पंचकोश जिज्ञासा समाधान (21-02-2025)
कक्षा (21-02-2025) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
छान्दयोपनिषद् में आया है कि सन्पूर्ण प्राणियो व पदार्थो का रस पृथ्वी है, पृथ्वी का रस जल है, जल का रस औषधियां है, औषधियो का रस पुरुष है, पुरुष का रस वाक है तथा वाणी का रस साम है तथा साम का रस उदगीथ ओंकार है, यहा औषधियों का रस पुरुष है, का क्या अर्थ है
- जो भी हम फल फूल अनाज को खाते है तो शरीर में रस बनता है
- जो भी हम खाना खाते है उसे औषधि कहेंगे
- जब उस भोजन / औषधि को खाएगे तो पहले रस बनेगा, फिर रक्त बनेगा तथा अन्त में वीर्य बनेगा तथा वीर्य से शुक्राणु हो जाएगा, शुक्राणु अंडाशय में जाकर Fertilize करेंगे तथा फिर संतान उत्पन्न हो जाएगी, भोजन नहीं लेंगे तो संतान की उत्पत्ति रुक जाएगी, इसलिए कह दिया कि औषधियो का रस पुरुष है
- पुरुष का अर्थ जीव है
- भोजन = औषधि
- आयुर्वेद का प्राण वनोषधिय विज्ञान -> इसमें सब शामिल हैं
- धरती पर जो भी घास फूस खाने वाला या ना खाने वाला दिख रहा है, सब औषधि है
- भोजन के रस से वीर्य और वीर्य से संतान उत्पन्न होगा, उसी को पुरुष कह दिया
सावित्री कुण्डलिनी एवं तंत्र में आया है कि नर को नारायण बनने में तभी सफलता मिलेगी जब वह अनंत चेतना की दिव्य शक्ति स्रोत सविता देवता से अपने संबंध जोड़ेगा, सूर्य कितना तेजस्वी है, कितना समर्थ है यह जानने वाला सूर्यपुत्र बनने के लिए उसकी साधना कुंडली योग द्वारा करते तो हैं पर यह भूल जाते हैं कि अपनी सत्ता में दिव्य चेतना भी उसी मार्ग पर चलते हुए प्रखर बनानी होगी जिस पर चलते हुए एक तुच्छ सा अग्नि पिंड सविता के रूप में विकसित हुआ है, का अभिप्राय स्पष्ट करे
- हम जो साधना करते है तो केवल ध्यान तक ही सीमित रहते हैं, वो व्यवहार में नहीं आता
- ध्यान करते समय तो लगता है कि अग्निपिण्ड, अग्नि पुंज, ओजस, तेजस, वर्चस का सपना देख रहे होते है या फिल्म देख रहे होते हैं
- यदि इसी को शरीर में धारण कर लिए, रोके और वैसा बन गए तथा उसका दिन में Practical भी किए
- ध्यान मै शांतिमय हो गए तो दिन में वैसा शन्तिमय व्यवहार भी करे -> उस मार्ग पर चलने का अर्थ है कि उसका Practical Life में भी प्रयोग करे
- प्रज्ञोपनिषद में आया है, जब आशवलायन ऋषि कहते है कि धार्मिक लोग धर्म ग्रंथो का पाठ तो करते है, इतने भर तक सीमित रह गए
- इसके साथ में एक अध्याय और जोड़ना पडता है अपने आचरण में भी आदर्श – निष्ठा का प्रमाण प्रस्तुत करना पडता है, तभी उनके व्यक्तित्व में बदलाव दिखेगा, इसी को कहा गया है सविता के पथ पर चलते हुए आगे बढ़ना
आपने बताया कि हम ने जो पढ़ा उसे पूरे दिन आचरण में लाना है तथा शांति का पाठ पढ़ा है तो उसे अपने आचरण में पूरे दिन लाना है, तो यदि हम इतने सारे संकल्प लेते है कि रात दिन हम गुस्सा नहीं करेगे तो गुस्से का मैने व्यक्तिगत अध्यन यह किया है कि यदि दिन में एक क्षण मात्र को भी विस्मृति आ जाती है तो गुस्सा आ जाता है परन्तु आप कहते हैं कि धीरे धीरे वह नियंत्रण में होने लगता है, यदि हम क्रोध जैसे विकार पर काबू करना चाहे तो हमें 10 -20 साल या पूरा जीवन भी लग सकता है तो बाकी के विकारो पर कान कैसे हो या फिर सब विकारो को सथ लेकर चलना बड़ा मुश्किल सा लगता है
- सब विकार आपस में जुडे होते है, ईमारत का एक भी pillar ढहा तो सारे भरभराकर गिर जाते हैं
- एक साधे सब सधे, काम – क्रोध – स्मृति – बुद्धि सब एक साथ बनता है
- जैसे डायबिटिज होने पर सारी जड़ें High BP, Chelostrol बढ़ना . . . सब एक साथ शुरू हो जाती है
- एक Negative Thought के कारण सारे Hormones Disturbs होकर शरीर में न जाने कितनी बीमारियां या कितने रोग उत्पन्न हो जाते हैं
- एक राक्षस का मरना बहुत बड़ा बदलाव ला सकता है
- गुरुदेव गायंत्री की पंचकोशीय साधना में पृष्ट 1.9 पर लिखते है कि यदि हम 2 घंटा ईमानदारी से साधना करे तो 10 वर्ष पर्याप्त है परन्तु जहा शिथिलता बरती गई तो वहा अधिक समय भी लग सकता है
- 2 वर्ष एक कोश को जगाने में पर्याप्त है, हमें केवल 1 ही साल एक कोश को जगाने में लगा तथा 5 वर्ष पूरा पंचकोशों को पार करने में लगा
- हम अपने जूनून के साथ लगे तो जल्दी व तीव्र संवेग से भी इसे पाया जा सकता है तथा ईश्वर साक्षात्कार (Target) हमारे करीब आ जाता है तथा जिनमें सवेंग ना हो तथा केवल मनोरंजन भर के लिए साधना कर रहे हो तो फिर कोई बात ही नहीं
श्रीमद् भागवदगीता अध्याय 3, श्लोक 29 में आया है कि माया के गुणों से मोहग्रस्त होने पर
अज्ञानी पुरुष पूर्णतया भौतिक कार्यो में संलग्न रहकर उसमें आसत हो जाते है, यद्यपि उनके यह कार्य अज्ञान भाव के कारण अधम होते है किन्तु ज्ञानी को चाहिए कि उन्हें विचलित न करे, का क्या अर्थ है
- आसत्त है तो अभी उसे आसत्ती का मजा लेने दे, ज्ञानी हो गए तो दूसरे में आमूलचूल परिवर्तन ना कर डाले
- ज्ञानी है तो उसका एक बार में परिवर्तन करने का प्रयास न करे, गुरुदेव ने अणुव्रत का बहुत अच्छा उपयोग किया है, थोडी थोडी साधना से प्रयास किया जाए
- यदि वह आसत्त है तो पूरा का पूरा एक बार में नहीं छोड सकता, भले ही एक बुराई को छोड़ सकता है, विषयासुख नहीं छोड़ेगा, आपसे छिपकर करेगा
- ज्ञानी का अर्थ है जो चतुरता से Operation करे, ज्ञानी = चतुर चिकित्सक
- चतुर चिकित्सक धीरे धीरे विष को हटाता है, यदि वह रेचन भी करवाता है तो एक ही बार में ढेर सारा दस्त नहीं करवा देता तथा सारा पेट एक ही बार में साफ नहीं कर देगा, रेचन प्रणाली भी धीरे धीरे होती है
- उन्हे जिज्ञासा आ गई है तथा विषयासत्त है तो पहले दोस्त बनना होता है नहीं तो आपकी बात ही नहीं सुनेगा तथा ना ही आपकी सलाह सुनना भी चाहेगा
- पहले हम मित्र बनेंगे तब आपकी बात धीरे धीरे वे सुनने लगते हैं तथा उसके बाद भी सीधी भाषण से नहीं बल्कि कुश्ल क्षेम का समाचार लेते हुए बीच में कोई बात आए तो ले लीजिए
- हम अखंड ज्योति अलग तरीके से बांटते थे, अखंड ज्योति हम लेकर ही नहीं जाते थे तथा पहले किसी के पास संबंधी बनकर जाते थे, पहले घर का समाचार लेते थे तथा रोग दुख या समस्या की चर्चा भी होगी तथा हम बताएंगे कि हमें भी ये सारी परेशानियां थी परन्तु हमने जब इस प्रकार किया तो यह रोग दुख या परेशानी फटाफट भाग गई तथा यह जानकारी हमें अखंड ज्योति से मिली -> इस प्रकार Side से अपना काम करते थे
- नारद की तरह आग लगाकर चले जाना है फिर विष्णु अपने भक्त को संभाले, हम तो आगे बढ़े, यह शैली उपयुक्त है
- व्यसनो में लिप्त व्यक्ति को धीरे धीरे ठीक किया जाता है
मनुष्य का अचेतन मन ही चित्रगुप्त है तो मात्र गलत चिंतन का परिणाम कैसे बनता है, कृपया प्रकाश डाला जाय
- अचेतन मन = मन बुद्धि चित्त अहंकार वाला अंतःकरण ही चित्रगुप्त है, यह भीतर से गुप्त फोटोग्राफी लेता रहता है, हमने क्या सोचा ये सामने वाला भले ही नहीं जानता परन्तु भीतर वाला तो जान जाता हैं, तब उसी के अनुरुप दण्ड व्यवस्था है, सब Automatic System है, केवल एक चित्रगुप्त यमराज के पास बैठकर इतने कीडे मकौडे व जीव जन्तुओं का हिसाब किताब कर ही नहीं सकता
- इसलिए हर एक के शरीर में एक एक यंत्र / Agent लगा दिया है, इसे ही चित्रगुप्त कहते हैं
- यदि काया के भीतर है तो कायस्थ कहलाता है
- यही यदि नियंत्रककर्ता है तो इसे यम कहते है
- प्रश्न यह भी है कि मात्र गलत चिंतन का परिणाम कैसे बनता है, गलत चिंतन का पता चला तो कैसे Reaction होता है
- चिंतन EM Radiation का Projection / Firing है तथा यह चिंतन / विचार पूरे universe में जाएगा तथा कही तालमेल नहीं खाएगा
- तालमेल इसलिए नहीं खाएगा क्योंकि कण – कण में ईश्वर है तथा ईश्वर Negative नहीं है
- वह शांतिमय आनन्दमय है तो उसमें अपने गलत विचार कहीं तालमेल नहीं खाएंगे तो वहा से टकराकर अपने सहधर्मी विचारो को भी वापस खींचकर लाएगा तो वापस आकर शरीर में तरह तरह के रोग दुःख फोडे फुन्सी शुरू कर देगा
- विष्णु क्षीरसागर में सो रहा है तो इसका मतलब कि उसका ऑटोमेटिक सिस्टम बहुत बढ़िया से काम कर रहा है, क्रिया की प्रतिक्रिया के सिद्धान्त पर यह संसार बना दिया गया है
- Negative Thought से रोग होगें ही होगें, इसी को Psychosomatic Dieseases भी कहते है
यह देखा गया है की एक ही मां के दो संतान होते है और दोनो के nature में काफी अन्तर होता है क्या ये difference होने का कारण पूर्व जन्म के संस्कार होते है
- दोनो में संस्कार के कारण भी अन्तर आता है तथा ईश्वर का संकल्प भी है कि एक जैसा दूसरा पैदा नहीं करेंगे
- ईश्वर का संकल्प है कि एक से अनेक बने तथा सबसे अलग अलग काम लेना है नहीं तो गतिविधियां रुक जाएगी
- दोस्ती में भी Nature कुछ % (प्रतिशत) मिल सकता है परन्तु 100% कभी नहीं मिल सकता
- कभी भी एक व्यक्ति का विचार दूसरे से 100% नहीं मिलता
- एक पेड की दो पत्तिया तक नहीं मिलती
- सभी के मस्तिष्क व शरीर की बनावट अलग अलग है तथा इसी आधार पर सभी के खान पान अलग अलग होगें ही होंगे
- ईश्वर इतना बढ़िया इंजीनियर है कि वह कुछ भी डुप्लीकेट या Clone नहीं बनाता, इसलिए जुड़वा होगें तो भी अन्तर आएंगा, यह ईश्वर का ही सृजन है
- यदि कोई व्यक्ति एक क्षेत्र (वकील के रूप में) तेज है तो वही व्यक्ति दूसरे क्षेत्र (डॉक्टर के रूप में) कमजोर भी है
- संसार के सभी Particles एक दूसरे से जुड़े हुए है तथा एक दूसरे के पूरक हैं, यहां कोई भी स्वतंत्र नहीं है, सबके भीतर एक ब्रह्मसुत्र दौड़ रहा है
- हमें तालमेल / समायोजन बैठाकर चलना है
- समायोजन रो आध्यात्म कहते हैं
- शिव जी सभी मे अपने साथ लेकर चलते थे ।
एकोहम बहुश्याम तथा एको अहम द्वितियो नास्ति का थोड़ा वर्णन कीजिए
- जब उत्पन्न करना होता है तो संकल्प लेते हैं कि एक से अनेक बने
- जब मदारी ने अपने खेल में सब निकालकर रख दिया तथा एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की प्रक्रिया होती हे तो वह सब समेटता है
- जब समेटने की प्रक्रिया होती है तो संकल्प लेना होता है कि मै एक हो जाऊं, तथा संकल्प रहता है एको अहम द्वितियो नास्ति -> तब धीरे धीरे सारा पृथ्वी तत्व जल में घुल जाएगा, जल अग्नि में, अग्नि वायु में, वायु आकाश में, आकाश मन में, मन बुद्धि में, बुद्धि प्राण में, प्राण आत्मा में और आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाएगा
- जैसे खोला गया है वैसे ही समेटा जाएगा
- यही तरीका खोलने व समेटने का है
मकडी का जाल बनते हुए व समेटते हुए हमने नहीं देखा तो उस उदाहरण से कैसे समझे, हम Sorry बोलते भी है तो भी दूसरा उसे Accept नहीं करता तब मन और भी Negative व दुखीः हो जाता है तो ऐसे में हम कैसे Practical करे
- Sorry किस भाव से बोले -> यह महत्वपूर्ण है
- यह निर्भर करता है कि कितना चोट दिए हैं तथा कितना Sorry बोले है
- ढेर खट्टा डाले तो थोडा एक बूंद मीठा डालने पर वह मीठा नहीं बनेगा
- यहां सब क्रिया की प्रतिक्रिया के सिद्धांत पर चल रहा है
- मकड़ी जब धागे के रूप में जाल निकालती है तो उपर चढने पर वह उसे पीती जाती है, छोड़ती नहीं
- जब मकडी जाला बुनती है तो वह अपने टहलने के लिए या शिकार करने के लिए बनाती है परन्तु जब उलझने लगती है तो उस जाल को पी जाती है
- इसी प्रकार ईश्वर भी सारी सृष्टि को उत्पन्न करता है तथा अपने में समेट लेता है
- दत्तात्रेय ऋषि ने इसी के द्वारा ईश्वर को जाना इसलिए मकड़ी को भी अपना गुरु कहा, भले ही किसी भी प्रकार उन को ज्ञान मिला
गायंत्री महाविज्ञान में आया है कि जब सूतक लगा होता है या किसी की मृत्यु या जन्म होता है तो उस समय माला का जप न करने मानसिक जप करने की बात कही गई है, इसका क्या विज्ञान है
- प्रत्येक घर में व्यक्ति के दिमाग की बनावट अलग है, तथा वे हर कार्य मूहूर्त निकालकर करते है
- परन्तु जिन गायंत्री परिवार के घरो में नित्य यज्ञ होता हो, वह विधिवत् कलश स्थापना करके करते हैं
- हमारे दादा जी आचार्य कहलाते थे, वैष्णव थे तथा उनके शरीर छूटने पर 9 दिन बृहद यज्ञ हुआ था, निर्भर करता है कि व्यक्ति का बौधिक धरातल कैसा है
- किन्ही किन्ही के घर दीपक जलाकर या मानसिक जप करके भी यह किया जाता रहा है
- जिन्हे प्रतिदिन यज्ञ करने की क्रिया मालूम नहीं है तथा दिमाग मे छूत जैसा लगता हो वे मानसिक जप करे
मानसिक जप से ऐसा क्या लाभ मिलेगा जो माला जप करने से नहीं मिलेगी
- मानसिक जप में 1000 गुणा अधिक लाभ मिलेगा, मानसिक जप, उपाशु जप से श्रेष्ठ है
- मन को नहलाने के लिए यह उपाय श्रेष्ठ है
- Positive Thought ही मन का स्नान है
जो क्या साधक / गायंत्री साधक नित्य जप कर रहा हो तो उसके लिए तो किसी भी प्रकार के जप की कोई मनाही नहीं है
- उनके लिए कोई नियम लागु नहीं होगा, गायंत्री के तीव्र तेज से मूहर्त दोष सब भस्म हो जाते हैं
- मन्दिरो में कोई मर गया तो वहा उलटा कहावत चलेगा तथा लोग कह देंगे कि मोक्ष मिल गया, कुंभ में कितने लोग मर भी गए तो फिर भी वहा जाने वालो में कोई कमी नही पड रही
- घर में मरने पर सब रोने धोने लगते है तो यह अपने मन की बनावट के आधार पर ऐसा कर लेते है
- गुरुदेव ने जब शरीर छोडा तो केवल 3 घंटे के बाद सारी Classess, खाना पीना, यथावत रूप से चलने लगा था तथा कोई अन्तर नहीं था जैसे कोई घटना ही नहीं घटी हो, आत्मा तो मरती नहीं तो यहा सब बौधिक धरातल के आधार पर घटनाकम्र चलता है
- कोई घटना ही नहीं घटी तो किसके लिए क्या करे, आत्मा मरती नहीं तथा पदार्थ का स्वभाव ही परिवर्तनशील है, लाखों कोशिकाए मर रही है तथा जन्म ले रही हैं, प्रजनन चल रहा है, शमशान घाट शरीर में लगातार चल ही रहा है तो हम कैसे कह सकते है कि हम शुद्ध हो गए, हम नहाए भी है तो नहाते नहाते भी न जाने कितनी कोशिकाएं मर गई
- यह तो केवल हमने अपने दिमाग में बिठा लिया है कि इसे शुद्ध मानेंगे या इसे अशुद्ध मानेंगे
मन्दिर में यह सब बंद नहीं होती क्या यह शास्त्र सम्मत है या मजबूरी है क्योंकि मन्दिर में तो आने जाने वाले लगे रहते हैं
तथा इसी प्रकार Army के Commanding Officer की मृत्यु के बाद अन्य officer तुरन्त charge ले लेता है तथा युद्ध चलता रहता है
क्या ये दोनो ही शास्त्र सम्मत है या मजबूरी है
- यह विशुद्ध रूप शास्त्र सम्मत भी है तथा विज्ञान सम्मत भी है कि उर्जा का नाश नहीं होता तो किसके लिए शोक मनाया जाए
- यहा नष्ट ही कुछ नहीं हुआ तो शोक किसके लिए मनाया जाए तो शोक मोह से परे की बात यहा करे
- गीता में आया है कि यह शोक का विषय ही नहीं
- भगवान बुद्ध भी मृत शरीर को देखकर वैराग्य लिए थे परन्तु जब ज्ञान मिल गया तो मुर्दे को देखकर मुस्कुरा रहे थे कि कल तक वे अलग थे परन्तु आज अलग है, आज वे बुद्ध है तथा उनका देखने का तरीका बदल गया है
- आज उन्हे लग रहा है कि सब लोग किसके लिए रो रहे हैं तथा कोई मरा ही नहीं
क्या अंतिम संस्कार करना या मंत्र पढ़कर अंतिम संस्कार करना भी कोई आवश्यक तो नहीं
- ये केवल Disposal का तरीका है तथा इसी शरीर से दूसरो का शरीर बनेगा, सारा संसार उड़ती परमाणुओं का धूल भर है, यह Sterlize करने का तरीका भर है
- चिकित्सक भी Operation के बाद अपने औजारों को Sterlize करता है तथा फिर उपयोग करता है
- पारसी तरीके से किया वह संस्कार गलत है जिसमे चील कौए शरीर को खाते है
- भारतीय ऋषियों ने उसे स्वीकार नहीं किया क्योंकि चील व कौए उस मांस के टुकड़ा किसी के घर में भी गिरा सकते हैं, इसलिए Disposal भारतीय तरीके से Best माना गया, एक भी कारण उसके शरीर का ना रखा जाए तथा सब कुछ वायुभूत अग्नि में कर दिया जाए फिर वेद मंत्र बोलकर वह संस्कारित भी हो जाता है तो उसमें Positive charges भी आ जाते हैं
- अन्यथा जब उन्ही शरीरो से अन्य शरीर बनेंगे तो एक रावण मरा तो हजार रावण जन्म लेगें
- इसी प्रकार यज्ञौपैथी का यह Process है
- यह शरीर का Disposal है, ऊर्जा की एक निश्चित मात्रा है उसे हम घटा या बढ़ा नहीं सकते, केवल रूपांतरण भर किया जाता है
क्या मोक्ष मिलना भी Disposal का ही हिस्सा है
- यह हमारे संस्कार पर भी निर्भर करता है कि उसका आभामंडल कैसा रहेगा
- प्रेत योनी वालों के आभामंडल की काली किरणें होती हैं
- गायंत्री मंत्र से आहुति देने पर वह इन काली किरणो को झाड़ देता है
- या 10 दिन हम गीता का या कठोपनिषद् का पाठ करे तो ज्ञान के द्वारा इन काली किरणों को झाडा जाता है 🙏
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