Pragyakunj, Sasaram, BR-821113, India
panchkosh.yoga[At]gmail.com

पंचकोश जिज्ञासा समाधान (18-02-2025)

पंचकोश जिज्ञासा समाधान (18-02-2025)

कक्षा (18-02-2025) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-

गायत्रयुपनिषद् में मैत्रेय से मौदगल्य ऋषि कहते है कि वैदिक छन्द सविता के वरेण्य तत्व है, मेधावी पुरुष अन्न को ही उस देव का भर्ग बताते हैं, कर्म ही वह धी तत्व हु, जिसे प्रेरित करता हुआ वह देव गमन करता है, इसमें जो शब्द कहें गए वैदिक छन्द सविता के वरेण्य तत्व है, का क्या अर्थ है

  • इस संसार में सब कुछ है, कुछ को वरण किया जा सकता है तथा कुछ को वरण नहीं किया जा सकता
  • ईश्वर ने प्रत्येक प्राणियों के लिए कुछ वरेण्यम तत्व बनाए हुए हैं
  • मनुष्यों के लिए सबसे श्रेष्ठ वरेण्य तत्व क्या है तो वह ईश्वर / परमात्मा है तो फिर उस परमात्मा को प्राप्त कैसे किया जाए
  • वेद और छंद से परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है, वेद = आत्मज्ञान
  • गुरु के माध्यम से / स्वाध्याय के माध्यम से आत्मज्ञान को प्राप्त किया जाए
  • आत्म ज्ञान से श्रद्धा व तीव्र इच्छा विकसित होती है तथा practical करता है तो परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है
  • यही मनुष्य जीवन में सबसे अधिक वरेण्यम् तत्व संसार में है, अभ्यासों के द्वारा उसे अनुभव करने का प्रयास करें
  • गायत्र्युपनिषद् में वेदो का आधारभूत सिद्धान्त दिया है जिससे हमें यह पता चलता है कि वेदों से सृष्टि कैसे बनी

स्वाध्याय करने से ज्यादा सुनने में अधिक समझ आती है, पढ़ने से समझ नहीं आती तो इसके लिए क्या करे

  • यह भी एक अच्छा माध्यम है, इसी को सत्संग कहा जाता है
  • सभी का पढने का स्तर एक सा नहीं होता
  • टीचर बोलता तो सबके लिए बराबर है लेकिन कोई व्यक्ति अपनी योग्यता के अनुसार उसको अधिक गहराई पकड़ लेता है तो कोई कम पकड़ पता है
  • शिक्षक जब अपने अनुभव से पढ़ाता है तो वह उस विषय को अधिक सुपाच्य बना देता है
  • सुनने से यदि समझ आ रहा है तो यह भी अच्छी बात है, सत्संग का यही अर्थ है कि हम अपने से श्रेष्ठ लोगों के साथ रहे तथा उनके अनुभव से सीखने का प्रयास करें
  • जैसे-जैसे अंतःकरण का परिष्कार होता जाएगा तो फिर पढ़ कर के भी समझ में आने लगेगा, अभ्यास को बंद ना किया जाए तथा सुनने का भी अभ्यास किया जाए
  • जब तक हम स्वयं नहीं पढ पा रहे तब तक दूसरो का सुनकर लाभ लेते रहें

वांग्मय 15 में भौतिक क्षेत्र के सम्बन्ध स्वभावगत आलस्प व प्रमाद को परास्त करके अपने को नियमित व्यवस्थित सक्रिय बनाना होता है और साथ ही बर्हिरगं क्षेत्र के ईष्यालु प्रतिद्धदियो दुष्ट आक्रामक आतातायियो से अपनी आत्मरक्षा के लिए इतनी साहसिक व सहकारिता अर्जित करनी पड़ती है कि उसे देखते हुए आक्रामक दुष्ट प्रवृतियो का साहस ही स्थिल हो जाए और यदि वे दुसाहस करे भी तो उन्हे नीचा देखना पड़े, इस प्रकार तैयारी करने वाले भौतिक क्षेत्र में सफल होते है, उन्हे नीचा देखना पडे का क्या अर्थ है

  • नीचा देखना पड़े यह उनके लिए कहा जा रहा है जो आपको आपके मार्ग से डिगाना चाहते हैं
  • भौतिक क्षेत्र की / सांसारिक क्षेत्र की बात यहा की गई है
  • गुरुदेव पर लोगों ने बहुत लांछन लगाए परन्तु गुरुदेव में भी अदम्य साहस था तथा उन्हे कोई रोक नहीं पाया
  • जो सिद्धान्त पर चलता है उसका शुरू में विरोध होता है तो उसे सांसारिक कुरीतियों से लड़ने के लिए प्रचण्ड आत्मबल चाहिए

लोकसेवी समाज को शिक्षा दे या समाज के काम स्वयं करे कृपया प्रकाश डाला जाय

  • दोनो ही काम लोक सेवी को करने होते है
  • पहले अपने हाथ से करके दिखाना होता है कि जो उपदेश हम दे रहे है, वह हमारे आचरण में भी है तभी दूसरो को प्रेरित कर सकते है
  • गांधी जी भी इसी सिद्धान्त पर कार्य करते थे

उत्तेजना, आवेग और आहार में से आवेग व आहार का परस्पर गहरा संबंध है, संवेग के गडबडाने, घटने या बढ़ने से खुराक प्रभावित होती है तो यहा आवेग और संवेग को सकारात्मक या नकारात्मक विचारो से देखेंगे या क्या समझेंगे

  • विज्ञान की भाषा में momentum, संवेग है
  • संवेग भीतर  से भाव संवेदना जैसा निकलेगा, अन्तरात्मा से निकलने वाली स्फुरणा संवेग है
  • आवेग = हम दूसरो के लिए उसका क्या Response दे रहे हैं जैसे आदेश के रूप में
  • अपना भी एक आवेग होता है तथा एक अपनी अन्तरात्मा से निकलने वाली स्फुरणा
  • अपने भीतर के संस्कार भी हम पर हावी होते हैं तथा बवाल मचाते हैं -> यह आवेग है
  • एक विशुद्ध अन्तरात्मा से निकला हुआ ईश्वरीय भाव, इसकी स्फुरणा भी भीतर से ही निकलती है -> इसे संवेग कहेंगे
  • हमें संवेग के परिपेक्ष में आवेग को करना पडता है उसके निर्देश पर अपने भीतर से उठने वाले बबाल को नियंत्रित करे / दबाएं तथा गुरु के आदेश को महत्व दे, केवल अपनी बात न थोपते चले परन्तु भीतर की भी सुने
  • अपना वाला आवेग भाव कहता है कि हम केवल अपना सुनाते चलें
  • हमें अपने बातचीत में या स्वभाव (Behavior) में यह ध्यान देना होता है कि हमारा वह भाव संवेगात्मक हो तथा सामने वाले की स्थिति को देखते हुए नियंत्रित करना पडता है

आगे आता है कि हमार पूरा शरीर तंत्र व उसकी गतिविधियां संवेगों पर आधारित है, का क्या अर्थ है

  • जो Hypothalamus है, वहा कुछ हलचल हुआ तो वहा वो उसी प्रकार का Hormones निकालता है जैसे काटा चुभा तो ऐसा Hormone वहा से निकलता है कि बिना सोचे तुरन्त Reflex Action भी होता है
  • भीतर का System भी Automatic चलता रहता है
  • यदि हम दवा नहीं भी लेते तो भी हमारे भीतर शरीर एंटीबायोटिक को बनाकर इलाज करता रहता है
  • वो भीतर जो Antibiotic जो तैयार हुआ वो संवेग कहलाएगा
  • बाहर के अनुरूप हम Reaction करने लगते है = यह आपके आवेग है, हमारा अपना भी चिंतन अलग है तथा भीतर का Automatic System भी अलग है
  • हर जगह दोहरी सत्ता काम करती है, पृथ्वी अपने अक्ष पर भी घूमेगी तथा सूर्य की परिक्रमा भी करेगी
  • पृथ्वी यदि 365 दिनों में सूर्य की परिक्रमा नही करेगी तो सूर्य उसे अपनी कक्षा से बाहर निकाल देगा परंतु उसे अपनी धुरी पर घूमने की छूट है चाहे वह 24 घंटे में घूमे या 40 घंटे में एक बार घूमें
  • आपका अपना भी एक स्वतंत्र Routine है तथा आप किसी के Routine के अन्तर्गत भी कार्य कर रहे है

क्या संवेग को हम नियंत्रण करने लगते हैं

  • परा शक्ति सबसे बड़ी होती है
  • जब सुपर चेतन मन के साथ आप रहने लगेंगे तबआप अपनी इच्छा के दम पर अपने हृदय की गति को कम या अधिक कर सकते हैं

रस व प्राण मूर्छित होने पर समस्त रोगो को हर लेते है तथा मरने पर दूसरो को जला देते हैं तथा बंधने पर आकाश में गमन करने लगते है, का क्या अर्थ है

  • बंधने पर आकाश में गमन करने का अर्थ यह है कि प्राणो पर नियंत्रण होने लगता है तथा अपने प्राणो के द्वारा उडान भर सकते हैं
  • मूर्छित करने पर रोगो को हरने का अर्थ = उसे Sleeping Mode में डाल दे
  • जैसे जब हमें क्रोध आ जाए तो प्राणो को वहा मूर्छित कर डाले / दबा दे / Sleeping Mode में डाल दे तो आवेग को अपने नियंत्रण में ले सकते है
  • विष्णु ने मधु व कटैभ को मूर्छित कर sleeping Mode में डाल दिया
  • Gaba नामक एक cerotonin है, वह आवेश / आवेग / क्रोध पर नियंत्रण कर सकता है, Gaba को भी निकालना चाहिए
  • यह सभी विज्ञानमय कोश में आते हैं तथा इससे हम स्नायु रसायन के स्त्राव को हम नियंत्रित कर सकते हैं
  • स्नायु रसायन = रस -> यही रसायन रोगों का कारण भी बनता है तथा यही रसायन रोगों का समाधान भी करेगा
  • कुण्डलिनी = Bio Electricity = प्राण

गायंत्री हृदयम में आया है कि सृष्टि का निर्माण किस प्रकार हुआ, जब ज्योति प्रमाण जल से सर्वप्रथम जल की रचना की तथा फिर उस जल का अगुलियों के मंथन से बुलबुल हुए और बुलबुले से अण्ड हुआ, अण्ड से आत्मा, आत्मा से आकाश तथा आकाश से वायु उत्पन्न हुई, वायु से अग्नि, अग्नि से ओंकार शब्द उत्पन्न हुआ और शब्द को आकाश भी कह सकते हैं तो यहा, प्राण से पूर्व जल की रचना किस प्रकार हो सकती है

  • यहा जल का अर्थ रस / आनन्दमय रस है
  • सत् चित् आनन्द ईश्वर का शाश्विक गुण होता है इसलिए वह जो कुछ भी करेगा आनन्द के लिए ही करेगा तो आनन्द को एक समुद्र कहा जाता है, आकाश में हर जगह आनन्द घुला हुआ है, ईश्वर आनन्दमय है तो सबसे पहले आनन्दमयी रस को ही प्रकट किया
  • आनन्द में व्यक्ति ऐसा हो जाता है कि जहा उसी मस्ती आ गई वहा वह सब कुछ भूलकर पिघल जाता है तो उसी को आपः / प्राण तत्व / मूल तत्व कह दिया गया है, वही कारण भी है
  • आनन्द को लेने के अनेक तरीके स्वरूप से ही व्यक्ति आनन्द को खोजता है, सोने का आनन्द, खाने का आनन्द, खेलने का आनन्द, रति क्रीडा का आनन्द – > उसी आनन्द की ढेर Varieties को मंथन कहा
  • इस प्रकार एक से अनेक बनने के मार्ग में अलग अलग प्रकार का आनन्द लेने की उसकी कल्पना है – स्थूल का / सूक्ष्म का / कारण का -> अनेक Varieties का आनन्द ले
  • ईश्वर आनन्दमय है तो ढेर varieties के आनन्द ही सारे है, इस तरीके से सकल्पनाएँ चल पडी, हमे आनन्द लेना नहीं आता है / खेलना नहीं आता है -> इस संपूर्ण संसार में केवल आनंद ही आनंद है

  सुबह से शाम तक आत्म भाव में कैसे रहा जा सकता है। मै सिर्फ गुरु जी के चिंतन में रहना चाहता हूं। लेकिन जब मैं अपनी कार्य पर जाता हूं तो सांसारिक बातों में आ जाते हैं  फिर मैं सामान्य लोगो की तरह हो जाता हूं। तब मैं गुरु जी के सिद्धांत से अलग हो जाता हूं।

  • गुरुदेव ने भी कहा है कि हम आत्मभाव में रहे
  • आत्मभाव का अर्थ यह है कि हम कर्तव्य भाव में रहे, आत्मा ने जो हमारे लिए जो नियम बनाए बनाए है तो उसके अनुसार हम चले तथा आत्मा का Dicipline यह है कि हमें अपने कर्तव्य भाव से काम करना, जो Duty दी गई उसे पूरा करना
  • संसार भी हमारी Duty है, संसार को हम अपने कर्तव्य भाव से नहीं करते तो जो परमात्मा ने हमे यह कर्तव्य दिया है कि संसार का हर काम संसार को सुन्दर व प्रातिशील बनाने के लिए होना चाहिए
  • Duty करते हुए संसार की प्रगति का किस प्रकार ध्यान रखे, सोचे कि जो हमारे आस पास जो लोग हैं तो उनकी सुख शांति / प्रगति / आगे बढ़ाने के लिए हम कुछ कर पा रहे हैं
  • ये सभी व्यक्ति कोई भी हो सकते हैं हमारे साथ काम करने वाले कर्मी भी हो सकते हैं तो क्या हम सभी के प्रति दया करुणा भाव के साथ रहकर उनके लिए कार्य कर पा रहे हैं
  • यदि हम यह सब करेंगे तो आत्मभाव में ही रहेंगे, आत्म भाव के लिए अलग से कुछ नहीं करना  पडता है, ये तो आत्मा के गुण है तथा उनका अभ्यास करना पड़ता है
  • अभी अभ्यास हम लोग भगवान के पास में बैठकर करते हैं तो वह थोड़ा सा अभ्यास हमारा बहुत तेजी से बन जाता है कि उस समय उपासना कर रहे हैं ध्यान कर रहे हैं स्वाध्याय कर रहे हैं तो वह तो काम भी वही चल रहा है लेकिन प्रैक्टिकल रूप से हम लोग इन गुणो का अभ्यास अपने प्रैक्टिकल क्षेत्र में करें तो भी हम लोग आत्मा भाव में रह सकते हैं
  • तो जो भी हमें करना है है उसमें हमारा यही भाव रहे कि हम ईश्वर का ही काम कर रहे हैं तथा आत्मा के उद्देश्य को ही पूरा कर रहे हैं तो इससे हम आत्मभाव में रह सकते हैं
  • सांसारिक भाव से आत्मभाव के बीच तन्मात्रा साधना बहुत महत्वपूर्ण है, किसी ने यदि हमें कोई भी शब्द कहें तो हम समझ सकते है कि यदि किसी की मानसिक स्थिति ऐसी है तो वह व्यक्ति ऐसे ही शब्द कहेगा और यदि हमें देखने में कुछ अटपटा लग रहा है तो हर जगह जब एक ही ईश्वर है तो हम उसका वह रूप नहीं देख पा रहे तो उस समय सोचे कि एक आत्मा क्या देखती है तो आत्मा, आत्मा को ही देखती है
  • इन सबसे हटकर भी यदि हम देखें तो स्वाध्याय – मनन – चिंतन हमें आत्मभाव में रहने में बहुत मदद करता है, यदि कोई ऐसी स्थिति आ गई जो हमारे मन के अनुकूल नहीं हुई तो फिर जो है जो स्वाध्याय में जो हमने पढ़ा होता है उसका फिर प्रैक्टिकल करने का वही सबसे अच्छा समय होता है तब हम देखते है कि हमारा स्वाध्याय / ज्ञान हमारे मन की नकारात्मकता को हटा पाता है या नहीं हटा पाता
  • यदि वह स्थिति हमें संसार की तरफ खींचती भी है तो भी उसे ज्ञान के माध्यम से फिर से समझा कर, आत्मभाव में लेकर आना कि जो भी हम देख रहे है संसार में, यह सब वास्तविक सत्य नहीं है
  • इस प्रकार सांसारिक परिस्थितियों से प्रभावित हुए बिना हमें आगे बढ़ाना है तो स्वाध्याय से एक प्रेरणा जो हमें मिलती है तो वह प्रेरणा ही हमें संसार में गिरने से में रोकती है तो फिर ऐसी अवस्था में हम प्रसन्नचित्त अवस्था / आत्मभाव की स्थिति बना कर रखी जा सकती हैं
  • इस प्रकार के Practical का उपयोग ज्ञान के माध्यम से उस स्थिति में / वह स्थिति आने पर ही होगा जिस स्थिति में हम आत्मभाव से च्युत हो कर सांसारिक भाव में आ जाते है
  • जो विषय हमें विचलित कर रहे है वे सभी क्रियाएं सूक्ष्म स्तर पर हो रही है तो उसका समाधान भी सूक्ष्म स्तर पर ज्ञान के माध्यम से ही होगा
  • हम निरन्तर अपनी साधना बनाकर रखे तथा स्वाध्याय मनन चिंतन बहुत मदद करता है   🙏

No Comments

Add your comment