Right व Left
  • Right वाला आध्यात्मिक है, परा विज्ञान की जानकारी इसी भाग में रहती है और Left वाला Parietal Lobe,अपरा विज्ञान से सम्बन्धित है
  • लगने में ऐसा लगता है कि दोनो Parietal Lobes एक जैसा है परन्तु यहा दो एक जैसा इस बहाण्ड में कहीं नहीं है, एक ही पेड की दो पत्तिया भी एक जैसी नहीं मिलेगी
  • यहा अपरा विद्या व परा विद्या दोनों को साथ लेकर चलने की बात यहां की गई है
  • carpus collasum दोनो पट्टियो को जोडता है तो त्रिकुटि में हम ध्यान रखकर इन दोनो पांत्रो में Balancing / समत्व रखकर चलेगे तो लोक व परलोक दोनो का आनन्द मिलेगा
  • ये दो Lobes ॐ की दो पंखुडी हं व क्षं है
  • आपका भी चिंतन Pineal व Pitutary के रूप में इन दोनो को देखना सही है
  • Pineal Gland ज्ञान पक्ष / परा विज्ञान को Represent करता है तथा Pitutary Gland पदार्थ पक्ष / अपरा विज्ञान को Represent करता है
  • दोनो मिलाकर एक है
  • दोनो मिलकर ज्योर्तिलिंग का अर्घ बनाते है तथा यही ॐ है, एक तरह से जो हमें शिव मन्दिरों में दिख रहा है वह आज्ञा चक्र का ही फोटो है

जिन तीन शरीरो का साधारणतः अनुभव नहीं होता वे अपने अठिष्ठता देवताओं के जागृत होने पर स्थूल शरीर से भी अत्यन्त प्रत्यक्ष एवं सबल दिखाई देने लगते हैं, इसमें कारण शरीर का अठिष्ठता ब्रह्मा, सूक्ष्म शरीर का विष्णु व स्थूल शरीर का शिव को कहा गया है, का क्या अर्थ है

  • अठिष्णता = उसके भीतर की जो प्राण शक्ति काम कर रही है
  • एक  ज्ञान परक है तथा दूसरी सामर्थ्य/समृद्धि परक है व तीसरी शक्ति परक है
  • ईश्वर केवल भाव सवेंदना ज्ञान परक नहीं है, ईश्वर समृदि व सामर्थ्य के रूप में भी है
  • यही तीन शरीर भी है
  • स्थूल शरीर अथाह शक्तिशाली है, इसकी कोई सीमा नहीं है
  • इस स्थूल से भी अधिक शक्तिशाली सूक्ष्म शरीर है
  • कारण शरीर उस सूक्ष्म शरीर से भी अधिक शक्तिशाली है
  • प्राणमय कोश को हम जगा ले तो हमारे रोग दुखः भी समाप्त होगें तथा इन सभी शरीरो में बल भर देगा
  • प्राण के बिना शरीर कमजोर दिखाई पडता है तो उस भीतर के प्राण को जगाना जरूरी है
  • तैतरियोपनिषद् की ब्रह्मानन्द वल्ली में आया है कि अन्नमय की आत्मा प्राणमय तथा प्राणमय कोश की आत्मा मनोमय है. . . .
  • इसलिए आत्मा यहा अधिष्ठाता को कहते हैं
  • यहा अधिष्ठाता, ब्रह्मा विष्णु महेश को कहा है
  • इसका प्रभाव तुरन्त होने होने लगता है तथा इसका अनुभव भी तुरन्त हम लेते है जैसे प्राणायाम करने से सर्दी जुकाम भी तुरन्त खत्म होने लगता है

यदि कोई व्यक्ति दुष्चरित है परन्तु उसका कथन सही है, सकारात्मक है व ब्रह्मवाची है तो वह तो सही ही होगा या नहीं

  • यहा कुछ भी गलत नहीं हो रहा, हमारे अनुसार नहीं कोई कर रहा तो हम उसे गलत कह देते हैं
  • हम किसी ना किसी के सापेक्ष तोल रहे हैं इसलिए गलत दिख रहा है
  • सापेक्षता के सिद्वान्त में हर चीजे एक दूसरे के विरुद्ध गलत ही दिखती है
  • ईश्वर सत्य है
  • अवधूतोपनिषद् में अवधूत स्नान ही नहीं करता, वह कहता है कि हम क्यों स्नान करे, हवा हमसे छूकर स्नान करे, पानी हमसे छूकर स्नान करे व पवित्र हो वह कहता है कि हम पहले से ही पवित्र है तो वह कौन से बौधिक धरातल धरातल में जी रहा है तो उसी के आधार पर उसका पाप पुण्य सही या गलत होगा, यही इसके पीछे का तत्वज्ञान है
  • इसी प्रकार संन्यासी, जोड तोड की प्रक्रिया से परे हो जाता है

गीता का तृतीय अध्याय में कर्म की परिभाषा गीता को समझाने की कुंजी है, यज्ञ के अतिरिक्त भी पूरी दुनिया में लोग कछ न कुछ करते ही रहते हैं, कोई खेती तो कोई व्यापार तो कोई पादासीन तो कोई सेवा तो कोई अपने को बुद्धिजीवी कहलाता है तो कोई श्रमजीवी तो कोई समाजसेवा को कर्म मानता है तो कोई देशसेवा को, तो इन्ही कर्मो में लोग सकाम कर्म की भूमिका बनाए पड़े है किन्तु भगवान कहते है कि यह कर्म नहीं है तथा दूसरी तरफ कहते हैं कि यज्ञ की प्रक्रिया के अलावा जो कुछ भी किया जाता है वह बंधनकारी कर्म है, वस्तुतः यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है, कृप्या इसे स्पष्ट करे

  • ईश्वर के भाव से आत्मविकास के लिए कर रहे हो तो यह कर्म है क्योंकि हमें शरीर को भी स्वस्थ बनाना है तथा मन को भी स्वच्छ बनाना है, आत्मा को भी चमकाना है -> इस भाव में तो यह सही है परंतु सुख व दुख के भाव में रहकर करेंगे तो यह हमें बंधन में डालेगा
  • सुख भोगने के लिए यदि हम यज्ञ कर रहे हो तथा बीच में यदि मर गए (मरना शब्द शरीर के लिए ही आता है) तो फिर सुख का फल भोगने के लिए फिर जन्म लेना होगा तथा सुख भोगने के कम्र में तथा मजे लेने में फिर ढेर सारी गलतियां कर देंगे तो फिर दुखः भोगने के लिए फिर जन्म लेगे
  • इस प्रकार हम रस्सी के खूंटे से बाहर नहीं निकल पा रहे, फिर इस बंधन से निकलने का तरीका र्निलिप्त कर्म को बताए है
  • कर्म तो करे परन्तु उसमें लिप्त ना हो
  • गुण ही गुणो में बदलते है यह समझकर तुम उसमें लिप्त ना हो तथा क्रिया की  होती ही होती है, हम यह देखे कि कर्म किस भाव से कर रहे है तो दो बाते मुख्य है
  • Dutyfullness और Godliness, यदि हम करते हैं तो वह कर्म योग है

क्या गायत्री मंत्र को सृष्टि के कण कण में व्याप्त प्राण को माना जाय कृपया प्रकाश डाला जाय

  • बिल्कुल मान सकते है
  • गांयत्री वा इदम सर्वम -> यह छान्दग्योपनिषद् की घोषणा है, यह उपनिषद् कहता है कि मै सत्य हूँ
  • उप = Truth को छूता हुआ
  • नि = Absolute
  • षद् = ज्ञान
  • उस उपनिषद का यह कहना है कि
  • गायंत्री (= प्राण) सब जगह है
  • गया (संस्कृत में) = प्राण, त्रीं = संरक्षण
  • जो पूरे संसार का Preservation Conservation / सरंक्षण/ नवीनीकरण कर रहा है, वह प्राणिक Energy से ही चला रहा है तो सृष्टि का कण कण प्राण से ही बना है तथा सारा संसार प्राण के समुंद्र में ही लहलहा रहा है

  भागवत कथा में आता है कि दानव कुल में रहते बेटा का नाम राम रख देने से उसको परम धाम मिला इसके पीछे दर्शन क्या है

  • नामकरण के पीछे कुछ न कुछ Theme रहता है कि हम भले ही राक्षस प्रवृति के हो गए परन्तु हमारी संतान उस पथ पर ना चले
  • तुलसीदास
  • कोई भी शब्द जब हम उच्चारण करते है तो दिमाग में एक नक्शा बनता है तथा उसी के आधार पर Theme Develope होना शुरू हो जाएगा इसलिए नामकरण संस्कार में बच्चों के अच्छे नाम रखे जाते है        🙏

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