पंचकोश जिज्ञासा समाधान (20-02-2025)
कक्षा (20-02-2025) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
गायंत्रीपनिषद् के पंचम कंडिका में आया है कि भर्गो देवस्य धीमहि का वर्णन किया गया है, व्रत से ही ब्राह्मण तेजस्वी, परिपूर्ण व अभिक्षीण होता है, को कैसे समझे
- व्रत (तपस्या) से ही ब्राह्मण तेजस्वी रहेगा, तप में सबसे बडा तप ब्रह्मचर्य है
- ब्राह्मण वह जो ब्रह्म को चरे
- जितने भी आत्मसाधक है वे सभी समाजसेवी लोकसेवी या शिक्षक -> ये सभी ब्राह्मण संज्ञक है, सभी समाज के Engine है
- ब्राह्मण समाज का मुख है, बुद्विजीवी वर्ग जिधर चलता है उधर अंधड तुफान की तरह सभी चलने लगते हैं, Engine को हमेशा मजबूत रहना चाहिए -> Godliness व Dutyfullness में रहना चाहिए, उसमें जो प्रखर रहेंगे वही समाज को दिया दे पाएगें
- हम रोज साधना स्वाध्याप संयम सेवा – यह तप है -> यही व्रत है
- संसार के कोई भी काम छुटे पर यह साधना ना छूटे
- साधना को यज्ञमय बना दे ताकि वह शरीर का हिस्सा बन जाए
- साधना का अर्थ यहा अपने को हर समय आत्मस्थिति में रखना -> इसी को तप कहा गया
- नियमितता से साधना बनाए रखने से दक्षता बढ़ती है इस संकल्प को बंधन नही कहा गया अपितु यह बंधन मुक्ति वाला संकल्प (व्रत) है
- व्रतशील जीवन जीते रहेंगे तो उपलब्धियां जीवन में मिलती रहेगी उन्ही उपलब्धियों को दक्षिणा कहा गया
- ईश्वर के प्रति श्रद्धा व प्रेम बढ़ता जाएगा,
- रिद्धि सिद्धी व अनुभूतियां बढ़ती जाती है और गति तेज होती जाती है
- श्रद्धा बढ़ने से आदर्शो से प्रेम बढ़ेगा तथा श्रद्धा से ईश्वर को पा लेगा
- इसलिए साधक अपने पांचो कोशो को मजबूत रखें, यदि पांचो कोशो में से कोई भी कोश कमजोर हुआ तो तेज कम हो जाएगा
वांग्मय 15 में आया है कि ब्रह्म की उपासना से जो लाभ मिल सकते है वह सब प्रकृति की भावानात्मक उपासना से भी मिल सकते हैं, क्या ब्रह्म और प्रकृति दोनो अलग अलग है
- प्रकृति व ब्रह्म को अलग नहीं कर सकते क्योंकि यदि दोनो को अलग कर दिया तो फिर यह वाक्य असत्य हो जाएगा कि ब्रह्म सर्वव्यापी है जैसे दुध में घी मिला हुआ है तो इसी प्रकार प्रकृति में ब्रह्म हमेशा घुला हुआ रहता है
- जहा जहा दुध है वहा वहा घी है
- घी केवल अकेले भी रह सकता है परन्तु दूध अकेले नहीं रह सकता, दूध में घी हमेशा रहेगा
- इसी प्रकार प्रकृति में ब्रह्म हमेशा घुला हुआ रहेगा, प्रकृति ब्रह्म का छिलका / वस्त्र / कलेवर है, प्रकृति में भावनात्मक शब्द का प्रयोग किया गया है
- प्रकृति में ब्रह्म को पाना है तो दुध में घुले हुए घी की तरह संपर्क जोड़ना होता है, इसे ब्रह्म सुत्र कहते है, इसी के लिए जनेऊ पहनाया जाता है
- इस संसार की प्रत्येक वस्तुओ में एक ऐसा आयाम है जो सबमें घुला हुआ है परन्तु किसी में लिप्त नहीं होता, उसमें अपना तादतम्य / Resonance बनाकर रखें तथा उसी Frequency में अपने आप को ले आओ
- प्रकृति ब्रह्म से निकली परन्तु प्रकृति में ब्रह्म घुला हुआ है
- उन्हीं (ब्रह्म) के चलते प्रकृति हलचल करती है
क्या भावना से प्रकृति को प्राप्त किया जा सकता है
- भावना से उसमें घुले ब्रह्म को पाएंगे
- यदि सामने से व्यक्ति गुजर रहा है तो हम उसका शरीर भी देख सकते है या आत्मा भी देख सकते हैं
- आत्मा को देखना शुरू कर दिया तो समझे कि ब्रह्म मिल गया, शरीर को देखते हुए भी हम उस शरीर को नहीं बल्कि उसकी आत्मा को ही देख रहे है, उस हालत में मिल जाएगी
दूसरो के यहाँ भोजन करने से कभी कभी बहुत शीघ्रता से मन पर असर पडता है कृपया प्रकाश डाला जाय
- इसका अर्थ यह है कि मन संवेदनशील हो गया है
- साधना करते करते मन इतना नाजुक/कोमल हो गया है कि थोडा सा भी बदलाव आने पर मन पर असर पडता है
- लंबे समय के जलाहार से शरीर के अन्दर के अंग बहुत Soft हो जाते है, फिर अचानक से भोजन को स्वीकार नहीं करते तथा जूस से शुरूवात करना होता है
- इसलिए जो साधक एक खास आहार का सेवन कर रहे हैं तो दूसरा आहार अचानक उनके भीतर एलर्जी उत्पन्न कर देगा
- लंबे समय तक नमक / मिर्च छोड दिया है तो अचानक से या एक दिन पहले Set नहीं करेगा तथा swelling भी कर सकता है
- शरीर में भीतर एक ऐसा System है जो अपने ढंग में रंग जाता है तो उसी के साथ तालबद्ध हो जाता है, उससे भिन्न कुछ भी होगा तो दिक्कत आएगी
- गुण ही गुणों में बदलते हैं, ये सभी के साथ ऐसा होता है, यह तत्वों का नियम ही है
- पांच प्रकार के तत्वों में दिक्कत पड़ जाती है
- राणा जी ने 100 दिन उपवास किया तथा फिर पाया कि साधारण भोजन भी नहीं पच रहा था फिर धीरे-धीरे अपने को उसके अनुसार Tolerant बनाना पड़ा
- लंबा भोजन वाला Practical नहीं करना चाहिए
- लंबा करना ही है तो लंबा वो करे जिसकी ताकत अधिक है जैसे मन / आत्मा या अन्य सूक्ष्म शरीर वाला करे
- मनोमय कोश प्रधान Practical करे अन्यथा शरीर को भी घाटा हो जाएगा
नादबिन्दुपनिषद् में सार में आता है कि मन के प्रभावित होने, मन के लय होने के विषय में आया है तो यह उपनिषद् किस प्रकार के मनोभूमि की अवस्था के साधको के लिए उपयुक्त है
- यदि पदार्थ जगत (मनोमय) पर अपना नियंत्रण चाहते हैं तथा यह संसार Sound (नाद) से चल रहा है, इसलिए ध्वनियों पर अपना नियंत्रण रखना पड़ेगा
- ध्वनि की उठक पटक आत्मा को विचलित न होने दे, इसी को नाद साधना कहेंगे ताकि हम प्रत्येक ध्वनियो में आनन्द ले सके, ईश्वर सर्वव्यापी है तो निश्चित ही वह हर ध्वनियों में भी घुला होगा
- ध्वनि की Outer Layer में ना जाकर भीतरी Layer में जाते हैं तो वहा आनन्द है, उसी को तलाशना नाद साधना कहलाएगा, उस अवस्था में हम ईश्वर को पा लेगें
- जो साधक आत्मानुसंधान में लगे है वे सफल होगे, वे अपने भीतर के तत्वों को ढूढ़ने में लगेगे, हम प्रत्येक ध्वनियों में ईश्वर को ढूढ़े, प्रत्येक नाद में उस बिंदु को खोजे जिससे हमें आनंद की प्राप्ति हो
हमने 2-3 साल से कोई दवा खाई नहीं तो अब थोडी दवा भी Reaction कर रहा है, इसका क्या कारण है
- दवा Reaction कर रहा है तथा रोग को भी हटाना है तो दवा के Nature को बदले
- ऐलोपेथ Reaction कर रहा है तो आर्युवैदिक दवा ले, वह Reaction नहीं करेगा, पौधो का शरीर से दोस्ती है
- ऐलोपैथ दवा Chemical से बना है, इसलिए वह शरीर को Set नहीं करता
- आर्युवेद का प्राण वनऔषधिय विज्ञान, वाले वांग्मय में 300 सब्जियों / औषधियों के बारे में जानकारी है, जो हम खाते हैं
- पहले वो दवा Reaction नहीं करती थी, क्योंकि पहले मजबूत शरीर था परन्तु अभी शरीर कमजोर कर लिया है
- इसलिए साधक को सत रज तम का per Day Practical करना होता है
- इसलिए गुरु जी ने लंबा संकल्प लेने को मना किए हैं
- संकलप हमें आत्मा का लेना था परन्तु हम पदार्थ का संकल्प ले लेते हैं
गांधी जी के सम्पर्क में जब गुरु जी थे तब उन्हे मल के तसले को धोने का काम मिला, तथा जब तसले को धोकर लाए तो उन्हे यह सीख मिली कि तसले को ऐसे धोकर लाओ कि उसमें भोजन कर सको, तो उसके पीछे क्या दर्शन था कि आत्मा पर चढ़े हुए मलों को हटाकर ही हम आत्मा का दर्शन कर सकते है या यह कोई अन्य दर्शन था
- गांधी जी यहा संयम का पाठ सीखा रहे थे, जितने में काम चल जाए उतने ही जल (पदार्थ) का उपयोग करो, बर्बाद मत करो
- गुरुदेव ने कहा कि लोक सेवा की भावना हमने गांधी के आश्रम में सीखा
- गुरुदेव ने कहा कि जीवन का एक नन्हा सा क्षण भी हमने निरर्थक नहीं जाने दिया
- आध्यात्मक छोटी छोटी चीजो में व कण कण में घुला है
- छोटी छोटी चीजों का हम ध्यान दे तो आध्यात्मिक कहलाएगें
- आत्म साधक तो गुरुदेव पहले से थे परन्तु यह उनका संयम वाला Practical था
- वे (गांधी जी) उन्हें संयम की शिक्षा सीखा रहे थे, स्वच्छता सफाई संयम यह सब रखो तथा यह भी व्यवहारिकता में आता है
- गुरुदेव भले ही आत्मा पर पडे कलेवर को साफ करने में इसका लाभ ले ले परन्तु यहा मुख्य उदेश्य यही था कि कोई भी काम हम करे तो Sincere होकर तथा भली प्रकार से ही करे
- गुरुदेव अपने साथ भी यही नियम अपनाते थे वे कहते थे कि जब भी अपनी थाली धोओ तो इस प्रकार धोना कि कोई भी व्यक्ति जब भोजन करे तो वह तुम्हारी ही थाली चुने
- प्रत्येक कार्य को हम ईश्वर का कार्य समझकर करे तो वह यज्ञ कहलाता है
गांधी जी ने अहिंसा के पथ पर चलकर
भगतसिंह व अन्य स्वतंत्रता सैनानियों का सहयोग नहीं किया, इसे किस प्रकार समझे
- किसी को कमजोर नहीं कह सकते
- गांधी जी ने उनकी (अंग्रेजो) बात नहीं मानी
- सहिष्णुता सबसे बडा तप है, बहुत बडा गुण है, इसकी भी महत्वपूर्ण भूमिका है
- आज का युग गुरु गोविंद सिंह के समय का है एक हाथ में माला + एक हाथ में भाला
- इसलिए सभी देवताओ ने भी धर्म की स्थापना तथा अधर्म का नाश दोनो लक्ष्यो को साथ लेकर चले
- गुरुदेव ने भी गांधी जी की अहिंसा नीति अपनाते हुए, चाकू मारने वाले को भी बचाने की कौशिश की
- अभी के समय में अंतःकरण में असुरता घुस गई है, तो हम उसकी गहराई में जाए कि वह ऐसा क्यों बना
- समाज ने बचपन से ही उसे सदगुण नहीं दिए, समाज पिण्ड नहीं छुड़ा सकता कि वह अपने से बन गया
- गुरुदेव समाधान के लिए जड़ तक जाना चाहते थे, क्योंकि ये बुद्ध का उतरार्ध प्रज्ञावतार थे, अभी न्यायपालिका को हाथ में नहीं ले सकते, उन दिनो आवश्यकता थी क्योंकि अंग्रेज हद से ज्यादा अति कर रहे थे तो हमें आत्मरक्षा के लिए यह सब करना पड़ा, दोनो की भूमिका वहा पर काम आ गई
- यह समय समय का फेर है, जब अपनी अस्मिता पर खतरा आ रहा है तो अत्याचार न सहो
- अंग्रेंजो ने एक बार कुछ महिलाओं के स्तन काट लिए तो उन्होंने गांधी जी से कहा कि आप ही ने हमें सहिष्णुता सीखाई है
- फिर गांधी जी ने कहा कि तुमने हमारी सहिष्णुता का मजाक बना दिया, यदि उसने तुम्हारे स्तन काट लिया तो तुम उसकीगर्दन काट देते, हम गांधी जी को इस ढ़ंग से समझ नहीं पाए
- भगत सिंह ने Assembly में बम्ब फैक दिया परन्तु अपना बचाव नहीं किए तथा स्वेच्छा से पकड़े गए थे तथा भागे भी नहीं
- मोती लाल जी ने भगत सिंह से कहा कि तुम यह स्वीकार मत करो कि यह कृत्य तुमने किया है, क्या तुम्हारे अकेले फांसी पर चढ़ने से आजादी मिल जाएगी परन्तु भगत सिंह नहीं माने और कहा कि उन्हें फांसी पर चढ़ना है, आजादी दिलाने के लिए वातावरण को गर्म करना जरूरी है, मेरे (भगत सिंह) मरने पर आजादी भले ही मिले या ना मिले
मंडलब्राह्मणोपनिषद् में आदिनारायण याज्ञवल्क जी को बता रहे है कि योग का अर्न्तलक्ष्य 4 प्रकार का है, पहला सहस्तार दल में दीप्तिमान ज्योति का ध्यान करें, दूसरा बुद्धि रूपी गुहा में सर्वागसुन्दर पुरुष का अर्न्तलक्ष्य किया जाए, तीसरा शीर्ष के अन्तर्गत स्थित मंडल के मध्य में पांच मुख वालें और उपमा सहित मर्कट भगवान शंकर का प्रसाद रूप से अर्न्तलक्ष्य किया जाए, चौथा अगुष्ठ मात्र पुरुषा का ध्यान करे तो इन चारों में से किसका ध्यान करे
- यह पात्र विशेष के लिए है, एक ही तरह का ध्यान सब के लिए काम नहीं आ सकता तो हमे यह देखना चाहिए कि जो आत्मा की साधना में लगे है तो उनके लिए अगुष्ठ मात्र पुरुषा -> छोटे सुर्य के रूप में आत्मा का ध्यान करे
- सूक्ष्म शरीर में करना है तो अपने हृदय में ध्यान करे
- कारण शरीर में करना है तो मस्तिष्क के बीचो बीच / त्रिकुटि / चिदाकाश में ध्यान करे, आध्यात्मिक सुर्य के रूप में आत्मा का ध्यान करे, यह सबसे सरल है तथा आत्मानुभूति योग में भी इसका ध्यान कराते हैं
जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने को कर्मो का कर्ता मान बैठता है जबकि वास्तव में वे प्रकृति के सत रज तम तीन गुणो द्वारा सम्पन्न किए जाते हैं, तो सत रज तम करने वाला तो आदमी ही है, उसमें भी तो सत रज तम है
- आदमी कर रहा है तो अपने को कर्ता मान लेता है परन्तु वास्तव में सत रज तम प्रकृति के गुण है तो वह यह नही जान पाता कि मै अलग हूँ तथा प्रकृति अलग है
- इसे जो नहीं देख पाते है, उनमें कर्तापन का अहंकार आएगा ही आएगा
- जैसे सत से मन बना है, रज से प्राण (प्राणमय कोश) बने हैं तथा तम से शरीर (अन्नमय कोश) बन गया, अपने को शरीर में रचा पचा मानेगें तो शरीर में थोड़ा भी दर्द बर्दाशत नहीं होगा,
- हमारा शरीर यदि गाडी में है तो यदि गाड़ी को ठोकर लग जाता है तो हम यह थोड़ी कहेंगे कि हमें चोट लग गया, वह तो गाड़ी को लगा है
- परन्तु हम अपने शरीर में इतना रच पच गए हैं, हम शरीर में ड्राईवर के रूप में अलग है परन्तु यहा पर हम अपने आप को गाड़ी मानने लगे हैं
- यही पर अन्तर आ जाता है
- अहम = अपने आप का बौधत्व / आकार / मान्यता
- हम अपने बारे में क्या मान्यता बनाकर जी रहे हैं, इसी के आधार पर अहंकार आएगा, कर्तापन का भाव आएगा कि यह हमने किया, यदि हम सोचे कि हमने किया या हमारे हाथ ने किया तथा हाथ आपका है नहीं तो कैसे बोल देंगे कि हमने किया
यदि हम यह माने कि सब परमात्मा ने किया तो तो ठीक है
- हमने नहीं यह परमात्मा ने किया तो ठीक है, फिर हर जगह यही लागु करना पड़ेगा
- फायदा होगा तब भी तथा घाटा होगा तब भी, ईश्वर को दोष मत दीजिए, फायदा हो या घाटा हो सब जगह केवल अच्छा अच्छा ही माने
- अक्सर हम यह करते है कि जहा लाभ मिलता है वहा कहते है कि हमने किया परन्तु घाटा जब मिलता है तो कहते है कि ईश्वर ने किया 🙏
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