पंचकोश जिज्ञासा समाधान (20-01-2025)
आज की कक्षा (20-01-2025) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
क्या मन और चेतना दोनो एक ही है
- इन्हे सापेक्षता के आधार पर समझ सकते है
- यदि आत्मा के परिपेक्ष में इन्हे लेगे तो चैतन्य तो केवल एक आत्मा ही है तथा उसके सापेक्ष में मन जड़ हो जाएगा
- प्राणमय कोश के सापेक्ष में मनोमय कोश चेतन कहलाएगा
- दो व्यक्तियों के बीच जो अधिक पढ़ा लिखा व्यक्ति चेतन कहलाएगा तथा कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति जड कहलाएगा
- इस दुनिया में जड़ नाम की वस्तु कोई है ही नहीं, क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापी है, ईश्वर चैतन्य है, वह कण कण में है
- यह जड़ चेतन का अन्तर केवल सापेक्षता के सिद्धात पर ही किया गया है
- समाधि की अवस्था में अपना मन जो एक तत्व है वह पूर्ण रूप से बुद्धि प्राण आत्मा में विलीन हो जाता है
हमारा Left Brain क्रियात्मक और Right Brain भावनात्मक गतिविधियों का संचालन करता है। उत्तरायण और दक्षिणायन में इनकी गतिविधियों पर कैसे प्रभाव पड़ता है? उनका संतुलन बनाए रखने के लिए साधक को क्या करना चाहिए?
- बाहर का उत्तरायण अलग तरह से 6-6 महीने के अन्तराल पर काम कर रहा है
- शरीर के भीतर भी उत्तरायण व दक्षिणायन होता है
- शरीर में दो Pole होते हैं
- सहस्तार चक्र उत्तरी ध्रुव व मूलाधार चक्र दक्षिणी ध्रुव है
- जब हम अपनी कुण्डलिनी का उन्नयन करते है तथा मूलाधार से सहस्तार तक एक एक चक्रो को जगाते हुए आगे बढते हैं तो नीचे से उपर के इस चक्र जागरण को उत्तरायण कहेंगे
- जब उपर से नीचे आते है तो दक्षिणायन कहलाएगा
- जब सुर्यभेदन प्राणायाम कर रहे होते हैं तो हम सुर्य को ग्रहण कर रहे होते हैं, यह सुर्य ग्रहण है परन्तु जब हम बाए से प्राण वायु खीचते है तो हम चंद्रमा / शीतलता को ग्रहण कर रहे होते है, यह चंद्र ग्रहण है
- बाहर का सुर्य ग्रहण व चंद्र ग्रहण पृथ्वी की परिकम्रा में छाया के परिपेक्ष में लिया जाता है
कठोपनिषद् में आया है कि ब्राहण क्षत्रिय आदि सभी जिस परमात्मा का ओदन (अन्न – आहार) माने जाते हैं, स्वयं मृत्यु (काल) जिसका उपसेचन (शाकादि या जल की तरह आहार का सहयोगी) है, वह जहां भी है, जैसा है, उसे भला कौन जान सकता है, का क्या अर्थ है
- ओदन = आधीन = उनके भोजन है
- ये जो भेद दृष्टि किया गया इसे मिटाया जाए
- ईश्वर सब में समान रूप से व्याप्त है, ऐसा नहीं है कि ईश्वर ब्राह्मण में अधिक है या क्षत्रिय / वैश्य / शुद्र में कम है
- हरि व्यापक सर्वत्र समाना -> इसे हमेशा याद रखें
- यहा कोई बडा नहीं है कोई छोटा नहीं है इसलिए सब मिलकर एकत्व समत्व की दृष्टि से देखे, जब तक यह दृष्टि नहीं आएगी तब तक आत्म साक्षात्कार होना असंभव है
- भेद दृष्टि को खत्म करने के लिए किसी न किसी प्रकार के ज्ञान का उपयोग करना होगा, इस ज्ञान को आत्मज्ञान कहते हैं -> इसके लिए स्वाध्याय के साथ-साथ Practical भी करना होगा कि ईश्वर सब में एक समान है
- सभी को एक समान देखने के लिए अपनी सारी बुद्धि तथा अपनी सारी पढ़ाई झोंक दी जाए – > ज्ञान का प्रयोग करना होगा
- उपसेचन = नाश्ता (हल्का भोजन)
- अपने भीतर घोलने की प्रक्रिया को भोजन कहते हे
- यदि हम ब्राह्मण( ज्ञान ) को बड़ा मानेंगे और कर्म नहीं करेंगे तो भी मोक्ष नही पा सकते
- काम भी करना है तथा कर्म से कमाना भी कर है
- सद्ज्ञान (गंगा) + सत्कर्म (यमुना) = सरसता (सरस्वती) आ जाएगी
- भीड में उमंग का वातावरण रहता है तथा सामूहिक साधना का भी अपना अलग Magnetism / महत्व होता है तथा यह भी काम करता करता है परन्तु यह स्थाई नहीं रहेगा क्योंकि यह आपके व्यवहार में नहीं है
प्रश्नोपनिषद् में आया है कि वह साधक यदि एक मात्रा वाले ॐ कार का ध्यान करता है तो उसके माध्यम से वह अति शीघ्र इस जगत को प्राप्त कर लेता है, वहा वह ब्रह्मचर्य तप व श्रद्धा से सम्पन्न होकर महिमावान होता है, दूसरा यदि वह द्विमात्रिक ओमकार का ध्यान करता है तो उसे यर्जुवेद के मंत्र अंतरिक्ष में स्थित सोम लोक मे ले जाते हैं, वहां विभूतियों का अनुभव करके पुनः वापस लौट आता है, जो पुरुष त्रिमासिक ॐकार के ध्यान द्वारा साधना करता है, वह तेजोमय सुर्य लोक को प्राप्त करता है, जिस प्रकार सर्प केचुली से मुक्त होकर बाहर जाता है, उसी प्रकार वह पापों से छूट जाता है और साम मत्रों द्वारा परम लोक को पहुंचा दिया जाता है, वह विद्वान इस जीवन हंस से श्रेष्ठ शरीरो मे प्रविष्ठ परमात्मा का दर्शन करता है यह दो श्लोक इस तथ्य के प्रतिपादक है, इसमें तीन भाग स्थूल सूक्ष्म कारण क्या है
- यहा पूरी विद्या को तीन भाग में बाट दिया, ॐ तो समग्र विद्या है
- गुरु अपने शिष्प को शिक्षा को 3 भाग में बाटकर पढ़ा रहा है
- भूर्भुवः स्वः -> भू लोक में यदि क्रिया कलाप कर रहे है तो भूलोक में प्रतिष्ठित होगे
- जिम में जाने से या किसान जब खेत में काम करेगा तो शरीर स्वस्थ होगा -> यह ॐ कार की एक मात्रा है
- परन्तु यह करकर हम विद्वान या साहित्यकार नहीं बन जाएंगे तो विज्ञान का एक अलग Layer है
- स्वास्थ्य का भी ध्यान करेंगे तथा Mental Development भी करेंगे, दोनों विषयो को लेकर चलेगे -> यही दो मात्रा के रूप में यहा बताया गया है
- तीसरा यह है कि यदि व्यक्ति इनके साथ साथ आत्मसाधना भी कर रहा है तो ब्रह्मवर्चस को बढ़ा रहा है तो तिहरा लाभ मिलता है – – > यही बात यहा बताई गई है
- इसे ज्ञान – कर्म – भक्ति या उपासना – साधना – अराधना या ज्ञान संसाधन शक्ति भी कह सकते है, यदि कोई व्यक्ति ज्ञानी, धनी व शक्तिशाली भी हो तो उस को भला क्या कह सकते है जिसके पास इंद्र का पराकर्म, कुबेर की धन सम्पदा दोनो है
- यह सब ॐ (परमात्मा) में मिलता है, वे सबके समुच्चय है
ब्रह्मबिन्दुपनिषद् में कहा जा रहा है कि साधक को स्वर अथवा प्रणव के द्वारा व्यक्त ब्रह्म की अनुभूति करनी चाहिए, इसके पश्चात अस्वर द्वारा अव्यक्क्त ब्रह्म का चिंतन करे, प्राणावातीत उस श्रेष्ठ परब्रह्म की प्राप्ति भावना के माध्यम से भाव रूप में होती है, अभाव रूप में नही,का क्या अर्थ है
- हमें पदार्थ जगत को भी जानना चाहिए, इसके कण कण में भी ईश्वर रमण कर रहा है -> यह अपर / विकार ब्रह्म है
- शरीर में स्थितआत्मा का भी ध्यान करे और पंच कोशो को हटा लेने के बाद भी उसकी स्थिति कैसी रहेगी -> यह अपर ब्रह्म है, परब्रह्म है, हमें त्रिपादस्यम् अमृतम देही के बारे में सोचना चाहिए -> इतनी सी बात यहा बताई गई है
- स्वर का अर्थ = ॐ सं सारा उत्पन्न हुआ तो ॐ को किसने उत्पन्न किया, वहा तक हमारी यात्रा जानी चाहिए, केवल ॐ तक ही फंसकर न रहें
- ॐ स्वर है, कंपन है, यही से हमारी इच्छा उठी तथा एक से अनेक बनना शुरू हो गया, एको ब्रह्म द्वितियो नास्ति -> ऐसा ब्रह्म भाव रखे तब सब के सब उसमे विलीन हो जाएगें, जहा से वह चला था
- तो हमारी यात्रा ॐ तक ही सीमित न रहे, ॐ आज्ञा चक्र का बीज मंत्र है, इससे ऊपर सहस्तार है
क्या शिक्षा विद्या के बिना मानवी गरिमा के लिए अहितकर होती है कृपया प्रकाश डाला जाय
- अहितकर होती है
- शिक्षा के विषय में परम पूज्य गुरुदेव व उपनिषद कहते हैं कि शिक्षा से जानकारी बढ़ती है, बाहर की जानकारियां भी संसार में रहने के लिए जरूरी है
- पृथ्वी पर Survival के लिए जो भी जानकारियां हम लेते हैं, वह सब शिक्षा के अन्तर्गत आएंगा
- भीतर आत्मसाधना भी करेंगे तो यह विद्या के अन्तर्गत आता है
- विद्या + संस्कार से अपने बारे में (आत्मा के बारे में) जब जानेंगे कि हर जगह ईश्वर है तो इस जानकारी से Behaviour बदलेगा, केवल जानकरी मात्र से Behaviour नहीं बदलता
- हमें कैसे संसार में रहते हुए अपना भी कल्याण हो तथा संसार का भी कल्याण हो, यह हमें विद्या सिखाएगा
- आज के इस समय में योग्यता व चरित्र दोनों गायब हैं तो कहेंगे की दुर्गति सुनिश्चित है
मन में उठे कुविचारों का आत्मज्ञान होने पर यदि यह सोंचा जाये कि ये विचार हमारे मन के थे, मेरे स्वयं की नहीं थी क्योंकि मैं तो आत्मा हूँ, तो क्या इससे मन में उठे कुविचारों के प्रभाव या कर्मफल से हम बच जाएँगे या नहीं ?
- नहीं बच सकते, मै आत्मा हूँ केवल यह सोच लेने से बात नहीं बनेगी, केवल कुछ कष्ट कम अवश्य होगा
- हमारे क्रियाकलापो के अनुरूप क्रिया की प्रतिक्रिया तो होनी ही होनी है, यह अकाट्य सिद्धान्त है, हम आँख मूंदकर भाग नहीं सकते
- किसी भी तरह का कार्य संसार में किया गया है तो फल उसका मिलेगा ही मिलेगा, पानी में कंकड फैक दिया तो छींटे पड़ेंगे ही पड़ेंगे
- छींटे पड गए तो उसे लेकर परेशान न हो
- कितना भी आत्मज्ञानी बन जाए वह कर्म फल नहीं कटेगा
- आत्मज्ञान से प्रारब्ध नष्ट होने की बात आती है कि आत्मज्ञान के बाद प्रारब्ध हमें कष्ट नहीं देगा, सिर्फ कष्ट सहने की शक्ति ज्ञान के द्वारा बढ जाती है तथा दुखः में भी व्यक्ति हंसता व मुस्कुराता रहेगा
- आत्मसाधना से आत्मा के गुण हमारे भीतर आएंगे ना कि उस कर्म के फल को काट देगा
- काटने का अर्थ यही है कि वह Inactive भर हो जाएगा, वह ShockProof हो जाता है
- जैसे शंकराचार्य व रामकृष्ण परमहंस ShockProof हो गए थे, वे जानते थे कि कोई रोग जैसे भगन्दर या कैंसर हुआ भी है तो वो शरीर को हुआ है हमें नहीं, शरीर साथ नहीं भी देगा तो भी हम यह कार्य करेंगे जिस कार्य के लिए हम आए हैं, इसके लिए उनकी भक्ति भावना उनका साथ दे रही थी
ऐसा प्रसंग मिलता है कि अवचेतन मन का संबंध ब्रह्मांडीय चेतना से जुड़ी होती है तथा चेतन मन द्वारा जैसा चिंतन उसमें संप्रेषित किया जाता है वैसी ही परिस्थितियाँ मनुष्य के जीवन में घटित होने लगती हैं, तो क्या हमारी वर्तमान और भविष्य के दशा और हमारी परिस्थितियों की मुख्य वजह क्या यही है ?
- समझ सकते है
- हमारे भीतर कई यंत्र है, हमारे भीतर Receiver भी लगा है, जो ब्राह्मण्डीय हलचलों को Receive भी करेगा तथा हमारे भीतर से उर्जा या शक्ति का Projection/Transmition का कार्य भी करता है जैसे वाणी के द्वारा, आँखो के द्वारा या विचारो से प्राणिक हिलिंग के द्वारा ताकि विचारो को विचारो से काटा जा सके
- Alpha Beta Theta Gamma किरणे अपने भीतर से कैसे निकाला जाए, यही हमें पंचकोश साधना में सीखना होता है
- Alpha State इन सभी Radiation को अपने Aura से काट देता है
- यही Alpha State अपने भीतर से आभामंडल का रक्षा कवच निकाल लेता है, जो दूसरों को नहीं दिखाई पड़ेगा, परंतु हमें दिखाई पड़ेगा और वह उन Radiations को काट देगा
- इसलिए कहा जाता है कि हम साधना से अपनी गतिविधियों से परिस्थितियों को बदल सकते हैं, सवार सकते हैं
- अपने Thought / विचार के Magnetic Field से परिस्थितयों को बदल सकते है
समुद्र मंथन में जो अमृत निकला था . . चरणामृत, वचनामृत, पंचामृत, शब्दामृत -> ये सब तो अमृत ही है, इस पर थोड़ा प्रकाश डालें
- आत्म साधना में कुण्डलिनी जागरण को समुद्र मंथन कहते है, ये सारे तरह के अमृत निकलेंगे
- अमृत = जो शरीर के भीतर की रोगों को हटाते है, मजबूत बनाते हैं
- गंगा जी भी किन्ही का चरणामृत है, विष्णु के चरणों से निकली
- इस सृष्टि में जो भी उत्कृष्टता आती है, वह गंगा है, ज्ञान भी गंगा है
- नाद योग को नाद की गंगा कहा है
- ये सभी अमृत आत्मसाधना से आते हैं
- समुंद्र मंथन = आत्मसाधना
जितने लोग मन्दिर बनवाएं हुए है वे पहले साधन सम्पन्न थे तथा बाद में गरीब हो गए, पहले जो भी लोग अधिक पूजा पाठ करते थे उनकी बहुत कष्टदायक मृत्यु हुई तथा उनके बच्चों को भी कोई विशेष लाभ नहीं हुआ तो इसे क्या समझा जाए, एक गांव में जब गए थे तो बहुत लोगों का ऐसा कहना था
- ये बाल बुद्धि वाले मस्तिष्क ही ऐसा सोच सकते है
- यह देखे कि जिसने मन्दिर बनवाया तो उसका मन्दिर बनवाने का उदेश्य क्या था कि हमारा धन राष्ट् की सेवा में लग जाए तो उतने में उनके नाम की प्रतिष्ठा और प्रशंसा भी हो जाती कि इन्होंने यह मंदिर बनवाया तथा उनका दाम सध गया -> इससे सुख दु:ख का कोई लेना देना नहीं
- असली में दुःख का कारण जीवन में आत्म साधना का न होना है
- जो आत्म साधना करेंगे तो सवाल ही नहीं होता कि वह किसी प्रकार के दुख कष्ट को झेलें, पंचकोश की साधना करें तो सवाल ही नहीं है कि आपकी कष्टप्रद मृत्यु हो, वह हसते हुए जियेगा तथा हसते हुए जाएगा
- जो पूजा पाठ भी करते रहे तथा घंटी डुलाते रहे, वे आत्मा साधना कहां किए
- अपने आचरण व्यवहार को कहा पर शुद्ध किया गया, इसे शुद्ध किया जाए
- यह एक प्रकार का विशुद्ध विज्ञान है
- मन्दिर में दान के साथ नाम लिखवाना तो एक तरह का Advertisement हुआ तथा कुछ वर्षों तक उसका नाम हो गया तथा लाभ भी मिल गया
- गुरुदेव को कुछ लोगों ने कहा कि हम शांतिकुंज बनवाने में इतना धन का दान करेंगे तथा फिर हमारा नाम कही लिखवा दीजिए, गुरुदेव ने कहा कि हम तीर्थ बना रहे है, कोई कब्रिस्तान नहीं बनवा रहे
कठोपनिषद् में आया है कि जिस प्रकार गर्भवती स्त्रियों द्वारा विधिवत्त गर्भधारण किया जाता है, उसी प्रकार जातवेदा अग्नि दो अग्नियों के मध्य स्थित रहता है तो क्या यह ईडा पिंगला सुष्मना से संबंधित है तथा आगे आता है कि यह प्रज्वलित होकर हवन सामग्री से युक्त पुरुषों द्वारा प्रतिदिन अस्तुत्य होता है, यही वह ब्रह्म है
- हर जगह वह बीच में रहता है, ईश्वर सम है, शरीर में ईडा पिंगला के बीच सुष्मना है तथा वहा आत्माग्नि है
- यदि हमने हवन किया तो पहले आग वहा नहीं था, अग्नि का शुद्ध रूप पाने के लिए दो लकड़ियो के बीच घर्षण कर के अग्नि उत्पन्न की गई या Convex Lens से भी आग लगाई जा सकती हैं
- वह आग इन्ही दो लकड़ियों के बीच छिपी थी
- हर जगह अग्नि है, Atom Bomb में परमाणु के भीतर दबी पड़ी है
- माता व पिता दो अरणी से पुत्र निकला
- इसकी सत्ता दोनो के मिलाने से आई
- कृष्ण ने विभूति योग में लिखा है कि समासों में मै द्वंद समास हूँ, द्वंद = जिसके उभयपद प्रधान हो = दोनो पद प्रधान हो, किसी को गौण नहीं किया जाएगा -> त्वमेव माता च पिता
- वह एक ही है परन्तु संसार को उत्पन्न भी कर रहा है पोषण भी कर रहा है, माता का भी गुण है और वह एक ही है तो इसका अर्थ कि आप ही माता है, आप ही पिता है
- Neutral में Null Point में ईश्वर रहता है
साधना से कुछ समय के लिए आनन्द महसूस होता है तो यह Life Time किस प्रकार बना रहे
- Life Time उस नियमावली का पालन करना पड़ेगा, संसार के क्रियाकलाप Life Time वाले है तथा वह संसार हर समय हर क्षण बदल रहा है तथा हमें नवीनीकरण के लिए अपने आप को उसके साथ तालबद्ध होकर बनाएं रखना होता है
- एक बार मकान में सफाई कर दिए तो जीवन भर वह मकान अपने से साफ नहीं रहेगा, उसमें हर क्षण गन्दगी भी जमा हो रहा है, उसमें हर रोज सफाई करना होगा
- Life Time करना ही है तो आत्म साधना में जाना पड़ेगा तो बाहर की परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होगें
- हमें बाहर से थोड़ा सुख मिल गया तो व्यक्ति भूल जाता है,
- हमें भूलना नहीं है बल्कि उससे (सुख दुःख से) प्रेरणा लेकर अपनी साधना को और तेज करते जाना है 🙏
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